सरकारों की उदासीनता और उपेक्षा से आगरा का पर्यावरणीय पतन

images-5.jpeg

भारत के दिल में, जहाँ ताजमहल की भव्य छवि नील गगन को छूती है, वहाँ एक कड़वी सच्चाई इस ऐतिहासिक गुंबद के साए में पनप रही है।
आगरा, जो कभी संस्कृति और पर्यावरण का प्रतीक था, आज शासन की विफलता का एक भयावह उदाहरण बन चुका है—इसकी खूबसूरती को उन्हीं हाथों ने धोखा दिया है जो इसे बचाने के लिए जिम्मेदार थे। मंत्री, सांसद, विधायक, मेयर, पार्षद सब जिता के भेजे, लेकिन शासकीय दल की प्राथमिकताओं में शहर आगरा कभी नहीं रहा। उधर जोर दार शुरुआती पहलों के बाद, न्यायपालिका भी बोर हो गई। यानी एक फलता फूलता जीवंत शहर प्रदूषण के खिलाफ जंग में उजड़ गया। बदले में भरपाई नहीं हुई।

पर्यावरणविद कहते हैं, गर्मी शुरू होते ही जहरीली धुंध से भरी हवा गले में सांप की तरह लिपटती है, और यमुना—जो कभी जीवनदायिनी नदी थी—अब एक विषैले कीचड़ में तब्दील हो चुकी है, जो सरकारी उपेक्षा का प्रतिबिंब है।

डॉ देवाशीष भट्टाचार्य के मुताबिक, “शाम ढलते ही शहर पर एक धुंध छा जाती है, जो दिन को रात में बदल देती है—प्रदूषण का एक घातक बादल, जो आसमान में मंडराता रहता है। इतिहास की मधुर खुशबू अब सड़ांध और निराशा के तीखेपन में डूब चुकी है। कभी हरे-भरे पार्क अब वीरान हैं, उनकी हरियाली ऐसे छीन ली गई है जैसे किसी पुराने कैनवास से रंग उखड़ गया हो। बाजारों की रौनक, जो कभी हँसी और जीवंतता से भरी होती थी, अब सिर्फ एक सूनी गूँज बनकर रह गई है—जहाँ नागरिक एक जहरीले अस्तित्व की क्रूर हकीकत से जूझ रहे हैं।”

यह सिर्फ लापरवाही नहीं, बल्कि एक ऐतिहासिक छल है। दशकों के न्यायिक हस्तक्षेप और नौकरशाही के वादों के बावजूद, आगरा का पर्यावरण लगातार बदतर होता गया। जहाँ ताजमहल प्रेम का प्रतीक था, आज वह भारत की पर्यावरणीय विफलता का मूक साक्षी बन चुका है।

टूटे हुए वादों की विरासत

1993 में, पर्यावरणविद् एम.सी. मेहता की जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने 10,000 वर्ग किमी के ताज ट्रैपेज़ियम जोन (TTZ) को बचाने के लिए सख्त निर्देश जारी किए। तीन दशक बाद भी, मुख्य आदेश कागजों तक ही सीमित हैं। कोर्ट ने हरित बफर जोन, स्वच्छ हवा और यमुना के पुनर्जीवन की जो तस्वीर बनाई थी, वह एक क्रूर मजाक बनकर रह गई है।

हवा जहर बन चुकी है – गर्मियों में SPM (सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर) का स्तर 600 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर के पार चला जाता है, जो सुरक्षित सीमा से छह गुना अधिक है।

सिकुड़ती हरियाली – शहर का हरित आवरण मात्र सात आठ प्रतिशत रह गया है, जबकि राष्ट्रीय लक्ष्य 33% है।

वाहनों से उगलता जहर – 1980 के दशक में 40,000 वाहन थे, आज 10 लाख से अधिक—लेकिन प्रदूषण रोकने के कोई ठोस कदम नहीं। सभी प्रमुख मार्गों पर डेली घंटों ट्रैफिक जाम रहता है।

यमुना: एक मृत नदी की दुखद कहानी बनके रह गई है। जो कभी आगरा की जीवनरेखा थी, अब एक नाले में तब्दील हो चुकी है। सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP) धोखा – ये 250 मिलियन लीटर प्रतिदिन (MLD) सीवेज साफ करने के बजाय 150 MLD भी पूरी तरह नहीं संभाल पाते, और वह भी नाले का पानी, असली सीवेज नहीं। नदी में सीधा गंदा पानी – शहर की टूटी सीवर लाइनें सीधे यमुना में गंदगी उड़ेल रही हैं, जिससे यह एक जहरीला, दुर्गंधयुक्त नाला बन गई है। सूखा नदी तल – यमुना का बहाव खत्म हो चुका है, हरित आवरण के अभाव में राजस्थान से आने वाली धूल भरी हवाएँ सीधे शहर में घुस रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिमी इलाकों में पेड़ लगाने का आदेश दिया था, ताकि धूल रोकी जा सके। लेकिन इसके बजाय, बिल्डरों ने तालाबों, पार्कों और नदी के किनारों पर अतिक्रमण करके मॉल और अवैध निर्माण खड़े कर दिए। आगरा की आखिरी बची हुई जल संरचनाओं को भी पाट दिया गया और ऐतिहासिक इमारतों को अवैध निर्माणों ने घेर लिया।

प्रदूषण नियंत्रण झूठ – करोड़ों रुपये स्वच्छ हवा” योजनाओं पर खर्च हुए, लेकिन उद्योगों का धुआँ, वाहनों का जहर और निर्माण धूल बेरोकटोक जारी है।
ताजमहल, एक यूनेस्को विश्व धरोहर, उन्हीं की बेरुखी से परेशाँ है जो इसे बचाने के लिए जिम्मेदार हैं। यह भारत की पर्यावरण नीतियों की असफलता का प्रतीक है।

अब क्या करना चाहिए?

पारदर्शी जाँच – आगरा में खर्च किए गए पर्यावरणीय फंड्स की स्वतंत्र जाँच होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को लागू करो – अवैध निर्माण रोको, जलाशयों को पुनर्जीवित करो, प्रदूषण नियमों को सख्ती से लागू करो।

जवाबदेही तय करो – दशकों की विफलता के लिए अधिकारियों और एजेंसियों पर मुकदमा चले।

आगरा का पर्यावरणीय पतन एक अनिवार्य त्रासदी नहीं, बल्कि सरकारी उपेक्षा का सीधा नतीजा है। अगर यह विश्वासघात जारी रहा, तो ताजमहल प्रेम का प्रतीक नहीं, बल्कि भारत के पर्यावरणीय विनाश का स्मारक बनकर रह जाएगा।

Share this post

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top