रंगनाथ
आप लोगों को याद होगा कि इसी साल अगस्त में शेख हसीना के तख्तापलट के कुछ दिन बाद साहित्यकार मधु कांकरिया जी के ढाका स्थित मित्र ने उन्हें बताया था कि वहाँ “कुछ तनाव जरूर है” मगर मीडिया “जिस प्रकार के खूनखराबे की बात करके उत्तेजना फैला रहा है, वह गलत है! साहित्यकार भावनाप्रधान होते हैं। उनके मित्र भी वैसे हों तो हैरत नहीं होनी चाहिए। भावनाप्रधान होने का एक परिणाम ये होता है कि व्यक्ति विपत्ति के समय डिनायल मोड में चला जाता है। आपने गौर किया होगा कि किसी अत्यन्त निकट के व्यक्ति के निधन के बाद उसके बेहद करीबी लोग यह मानने से इनकार कर देते हैं कि ऐसा हुआ है। ऐसे लोगों को मृतक की देह का दर्शन कराया जाता है। कई लोग ऐसी खबर सुनकर बिल्कुल रोते नहीं तो परिजन प्रयास करते हैं कि वे डिनायल मोड से बाहर आ सकें और कटु यथार्थ का सामना करके रो सकें।
मधु जी तब मेरे फेमित्र नहीं थी। मैंने उनकी पोस्ट दूसरों द्वारा शेयर किए जाने के बाद देखी थी। तख्तापलट के कुछ दिन ही बीते थे। उनकी पोस्ट पर बहुत सारे भावुक हिन्दी साहित्यकार और उनके भावुक समर्थक इस बात से खुश थे कि ढाका से आ रही खबरें बस “उत्तेजनावादी” मीडिया फैला रहा है, जमीनी हालत वैसे नहीं हैं। वरिष्ठ साहित्यकारों की सीधी आलोचना करने से मैं बचता हूँ मगर पत्रकार होने के नाते मैंने इसपर लिखा जिसे मधु जी ने सहृदयता से लिया। उन्होंने अपना पक्ष भी रखा। तब से अब तक चार महीने से ऊपर हो चुके हैं। बांग्लादेश को लेकर भारतीय मीडिया डिनायल मोड में जा चुका है। जबतक कोई ऐसी खबर न आ जाए जिसे दबाया न जा सके तबतक ढाका भारतीय मीडिया की नजरों से ओझल रहता है। इसका एक कारण ये भी हो सकता है कि हिन्दी मीडिया के पास अपने झमेले इतने हैं कि उनमें घी डालने से फुरसत नहीं मिलती होगी। खैर, हम ढाका की बात कर रहे थे।
साहित्यकारों के उलट पत्रकार घटना को करीब से देखते हैं। पत्रकार का मूल काम यही है कि वह दावों-बयानों के भूसे के ढेर में छिपी तथ्य की नुकीली सूई को खोजकर निकाल सकें। मिल जाने के बाद वह सूई किसे चुभेगी यह सोचना जनता का काम है। यदि किसी साहित्यकार को हिंसक तख्तापलट के दस रोज बाद किसी मित्र के कहने पर लगने लगता है कि ढाका में ‘कुछ तनाव जरूर है’ मगर बाकी सब ठीकठाक है तो वह सामान्य बात है मगर किसी पत्रकार को ऐसा लगता है तो वह अपने पेशे में मिसफिट है या फिर जमीनी खबरों से उसका नाता टूट चुका है।
किसी फेमित्र की कृपा से मुझे वरिष्ठ पत्रकार सुवोजीत बागची की 18 नवम्बर की एक पोस्ट दिख गयी। उनकी वह पोस्ट आप नीचे तस्वीर में देख सकते हैं। सुवोजीत जी ने अपने फेमित्रों को बताया है कि ढाका में सब लोग मिल जुलकर नाच रहे हैं! सुवोजीत बागची द हिन्दू, बीबीसी और आनन्द बाजार पत्रिका में पत्रकार रह चुके हैं इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि वे इस पेशे में मिसफिट हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे जमीन से कट चुके हैं क्योंकि बंगाल को काटने के बाद बचे हिस्से में वो दशकों से रह रहे हैं और ‘फॉल ऑफ ढाका’ पर लिखते भी रहे हैं।
सुवोजीत जी की पोस्ट के लिए कौन से कारण जिम्मेदार हैं, यह वही जानें मगर मुझे हैरत हुई कि कई दशकों तक बंगाल में पत्रकार रहने के बावजूद एक होटल या हॉल के अन्दर चल रहे नाचगाने के हवाले से वे अपने कल्पना लोक के ढाका में “यहाँ तो सब शान्ति शान्ति है’ के म्यूजिक पर थिरकने लगे! सुवोजीत जी डांस फ्लोर पर थिरकने भले लगे हों मगर उन्हें याद दिलाना चाहूँगा कि ऐसी ही हरकतों की वजह से साहित्यकार पत्रकार से दो कदम आगे माना जाता है। जिस हिन्दी गीत का मैंने ऊपर तंज में इस्तेमाल किया उसके मुखड़े में गीतकार समीर की साहित्यिक प्रतिभा सुवोजीत बागची को देखनी चाहिए,
“ये शहर अमन है, यहाँ की फिजा है निराली, यहाँ पर सब शान्ति शान्ति है”
जिसने भी यह फिल्म देखी होगी उसे पता है कि जिस क्लब में “यहाँ पर सब शान्ति शान्ति” गीत बज रहा है, वहीं पर वे सभी पात्र मौजूद हैं जो अशान्ति के सूत्रधार हैं। सिचुएशन देखिए और सॉन्ग देखिए। सुवोजीत जी ने जिस कार्यक्रम की तस्वीर शेयर की है, उसकी सिचुएशन फिल्म जैसी नहीं होगी मगर वहाँ के नृत्य-लिप्तता से ढाका का माहौल जज करना किसी पत्रकार के लिए उचित नहीं है। सुवोजीत बागची ने 18 नवम्बर को पोस्ट लिखी है और महज सात दिन बाद 25 नवम्बर को बांग्लादेश से जुड़ी चन्द खबरों के शीर्षक देखें-
– पहली बार लालन फकीर के मेले का आयोजन नहीं होगा
(हिफाजते इस्लाम के विरोध के कारण)
– बांग्ला अखबार प्रथम आलो और डेली स्टार के ढाका स्थित दफ्तर के बाहर धरना-तोड़फोड़
(हिफाजते इस्लाम के लोगों द्वारा)
– इस्कॉन मन्दिर के पुजारी कृष्ण दास ढाका एयरपोर्ट से गिरफ्तार
(उनपर हिन्दुओं पर हो रहे हिंसक हमलों के खिलाफ विरोध मार्च निकालने के बाद मुकदमा किया गया था)
ये तो बड़ी खबरें हैं जो बांग्लादेश से बाहर तक पहुंच गयी। ऐसी बड़ी खबरों के नींव में अनगिनत छोटी खबरें दबी रहती हैं। उम्मीद है इतनी बात सुवोजीत जी भी समझते होंगे।
हो सकता है कि कुछ प्रतिभाविहीन कवियों को समीर में साहित्यिक प्रतिभा देखना बुरा लगा हो। उनके लिए उसी “शान्ति” का साहित्यिक सन्दर्भ भी दे रहा हूँ, बकौल पाश,
सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना
सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर आना
साहित्यकार इसीलिए पत्रकार से आगे होता है क्योंकि वह शान्ति के अन्दर छिपे खतरे को पहचान सकता है। मगर एक वरिष्ठ पत्रकार इतना तो कर सकता है कि वह खुद शान्ति से पूछ ले, तुम जिन्दा हो या मुर्दा!