चीन के विस्तारवाद को संस्थागत करने के लिए राजतंत्र की पुनःस्थापना की माँग

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विनय यादव

काठमांडू – राष्ट्रीय एकता अभियान के अध्यक्ष विनय यादव ने कहा कि नेपाल में राजतंत्र की पुनःस्थापना की माँग का मुख्य उद्देश्य चीन के विस्तारवाद को संस्थागत करना है।

राष्ट्रीय एकता अभियान, काठमांडू द्वारा आयोजित “राजतंत्र में चीनी विस्तारवाद” विषयक विशेष चर्चा कार्यक्रम में उन्होंने यह विचार व्यक्त किया। इस कार्यक्रम में विभिन्न विश्लेषकों, राजनेताओं, शिक्षाविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कलाकारों ने भाग लिया। उन्होंने नेपाल के राजाओं द्वारा लिए गए नीतिगत निर्णयों के माध्यम से चीन के रणनीतिक हितों को किस प्रकार साधा गया, इस पर विस्तार से चर्चा की।

कार्यक्रम में मधेश प्रदेश संपर्क समिति के संयोजक बिनोद सिंह ने मुख्य कार्यपत्र प्रस्तुत किया। उन्होंने पृथ्वीनारायण शाह से लेकर ज्ञानेन्द्र शाह तक के नीतिगत निर्णयों की व्याख्या करते हुए बताया कि किस प्रकार नेपाल में चीनी प्रभाव को व्यवस्थित रूप से बढ़ाया गया। उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टांतों और कूटनीतिक संदर्भों के साथ बहादुर शाह का तिब्बत आक्रमण, महेंद्र शाह की सीमा संधि, और ज्ञानेन्द्र शाह द्वारा सार्क में चीन को स्थायी सदस्य बनाने के प्रयास पर विश्लेषण प्रस्तुत किया।

राजतंत्र और चीनी प्रभाव का ऐतिहासिक विश्लेषण

अध्यक्ष विनय यादव ने प्रस्तुत कार्यपत्र को समर्थन देते हुए कहा,
“राजतंत्र ने कभी भी जनता के हित में निर्णय नहीं लिया, बल्कि हमेशा विदेशी शक्तियों के साथ मिलकर अपने सत्ता हितों को सुरक्षित रखा। आज फिर से राजतंत्र की बहाली के नाम पर नेपाल में चीन के रणनीतिक प्रभाव को मजबूत करने की कोशिश की जा रही है।”

उन्होंने यह भी कहा कि चीन नेपाल में अपने प्रभाव को मजबूत करने के लिए निवेश, बुनियादी ढांचे, शिक्षा, पर्यटन और संचार माध्यमों का उपयोग कर रहा है, जिसे गहरी चिंता का विषय माना जाना चाहिए।

कार्यक्रम में उपस्थित वक्ताओं ने निम्नलिखित ऐतिहासिक तथ्यों को प्रस्तुत किया:

पृथ्वीनारायण शाह (1743–1775) ने तिब्बत के साथ व्यापारिक संबंधों को प्राथमिकता दी, जिससे नेपाल का चीन के साथ प्रारंभिक संपर्क स्थापित हुआ।

बहादुर शाह (1785–1794) को तिब्बत पर सैन्य हस्तक्षेप के कारण चिंग राजवंश (चीन) के साथ अपमानजनक संधि करनी पड़ी।

त्रिभुवन शाह (1911–1955) द्वारा चीन के साथ औपचारिक कूटनीतिक संबंध स्थापित करने से नेपाल की विदेश नीति में असंतुलन उत्पन्न हुआ।

महेंद्र शाह (1955–1972) द्वारा चीन के साथ की गई सीमा संधि ने नेपाल की रणनीतिक स्वतंत्रता को कमजोर कर दिया।

वीरेन्द्र शाह (1972–2001) ने “शांति क्षेत्र” प्रस्ताव रखा, जिसे चीन का समर्थन प्राप्त था, लेकिन इससे नेपाल की संप्रभु निर्णय क्षमता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।

ज्ञानेन्द्र शाह (2001–2008) ने सार्क में चीन को स्थायी सदस्य बनाने की पहल की, जिससे नेपाल भारत-चीन रणनीतिक संघर्ष के केंद्र में आ गया।

चर्चा के प्रमुख निष्कर्ष

चर्चा में शामिल विश्लेषकों और विशेषज्ञों ने कहा कि नेपाल को अपने ऐतिहासिक गलतियों से सबक लेना चाहिए। वक्ताओं ने राजतंत्र को चीनी प्रभाव के विस्तार का माध्यम बताते हुए कहा कि उसकी पुनःस्थापना देश की संप्रभुता, राजनीतिक स्थिरता और कूटनीतिक संतुलन के लिए गंभीर खतरा हो सकती है।

उन्होंने निष्कर्ष में कहा कि नेपाल के दीर्घकालिक हितों की रक्षा के लिए स्वतंत्र, संतुलित और आत्मनिर्भर विदेश नीति बनाना आवश्यक है।

कार्यक्रम का संचालन राष्ट्रीय एकता अभियान के केंद्रीय सदस्य चंद्र यदुवंशी ने किया।
इस अवसर पर नेपाल शंकराचार्य पीठ के अध्यक्ष दयाराम पांडेय, दलित कार्यकर्ता नरेंद्र पासवान, नेपाली जनता दल के अध्यक्ष हरिचरण साह, अभियान के उपाध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी, महिला उद्यमी लक्ष्मी ज्ञावली, प्रोफेसर शंभु देव और लोकगायक रविराज साह सहित विभिन्न क्षेत्रों के गणमान्य लोग उपस्थित थे।

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