नदियों के कानूनी अधिकारों को सुरक्षित करने की जरूरत

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“नदियाँ हमारी माताएँ हैं, हमें उनकी देखभाल करनी चाहिए।” उत्तरी कैलिफ़ोर्निया की हूपा जनजाति के एक चिरकालिक गीत में प्रतिध्वनित यह भावना, भारतीय नदियों की भयावह स्थिति को देखते हुए गहराई से प्रतिध्वनित होती है – जिनमें से कई नदियों का अस्तित्व समाप्त होने के कगार पर है।
उन्हें कानूनी अधिकारों के साथ जीवित संस्थाओं के रूप में मान्यता देने की आवश्यकता पहले कभी इतनी अधिक नहीं थी।

नदियाँ केवल जलमार्ग नहीं हैं; वे हमारे पारिस्थितिकी तंत्र, सांस्कृतिक विरासत और समुदायों की जीवनदायिनी हैं। उन्हें जीवित संस्थाओं के रूप में मान्यता देना हमारे कानूनी और पर्यावरणीय नैतिकता में एक क्रांतिकारी बदलाव को उत्प्रेरित करेगा, एक ऐसा ढांचा स्थापित करेगा जहाँ पारिस्थितिकी तंत्र को दोहन के लिए संसाधनों के रूप में नहीं, बल्कि संवैधानिक संरक्षण के योग्य महत्वपूर्ण प्राणियों के रूप में देखा जाएगा।

कुछ साल पहले एक ऐतिहासिक फैसले में, उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों को जीवित संस्थाओं के रूप में मान्यता दी, यह प्रकृति के साथ हमारे अंतर्संबंध की गहन समझ को दर्शाता है। नदी कार्यकर्ताओं को अब इस गति को और आगे बढ़ाना होगा। नदियों को मजबूत कानूनी अधिकार प्रदान करके, हम उन्हें प्रदूषण, बांध और नहरी डायवर्सन, घुमाव, के खिलाफ सुरक्षा के लिए मुकदमा करने का अधिकार देते हैं – उनकी स्वतंत्र रूप से बहने, जैव विविधता को बनाए रखने और उनके अंतर्निहित पारिस्थितिक कार्यों को बनाए रखने की क्षमता सुनिश्चित करते हैं। यह कानूनी और पर्यावरणीय नैतिकता का समर्थन करने और एक प्रतिमान को बढ़ावा देने में एक महत्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित कर सकता है, जहां पारिस्थितिकी तंत्र अब केवल संसाधन नहीं हैं, बल्कि संवैधानिक संरक्षण के योग्य जीवित संस्थाएं हैं।

आधुनिक युग में, नदियों को मुख्य रूप से आर्थिक संपत्ति के रूप में देखा जाता है – कृषि के लिए पानी के स्रोत, परिवहन के लिए जल मार्ग और औद्योगिक गतिविधियों के लिए साधन और स्थान। इस तरह के दृष्टिकोण के परिणामस्वरूप गंभीर पारिस्थितिक क्षरण, प्रदूषण और जैव विविधता का नुकसान हुआ है। उत्तराखंड उच्च न्यायालय का फैसला इस शोषणकारी दृष्टिकोण के लिए एक महत्वपूर्ण जवाबी कार्रवाई का प्रतिनिधित्व करता है, जो प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षकता के संबंध पर जोर देता है। नदियों को जीवित संस्थाओं के रूप में मान्यता देना इस संवाद को फिर से परिभाषित करता है, पारिस्थितिक संतुलन और मानव-केंद्रित हितों पर प्राकृतिक प्रणालियों के अंतर्निहित मूल्य को प्राथमिकता देता है।

उदाहरण के लिए, इक्वाडोर में प्रकृति के अधिकारों की 2008 की संवैधानिक मान्यता एक अग्रणी उदाहरण के रूप में कार्य करती है जिसने दुनिया भर में इसी तरह के आंदोलनों को प्रेरित किया है। इक्वाडोर का अभूतपूर्व दृष्टिकोण कानूनी ढाँचों की आवश्यकता को रेखांकित करता है जो पारिस्थितिकी तंत्रों के अस्तित्व, पनपने और पुनर्जीवित होने के अधिकारों पर जोर देते हैं। इक्वाडोर के नेतृत्व का अनुसरण करते हुए, कोलंबिया के संवैधानिक न्यायालय ने अत्रातो नदी बेसिन के अधिकारों को मान्यता दी, जो एक बढ़ती हुई वैश्विक समझ को दर्शाता है कि नदियों की रक्षा का अर्थ उन समुदायों के अधिकारों की रक्षा करना भी है जो उनके सहारे रहते हैं, अक्सर हाशिए पर रहने वाले समूह।

न्यूजीलैंड द्वारा वांगानुई नदी को एक कानूनी व्यक्ति के रूप में मान्यता देना स्वदेशी दृष्टिकोणों को एकीकृत करके और लोगों और नदियों के बीच संबंधों को महत्व देकर इस मुहिम को आगे बढ़ाता है। ते आवा तुपुआ अधिनियम इस बात का उदाहरण है कि कानूनी ढाँचे पारंपरिक पारिस्थितिक ज्ञान को कैसे मूर्त रूप दे सकते हैं, यह पहचानते हुए कि प्रकृति की भलाई आंतरिक रूप से मानव कल्याण से जुड़ी हुई है।

चूंकि भारत में असंख्य नदियाँ हैं जो सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और पारिस्थितिक महत्व रखती हैं, इसलिए उनके अधिकारों को औपचारिक रूप देने से न केवल उनकी अखंडता की रक्षा होगी बल्कि पर्यावरण शासन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण को भी बढ़ावा मिलेगा जो देश भर में प्रचलित स्वदेशी प्रथाओं और दर्शन के साथ प्रतिध्वनित होता है। भारत में नदियाँ समाज के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ताने-बाने में गहराई से बुनी हुई हैं। जिस श्रद्धा के साथ इन जल निकायों को देखा या पूजा जाता है, वह कई भारतीय परंपराओं में निहित प्रकृति के प्रति आंतरिक सम्मान को दर्शाता है। हालाँकि, यह श्रद्धा अक्सर औद्योगिक दबावों और शहरीकरण के कारण दब जाती है।

इस प्रकार नदियों को अधिकारों वाली संस्थाओं के रूप में कानूनी मान्यता परंपरा और आधुनिक शासन के बीच इस अंतर को पाटने का काम कर सकती है। पारंपरिक दृष्टिकोण अक्सर पर्यावरणीय मुद्दों की प्रणालीगत जड़ों को संबोधित करने में विफल रहते हैं, जिससे टुकड़ों में समाधान निकलता है जो दीर्घकालिक स्थिरता को बढ़ावा नहीं देता है। अधिकार-आधारित ढांचा नदियों की सुरक्षा, बहाली और संरक्षण के लिए कानूनी तंत्र को सशक्त बनाता है, जिससे समुदाय अपने अधिकारों की वकालत कर सकते हैं और उल्लंघन करने वालों को जवाबदेह ठहरा सकते हैं। नदियों के संरक्षक के रूप में कार्य करने के लिए स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने से जैव विविधता संरक्षण में सुधार हो सकता है और प्रदूषण और क्षरण से पीड़ित क्षेत्रों का पुनर्वास हो सकता है। कानूनी ढांचे में प्रकृति के अधिकारों का एकीकरण प्राकृतिक दुनिया के साथ हमारे अंतर्संबंध की गहन समझ को दर्शाता है। जलवायु परिवर्तन, जैव विविधता हानि और पानी की कमी जैसे संकट प्रकृति के साथ एक नए रिश्ते की तत्काल आवश्यकता को उजागर करते हैं, जो यह स्वीकार करता है कि मानवता का स्वास्थ्य नदियों और हमें बनाए रखने वाले पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है। वास्तव में, इक्वाडोर और न्यूजीलैंड जैसे देशों द्वारा निर्धारित मिसाल का अनुसरण करते हुए भारत में नदियों के अधिकारों की मान्यता एक क्रांतिकारी कदम माना जायेगा।

रामजी के ध्येयनिष्ट संघर्ष और संकल्प जैसी है संघ की शताब्दी यात्रा

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भगवान श्रीराम का पूरा जीवन समाजिक मूल्यों की मर्यादा और ध्येयनिष्ट आदर्श से भरा है । ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की जीवन यात्रा भी रामजी की भाँति संघर्ष और संकल्पशीलता से युक्त है । संघ अब विश्व व्यापी स्वरूप ले चुका है और अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है । संघ ने अपनी जीवन यात्रा में अनेक उतार चढ़ावों के बावजूद संघ में कोई विचलन नहीं आया । संघ की ध्येयनिष्ट यात्रा यथावत रही ।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शाताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है । संघ की स्थापना 1925 विजय दशमीं को हुई थी । अंग्रेजी तिथि से वह 27 सितम्बर का दिन था । संकल्पक डाक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने संघ की स्थापना वर्ष केलिये विजयदशमी निश्चित की । प्रतिवर्ष स्थापना दिवस मनाने केलिये उन्होंने विक्रम संवत पर जोर नहीं दिया । वह 1925 ही रखी लेकिन 27 सितम्बर के स्थान पर विजयदशमीं ही निश्चित किया । ताकि प्रतिवर्ष स्थापना दिवस आयोजन के साथ विजय दशमीं का ध्येय जीवन्त रहे । ध्येय का यही स्णरण ही संघ की केन्द्रीभूत चेतना है जो संघ को ध्येयनिष्ट बनाये हुये है ।

विजयदशमीं की तिथि असत्य पर सत्य की विजय की प्रतीक है । यह रामजी के संकल्प, संघर्ष और मर्यादित मानवीय मूल्यों की स्थापना करने के अभियान का स्मरण कराती है । विजयदशमीं आसुरी शक्तियों के शमन और सात्विक समाज की प्रतिष्ठापना की तिथि है। रामजी का पूरा जीवन उन आसुरी शक्तियों से संघर्ष करने में बीता जो शांति, सद्भाव, मर्यादा और मानवीय मूल्यों का दमन कर रहीं थीं । आसुरी शक्तियों की आक्रामकता से पूरा समाज जीवन आक्रांत था । बलपूर्वक स्त्रियों का हरण, दूसरे की संपत्ति और राज्य को छीन लेना, नागरिकों को छल बल से दास बनाना और निर्दोष नागरिकों की हत्या करना इन आसुरी शक्तियों स्वभाव रहा है। रामजी ने इन शक्तियों का शमन करके मानवीय मर्यादा की स्थापना की थी। रामजी द्वारा किये गये कार्य अथवा युद्ध अपने साम्राज्य के विस्तार के लिये नहीं, मानवीय मूल्यों की स्थापना केलिये थे । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के पीछे डॉक्टर जी का उद्देश्य राजनीति करना नहीं था । वे भारत में एक स्वाभिमान संपन्न समाज और संस्कृति संपन्न राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे । इसी ध्येय की पूर्ति केलिये उनके मन में एक ऐसी रचना करने का विचार उठा जो अपने लिये नहीं राष्ट्र और समाज केलिये जिये ।

संघ स्थापना की पृष्ठभूमि

किसी भी विशाल वटवृक्ष का अंकुरण अकस्मात नहीं होता । इसके लिये धरती के गर्भ में लंबे समय तक कुछ रसायनिक और वानस्पतिक प्रक्रियाएँ चलती हैं । तब अंकुरण होता है किसी विशाल वटवृक्ष का । ठीक यही पृष्टभूमि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के उदय होने की रही है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवारजी के मन में संघ को आकार देने का विचार अकस्मात नहीं आया था । वह परिवार में स्वत्व स्वाभिमान और राष्ट्र भाव के लिये समर्पित वातावरण और भारतीय समाज जीवन की विसंगतियाँ थीं । पराधीनता भारत राष्ट्र में कुछ ऐसी शक्तियाँ प्रबल हो रहीं थी जो पूरी सनातन संस्कृति और परंपराओं के रूपांतरण करने में जुटीं थीं। उनके षड्यंत्र इतने प्रबल और छलयुक्त थे सनातन समाज के मनीषी या तो उनसे भ्रमित हो रहे थे अथवा असहाय अनुभव कर रहे थे । इस वातावरण से डाॅक्टर जी का मन सदैव बेचैन रहता । कोई कल्पना कर सकता है उस बालक की मनोदशा और मन में उठ रहे देशाभिमान के विचारों की, जो केवल बारह वर्ष की आयु में अपने समआयु सहपाठियों को एकत्र करके ब्रिटिश सत्ता के प्रतीक यूनियन जैक उतार कर भगवा ध्वज फहरा दे । यह साहस करने वाले डाॅ केशव हेडगेवार जी ही थे । बड़े होकर डॉक्टरी पढ़ने कलकत्ता गये तो वहाँ अपनी पढ़ाई के साथ अनुशीलन समिति से जुड़े और क्राँतिकारियों के संपर्क में आये । जिन दिनों वे कलकत्ता में थे वहाँ उन्होंने तीन प्रकार का वातावरण देखा । एक तो एक ओर समाज को बाँटकर अपनी पैठ जमाने केलिये मिशनरीज की सक्रियता, दूसरी ओर दूसरी ओर कट्टरपंथी तत्वों द्वारा छल बल से समाज का मतान्तरण और तीसरी ओर केवल प्राण बचाने और पेट भरने केलिये सनातन समाज के सामान्य जनों का संघर्ष। इन मानसिक वेदनाओं के साथ पढ़ाई पूरी करके नागपुर लौटे और काँग्रेस से जुड़कर स्वाधीनता में सक्रिय हुये । लेकिन कुछ बातों पर उनके काँग्रेस के तत्कालीन नेताओं से मतभेद हुये । डाॅक्टर जी काँग्रेस के एक प्रस्ताव की उस कंडिका से सहमत नहीं थे जिसमें मुस्लिम लीग को स्थानीय असेंबलियों के आतंरिक चुनाव में धार्मिक आधार पर एक तिहाई सीटें देने पर सहमति दे दी थी । यह 1916 की बात है । डाॅक्टरजी इसे मुस्लिम लीग का एक षड्यंत्र मानते थे । लीग के चुनाव लड़ने या न लड़ने पर उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी, पर वे लीग के उस कट्टरपंथ को देशहित केलिये नुक्सानदेह मानते थे, जिसकी ध्वनि लीग के नेताओं कार्यों से झलक रही थी ।

समय के साथ उनकी यह आशंका सही भी निकली । दूसरा पूर्ण स्वराज्य की माँग को लेकर काँग्रेस में मतभेद थे। काँग्रेस में एक बड़ा समूह ऐसा था जो आँदोलन में पूर्ण स्वराज्य की माँग जोड़ने के पक्ष में नहीं था । डॉक्टर जी ने काँग्रेस के पूना प्रांतीय अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा जो पारित न हो सका । यह 1920 की बात है। फिर भी डाॅक्टर जी काँग्रेस के आव्हान पर होने वाले असहयोग आँदोलन में बढ़चढ़कर सहभागी बने, गिरफ्तार हुये और जेल गये । लेकिन काँग्रेस ने असहयोग आँदोलन के साथ खिलाफत आँदोलन को जोड़ लिया । डाॅक्टर खिलाफत आँदोलन को स्वतंत्रता आँदोलन से जोड़ने के पक्ष में नहीं थी । चूँकि खिलाफत परंपरा का संबंध भारत से नहीं था । खलीफा का केन्द्र तुर्की था । वह एक ऐसा धार्मिक शासक था जिसका घोषित उद्देश्य पूरी दुनियाँ में इस्लाम का निजाम स्थापित करना था । अंग्रेजों ने वह सत्ता समाप्त कर दी थी । लेकिन भारत में सक्रिय खलीफा समर्थकों ने काँग्रेस को अपने पक्ष में कर लिया । उनके दो उद्देश्य थे । एक तो अंग्रेजों पर दबाव बनाना और दूसरा काँग्रेस के समर्थन से उन लोगों को तटस्थ करना जो भारत मतान्तरण के विरुद्ध सक्रिय थे । लाला हंसराज, स्वामी श्रृद्धानंद, लाला लाजपत राय डाॅक्टर मुन्जे आदि अनेक काँग्रेस जन मतान्तरण के विरुद्ध थे । लेकिन काँग्रेस द्वारा असहयोग आँदोलन में खिलाफत आँदोलन के जुड़ जाने से वे तमाम कार्यकर्ता असहज हुये जो स्वाधीनता संग्राम के साथ संस्कृति और धर्म रक्षा के कार्य में भी सक्रिय थे ।

भारत में भारतत्व को समाप्त करने केलिये जो शक्तियाँ छल, बल और षड्यंत्र कर रहीं थीं उनमें मिशनरीज संगठन, कट्टरपंथी कम्युनल तत्व और कम्युनिस्ट तीनों एकजुट होकर सक्रिय थे । यद्यपि इन तीनों की दिशा और लक्ष्य पृथक थे लेकिन सनातन समाज और परंपराओं के दमन में तीनों एक स्वर हो जाते थे । यह इन तीनों के एकजुट षड्यंत्रों का ही परिणाम था कि तब पेशावर, ढाका और चटगाँव आदि में सनातनियों की हत्याओं पर किसी ने आवाज नहीं उठाई । केरल के मालाबार में हुये साम्प्रदायिक नरसंहार पर भी चारों चुप्पी रही कोई पीड़ितों के पक्ष में कोई सामने नहीं आया । मालाबार में सनातन स्त्री बच्चों के साथ जो हुआ उसे पढ़कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 1906 से 1924 के बीच देश भर साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं का विवरण आज भी इतिहास के पन्नों में है । भयग्रस्त समाज का पलायन और स्वत्व विस्मृत समाज जनों द्वारा मतान्तरण स्वीकार कर लेना एक सामान्य बात मानी जा रही थी । मानों समाज का स्वाभिमान कहीं लुप्त हो गया था । ऐसा नहीं था तब सनातन सेवकों ने आवाज न उठाई हो । तब भी भारत के हर हिस्से से स्वाभिमान जागरण का आव्हान हुआ था । अनेक महापुरुष आगे आये थे । लेकिन असंगठन अथवा आंतरिक भय के चलते समाज वैसा सामने नहीं आया जैसी आवश्यकता थी । इसे पंजाब, बंगाल, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, केरल आदि प्रांतों में सनातन परंपराओ के संरक्षण का अभियान चलाने वालों की हत्याओं से समझा जा सकता है । ये समस्त परिदृश्य डॉक्टर जी के सामने था । उन्होंने स्वतन्त्रता आँदोलन के साथ समाज जीवन में स्वत्व और स्वाभिमान जागरण का संकल्प लिया । 1925 विजयादशमी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व डाॅक्टर जी की इसी संकल्पना का साकार स्वरूप है ।
जिस परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अस्तित्व में आया, यह परिस्थिति उस परिस्थिति से बहुत भिन्न नहीं थी जो त्रेता युग के उस कालखंड में थी जब रामजी ने अवतार लिया था । आसुरी शक्तियों के अनेक केन्द्र थे पर सनातन परंपराओं के प्रतीक यज्ञ हवन पूजन का दमन करने में सभी एकजुट हो जाते थे । समाज में विखराव और भय का ऐसा वातावरण बन गया था कि प्रतिकार का साहस करने वालों की सहायता के लिये समाज संगठित न हो पा रहा था ।

इसका पूरा लाभ आसुरी शक्तियाँ उठा रहीं थीं । जिस प्रकार रामजी ने समाज जागरण के लिये वानर भालू, वनवासी आदि के रूप में जन सामान्य को संगठित किया । वही शैली संघ रचना में है । रामजी की भाँति संघ का उद्देश्य भी अपना प्रभाव बढ़ाना अथवा सत्ता का मार्ग बनानानहीं था अपितु सामिजिक साँस्कृतिक भाव का जागरण करना था जैसा रामजी ने अपने पूरे जीवन भर किया ।

रामजी की भाँति आदर्श समाज रचना केलिये समर्पित रही संघ की शताब्दी यात्रा

रामजी के जीवन में तीन आयाम हैं। दो वनयात्राएँ तीसरा अपने राज्याभिषेक के बाद का जीवन । तीनों परिस्थिति या पृष्टभूमि भले पृथक पृथक हों लेकिन रामजी लक्ष्य तीनों में समान रहा । महर्षि विश्वामित्र के साथ पहली वनयात्रा में और फिर अपने वनवास काल में रामजी ने आसुरी शक्तियों का दमन कर समाज जीवन में आदर्श मूल्यों के वातावरण की रचना की । सभी समाज समूहों, वर्गों और वन क्षेत्रों के रहने वाले सभी समाज जनों को गले लगाकर समरसता का वातावरण बनाया और सबको अपने आत्माभिमान के साथ संगठित रहने केलिये प्रेरित किया । रामजी का यह अभियान अपने राज्याभिषेक के बाद भी रहा । उन्होंने सात्विक सनातन परंपराओं की स्थापना और मर्यादित मानवीय जीवन विकास के लिये शत्रुघ्नजी एवं लक्ष्मणजी के नेतृत्व में अनेक दल पूरे भारत में रवाना किये । ये अभियान राज्य विस्तार के लिये नहीं थे अपितु संपूर्ण धरती को आसुरी शक्तियों के प्रभाव से मुक्तकर सनातन परंपराओं की स्थापना केलिये था। यही चिंतन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का है । डाॅक्टर जी ने केवल संघ की संस्थापना केलिये ही रामजी की विजय की प्रतीक विजयादशमी तिथि का चयन नहीं किया अपितु का संघ की कार्यशैली में भी ऐसे संस्कारों का बीजारोपण किया जो भारत राष्ट्र में उन्ही आदर्श मूल्यों की स्थापना करें जिनके लिये रामजी ने अवतार लिया था । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पूरी शताब्दी यात्रा भी संकल्पना से युक्त है । संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक और कार्यकर्ता मानों राजकाज का सैनिक है और सनातन संस्कृति और मानवीय मूल्यों की संस्थापना अभियान केलिये समर्पित है । संघ रचना का ध्येय भारतीय जीवन में स्वत्व का वोध कराकर भारत राष्ट्र और भारतीय संस्कृति की पुनर्प्रतिठित करना रहा है । संघ कार्यकर्ताओं को यह ध्येय सदैव स्मरण रहे, इसीलिए डाक्टर जी ने प्रतिवर्ष संघ का स्थापना दिवस पर स्मरण कराने की परंपरा आरंभ की । जो संघ की इस पूरी शताब्दी यात्रा में प्रतिबिंबित भी है ।

सामूहिक प्रयासों से ही रुकेंगी आत्महत्या

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संजय कुमार मिश्र

सरकारी भाषा में किसी की आत्महत्या चाहे लाख निजी कारणों से कही जाती हो, परंतु जब हम उसका गहण अध्ययन-विश्लेषण करने बैठते हैं, तो निष्कर्ष निकलता है कि आत्महत्या का वह निजी कारण कहीं न कहीं सामाजिक अन्तर्संबंधों और सामंजस्य की ही असफलता है। दुर्खीम ने अपनी पुस्तक Le suicide (The suicide) 1897 में ही प्रकाशित कर बहुत से आँकड़ों के आधार पर यह स्पष्ट किया कि आत्महत्या किसी व्यक्तिगत कारण का परिणाम नहीं होती, अपितु यह एक सामाजिक तथ्य है, जो कि सामाजिक क्रियाओं का परिणाम है। आज की परिस्थितियों में हमारी सामाजिक अन्तर्क्रियाएँ ज्यों-ज्यों जटिल से जटिलतर होती जा रही हैं, त्यों-त्यों समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा दिनोदिन इसमें सामंजस्य बिठा पाने में असफल होता जा रहा है। उसी का परिणाम है कि पहले जहाँ आत्महत्याएँ गिनी-चुनी होती थीं, वे अब बहुतायत में और परिवार समेत सामूहिक होने लगी हैं।

जब कोई प्रतिभावान युवा अपनी जान लेता है, तो यह न केवल त्रासद, बल्कि पूरे देश और समाज के लिए बहुत बड़ा नुकसान होता है। 16 सितंबर को दिल्ली में मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज के 25 वर्षीय स्नातकोत्तर मेडिकल छात्र नवदीप सिंह ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। वह रेडियोलॉजी का द्वितीय वर्ष का छात्र था और उसे बेहतरीन विशेषज्ञ डॉक्टर बनना था। लोग यह भूले नहीं थे कि पंजाब का यह छात्र साल 2017 में राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) का टॉपर था। उसके पिता सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल हैं और छोटा भाई भी मेडिकल की पढ़ाई कर रहा है। यह चिंता की बात है कि आखिर एक टॉपर छात्र ऐसे मुकाम पर कैसे पहुँच गया? ध्यान रहे, दिल्ली में ही 27 अगस्त को ओल्ड रेजिडेंट डॉक्टर हॉस्टल में एक 20 वर्षीय मेडिकल छात्र का शव मिला था।

पिछले दिनों अभिनेत्री मलाइका अरोड़ा के पिता अनिल कुलदीप मेहता ने अपने मकान के छठी मंजिल से कूदकर सुसाइड कर ली। पता चला कि वे स्वास्थ्य कारणों से बहुत परेशान थे। इस सितंबर माह के प्रारंभ में ही प्रसिद्ध एटलस साइकिल कंपनी के पूर्व अध्यक्ष सलिल कपूर ने सुसाइड कर ली। अब्दुल कलाम मार्ग स्थित आवास पर कपूर ने अपने लाइसेंसी पिस्टल से खुद को गोली मार ली। मृतक के पास एक पेज का सुसाइड नोट भी बरामद हुआ है। इस सुसाइड नोट में चार लोगों का जिक्र किया गया है, जिसपर कपूर ने उत्पीड़न का आरोप लगाया है।
ये घटनाएँ तो हाल के दिनों में घटी महज कुछ उदाहरण हैं। 11 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने देश में छात्रों में आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं पर चिंता जताई, और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को इन्हें रोकने के लिए उठाए जा रहे कदमों के बारे में हलफनामा दायर करने के निर्देश दिए है। अदालत ने कहा कि छात्रों की आत्महत्या एक बहुत गंभीर सामाजिक मुद्दा है। एडवोकेट गौरव बंसल ने एक जनहित याचिका दायर कर माँग की थी कि बच्चों में आत्महत्या की बढ़ती प्रवृत्ति को रोकने के लिए कारगर कदम उठाए जाएँ। बंसल ने बताया कि आरटीआई के तहत दिल्ली पुलिस से हासिल जवाब के मुताबिक, 2014 से 2018 के बीच दिल्ली में 18 वर्ष से कम आयु के 400 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक, भारत एक ऐसा देश है, जहाँ दुनिया भर में सबसे ज्यादा आत्महत्या के मामले दर्ज होते हैं। सिर्फ साल 2022 में ही देश भर में करीब 1.71 लाख लोगों ने खुदकुशी की। रिपोर्ट के मुताबिक, हर आठ मिनट पर एक युवा भारतीय खुदकुशी का शिकार हो जाता है। देश में आत्महत्या की जितनी भी घटनाएँ होती हैं, उनमें से 41 फीसद लोग 30 साल से भी कम आयु के होते हैं। देश में आत्महत्या की दर में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। 2017 में जहाँ प्रति एक लाख की आबादी पर यह दर 9.9 थी, वहीं 2022 में बढ़कर 12.4 लोग मौत को गले लगा रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में हर साल आठ लाख लोग आत्महत्या करते हैं, इससे कई गुना अधिक लोग आत्महत्या की कोशिश करते हैं और इसका असर बहुत ज्यादा लोगों पर पड़ रहा है। भारत में प्रतिवर्ष 135,000 लोग आत्महत्या करते हैं, जो दुनिया की कुल आत्महत्याओं का 17 प्रतिशत है। एनसीआरबी के मुताबिक, आत्महत्या के इन सभी मामलों के प्रमुख कारणों में पारिवारिक समस्याएँ, विवाह संबंधी समस्याएँ, दिवालियापन और ऋणग्रस्तता, बेरोजगारी और पेशेवर मुद्दे तथा बीमारी शामिल हैं।

हाल के दिनों में लगातार आत्महत्या की घटनाएँ सामने आई हैं, यह हमारे समाज और परिवार में आए विघटन, विलगाव, एकाकीपन, बाजारवादी और सुविधाभोगी जीवन, दिखावटीपन तथा बेलगाम आकांक्षाओं के मिश्रण से पैदा हुए जीवणप्रणाली से उत्पन्न उपउत्पाद हैं। नई बाजार व्यवस्था की कोख से पैदा हुई इस जीवनप्रणाली ने पूरे समाज का ताना-बाना बिगाड़ दिया है। हमारी भारतीय परिवार प्रणाली और कौटुंबिक संबंध, जिससे पूरा समाज अन्योन्याश्रय संबंधों से जुड़ा था। किसी एक सदस्य का दुःख-सुख पूरे परिवार का दुःख-सुख होता था। वह लगता है, अब सदियों पुरानी बात हो गई। समाज का बहुत बड़ा भाग सिर्फ निजी स्वार्थ और दिखावटी सुख की जिस अंधी सुरंग में लगातार भाग रहा है, उसका अंत तो अंधकूप में ही होना है।

तेजी से बढ़ती यह आत्महंता प्रवृत्ति एक विकट सामाजिक समस्या है, इसे हम इक्का-दुक्का किसी की निजी समस्या मानकर नहीं चल सकते। ये त्रासद घटनाएँ हमारी पूरी सामाजिक व्यवस्था के चरमराकर ढहने की सूचक हैं। इस गंभीर सामाजिक समस्या को बदलती परिस्थितियों के अनुरूप जनतांत्रिक परिवार प्रणाली को जीवंत करना होगा, जिसमें लोग भले ही भौतिक दूरी पर निवास कर रहे हों, पर आपसी प्रेम, सौहार्द, करुणा, संवेदना और सामंजस्य की मजबूत डोर से बँधकर करीब हों। इस आत्महंता प्रवृत्ति को रोकने के लिए सरकार और समाज को भी सामूहिक प्रयास करने होंगे।

आस्थाविहीन हिन्दुओं की घर वापसी कराने वाले जाकिर नाइक

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रंगनाथ

नेहरूवादी हिन्दुस्तान में पले-बढ़े भगोड़े जाकिर नाइक जब कुछ दिन पहले जिन्नावादी पाकिस्तान पहुँचे तो उनकी कहानी में एंटी-क्लाइमेक्स आ गया। धर्मोन्मादी एमबीबीएस जाकिर नाइक 1991 से भारत में कनवर्जन की दुकान चला रहे थे। वह दूसरे धर्मों को सरेआम अपमानित करते रहे। टीवी पर मजाक बनाते रहे। धुर महिला विरोधी नजरिये का खुलेआम प्रचार करते रहे। मगर महेश भट्टों की नजर में महापुरुष बने रहे। बरखा दत्तों और दिग्विजय सिंहों के संग उनका संवाद चलता रहा। भारत का समूचा सेकुलर ईकोसिस्टम उन्हें “जस्ट अ माइनॉरिटी प्रीचर” की तरह ट्रीट करता रहा। महादेव का तिर्यक न्याय देखिए कि जाकिर नाइक भारतीय उपमहाद्वीप में वहाँ बेआबरू हुए जहाँ जिन्नावाद की सम्पूर्ण हेजेमनी है।

दुर्भाग्य ये है कि जाकिर नाइक जब पाकिस्तान में ट्रॉल हो रहे हैं, तब भी भारत के नेहरूवादी और मार्क्सवादी ईकोसिस्टम में उनपर दो कड़े बोल बोलने वाले ढूँढने पड़ रहे हैं। भारत में जो लोग जाकिर नाइक की पाकिस्तानी ट्रॉलिंग को आगे बढ़ा रहे हैं, उनमें ज्यादातर भाजपा ईकोसिस्टम का हिस्सा हैं। ध्यान रहे कि भाजपा के ईकोसिस्टम में दो तरह के लोग हैं। एक जो सीधे-सीधे आरएसएस या भाजपा की विचारधारा से प्रेरित होकर वहाँ पहुँचे हैं। दूसरे वे जो कई बिन्दुओं पर आरएसएस-बीजेपी से असहमत रहे हैं मगर कुछ बड़े मुद्दों पर उनके विचारों के लिए भारत के किसी अन्य प्रमुख वैचारिक ईकोसिस्टम में जगह नहीं बची है, जैसे आरिफ मोहम्मद खान और शहजाद पूनावाला इत्यादि।

जाकिर नाइक को लेकर चल रहे ट्रेंड पर कांग्रेस ईकोसिस्टम और कम्युनिस्ट ईकोसिस्टम लगभग चुप है। कुछ स्वतंत्र जीव ईंट-पत्थर उछाल रहे हैं मगर AISA, SFI, AISF, समाजवादी युवजन सभा, युवा राजद, तृणमूल युवा जबर चुप्पी साधे हुए हैं। इस जड़ता को तोड़ने के लिए शायद कई हरियाणा और होने की जरूरत है। इसके पहले हमने गुजरात, यूपी और एमपी में भी यही हाल देखा था। एपी में यह अभी हाल ही में घटित हुआ है। ओबीसी चिन्तक दिलीप मण्डल ने कल ही कांग्रेस को आज की मुस्लिम लीग कहा है। जाहिर है कि हिन्दू समाज अन्दर से करवट ले रहा है जिसकी अनदेखी तमाम युवराज कर रहे हैं मगर वे भूल गये हैं कि उनके पिता जी लोग यही कहकर राजपाट प्राप्त किये थे कि राजा रानी के पेट से नहीं जनता के वोट से पैदा होगा!

आने वाले समय में विद्याधर नायपाल भारत के सबसे सम्मानित और लोकप्रिय लेखकों में गिने जाएँगे क्योंकि उन्होंने हिन्दू समाज की आँत में ढाई दशक पहले ही झाँक लिया था। हिन्दी साहित्यकारों में निर्मल वर्मा ने इस सांस्कृतिक आलोड़न की आहट 1990 के दशक में पहचान ली थी मगर तब के पुरस्कार पांड़ों ने निर्मल जी को बुरी तरह ट्रॉल किया था। पुरस्कारों पांड़ों की तब भी कमी नहीं थी, अब भी नहीं है मगर महज दो दशक बाद उनकी हालत इतनी पतली हो चुकी है कि वो काँप भी रहे हैं, हाँफ भी रहे हैं।

पुरस्कार पाड़ों की पण्डिताई हिन्दू-निन्दा से चलती रही है। दुनिया की समस्त बुराइयों का दोषारोपण हिन्दुओं पर कर के वे तमाम पुरस्कार, प्रशंसा, फण्ड फेलोशिप, नौकरी, फॉरेन टूर इत्यादि प्राप्त करते रहे हैं। मगर वे आम हिन्दू को यह नहीं बता पा रहे हैं कि यहूदी, पारसी, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध, सुन्नी, शिया, बरेलवी, बहाई, और अब अहमदी भी, तब केवल भारत में सेफ क्यों रहे, जब उनके पास कोई सैन्य शक्ति नहीं थी। सैन्य शक्ति तो छोड़ दें, एक डण्डा भी उनके हाथ में नहीं था, तब से वे भारत में फल-फूल रहे हैं। अगर हिन्दू इतने ही असहिष्णु थे, तो जब इनमें से कई धार्मिक पंथों को उनके अपने देश में सुरक्षा नहीं मिली तब वे भारत में क्यों और कैसे पनपते रहे। खैर, जो हुआ सो हुआ, मगर अब तो मैं खुद कह रहा हूँ कि हिन्दू समाज में आमूलचूल आन्तरिक परिवर्तन आ रहा है।

करीब 36 प्रतिशत हिन्दू समाज आज हरियाणा मोड में जा चुका है। निर्णायक मौकों पर वह अभूतपूर्व एकता का प्रदर्शन करने लगा है। नेहरू जी ने नौ प्रतिशत वोटों के लिए देश को जिस राह पर डाला उस राह पर राहुल जी को आज करीब 16 प्रतिशत वोट मिलने की गारंटी मिली हुई है मगर वह और उनके थिंक-टैंक यह नहीं देख पा रहे हैं कि उनके 16 प्रतिशत सॉलिड वोटबैंक के बरक्स दूसरी तरफ 36 प्रतिशत मतदाता सीमेंटेड हो चुके हैं। 36 में तर्क-वितर्क हो तो 26 प्रतिशत ही मान लें मगर चुनाव दर चुनाव यह साबित हो रहा है कि एक बड़ी आबादी निर्णायक मौकों पर एकजुट होना सीख चुकी है। यह आबादी कैसे तैयार हुई है इसपर पूरा ग्नन्थ लिखा जा सकता है, मगर इसके एक अध्याय की चर्चा भर करूँगा। इस अध्याय का नाम है, जाकिर नाइक। याद रखें यहाँ जाकिर नाइक एक प्रतीक मात्र हैं।

जाकिर नाइक खबर में आये तो मुझे वह जमाना याद आ गया जब वह भारत में एक वर्ग के लाडले हुआ करते थे। एक वर्ग के बूढ़े-बच्चे-नौजवान उसमें नया तारणहार देख रहे थे। हम जैसे नौजवान उसी जमाने में वामपंथी नजरिया लिए जामिया मिल्लिया इस्लामिया पहुँचे थे। जाकिर नाइक का नाम मैंने पहली बार किसी मुस्लिम से नहीं बल्कि एक सीधे-सरल हिन्दू के मुँह से सुना था जिसने जामिया से बीए किया हुआ था।

एक दिन एक दुबला-पतला चॉकलेटी लड़का मुझसे बोला कि रंगनाथ भाई आपसे कुछ बात करनी है। उससे हालचाल भर पहचान थी तो मैं चौंका मगर सौजन्यतावश कहा, हाँ बोलो। उसने कहाँ कहीं एकांत में चलिए, मैं और चौंका। उसने 8-10 मिनट लगा दिया एकांत खोजने में। एकांत खोजने के बाद उसने मुझसे पूछा कि आप जाकिर नाइक को जानते हैं! मैंने कहा, नहीं! उसने कहा, रंगनाथ भाई उसे सुनिए और उसका कुछ करिए! उसने बताया कि उसके क्लास के लड़कों ने जाकिर द्वारा सीखे पैंतरों से उसका जीना मुहाल कर दिया है! मैं दंग रह गया! उसके बाद मैंने जाकिर नाइक के कुछ मूर्खतापूर्ण प्रदर्शन देखे। पॉवर मेमोरी ट्रिक बेचने वालों की तरह वह पेज नम्बर वर्स नम्बर इत्यादि उछालकर दूसरे धर्मों को अपमानित करते थे। खैर, उसके बाद इस तरह के इतने किस्से हुए कि मौका मिला तो उनपर केन्द्रित एक किताब जरूर लिखूँगा।

मुझे नहीं पता कि धर्मोन्मादी जाकिर नाइक ने कितने लोगों को कनवर्ट कराया है, या इसरार अहमद ने कितने मुसलमानों का दीन पक्का कराया है, मगर मुझे यकीन है कि उससे कई गुना ज्यादा लोगों को हिन्दुस्तान में हिन्दू बनाने का श्रेय जाकिर नाइक और इसरार अहमद जैसों को है। हिन्दू मान्यता है कि हर चीज की एक अति होती है और अति किसी चीज की अच्छी नहीं होती है। कई जाहिलों को लगता है कि चुनाव में 25-50 सीट ऊपर नीचे होने से धरती-आसमान का चरित्र बदल जाता है! ऐसा कतई नहीं है। जाकिर नाइक द्वारा तैयार किये गये नये हिन्दू ही उन्हें सोशलमीडिया पर ज्यादा ट्रॉल कर रहे हैं। जाकिर नाइक के टारगेट मूलतः इंग्लिश मीडियम टाइप आम मुसलमान थे। मगर वह नहीं समझ सके कि उनकी क्रिया की प्रतिक्रिया में इंग्लिश मीडियम टाइप हिन्दू भी तैयार हो रहे हैं।

मैं अपने पिछले 19 सालों के अनुभव को देखूँ तो देश के हर दफ्तर, हर मोहल्ले, हर मण्डली में छोटे-बड़े जाकिर नाइकों की पौध लहलहा रही है जो नाजुक मनःस्थिति से गुजर रहे लोगों (इंग्लिश में वल्नरेबल कहे जाने वाले लोग) को ब्रेनवाश करके इस्लाम की राह पर लाने में लगी रहती है मगर ये लोग नहीं देख पाते कि इनकी हरकतों की वजह से जो लोग मानसिक रूप से स्वस्थ एवं मेधावी हैं, वे इनके काउंटर में दूसरी तरफ इकट्ठे होते जा रहे हैं। वैचारिक और भावनात्मक कमजोरियों को दोहन करने की यह रणनीति अब बराबर का जवाब पाने की तरफ बढ़ रही है।

नेहरूवाद और मार्क्सवाद ने जिस इंग्लिश मीडियम हिन्दू की आस्था को प्राइवेटाइज या न्यूट्रलाइज किया था, उसे पब्लिसाइज या रिवाइव करने का काम अकेले भाजपा या आरएसएस ने नहीं किया है। आस्थाविहीन या आस्थाभीरू हिन्दुओं की घर वापसी में जाकिर नाइक और इसरार अहमद जैसों और उनके बोनसाइयों का बड़ा योगदान है। मेरे ख्याल से भारत में मौजूद जाकिर नाइकों को आज भी इस घर वापसी का असल स्केल नहीं दिख रहा है। जिस दिन दिखेगा, उस दिन कहीं ये नाइक खुद घर वापसी न करने लगें!

कुछ लोगों को यह उलटबांसी अपाच्य लगेगी इसलिए एक दूसरा उदाहरण भी देता हूँ। नेहरूवाद और मार्क्सवाद ने भारत में अनगिनत फिलिस्तानी पैदा किये जो भारत में पैदा हुए और यहीं पले-बढ़े, यहीं रहते-खाते-पीते-गाते-बजाते हैं। फिलिस्तीन के प्रति सहानुभूति लिये हुए जब मैं पहली बार जेएनयू पहुँचा तो इस बात पर दंग रह गया कि फिलिस्तीन जेएनयू छात्र संघ चुनाव के लिए बहुत बड़ा मुद्दा है! मेरे लिए फिलिस्तीन मुद्दा तो था मगर वह मुझे जेएनयू के कॉमरेडों जितना बड़ा नहीं दिखता था! हिन्दुओं के फिलिस्तीनी करण का ये हाल है कि बड़े से बड़ा पापी अकवि फिलिस्तीन पर कवितनुमा कुछ लिखकर हिन्दी साहित्य समाज में कवि का दर्जा प्राप्त कर सकता है। उस तोते को लगता है कि वह बहुत बड़ा मानवतावादी और अन्तरराष्ट्रीय विचारक हो गया है, मगर वह दरअसल एक तोता है, जो वही पढ़ रहा है जो उसके मालिक द्वारा सेट की गयी डिफाल्ट सेटिंग है।

भारतीय कम्युनिस्टों के फिलिस्तीनी ऑब्सेशन की आलोचना करने वालों को ‘संघी’ कहा गया। मगर आज ये हाल है कि भारत में यदि 16 प्रतिशत भारतीय फिलिस्तीन समर्थक हैं तो 36 प्रतिशत भारतीय यहूदी समर्थक हो चुके हैं!

इस पोस्ट को पढ़कर भी कई तोते अपने दिमाग के मालिकों का रटाया पाठ कमेंट बॉक्स में पढ़ेंगे मगर वो याद रखें कि मैंने जाकिर नाइक से जुड़े अनुभवों वाली मूल लम्बी पोस्ट अभी ड्राफ्ट में अधूरी रखी है। सारा आँसू आज न बहा दें, आगे भी छाती कूट-कूट कर रोने के मौके मिलेंगे। अभी आप उसपर गौर करें जो मैंने ऊपर कहा है। मैं नहीं चाहता कि हिन्दू यहूदियों की आबादी 36 से बढ़कर 56 प्रतिशत तक पहुँच जाए। तब आपके सारे 56 इंच वाले जोक हवा हो जाएँगे। समय रहते, जाग जाएँ ताकि भारत देश में सही मायनों में सेकुलर-इज्म को बचाये रखा जा सके। मुजफ्फर रिजमी का प्रसिद्ध शेर है,

यह जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने। लम्हों ने खता की थी सदियों ने सजा पायी।।

जाकिर नाइक, इसरार अहमद और उनके बोनसाइयों जैसे अनगिनत लम्हों की सजा कितनी सदियों को मिलेगी, यह केवल वक्त जानता है।

(ऊपर तस्वीर में पूर्व अभिनेत्री जायरा वसीम हैं। मेरी राय में मुम्बई से कश्मीर के बीच मौजूद अनगिनत बोनसाई नाइकों के असर में ही उन्होंने अभिनय छोड़ा है। पैसिव फीडिंग और एक्टिव ग्रूमिंग के कई सत्रों से गुजरने के बाद ही व्यक्ति इतने रेडिकल फैसले लेता है।)

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