राजनीति में तथाकथित समाजवाद का दुष्प्रभाव

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एस. के. सिंह

भारतीय संस्कृति में “समाज” (समम अंजंति इति समाज) अर्थात् सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया है। पुनः सबको साथ लेकर चलने में ऊर्जा शक्ति ‘संबंधों’ से मिलती है। लाखों वर्ष पूर्व उपनिषद्कारों ने समाज शब्द का का वृहत् उपयोग किया है। अतः इस दृष्टिकोण से देखें तो ‘समाजवाद’ शब्द जो हाल के समय से प्रयोग में लाया जाता है प्रयोग में वृहत् नहीं है बल्कि यह संकीर्ण है। ‘वाद’ पर आधारित व्यवस्था और सोच हीं आधुनिक विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। जहां भी वाद आया, वहाँ समस्या बढ़ती चली गयी। उल्लेखनीय है कि ‘वाद’ का हीं विस्तार समाजवाद, साम्यवाद , आतंकवाद, पूंजीवाद आदि है। यूरोप ने पहले समाजवाद नामक व्यवस्था लाया , जब यह असफल हो गया तो पूंजीवाद लाया। यह व्यवस्था भी वहाँ क़रीब-क़रीब धँसने के कगार पर है। हमारे नीति-निर्माताओं ने बिना सोचे-समझे एक असफल व्यवस्था को अपनाया पुनः जो व्यवस्थ पतित हो गई उसे हम अभी भी लेकर चल रहे हैं।

आज पुरे देश में सबको साथ लेकर नहीं, तुष्टीकरण के माध्यम से “कुछ को साथ लेकर चलने की प्रक्रिया” ही समाजवाद के रूप में उभरी है। इसके कारण राजनितिक तुष्टिकरण ने समाजवाद का स्थान ले लिया है। माना जाता है कि समाजवाद न केवल विभिन्न क्षेत्रों में, बल्कि सभी सामाजिक रैंकों और वर्गों में भी धन की असमानता को कम करेगा। इसके विपरीत राजनीति में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एक नया वर्ग उभरा है, जो समाजवाद के नाम पर असमानता पैदा कर रहा है और धन इकट्ठा कर रहा है। भारत में समाजवाद के नाम पर परिवार के नेतृत्व वाले राजनीतिक दलों द्वारा जमा की गई शक्ति और संपत्ति को उजागर करने की जरूरत है।

भारत में समाजवाद एक राजनीतिक आंदोलन है जिसकी स्थापना 20वीं सदी की शुरुआत में औपनिवेशिक शासन से भारतीय स्वतंत्रता हासिल करने के व्यापक आंदोलन के एक हिस्से के रूप में की गई थी। इस आंदोलन की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी क्योंकि इसने जमींदारों, राजसी वर्ग और जमींदारों के खिलाफ भारत के किसानों और मजदूरों के हितों का समर्थन किया। आजादी के बाद और 1990 के दशक की शुरुआत तक समाजवाद ने भारत सरकार की कुछ आर्थिक और सामाजिक नीतियों को आकार दिया।

आपातकाल के दौरान 1976 के 42वें संशोधन अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द जोड़ा गया था। इसका तात्पर्य सामाजिक और आर्थिक समानता से है। इस संदर्भ में सामाजिक समानता का अर्थ केवल जाति, रंग, पंथ, लिंग, धर्म या भाषा के आधार पर भेदभाव का अभाव है। सामाजिक समानता के तहत सभी को समान दर्जा और अवसर प्राप्त हैं। इस संदर्भ में आर्थिक समानता का अर्थ है कि सरकार धन के वितरण को अधिक समान बनाने और सभी के लिए एक सभ्य जीवन स्तर प्रदान करने का प्रयास करेगी।

कांग्रेस और वाम मोर्चे के अलावा, भारत में अन्य तथाकथित समाजवादी और धर्मनिरपेक्षपार्टियाँ सक्रिय हैं, विशेष रूप से समाजवादी पार्टी, जो उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव द्वारा गठित जनता दल से निकली थी और अब उनके बेटे अखिलेश यादव के नेतृत्व में है। बिहार ने कर्पूरी ठाकुर, लालू-राबड़ी शासन और उसके बाद समाजवाद के नारे पर नीतीश कुमार का शासन देखा है। वाम दलों ने खुद को प्रासंगिक बनाने के लिए जब भी जरूरत पड़ी, उनका समर्थन किया है। चिराग पासवान जैसी परिवार संचालित पार्टियाँ, जिन्हें अपने पिता स्वर्गीय राम विलास पासवान से कमान मिली थी, भी समाजवादी राजनीति का अनुसरण करने का दावा करती हैं। भारतीय जनता पार्टी अपनी जरुरत के अनुसार समय – समय पर मुलायम और नीतीश को समाजवादी मानती है।

इन सभी तथाकथित समाजवादी पार्टियों में एक बात आम है कि वे जाति को जीवित रखने और मुस्लिम समुदायों के वोट हासिल करने के लिए तुष्टीकरण की कार्रवाई करके सत्ता हासिल करने की कोशिश करते हैं। एक समय था जब बिहार में स्वर्गीय रामविलास पासवान मुस्लिम समुदाय का वोट हासिल करने के लिए ओसामा बिन लादेन जैसे दिखने वाले एक मुस्लिम व्यक्ति के साथ हवाई यात्राएं कर रहे थे। अब उनके बेटे का दावा है कि उनके पिता सच्चे समाजवादी और उदारवादी थे। स्थिति का विरोधाभास यह है कि बिहार के तथाकथित बुद्धिजीवी चिराग पासवान के साथ फोटो शूट कराने और उन्हें प्रगतिशील गिनने के लिए एक-दूसरे से होड़ करते हैं।

इन सभी तथाकथित समाजवादी पार्टियों के एजेंडे में एक बात छिपी हुई है कि ये वोट के लिए पिछड़ेपन और तुष्टीकरण को बढ़ावा देना चाहते हैं। हकीकत यह है की मुस्लिमों के वास्तविक प्रोग्रेस करने के लिए उनके शिक्षा और बेहतर जीवन शैली पर किसी को कोई दिचस्पी नहीं है। भारतीय जनता पार्टी अपनी सुविधा के अनुसार चिराग पासवान और नीतीश कुमार जैसे छोटे दलों के साथ भी गठबंधन कर लेती है।

भारतीय जनता पार्टी बिहार के वास्तविक विकास के प्रति उदासीन है और इसका प्रमाण है – कुछ साल पहले केंद्र में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार ने बिहार में एक तथाकथित अति पिछड़ी जाति से राज्यपाल सह चांसलर नियुक्त किया था, जिसने उत्तर प्रदेश से लगभग आधा दर्जन कुलपति नियुक्त किए थे, जो पहले से ही भ्रष्टाचार और गबन के आरोपों का सामना कर रहे थे। राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार बिहार के उप मुख्यमंत्री के रूप में तार किशोर प्रसाद और रेनू देवी का चयन और नियुक्ति प्रशासनिक कौशल की कीमत पर अति पिछड़ी जातियों को खुश करने का एक राजनीतिक कदम था। यह तथाकथित समाजवाद के दुष्परिणामों को दर्शाता है।

बिहार में कांग्रेस लालू यादव के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनता दल जैसे भ्रष्ट राजनीतिक दलों का समर्थन करती है, जिन पर आपराधिक आरोप लगाए गए हैं और अदालत द्वारा आपराधिक रूप से दोषी पाया गया है। विडम्बना यह है कि इस देश के बुद्धिजीवी और वामपंथी दार्शनिक सामाजिक न्याय के नाम पर इन तथाकथित परिवार संचालित समाजवादी पार्टियों के राजनीतिक एजेंडे की वकालत करते नहीं थकते। जबकि सच्चाई यह है कि लगभाग इन सभी तथाकथित समाजवादी और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों ने सार्वजनिक धन का दुरुपयोग किया है और वंचितों के हितों की कीमत पर राज किया है, जो सामाजिक और राजनीतिक रूप से बेहतर व्यवहार के हकदार थे। जननायक कर्पोरि ठाकुर के शिष्य होने का दावा करने वाले लालू और नीतीश ने बिहार की राजनीति का मजाक बना दिया है। सत्ता हासिल करने के लिए लालू कर्पूरी ठाकुर को कभी “कपटी ठाकुर” कहते थे और सार्वजानिक रूप से उनकी बेइज्जती करते थे।

बिहार में वामपंथी दल लगभग अलोकतांत्रिक हो गए हैं और समाजवाद तथा इंकलाब के नाम पर एक ही व्यक्ति दशकों से शीर्ष पद पर काबिज है। भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व वोट पाने के लिए जरूरत पड़ने पर अपना रंग बदलता रहता है। भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली सरकार ने उत्तर प्रदेश में खास वर्ग तथा जाति के वोट पाने के लिए मुलायम सिंह यादव जैसे व्यक्ति को पद्म विभूषण से सम्मानित किया और हाल ही में कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न से सम्मानित किया। कांग्रेस पार्टी ने अपना समाजवादी चरित्र खो दिया है और वे अस्तित्व के लिए क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की शरण में चले गए हैं।

कार्ल मार्क्स ने बताया है कि जाति व्यवस्था की तुलना में वर्ग व्यवस्था अधिक प्रभावशाली है और यह बात भारतीय राजनीति और विशेष रूप से बिहार में साबित हुई है। पिछडे वर्ग की राजनीति पार्टी से निकले परिवार के कुलीन नेता व्यवसाय चलाते हैं, जैसे तेजस्वी यादव, चिराग पासवान आदि समाजवाद के नाम पर शाही जीवन जीते हैं और अब वे ज्यादातर उच्च जाति के अमीर और प्रभावशाली लोगों से घिरे हुए हैं क्योंकि उनके वर्ग को समृद्धि की आड़ में बदल दिया गया है।

समाजवाद के नाम पर बिहार में हाल ही में हुई जाति जनगणना ने देश में सत्ता के खेल के लिए लोगों को विभाजित करने का एक नया खतरा पैदा कर दिया है और दिलचस्प बात यह है कि भाजपा सहित सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसका समर्थन किया है। समाजवाद के नाम पर सभी राजनीतिक दलों द्वारा समर्थित बिहार की जाति जनगणना बिहार सरकार द्वारा एक राजनीतिक और सामाजिक धोखाधड़ी है। जाति सर्वेक्षण का उपयोग जानबूझकर कुछ जातियों की जनसंख्या को उनकी वास्तविक जनसंख्या से अधिक दिखाने और कुछ जातियों की जनसंख्या को कम दिखाने के लिए किया गया था। इस तथ्य का प्रमाण यह है कि अत्यंत पिछड़ी जाति और अगड़ी जाति के कई समूहों ने सार्वजनिक प्रदर्शन के माध्यम से जाति सर्वेक्षण के खिलाफ नाराजगी जताई। अयोध्या में राम मंदिर की लहर के लिए धन्यवाद, यह जाति सर्वेक्षण निहितार्थ कम हो गया है, अन्यथा यह भारत के अन्य राज्यों में सामाजिक उथल-पुथल पैदा कर सकता था।

लालू और कांग्रेस नेताओं का नारा – “जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी” भारत को लबनान जैसी स्थिति में पहुंचा देगा। बिहार के सीमांचल की जनसांख्यिकी पहले से ही काफी बदल गई है और बहुत जल्द यह एक गंभीर समस्या पैदा करने वाली है। बिहार पीएफआई का केंद्र बन गया है और यह बिहार की सभी सरकारों की तुष्टीकरण नीति का परिणाम रहा है।

९१७१ तक लेबनान भारत की ही तरह एक विभिन धर्मों के समूहों का एक देश था जहाँ पर क्रिस्चियन बहुल आबादी थी और मुस्लिम अल्पसंख्यक थे। लेबननन कि राजधानी बेरुत को किसी समय पेरिस ऑफ़ डी ईस्ट कहा जाता था। अच्छे सोच वाले लोग वहां रहते थे। सिनेमा की शूटिंग करने के लिए लोग वहां जाते थे। 60 के दशक की मशहूर हिंदी सिनेमा ‘आँखे’ की शूटिंग के कुछ दृश्य बेरुत के हैं। लोग अन्य जगहों से वहां पर छुटियाँ मनाने जाते थे। इसको एक तरह से सांस्कृतिक रूप से यूरोप के एक्सटेंशन के तौर पर देखा जाता था।

20 वर्षो में लेबनान की जनसांख्यिकी बदल गयी। मुस्लिम अल्पसंख्यक से बहुसंख्यको गए। उसके बाद जनसँख्या के प्रतिनिधित्व के आधार पर लेबनान में राजनितिक भागीदारी सुनिश्चित होने लगी। परिणाम यह हुआ कि वहां के क्रिस्चियन समाज के लोग लेबनान छोड़ कर भागने लगा। गृह युद्ध होने लगा। हिजबुल्लाह जैसे आतंकी संगठन अपनी पैठ बनाने लगे। इन आतंकी संगठनों को पडोसी मुस्लिम देशो से फंडिंग होने लगी और आज लेबनान कि गिनती आतंकवादी देश के रूप में शुमार है।

दरअसल बिहार में राजनीतिक उथल-पुथल और अस्थिरता समाजवाद के नाम पर राजनीतिक और सरकारी संस्थाओं के पक्षपातपूर्ण रवैये का परिणाम है। सत्ता में बने रहने के लिए भारतीय जनता पार्टी साहित सभी राजनीतिक दलों के छद्म समाजवादी दृष्टिकोण को जनता के सामने बेनकाब करने का समय आ गया है। चूंकि बिहार समाजवादी राजनीति की प्रयोगशाला के रूप में उभरा है, इसलिए सभी राजनीतिक दलों के छद्म सामाजिक एजेंडे को बिहार में सुधारना उचित है। बिहार के 2025 विधानसभा चुनाव से पहले समर्थ बिहार इस मुद्दे को एक राजनीतिक मुद्दे के रूप में उठाएगा।

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