इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय में माइम और मिमिक्री की प्रतिभाओं का प्रदर्शन

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14 नवंबर, 2024 को इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय द्वारा एक अन्तर्महाविद्यालयी माइम और मिमिक्री कार्यक्रम का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम युवा प्रतिभाओं को बढ़ावा देने और ऐसी प्रतिभाओं को खोजने के लिए संस्कृति परिषद और दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा एक संयुक्त पहल के एक भाग के रूप में थिएटर श्रेणी के तहत आयोजित किया गया था। इंद्रप्रस्थ कॉलेज ने दोनों आयोजनों के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों की कई टीमों की मेजबानी की। इस कार्यक्रम में हमारे सम्मानित अतिथि श्री अनूप लाठर, अध्यक्ष, संचालन समिति, संस्कृति परिषद, दिल्ली विश्वविद्यालय और पीआरओ, दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ प्रोफेसर रविंदर कुमार, डीन, संस्कृति परिषद, दिल्ली विश्वविद्यालय और निदेशक, स्वतंत्रता एवं विभाजन अध्ययन केंद्र, दिल्ली विश्वविद्यालय की उपस्थिति रही।

इस कार्यक्रम में हमारे प्रतिष्ठित पर्यवेक्षक के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आनंद सोनकर भी शामिल हुए।

इस कार्यक्रम का मूल्यांकन हमारे सम्मानित न्यायाधीशों, डॉ. लाखा लहरी, डॉ. रोहित त्रिपाठी और डॉ. रमेश मनचंदा द्वारा किया गया। माइम प्रतियोगिता सुबह 11 बजे से आयोजित की गई थी और इसमें हंसराज कॉलेज, लेडी श्री राम कॉलेज फॉर वुमेन, गार्गी कॉलेज जैसे विभिन्न प्रतिष्ठित कॉलेजों की 11 टीमों ने भाग लिया। प्रत्येक टीम को अपनी रोशनी और ध्वनि की जांच करने के लिए 5 मिनट और प्रदर्शन करने के लिए 5 मिनट का समय दिया गया, जहां उन्होंने माइम के माध्यम से भावनाओं का जीवंत और विविधतापूर्ण प्रदर्शन किया। जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज को प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जबकि भारती कॉलेज को दूसरा और लक्ष्मीबाई कॉलेज को तीसरा पुरस्कार मिला।

दोपहर 2 बजे भोजनावकाश के बाद मिमिक्री कार्यक्रम शुरू हुआ। इस कार्यक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों से जुड़े 13 प्रतिभागियों की उत्साहपूर्ण एकल भागीदारी देखी गई। मिमिक्री कार्यक्रम में प्रतिभागियों द्वारा आवाज और चरित्र विविधता का शानदार प्रदर्शन किया गया। किरोड़ीमल कॉलेज के निखिल भास्कर ने पहला, लक्ष्मीबाई कॉलेज के अनन्य अनिल कुमार ने दूसरा और आचार्य नरेंद्र देव कॉलेज के तनिष शर्मा ने तीसरा स्थान प्राप्त किया।

निर्णायकों ने प्रतिभागियों की उत्साह और प्रस्तुति की सराहना की। इसके बाद समापन समारोह हुआ, जहां न्यायाधीशों और सम्मानित अतिथियों ने टीमों के साथ कुछ ज्ञानवर्धक बातें साझा कीं और उन्हें प्रेरित किया। उन्होंने कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए मेजबान कॉलेज को भी बधाई दी।

यह कार्यक्रम पुरस्कार वितरण समारोह के साथ संपन्न हुआ और बाद में हमारी सम्मानित प्रिंसिपल महोदया प्रो. पूनम कुमरिया ने प्रो. रविंदर कुमार जी को उनकी गौरवमयी उपस्थिति के लिए सम्मानित किया।

भगतसिंह के प्रेरणास्रोत करतार सिंह सराबा

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गिरीश सक्सेना

अमर बलिदानी करतार सिंह सराबा को भगतसिंह अपना अग्रज, गुरु, साथी तथा प्रेरणास्रोत मानते थे। वे भगतसिंह से 11 वर्ष बड़े थे और उनसे 11 वर्ष पूर्व केवल 19 वर्ष की तरुणावस्था में ही भारतमाता के पावन चरणों में उन्होंने हंसते हुए अपना शीश अर्पित कर दिया।

करतार सिंह का जन्म 1896 ई. में लुधियाना जिले के सराबा गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री मंगल सिंह का देहान्त जल्दी ही हो गया था। प्रारम्भिक शिक्षा खालसा स्कूल, लुधियाना में पूरी कर चाचा जी की अनुमति से केवल 14 वर्ष की अवस्था में पढ़ाई के लिए सान फ्रान्सिस्को चले गये।

उन दिनों वहाँ भारतीयों में देशप्रेम की आग सुलग रही थी। करतार सिंह भी उनमें शामिल हो गये। उन्होंने थोड़े समय में ही यह देख लिया कि गोरे लोग भारतीयों से घृणा करते हैं और उन्हें कुली समझते हैं। करतार सिंह का मत था कि इसे बदलने का एकमात्र मार्ग यही है कि भारत स्वतन्त्र हो। इसके लिए उन्होंने स्वयं की आहुति देने का निश्चय कर लिया।

शीघ्र ही उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हो गया। फिर तो वे ही करतार के मार्गदर्शक बन गये। ‘गदर पार्टी’ की स्थापना के बाद करतार उसके प्रमुख कार्यकर्ता बने। पोर्टलैण्ड में हुए उसके सम्मेलन में भी वे शामिल हुए। करतार के प्रयास से वहाँ ‘युगान्तर आश्रम’ की स्थापना हुई और पार्टी का साप्ताहिक मुखपत्र ‘गदर’ कई भाषाओं में छपने लगा। उन्होंने घर से पढ़ाई के लिए मिले 200 पौंड भी लाला जी को समाचार पत्र के लिए दे दिये। इस पत्र में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की कुछ प्रेरक सामग्री अवश्य होती थी।

प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत आये। उनका विचार था कि यह अंग्रेजों को बाहर निकालने का सर्वश्रेष्ठ समय है। उन्होंने रासबिहारी बोस तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारियों से भी भेंट की। 21 फरवरी, 1915 को पूरे देश में एक साथ क्रान्ति की योजना बनी।

करतार सिंह पर पंजाब की जिम्मेदारी थी। उन्होंने कई धार्मिक स्थानों की यात्रा कर युवकों तथा सेना से सम्पर्क किया। रेल तथा डाक व्यवस्था को भंग करने की योजना बन गयी। इन सबका केन्द्र लाहौर था। वहाँ छावनी में शस्त्रागार के चौकीदार से भी बात हो गयी। धन के लिए कई डाके भी डाले गये।

पर दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। कृपाल सिंह नामक एक पुलिस वाले ने मुखबिरी की और धरपकड़ होने लगी। करतार अपने कुछ साथियों के साथ भारत की उत्तर पश्चिम सीमा की ओर चले गये; पर उन्हें सरगोधा के पास पकड़ लिया गया और लाहौर के केन्द्रीय कारागार में बन्द कर दिया। इनके साथ 60 अन्य लोगों पर पहला लाहौर षड्यन्त्र केस चलाया गया।

करतार ने अपने साथियों को बचाने के लिए सारी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायाधीश ने इन्हें अपना बयान बदलने को कहा; पर इस बार करतार ने और कठोर बयान दिया। अतः उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गयी। एक बार उन्होंने जेल से भागने का भी प्रयास किया; पर वह योजना विफल हो गयी। करतार का उत्साह इतना था कि फाँसी से पूर्व इनका वजन बढ़ गया।

16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह सराबा और उनके छह साथियों ने लाहौर केन्द्रीय जेल में फाँसी का फन्दा चूम लिया। इनके नाम थे – विष्णु गणेश पिंगले, हरनाम सिंह, बख्शीश सिंह, जगतसिंह, सुरेन सिंह एवं सुरेन्द्र सिंह।

लाला लाजपत राय का बलिदान, क्राँतिकारियों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की

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स्वाधीनता का संघर्ष केवल राजनैतिक या सत्ता केलिये ही नहीं होता । वह स्वत्व, स्वाभिमान, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और मानसिक अस्मिता के लिये भी होता है । इस सिद्धांत के लिये अपना पूरा जीवन समर्पित करने वाले थे पंजाब केशरी लाला लाजपतराय। उनका जन्म 28 जनवरी 1865 को पंजाब के फिरोजपुर में हुआ था । उनका परिवार आर्यसमाज से जुड़ा था । अपने क्षेत्र के सुप्रसिद्ध व्यवसायी उनके पिता मुंशी राधा कृष्ण आजाद संस्कृत के विद्वान थे उन्हे फारसी और उर्दू का भी ज्ञान था । माता गुलाब देवी भी विदुषी थीं। वे एक आध्यात्मिक और धार्मिक मूल्यों केलिये महिला थीं। अध्ययन और लेखन परिवार की परंपरा थी । इसीलिए सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पण के संस्कार लाला लाजपतराय जी को बचपन से मिले थे ।

आर्य समाज से संबंधित होने के कारण वे अपनी बात को तथ्य और तर्क के साथ रखना उनके स्वभाव में आ गया था । घर में आध्यात्मिक और धार्मिक पुस्तकों का मानों भंडार था । इनके अध्ययन के साथ उन्होंने वकालत की परीक्षा उत्तीर्ण की और रोहतक तथा हिसार आदि नगरों में वकालत करने लगे थे । उनका बचपन केवल अध्ययन में नहीं बीता था । उनमें छात्र जीवन से ही मित्रों की टोली बनाकर असामाजिक तत्वों से मुकाबला करने की प्रवृत्ति रही । वे जहाँ भी रहे, जिस भी विद्यालय में पढ़े, उन्होंने ऐसी टोलियाँ बनाईं और असामाजिक तत्वों की गतिविधियों का प्रतिकार किया । जब बड़े हुये, सामाजिक और वकालत के जीवन में आये तब प्रतिकार का यह दायरा और बढ़ा । अब वे असामाजिक तत्वों के साथ शासकीय कर्मचारियों द्वारा जन सामान्य के साथ किये जाने वाले शोषण पूर्ण व्यवहार का भी खुलकर प्रतिकार करते थे । इससे उनकी ख्याति बढ़ी । वे अपने जिले में ही नहीं पंजाब में लोकप्रिय हो गये ।

निजी जीवन में उन्होंने स्वामी दयानन्द सरस्वती से विधिवत दीक्षा ली और आर्य समाज के विस्तार में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही । उन्होंने लाला हंसराज एवं कल्याण चन्द्र दीक्षित के साथ मिलकर महर्षि दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों की मानों एक श्रृंखला ही स्थापित की । इनमें से अनेक संस्थान आज भी संचालित हैं। आज के समय इन्हें डीएवी स्कूल्स व कालेज के नाम से जाना जाता है। 1890 से 1900 के बीच देश के अनेक स्थानों पर अकाल और किसी महामारी का प्रकोप आया । लाखों करोड़ो लोग बेहाल रहे । लालाजी ने इस पीड़ित मानवता की सेवा केलिये और अनेक स्थानों पर शिविर लगाए और स्वयंसेवकों की टोलियाँ बनाई और पीडित मानवता की सेवा की । 1893 में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन लाहौर में हुआ । इसकी अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की । लाला जी इस अधिवेशन में कांग्रेस के सदस्य बने और समाज सेवा के साथ वे राजनैतिक क्षेत्र में भी सक्रिय हुये । कांग्रेस का यह पहला अधिवेशन ऐसा था जिसमें स्वतंत्रता की भी बात उठी । और इस बात को उठाने वाले लाला लाजपतराय जी थे । पर तब इस बात को गंभीरता से नहीं लिया गया । चूँकि कांग्रेस अब तक नागरिक अधिकार और समानता की ही बात कर रही थी । जब कांग्रेस अधिवेशन में स्वायत्ता पर एक राय न बन सकी तब लाला जी ने नौजवानों को संगठित कर स्वायत्ता का वातावरण बनाने का अभियान छेड़ा। लालाजी चाहते थे कि भारतीय नौजवान अपने इतिहास के महापुरुषों और आदर्श चरित्र को समझें। इसके लिये उन्होंने स्वयं साहित्य रचना की इन रचनाओं में शिवाजी महाराज, भगवान श्रीकृष्ण, मैजिनी, गैरिबॉल्डी एवं कई अन्य महापुरुषों की जीवनियाँ हिन्दी में लिखीं। उन्होने देश में और विशेषतः पंजाब में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का भी अभियान चलाया। देश में संपर्क भाषा के रूप में हिन्दी को स्थापित करने के लिये एक हस्ताक्षर अभियान भी चलाया और संकल्प पत्र भी भरवाये ।
अंग्रेजों ने जब साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन किया गया था तो लाला लाजपत राय ने बंगाल के सुप्रसिद्ध नेताओं सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल से मिलकर पूरे देश में एक बड़ा आँदोलन खड़ा किया । इसी आँदोलन के बाद “त्रिदेवों” एक टोली बनी जिसमें लाजपतराय, विपिन चंद्र पाल बाल गंगाधर तिलक थे । इस टोली को इतिहास ने “लाल, बाल, पाल” के नाम से जाना । इस तिकड़ी ने मानों ब्रिटिश शासन की नाक में दम कर दिया था । इस टोली ने स्वतंत्रता संग्राम में वो नये नये नारे दिये, असहमति और विरोध के स्वर मुखर किये तथा भारतीय समाज में स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का अभियान चलाया । इसके चलते इस लाल-बाल-पाल को पूरे देश में भारी समर्थन मिला, । स्वदेशी अपनाने और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की अपील 1906 में इन्ही त्रिदेव ने की थी जिसे बाद में गाँधी जी ने अपनाया । ब्रिटेन में तैयार हुए सामान का बहिष्कार और व्यावसायिक संस्थाओं में हड़ताल का यह क्रम 1906 से ही आरंभ हो गया था ।

लालाजी के विचारों में स्पष्टवादिता थी । वे स्वावलंबन और स्वाधीनता की बात खुलकर करते थे । कांग्रेस में एक समूह ऐसा था जो नागरिक सम्मान और नागरिक अधिकार की बात तो करता था किन्तु स्वाधीनता की बात खुलकर नहीं करता था । इसलिये तब कांग्रेस में दो दल माने गये । एक नरम दल और दूसरा गरम दल । लाला जी गरम दल के नेता थे । वे इसी नाम से लोकप्रिय हुए।

लाला लाजपत राय अक्टूबर 1917 में अमेरिका गए, वहां उन्होंने न्यूयॉर्क में “इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका” नामक संगठन की स्थापना की। यह संगठन अमेरिका में भारतीय जनों की स्वाधीनता की आवाज उठाने का माध्यम बना । लालाजी तीन साल अमेरिका रहे । उन्होने वहाँ रहने वाले भारतीयों और भारतीय जनों से सद्भाव रखने वाले लोगों को जोड़ा। तीन साल बाद फरवरी 1920 को लाला जी भारत लौटे । वे देशवासियों के महान नायक बन चुके थे। 1920 में उन्होंने कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में एक खास सत्र की अध्यक्षता की । जलियांवाला बाग हत्याकांड के खिलाफ उन्होंने पंजाब में एक बड़ा आंदोलन किया। उन्होंने पंजाब में 1920 में असहयोग आंदोलन का नेतृत्व किया । लेकिन लालाजी असहयोग आंदोलन में खिलाफत आँदोलन को जोड़ने के पक्ष में नहीं थे । इसलिये उन्होंने कांग्रेस इंडिपेंडेंस पार्टी का गठन किया ।

साइमन कमीशन का विरोध और बलिदान

साइमन कमीशन 3 फरवरी 1928 को भारत पहुंचा । उसका विरोध करने वालों में लालाजी अग्रणी थे । यह कमीशन भारत में संवैधानिक सुधारों की समीक्षा एवं रपट तैयार करने के लिए बनाया गया था इसमें कुल सात सदस्य थे। कहने केलिये यह संवैधानिक सुधार आयोग था पर उसका उद्देश्य भारत में एक ऐसा संवैधानिक ढांचा तैयार करना था जो अंग्रेजों की मंशा के अनुरूप काम करे और भारतीय समाज और व्यवस्था पर अपना नियंत्रण और मजबूत कर सके। इसलिए इसका पूरे देश में भारी विरोध हुआ । लोग सड़कों पर निकल कर धरना प्रदर्शन करने लगे । “साइमन वापस जाओ” का नारा पूरे देश में गूंज उठा। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में एक प्रदर्शन का आयोजन हुआ। जिसका नेतृत्व लालाजी कर रहे थे। प्रदर्शन में भारी जनसैलाब उमड़ा । इसे देखकर अंग्रेज अधिकारी सैड्रस बुरी तरह बौखलाया। उसने प्रदर्शन कारियों पर लाठीचार्ज का आदेश दे दिया । पुलिस टूट पड़ी। प्रदर्शन कारियों को बुरी तरह पीटना आरंभ कर दिया । लाला लाजपत राय ने पुलिस को रोकना चाहा । इससे अंग्रेज अफसर और भड़के तथा लाला जी पर ही प्रहार आरंभ कर दिये दिया उन्हे घेरकर लाठियों से बुरी तरह पीटा गया । इससे लालाजी घायल हो गए । किसी प्रकार उन्हे उठाकर ले जाया गया । शरीर का ऐसा कोई अंग न था जहाँ चोट न लगी हो । उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और 17 नवंबर 1928 को उन्होंने संसार से विदा ले ली।

लाला जी ने नौजवान क्रान्तिकारियो की एक बड़ी टोली तैयार की थी । इनमें चन्द्रशेखर आजाद, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि क्रांतिकारी लालाजी को अपना आदर्श मानते थे। जब क्राँतिकारियों को पता चला कि उनके आदर्श और प्रेरणास्रोत लालाजी को अंग्रेजों ने से पीट कर लालाजी को हत्या की । इसपर क्राँतिकारियों द्वारा लाला जी के बलिदान का प्रतिशोध लेने का निर्णय हुआ । अंततः 17 दिसंबर 1928 को उनपर लाठीचार्ज का आदेश देने वाले ब्रिटिश पुलिस अफसर सांडर्स को गोली मार दी गई। बाद में सांडर्स की हत्या के मामले में ही राजगुरु, सुखदेव और भगतसिंह को फांसी की सजा सुनाई गई।

इस तरह लाला जी और उनकी बनाई हुई टोली के बलिदान के साथ मानों संघर्ष के युग का अंत हुआ पर स्वाधीनता संघर्ष के जो बीजारोपण लाला जी ने 1893 के कांग्रेस अधिवेशन में किया था वही अंततः एक वृक्ष बना और 15 अगस्त 1947 को भारत स्वाधीन हो सका ।

भारत का आर्थिक विकास एवं अतिगरीबी में कमी

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विश्व के विभिन्न देशों, विशेष रूप से विकसित देशों, में अतिगरीबी को कम करने के लिए लम्बे आर्थिक विकास के चक्र की आवश्यकता रही है। यह सही है कि इन देशों में लम्बे समय तक तेज गति से हुए आर्थिक विकास एवं पूंजी निर्माण के चलते ही अतिगरीबी को कम किया जा सका है, परंतु, इन देशों में अतिगरीबी का उन्मूलन तो शायद अभी भी नहीं हो पाया है। विकासशील देशों सहित विकसित देशों, विशेष रूप से अमेरिका में तो आज भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे नागरिकों की अच्छी खासी संख्या दिखाई देती है। जबकि अमेरिका में तो विकास का चक्र बहुत लंबे समय तक लगभग लगातार चलता रहा है। भारत में पिछले 10 वर्षों में अतिगरीबी को कम करने सम्बंधी क्षेत्र में अतुलनीय कार्य हुआ है एवं अतिगरीबी में जीवन यापन कर रहे नागरिकों की संख्या में भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है।

भारतीय प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति की सदस्य सुश्री शमिका रवि द्वारा हाल ही में सम्पन्न किए गए एक रिसर्च पेपर में आंकड़ों के साथ कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं। इस रिसर्च पेपर में यह बताया गया है कि किस प्रकार भारत में तेज गति से हो रहे आर्थिक विकास का लाभ देश के गरीबतम नागरिकों तक पहुंच रहा है।

वैश्विक स्तर पर गरीबी को दूर करने सम्बंधी कई दीर्घकालीन लक्ष्यों को विभिन्न देशों के लिए निर्धारित किया गया है। इन लक्ष्यों में इस धरा से अतिगरीबी को समाप्त करने का लक्ष्य भी शामिल हैं। कोविड महामारी के खंडकाल एवं इसके बाद के खंडकाल में पूरे विश्व में केवल भारत ने ही अतिगरीबी को कम करने में अतुलनीय सफलता अर्जित की है। अन्यथा, कई विकसित देश तक आज भी कोविड महामारी के समय के विपरीत आर्थिक परिणामों से उबर नहीं पाए हैं। भारत ने अन्य कई अमीर देशों की तुलना में भी अच्छी सफलताएं अर्जित की हैं। दक्षिणी अफ्रीका, जो भारत से तीन गुणा अधिक अमीर है और ब्राजील, जो भारत से 2.5 गुणा अधिक अमीर है, की तुलना में भारत में अतिगरीबी तेज गति से कम हुई है। इसलिए यहां प्रशन्न यह नहीं है कि आपके पास कितने संसाधन उपलब्ध हैं बल्कि प्रशन्न यह है कि आप इन संसाधनों का कितनी सक्षमता से उपयोग कर पा रहे हैं। भारत अपने पास उपलब्ध विभिन्न संसाधनों का दक्षता से उपयोग करने में सफल रहा है, इसी के चलते आज भारत में निरपेक्ष गरीबी, कुल जनसंख्या के, 3 प्रतिशत से भी कम रह गई है। इस प्रकार, पूरे विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश होने के बावजूद भारत आज इस मामले में विकसित देशों के आसपास पहुंच गया है। वर्तमान काल में यह पहली बार हुआ है कि भारत में निरपेक्ष गरीबी, 3 प्रतिशत से भी नीचे आ गई है। पिछले 75 वर्षों से भारत में गरीबी कम करने हेतु लगातार प्रयास किए जाते रहे हैं परंतु इस क्षेत्र में सफलता अब जाकर मिली है।

दीर्घकालीन लक्ष्यों में माताओं की मृत्यु दर एवं बच्चों की मृत्यु दर भी शामिल है। बच्चे को जन्म देते समय माताओं की मृत्यु की संख्या में भी भारत में भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है। जबकि, विश्व के अन्य कई देशों में अभी भी यह संख्या भारत से कहीं अधिक है। हाल ही के समय में भारत में विश्व के अन्य देशों की तुलना में इस क्षेत्र में तेज गति से कमी हो रही है। इसी प्रकार, भारत में बच्चों की मृत्यु दर में भी कमी दृष्टिगोचर है। माताओं एवं बच्चों की मृत्यु दर में कमी देश के प्रत्येक राज्य में दिखाई दे रही है।

भारत के बारे में यह धारणा बनाए जाने का प्रयास किया जाता है कि भारत एक असहिष्णु देश हैं। जबकि इस सम्बंध में हाल ही में जारी किए गए आंकडें कुछ और ही कहानी बता रहे हैं। हाल ही के समय में भारत में दंगों की संख्या में भारी कमी दिखाई दी है। भारत में पिछले 50 वर्षों से जहां प्रति वर्ष लगभग 100,000 दंगे होते रहे हैं, वह अब घटकर 40,000 के नीचे आ गए है। भारत आज पूरे विश्व में ही सबसे अधिक शांतिप्रिय देश माना जा रहा है।

भारत में महिलाओं के विरुद्ध अत्याचारों, विशेष रूप से रैप के मामलों में, भी भारी कमी दृष्टिगोचर हुई है। यह कमी भारत के समस्त राज्यों में दिखाई दी है। अपवाद स्वरूप केवल राजस्थान, झारखंड एवं हरियाणा ही रहे हैं। महिलाओं के विरुद्ध अत्याचारों में हुई इस कमी के पीछे सबसे बड़ा कारण भारत में शौचालयों के निर्माण को बताया जा रहा है। क्योंकि पहिले महिलाओं को शौच के लिए बाहरी इलाकों में जाना पड़ता था जिससे महिलाओं पर विभिन्न प्रकार के अत्याचार होने की सम्भावना अधिक बढ़ जाती थी। परंतु, अब स्वच्छ भारत अभियान के बाद महिलाओं के घर के अंदर रहने के कारण इस प्रकार के अत्याचारों में भारी कमी दिखाई दी है। हाल ही के समय में महिलाओं पर अत्याचारों में 22 प्रतिशत की कमी आई है तो महिलाओं पर रैप के मामलों में 14 प्रतिशत की कमी आई है।

भारत में बिजली की उपलब्धता में भी भारी वृद्धि दर्ज हुई है। कुछ वर्ष पूर्व तक सबसे गरीबतम परिवारों में से केवल आधी आबादी के पास ही बिजली की उपलब्धता थी जबकि आज उक्त समूह के 90 प्रतिशत से अधिक परिवारों के पास बिजली की सुविधा उपलब्ध हो गई है।

भारत में सबसे अधिक गरीबतम परिवारों के बीच प्रति परिवार प्रतिमाह खर्च करने की क्षमता में भी भारी वृद्धि दर्ज हुई है। अनुसूचित जाति के परिवारों की प्रतिमाह खर्च करने की क्षमता में 178 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। प्रत्येक गरीब परिवार का प्रतिमाह खर्च तेजी से बढ़ रहा है। इसे ही तो समावेशी विकास की संज्ञा दी जा सकती है।

उक्त रिसर्च पेपर में यह भी दर्शाया गया है कि शहरी एवं ग्रामीण इलाकों में निवास कर रहे सबसे निचले तबके के 20 प्रतिशत परिवारों के पास आज कितने दोपहिया वाहन उपलब्ध है। 10 वर्ष पूर्व तक सबसे निचले तबके के केवल 6 प्रतिशत परिवारों के पास ही दोपहिया वाहन उपलब्ध थे जबकि आज 40 प्रतिशत परिवारों के पास दो पहिया वाहन उपलब्ध हैं। इन आंकड़ों के माध्यम से इस वर्ग के परिवारों की आय में हो रही वृद्धि को ही दर्शाया गया है। यह वृद्धि ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही इलाकों में हुई है, यह सबसे अधिक सुखद परिणाम है। इस प्रकार आज भारत में ग्रामीण इलाकों ने भी विकास की रफ्तार पकड़ ली है। अब तो ग्रामीण इलाकों में भी ट्रैफिक पुलिस की व्यवस्था करने का समय आ गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में भी ढांचागत विकास को और अधिक तेज करने की आज महती आवश्यकता महसूस की जा रही है। भारत के गांव अब पुराने गांव नहीं रह गए हैं बल्कि नए परिवेश में ग्रामीण इलाकों में भी समस्त प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध होने लगी हैं। आज कई उपभोक्ता वस्तुओं का व्यापार करने वाली कम्पनियों के व्यापार में वृद्धि शहरी इलाकों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में अधिक हो रही है।

भारत के शहरी एवं ग्रामीण इलाकों में निवासरत परिवारों के बीच आज खाने पीने का स्वरूप भी बदल रहा है। पहिले फलों को विलासिता की वस्तु के रूप में पेश किया जाता था। परंतु आज फलों एवं सब्जियों के उपयोग को आवश्यकता के तौर पर देखा जा रहा है एवं इनके उपयोग में भारी वृद्धि दिखाई दे रही है। देश में सबसे गरीब 10 प्रतिशत परिवारों में 10 वर्ष पूर्व तक केवल 31 प्रतिशत परिवार ही ताजा फलों का उपयोग कर पाते थे जबकि आज इस समूह के 70 प्रतिशत परिवारों द्वारा ताजा फलों का उपयोग किया जा रहा है। कुछ वर्ष पूर्व तक छतीसगढ़ राज्य में बहुत कम परिवार ही दूध का उपयोग कर पा रहे थे जबकि आज 55 प्रतिशत से अधिक परिवारों में दूध का उपयोग हो रहा है। आज भारत में मौसमी ताजा फलों की उपलब्धता भी बारहों महीने रहने लगी है क्योंकि अब रेफ्रीजरेटर एवं भंडारण की उपलब्धता भी बढ़ी है। विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में आधारभूत संरचना का पर्याप्त विकास हुआ है। उत्पादों की आपूर्ति चैन की सुविधाओं में विस्तार हुआ है, यातायात की सुविधाएं विकसित हुई हैं एवं ग्रामीण इलाकों तक अच्छे मार्गों का निर्माण हुआ है, जिसके चलते आज फलों एवं सब्जियों का उत्पादन बढ़ाने के साथ साथ इनकी खपत भी देश में बढ़ी है।

विभिन्न दीर्घकालीन लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर भारत के तेजी से आगे बढ़ने पर हमें गर्व होना चाहिए परंतु दुर्भाग्य है कि हम इन उपलब्धियों पर आपस में चर्चा भी नहीं करते हैं।

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