क्या लेखक राजनीति के पीछे चलने वाला दलाल है?

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रंगनाथ राम

पिछले और मौजूदा निजाम में कई पुरस्कार बटोर चुके एक महात्मा ने अचानक से घोषणा की कि अब वे एंटी-सेकुलर फोर्सेज के खिलाफ निर्णायक यलगार शुरू कर रहे हैं। उन्होंने लम्बे-लम्बे फर्रे लिखने शुरू किये। कई सूरमाओं ने उनके लिए जी भर के ताली बजायी। उनके सेकुलर जिहाद का धारावाहिक प्रसारण जारी ही था कि अचानक 5 अगस्त आ गया। सेकुलर जिहाद की गाड़ी पर उन्हें पॉवर ब्रेक लगाना पड़ा। उनकी वॉल पर “सूई पटक सन्नाटा” छा गया। उसके बाद उनकी नींद केवल एक दिन खुली और उन्होंने लिखा कि गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर की प्रतिमा गिराना कोई बड़ी बात नहीं है, भारत में भी लोग मूर्तियों के संग तोड़फोड़ करते रहते हैं! एक तरह से महात्मा जी ने मूर्ति तोड़ने वालों के बचाव के लिए तर्क मुहैया कराने का कुकृत्य किया।

बांग्ला-देश में रविंद्रनाथ की प्रतिमा पर चढ़कर मूतने और फिर उसे तोड़ने के गहरे सांस्कृतिक निहितार्थ हैं। मेरे ख्याल से भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक इतिहास का यह ऐतिहासिक क्षण था। मैंने उसपर एक लम्बी पोस्ट लिखी थी लेकिन उसे फिनिश करने की फुरसत नहीं मिली तो उसे पोस्ट नहीं कर पाया था। मगर सच कहूँ तो रविंद्रनाथ वाली एक पोस्ट से वह लेखक मेरी नजरों में जितने गिरे उतने उसके पहले के विभिन्न मुद्दों पर अनगिनत वैचारिक मतभेद के बावजूद न गिरे होंगे क्योंकि मैं मानकर चलता हूँ कि लोकतंत्र परस्पर प्रतियोगी विचारों का तंत्र है मगर जिस लेखक के लिए राजनीति साहित्य से ऊपर हो जाए वह मूलतः लेखक नहीं है, बल्कि भाषा के अन्दर बैठा दलाल है। वह पोलिटिकली करेक्ट उपन्यास और कहानी लिखकर प्रसिद्ध और पुरस्कृत हो सकता है मगर वह लेखक नहीं हो सकता जिसे प्रेमचन्द “राजनीति के आगे चलने वाली मशाल” कह गये हैं और मैं उन्हें “राजनीति के पीछे चलने वाले दलाल” कहना पसन्द करता हूँ।

ऐसे ज्यादातर लेखक पहचान के संकट से मुक्त होने के लिए जवानी के जोश में दो-चार पठनीय कहानी-कविता लिखकर “बौद्धिक दलाली” के क्षेत्र में उतर जाते हैं। उसके बाद आजीवन वे प्रकाशक द्वारा पीछे से धक्का देकर आगे पहुँचाए जाने को अभिशप्त होते हैं। उनकी किताब झटपट छप जाएगी। किसी स्वजातीय द्वारा अनूदित हो जाएगी। अन्य स्वजातीय द्वारा पुरस्कृत हो जाएगी। किसी अन्य स्वजातीय द्वारा लाइब्रेरी में खरीद ली जाएगी। स्वजातीय समारोहों में बतौर लेखक सुर्खरू होते रहेंगे मगर मरने के 50 साल बाद वो दलाल के रूप में भी याद नहीं किए जाएँगे, लेखक होना तो दूर की बात है।

आज ऐसे ही एक अन्य लेखक चित्त से उतर गये। उन्होंने एक दशक पहले बांग्लादेश पर एक मोटी सी किताब लिखी थी। वे इंग्लिश दाँ हैं मगर अपने प्रोफाइल में “जय बांग्ला” (वस्तुतः जय हिन्द के काउंटर में) लिखते हैं मगर आज वे यह कहते हुए पाए गये कि बांग्लादेश में जो हो रहा है वह उसका “आंतरिक मामला” है! दोगलापन और दलाली का ऐसा कॉकटेल! जाहिर है कि उनका वही हश्र होगा जैसा सीपीए-परस्त के कई बुद्धिजीवियों का सिंगुर-नन्दीग्राम के समय हुआ था। उनका बरसों से ओढ़ा हुआ केचुल उतर जाएगा।

लेखकों के अन्दर इस प्रजाति के वर्चस्व ने लेखकीय संज्ञा की स्वायत्तता खत्म कर दी है। इनसे अच्छे वे दरबारी लेखक होते थे जो जीवनयापन के लिए दरबारी साहित्य लिखते थे और साहित्य सेवा के लिए वह भी लिखते थे जो वे लेखक के तौर पर लिखना चाहते थे! अमीर खुसरो और गालिब का दरबारी साहित्य आज भुला दिया गया है क्योंकि वह जिस मकसद से लिखा गया था वह उसी समय पूरा हो गया था। मगर आज का कथित वामपंथी लेखक आइडियोलॉजी साहित्य के अलावा अपनी लेखकीय आत्मा के लिए भी कुछ लिख रहा है क्या?!

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