‘नारीवाद’ को मजहबी मर्दवादियों ने अपना पालतू बना कर रख छोड़ा है…

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रंगनाथ

योगिता लिमये बीबीसी इंग्लिश की रिपोर्टर हैं। मैंने उनकी अनगिनत रिपोर्ट देखी हैं। पहली बार उन्हें ऑन-स्क्रीन देखकर दुख हुआ। कुछ दिन पहले उन्होंने तालिबान प्रवक्ता का साक्षात्कार किया। तालिबान नेता ने आमने-सामने बैठकर इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया। उनके साथ फोटो खिंचवाने से भी मना कर दिया। इतना ही नहीं, इंटरव्यू देखकर पता चलता है कि योगिता जी को हिजाब पहनने के लिए तैयार होना पड़ा।

योगिता जी से पहले भी सीएनएन, बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन इत्यादि के पत्रकार तालिबान या उनके जैसे संगठनों की ऐसी शर्तों को स्वीकार करते रहे हैं ताकि इंटरव्यू मिल सके। साफ है कि तालिबान जैसे संगठन अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करते मगर अंतरराष्ट्रीय मीडिया इंटरव्यू पाने के लिए अपनी विचारधारा से समझौता करने को तैयार हो जाते हैं। हालाँकि इसके कुछ सुखद अपवाद भी हैं।

अभी दो साल पहले ईरान के राष्ट्रपति द्वारा इंटरव्यू के लिए हिजाब पहनने की शर्त रखने CNN की महिला पत्रकार ने शर्त मानने से इनकार कर दिया था। करीब तीन दशक पहले एक इतालवी पत्रकार ने ईरान के मजहबी लीडर खुमैनी जी के सामने ही हिजाब हटा दिया था। आज भी वह घटना ‘आजाद औरतों’ की प्रिय कहानी में एक है।

पिछले कुछ सालों में कई लड़कियों ने हिजाब के विरोध में अपनी जान दी है। सैकड़ों को जेल की सजा हुई। पितृसत्तात्मक ताकतें हमेशा महिलाओं को यह अहसास दिलाती रहती हैं कि वह दोयम दर्जे की शय हैं। इसके लिए वह कई तरीके अपनाती हैं जिनमें हिजाब-बुरका-घूँघट सबसे प्रचलित औजार है।

सामान्य लड़कियाँ मजबूर होती हैं मगर सक्षम आधुनिक पेशेवर महिलाओं से उम्मीद की जा सकती है कि वह पर्दा प्रथा की महिला विरोधी चरित्र को ध्यान में रखते हुए इस तरह के समझौते न किया करें।

तालिबान की विचारधारा में यकीन रखने वाली वयस्क महिलाएँ उनके अनुसार जीने को स्वतंत्र हैं, मगर जो महिलाएँ तालिबान की सोच से साबका नहीं रखतीं उन्हें इस तरह के फौरी समझौते नहीं करने चाहिए।

पिछले कुछ दशक की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि नारीवाद को मर्दवादी मजहबी और राजनीतिक विचारधाराओं ने पालतू बना लिया है। महिला विचारकों में मजहब और दल देखकर राय बनाने की कुप्रवृत्ति जड़ जमाती जा रही है। अगर महिला विचारकों ने अपना न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं बनाया तो पिछले 100 साल में अर्जित स्पेस को वह धीरे-दीरे च्वाइस के मायाजाल में फंसकर खो देंगी।

हिन्दी समाज की शर्मिष्ठाएँ ययातियों के हाथ की कठपुतली बनी घूम रही हैं तो उनसे भी मुझे ज्यादा उम्मीद नहीं है। मगर इंग्लिश समाज की जबालाओं को कुछ समय पहले अमेरिका में गर्भपात के अधिकार को लेकर आया यूटर्न याद होगा। कहाँ हम सोच रहे थे कि जबाला जैसी स्वतंत्र आत्मनिर्भर स्त्री भविष्य की रोलमॉडल बनेगी कहाँ दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क “बच्चा पैदा करने की मशीन” बनने को च्वाइस की तरह स्थापित करने की तरफ बढ़ता दिखने लगा है!

पता नहीं योगिता लिमये हिन्दी पढ़ती है या नहीं, पता नहीं उन्होंने मजाज लखनवी का नाम सुना है या नहीं, मगर उन्हें जानने वाला कोई यह पोस्ट पढ़े तो मेरी तरफ से उनसे यह जरूर कहे,

तेरे माथे पर ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।

(फेसबुक से)

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