हिंदू समाज की विभाजनकारी स्थिति और एकता की आवश्यकता

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भारत में हिंदू समाज, जो जनसंख्या के लगभग 79.8% हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है, संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक है। हालांकि, यह संख्यात्मक बहुलता सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता में परिवर्तित नहीं हो पाई है। हिंदू समाज जाति, वर्ग, क्षेत्रीयता और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर कई हिस्सों में बंटा हुआ है। आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग, और सवर्णों में भी ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ जैसे उप-समूहों की मौजूदगी इस विभाजन को और गहरा करती है। इस लेख में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि हिंदू समाज की यह खंडित स्थिति उनकी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति को कमजोर करती है और इसे कैसे समझा और संबोधित किया जा सकता है।

हिंदू समाज का विभाजन: एक जटिल संरचना

हिंदू समाज की संरचना ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों का परिणाम है। इसकी जटिलता को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:

1. जातिगत विभाजन

हिंदू समाज में जाति एक केंद्रीय विभाजक कारक रही है। सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), दलित, और आदिवासी जैसे समूहों में समाज का बंटवारा सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बढ़ाता है। प्रत्येक समूह की अपनी परंपराएं, हित, और सामाजिक स्थिति हैं, जो एक सामान्य हिंदू पहचान को कमजोर करती हैं। उदाहरण के लिए, सवर्ण समुदायों में भी ब्राह्मण और ठाकुर जैसे समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा और तनाव देखा जाता है।

2. आदिवासी और क्षेत्रीय विविधता

आदिवासी समुदाय, जो हिंदू समाज का हिस्सा माने जाते हैं, अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं के कारण मुख्यधारा के हिंदू समाज से अलग-थलग रहे हैं। क्षेत्रीयता भी एक बड़ा कारक है—उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर, और पश्चिमी भारत के हिंदुओं की धार्मिक प्रथाएं, भाषा, और सामाजिक संरचना अलग-अलग हैं। यह विविधता एकता में बाधा बनी है।

3. आर्थिक और सामाजिक असमानता

हिंदू समाज में आर्थिक असमानता भी एक बड़ा विभाजक है। सवर्ण समुदायों का एक हिस्सा आर्थिक रूप से संपन्न है, जबकि दलित, आदिवासी, और OBC समुदायों का बड़ा हिस्सा सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित है। यह असमानता सामाजिक एकजुटता को कमजोर करती है, क्योंकि विभिन्न समूह अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं।
राजनीतिक दलों की भूमिका: विभाजन को बढ़ावा देना
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसे राजनीतिक दल हिंदू समाज के इस विभाजन का उपयोग अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए करते हैं। ये दल विभिन्न जातियों और वर्गों को अलग-अलग वादों और योजनाओं के माध्यम से लुभाते हैं, जिससे हिंदू समाज की एकता और कमजोर होती है। कुछ प्रमुख रणनीतियां इस प्रकार हैं:
1.जाति आधारित राजनीति: समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दल यादव, कुर्मी, और अन्य OBC समुदायों को लक्षित करते हैं, जबकि दलितों को बसपा जैसे दल अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने भी विभिन्न अवसरों पर दलित और OBC समुदायों को आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं का लालच देकर वोट मांगे हैं।
2. आदिवासी और क्षेत्रीय मुद्दे: आदिवासी समुदायों को अलग-अलग क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस ने अपने पक्ष में करने के लिए उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक मांगों को उठाया है, लेकिन यह अक्सर मुख्यधारा के हिंदू समाज से उन्हें और अलग करता है।
3. सवर्ण बनाम गैर-सवर्ण: कुछ राजनीतिक दल सवर्ण समुदायों को “वर्चस्ववादी” बताकर गैर-सवर्ण समुदायों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है।
इस तरह की राजनीति ने हिंदू समाज को “अगड़ा,” “पिछड़ा,” “दलित,” और “आदिवासी” जैसे खांचों में बांट दिया है, जिससे एक समग्र हिंदू पहचान बनाना मुश्किल हो गया है।
हिंदू समाज की स्थिति: बहुसंख्यक, फिर भी कमजोर
संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक होने के बावजूद, हिंदू समाज की यह खंडित स्थिति उनकी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति को कमजोर करती है। कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:
1. आंतरिक मतभेद: जातिगत और क्षेत्रीय मतभेदों के कारण हिंदू समाज किसी एक मुद्दे पर एकजुट होकर आवाज नहीं उठा पाता। उदाहरण के लिए, धार्मिक सुधारों या मंदिरों के प्रबंधन जैसे मुद्दों पर भी विभिन्न समूहों के बीच सहमति नहीं बन पाती।
2. राजनीतिक उपेक्षा: हिंदू समाज के विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग राजनीतिक दलों द्वारा अपने हितों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जिससे कोई एक दल हिंदू समाज के समग्र हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।
3. सामाजिक असमानता: दलित और आदिवासी समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय और आर्थिक असमानता ने हिंदू समाज के भीतर एक गहरी खाई पैदा की है, जिसे पाटना आसान नहीं है।
समाधान: हिंदू समाज में एकता की ओर कदम
हिंदू समाज की इस खंडित स्थिति को सुधारने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
1. सामाजिक सुधार: जातिगत भेदभाव को कम करने के लिए सामाजिक सुधार आंदोलनों को बढ़ावा देना चाहिए। शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से सभी हिंदू समुदायों को एक साझा पहचान के तहत लाया जा सकता है।
2.सामुदायिक संवाद: विभिन्न जातियों और वर्गों के बीच संवाद को बढ़ावा देना चाहिए। धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में सभी समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
3.आर्थिक समानता: दलित, आदिवासी, और OBC समुदायों के लिए शिक्षा, रोजगार, और आर्थिक अवसरों को बढ़ाकर सामाजिक-आर्थिक असमानता को कम किया जा सकता है।
4.राजनीतिक जागरूकता: हिंदू समाज को यह समझने की जरूरत है कि उनकी खंडित स्थिति का उपयोग राजनीतिक दल अपने हितों के लिए करते हैं। एकजुट होकर सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर आवाज उठाने की जरूरत है।
5. सांस्कृतिक एकता: हिंदू धर्म की साझा परंपराओं, जैसे रामायण, महाभारत, और प्रमुख त्योहारों (दीवाली, होली) को सभी समुदायों के बीच एकता के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया जा सकता है।

हिंदू समाज, हालांकि संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक है, लेकिन जाति, वर्ग, और क्षेत्रीयता के आधार पर बंटा हुआ है। यह विभाजन उनकी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति को कमजोर करता है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों की वोट बैंक राजनीति ने इस विभाजन को और गहरा किया है। हिंदू समाज को एकजुट करने के लिए सामाजिक सुधार, आर्थिक समानता, और सांस्कृतिक एकता पर ध्यान देना होगा। केवल एकजुट होकर ही हिंदू समाज अपनी वास्तविक शक्ति को पहचान सकता है और देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में प्रभावी भूमिका निभा सकता है।

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आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु

आशीष कुमार अंशु एक पत्रकार, लेखक व सामाजिक कार्यकर्ता हैं। आम आदमी के सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों तथा भारत के दूरदराज में बसे नागरिकों की समस्याओं पर अंशु ने लम्बे समय तक लेखन व पत्रकारिता की है। अंशु मीडिया स्कैन ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं और दस वर्षों से मानवीय विकास से जुड़े विषयों की पत्रिका सोपान स्टेप से जुड़े हुए हैं

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