उत्तर प्रदेश की मजबूत कानून व्यवस्था और जातिवाद की जहरीली होती राजनीति

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लोकसभा चुनावों में पार्टी के सांसदों की संख्या बढ़कर 37 हो जाने से समाजवादी पार्टी विशेष उत्साह में है और जहाँ जहाँ भी उसके सांसद जीते हैं वहाँ वहाँ पार्टी के कार्यकर्ता न केवल अराजकता का वातावरण बनाने का पूरा प्रयास कर रहे हैं वरन जातिवादी जहर घोलने का प्रयास भी कर रहे हैं। दूसरी तरफ प्रदेश की योगी सरकार लगातार अपराध और अपराध जगत पर जीरो टालरेंस की नीति पर चल रही है जिसमें कुख्यात माफियाओं व अपराधियो के एनकाउंटर हो रहे हैं तथा बुलडोज़र भी चलाये जा रहे हैं, कई जगह अपराधी स्वयं ही आत्समर्पण भी कर रहे हैं या फिर अपना काम धंधा बदल रहे हैं।

प्रदेश का जन सामान्य योगी सरकार की बुलडोज़र नीति से प्रसन्न है जबकि विपक्ष लगातार यही आरोप लगा रहा था कि बुलडोज़र से लोगों को डराया जा रहा है या अल्पसंख्यको को सताया जा रहा है आदि -आदि। जब सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर पर अंतरिम रोक लगाई तो पूरा विपक्ष खुशियाँ मनाने लगा जबकि सुप्रीम कोर्ट ने अवैध निर्माण को अपने आदेश से अलग रखा था। योगी राज्य में बुलडोज़र केवल अतिक्रमण पर ही चलता है अतः प्रशासन को अपना काम करने में कोई समस्या नहीं आई।
आश्चर्यजनक रूप से समाजवादी नेता अपनी जातिवाद की राजनीति को और पैना करने के लिए अपराधियों के पक्ष में खड़े हो रहे हैं। वहीं विगत दिनों हुई कुछ आपराधिक घटनाओं में शामिल लोग समाजवादी पार्टी से सम्बंधित रहे हैं संभवतः यही कारण है कि समाजवादी नेता अखिलेश यादव सहित अन्य सभी जातिवादी नेता जातिवाद के जहर को और तीखा कर रहे हैं। अयोध्या से लेकर कनौज तक दुष्कर्म की जितनी भी घटनाएं सामने आई हैं उसमें सपा कनेक्शन मिला, प्रयागराज में अवैध मदरसे में चल रहा जाली नोट का व्यापार व फिर कौशाम्बी में जाली नोट खपाने वाले सपा के दो नेता अपने दस सहयोगियों के साथ पकड़े गए स्वाभाविक रूप से आपराधिक घटनाओं में लिप्त पार्टी को बैकफुट पर जाने से बचाने के लिए ही अपराध की वीभत्सता तथा गम्बिरता की जगह अपराधी की जाति बीच में लाई जा रही है ।

अगस्त माह के अंत में सुल्तानपुर में डकैती डालने आये गिरोह के सदस्यों का एनकाउंटर हुआ जिसमें से एक मंगेश यादव के नाम पर समाजवादी नेता यादव समाज की सहानुभूति बटोरने के लिए उसके घर पहुंच गये और उसका महिमा मंडन करते हुए कहा कि यह एनकाउंटर नहीं एक हत्या है और अब सपा इस मामले को आगामी विधानसभा सत्र में भी जोर शोर से उठाने जा रही है। समाजवादी नेता आजकल जातिगत आधार पर ही अपराध और अपराधियों का संरक्षण व महिमामंडन कर रहे हैं।

प्रदेश की राजनीति में आज सभी दल अपराधी की जाति देखकर उस पर होने वाली कार्यवाही का तीखा विरोध कर रहे हैं जबकि प्रदेश में 2012 से 2017 तक सपा सरकार के शासन काल में पुलिस मुठभेड़ में 34 अपराधी मारे गये थे तथापि उनके शासनकाल में अपराध और अपराधियों का जोरदार बोलबाला था। एक समय था कि कोई सपने में भी नहीं सोच पाता था कि प्रदेश को कभी अतीक जैसे माफियाओं से मुक्ति मिलेगी या फिर बड़े सफेदपोश लोग जेल जाएंगे ।

पिछली सरकारों के कई एनकाउंटर में तो मजिस्ट्रेट जांच तक नहीं ती थी। जबकि योगी सरकार में सभी एनकाउंटर की मजिस्ट्रेट जांच हो रही है यहां तक कि कुख्यात माफिया मुख्तार अंसारी की जेल में हुई स्वाभाविक मौत की भी जांच हुई।

योगीराज में प्रदेश की कानून व्यवस्था को बेहतर बनाने लिए साढ़े सात वर्षो में 49 कुख्यात अपराधियों को मुठभेड़ में मार गिराया गया है । विभिन्न आपराधिक मामलों में संलिप्त 872 नशा व हथियार तस्करी अपराधी और 379 साइबर अपराधियां को गिरफ्तार किया है। साथ ही 3,970 संगठित अपराधियों को गिरफ्तार किया है। प्रदेश सरकार अवैध नशे के खिलाफ भी व्यापक अभियान चला रही हे जिसमें अभियुक्तों से सर्वाधिक गांजा बरामद हुआ है व अन्य नशीले पदार्थ भी बरामद हो रहे हैं ।

समाजवादी नेता अखिलेश यादव ने एसटीएफ को भी नहीं छोड़ा ओर उसमें शामिल अधिकारियों की जाति को अपने सोशल मीडिया हैंडल पर उकेर दिया ओर बताया कि कौन सा अधिकारी किस जाति का है। जब जातिवाद की राजनीति बहुत उग्र होने लग गई तब आंकड़ों को देखने से स्पष्ट हुआ कि विगत 7 साल में 207अपराधी एनकाउटर में मारे गये जिसमें -67 मुसिलम, 20 ब्राहमण, 18 ठाकुर, 17जाट ओर गुर्जर 16 यादव 14 दलित, तीन ट्राइबल, दो सिक्ख, 8 ओबीस और 42 दूसरी जातियों के थे।

जिस प्रकार से अपराधियों के पक्ष में जाति की राजनीति हो रही है वह सभ्य समाज के लिए उचित नहीं है। यह कहना पूरी तरह से गलत है कि यूपी की पुलिस जाति देखकर एनकाउंटर कर रही हैं या फिर अपराधियों को पकड़ रही है। प्रदेश सरकार अपराधियों का जाति और मजहब नहीं देखती। आज प्रदेश की कानून व्यवस्था की प्रशंसा हर कोई कर रहा है बड़े बड़े उद्योगपति व निवेशक प्रदेश आ रहे हैं और यही बात विपक्षी नेताओं को रास नहीं आ रही है ।

ब्रज मंडल में बंदरों का आतंक: पर्यटकों और स्थानीय लोगों के लिए बढ़ती चिंता

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आगरा: ताजमहल को देखने आने वाले पर्यटकों पर बंदरों के हमलों की एक लंबी श्रृंखला के बाद आगरा में भय का माहौल है। पर्यटकों के एक समूह ने हाल ही में कहा कि उन्हें ताजमहल परिसर में और उसके आसपास बंदरों, कुत्तों और मवेशियों के हमलों के प्रति सतर्क रहने की चेतावनी दी गई थी। गाइडों ने पर्यटकों को पेड़ों से घिरे संकरे रास्तों पर अकेले रोमांटिक सैर न करने और बंदरों के हमलों से बचने के लिए समूहों में रहने की सलाह दी है।

केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) के कर्मियों और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) के कर्मचारियों को इस बढ़ते खतरे से निपटने का कोई उपाय नहीं सूझ रहा है, नित्य नए प्रयोग जरूर होते रहते हैं। ताज परिसर में कुत्ते, बंदर और मधुमक्खियाँ सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा साबित हो रहे हैं।

अगस्त में, इंदौर के एक समूह पर ताज परिसर के अंदर संग्रहालय के पास बंदरों ने हमला किया था। अप्रैल में, चेन्नई के एक पर्यटक को एक खतरनाक कुत्ते ने काट लिया, जबकि एक इजरायली पर्यटक को ताज के पूर्वी द्वार के बाहर एक उग्र सांड ने नीचे गिरा दिया। इससे पहले, कुछ फ्रांसीसी पर्यटकों पर बंदरों ने हमला किया था। एक ऑस्ट्रियाई पर्यटक पर बंदरों ने हमला किया था।
बंदरों के उपद्रव को रोकने के लिए अतीत में की गई योजनाएं कार्यान्वयन की कमी या संसाधनों की कमी के कारण विफल हो गई हैं। एक पूर्व आयुक्त ने 10,000 बंदरों को पकड़ने के लिए एक गैर सरकारी संगठन को नियुक्त किया था, लेकिन उचित अधिकारियों से अनुमति न मिलने के कारण यह योजना सफल नहीं हो सकी। “लेकिन अब स्थिति वाकई चिंताजनक है। बंदर सेना के रूप में एक इलाके से दूसरे इलाके में मार्च करते देखे जा सकते हैं। वन्यजीव अधिनियम के प्रावधानों के कारण, बिना पर्याप्त सुरक्षा और सावधानियों के बंदरों पर हमला नहीं किया जा सकता या उन्हें पकड़ा नहीं जा सकता। बंदरों को दूसरे इलाकों में भेजने की योजना विफल हो गई है, क्योंकि कोई भी जिला उन्हें आश्रय नहीं देना चाहता।

वास्तव में, पूरे ब्रज मंडल में बंदरों की बढ़ती आबादी शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है। वृंदावन में तीर्थयात्रियों पर लगभग हर रोज हमला होता है। आमतौर पर, बंदर चश्मे या पर्स को निशाना बनाते हैं, जिन्हें तभी लौटाया जाता है जब बंदरों को कुछ खाने-पीने की चीजें या ठंडा पेय दिया जाता है।

नागरिक अधिकारी इस खतरे से निपटने में असहाय दिखते हैं। “हमने नगर निगम को कई बार लिखा है, लेकिन उनकी तरफ से कोई कार्रवाई नहीं हुई है।” नवंबर 2016 में जब पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी वृंदावन आए थे, तो बंदरों को भगाने के लिए लंगूरों को काम पर रखना पड़ा था। “हर मंदिर में बंदरों की सेना होती है। तीर्थयात्रियों के लिए – खास तौर पर महिलाओं और बच्चों के लिए – गलियों से होकर गुजरना हमेशा मुश्किल रहा है, क्योंकि हर जगह गाय और आवारा कुत्ते हैं। अब बंदरों के आतंक ने इसे और भी मुश्किल बना दिया है।” वृंदावन के एक निवासी ने कहा: “यह एक अजीब दुनिया है, बंदर इंसानों पर हमला कर सकते हैं, लेकिन हम उन्हें मार नहीं सकते । एक पशु अधिकार कार्यकर्ता ने सुझाव दिया: “वन्यजीव अधिनियम में बंदरों को संरक्षित प्रजातियों की सूची से बाहर कर दिया जाना चाहिए। चूंकि प्राइमेट्स को मारा नहीं जा सकता, इसलिए उन्हें पकड़कर जंगलों में छोड़ दिया जाना चाहिए। बंदरों की नसबंदी की जानी चाहिए।

आगरा में 50,000 से ज़्यादा बंदर हैं। सरकारी एजेंसियाँ इन शरारती जीवों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने में विफल रही हैं, जो मनुष्यों और हरियाली दोनों के लिए ख़तरा हैं। चंबल के बीहड़ों या चित्रकूट के जंगलों में बंदरों को स्थानांतरित करने के प्रयास विफल हो गए हैं, क्योंकि वे क्षेत्र पहले से ही बंदरों से भरे हुए हैं। स्थानीय वन्यजीव विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि आगरा के कई बंदर टीबी से पीड़ित हैं, जो जंगलों में ले जाए जाने पर फैल सकता है।

वन विभाग के अधिकारियों से निवासियों की शिकायतों का कोई नतीजा नहीं निकला है। एक अनाम अधिकारी ने कहा, “हमारे पास इन गतिविधियों के लिए कोई फंड नहीं है। इसके अलावा, जब आप बंदरों को मार नहीं सकते, तो आप उन्हें कहां रखेंगे?”

आगरा शहर में, विशेष रूप से ताजमहल के आसपास, जहां पर्यटक पीड़ित हो रहे हैं, बंदरों के उपद्रव और आवारा कुत्तों के खतरे से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए, अधिकारियों को कई ठोस सुझावों पर विचार करना चाहिए। उन्हें निवासियों और आगंतुकों दोनों को बंदरों और आवारा कुत्तों को खिलाने या उनके साथ बातचीत न करने के महत्व के बारे में शिक्षित करने के लिए जागरूकता अभियान शुरू करना चाहिए। इससे उनकी मानव खाद्य स्रोतों पर निर्भरता कम करने और आक्रामक व्यवहार की संभावना को कम करने में मदद मिल सकती है। अधिकारियों को ताजमहल के आसपास कचरा प्रबंधन प्रणालियों में सुधार करना चाहिए ताकि बंदरों और आवारा कुत्तों के लिए खाद्य स्रोतों की उपलब्धता को कम किया जा सके। सीलबंद डिब्बे और नियमित कचरा संग्रहण इन जानवरों को क्षेत्र में कचरा बीनने और इकट्ठा होने से रोकने में मदद कर सकते हैं। नगर निगम को स्थानीय पशु नियंत्रण एजेंसियों के साथ काम करना चाहिए ताकि समस्या वाले बंदरों और आवारा कुत्तों को पकड़ने और स्थानांतरित करने के लिए प्रभावी रणनीतियों को लागू किया जा सके। इसमें मानवीय जाल लगाना और उन्हें ऐसे अधिक उपयुक्त आवासों में स्थानांतरित करना शामिल हो सकता है जहां उनके मनुष्यों के संपर्क में आने की संभावना कम हो। संबंधित एजेंसियों को ध्वनि उपकरणों, दृश्य डराने-धमकाने वाले तरीकों या प्राकृतिक विकर्षक जैसे गैर-घातक निवारक उपायों के उपयोग का पता लगाना चाहिए ताकि बंदरों और आवारा कुत्तों को ताजमहल जैसे उच्च-यातायात वाले क्षेत्रों के पास आने से हतोत्साहित किया जा सके।

इन ठोस सुझावों को समन्वित तरीके से लागू करके, आगरा शहर में अधिकारी विशेष रूप से ताजमहल जैसे लोकप्रिय पर्यटक क्षेत्रों में बंदरों के उपद्रव और आवारा कुत्तों द्वारा उत्पन्न चुनौतियों का समाधान कर सकते हैं।

शोधार्थियों के लिए निःशुल्क ऑनलाइन आर्काइव और डिजिटल लाइब्रेरी

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इतिहास, समाज-विज्ञान और साहित्य के शोधार्थियों के लिए कुछ निःशुल्क ऑनलाइन आर्काइव की सूची । यह सूची इन विषयों में रुचि रखने वाले अध्येताओं और पाठकों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो सकती है।

1. इंटरनेट आर्काइव : 1996 में शुरू हुई ‘इंटरनेट आर्काइव’ अभी दुनिया की सबसे बड़ी निःशुल्क ऑनलाइन आर्काइव है। जिसमें चार करोड़ से ज़्यादा किताबें और टेक्स्ट तथा लाखों वीडियो, ऑडियो और तस्वीरें उपलब्ध हैं।

2. अभिलेख पटल : राष्ट्रीय अभिलेखागार के ऑनलाइन पोर्टल अभिलेख पटल पर आप केवल लॉग-इन आईडी बनाकर लाखों ऐतिहासिक दस्तावेज देख-पढ़ सकते हैं बिलकुल मुफ्त।

3. डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ़ इंडिया : शिक्षा मंत्रालय द्वारा संचालित और आईआईटी, खड़गपुर द्वारा विकसित इस वेबसाइट से आपको अपने शोध के संदर्भ में काफ़ी सामग्री मिल सकती है।

4. गांधी हेरिटेज पोर्टल : सम्पूर्ण गांधी वांगमय के साथ-साथ महात्मा गांधी से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेज़ों, तस्वीरों, पत्रों का शानदार ऑनलाइन संग्रह, जो पूरी तरह निःशुल्क है।

5. राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन : 2003 में शुरू हुए राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन के अंतर्गत पांडुलिपियों के डिजिटाईजेशन का काम बखूबी किया गया है। दुर्लभ पांडुलिपियों की उपलब्धता, उनके लोकेशन आदि की सटीक जानकारी अब आप पांडुलिपि पटल पर देख सकते हैं।

6. लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस : अमेरिका की लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस ने अपने बेहतरीन संग्रह का एक बड़ा हिस्सा डिज़िटाईज़ कर ऑनलाइन उपलब्ध कराया है। इसे ज़रूर देखें।

7. डिजिटल साउथ एशिया लाइब्रेरी : शिकागो यूनिवर्सिटी की इस वेबसाइट पर पर दक्षिण एशिया से जुड़ी शोध सामग्री मिलेगी।

8. नैशनल सेंटर फ़ॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ : बेंगलुरु स्थित एनसीबीएस ने भारत में विज्ञान के इतिहास से जुड़े आर्काइव के निर्माण और उसे निःशुल्क उपलब्ध कराने का सराहनीय काम किया है।

9. सेंटर फ़ॉर स्टडीज़ इन सोशल साइंसेज़ : कोलकाता स्थित सीएसएसएस ने बांग्ला और असमिया भाषा की पत्र-पत्रिकाओं और दुर्लभ पुस्तकों को डिजि टाईज़ कर छात्रों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध कराया है।

10. भारतीय प्रबंधन संस्थान, अहमदाबाद : अगर आप संस्थागत इतिहास और आज़ादी के बाद शिक्षण संस्थानों के इतिहास में दिलचस्पी रखते हैं। तो आईआईएम, अहमदाबाद का ऑनलाइन आर्काइव आपको ज़रूर देखना चाहिए।

11. भोजपुरी साहित्यांगन : अगर आप भोजपुरी भाषा व साहित्य के इतिहास और लोक-संस्कृति में दिलचस्पी रखते हैं, तो भोजपुरी साहित्यांगन की वेबसाइट आपके लिए ही है। इस वेबसाइट पर भोजपुरी की हज़ार से अधिक किताबें और भोजपुरी पत्रिकाओं के अंक ऑनलाइन उपलब्ध हैं।

12. मार्क्सिस्ट आर्काइव : कार्ल मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन सहित दुनिया भर के प्रमुख मार्क्सवादी विचारकों के लेखन पर केंद्रित ऑनलाइन आर्काइव।

13. डिजिटल पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ़ अमेरिका : इस वेबसाइट पर अमेरिका के आर्काइव, लाइब्रेरी और म्यूज़ियम से डिजिटाईज़ की सामग्री देखी जा सकती है।

जर्नल में प्रकाशित लेखों के लिए

1. Sci-Hub : सब्सक्रिप्शन आधारित जर्नलों में प्रकाशित लेखों की तलाश इस वेबसाइट के ज़रिए निःशुल्क पूरी हो सकती है।

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महात्मा गांधी की प्रासंगिकता और विचारधारा घटी है या बढ़ी है?

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लाख कोशिशों के बावजूद महात्मा गांधी के जीवन आदर्श और गांधीवादी विचारधारा से, भारत की वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था के कप्तान, मुक्ति नहीं पा सके हैं।

कांग्रेसियों ने कभी गांधी को जीया ही नहीं, और हिंदुत्ववादी विचारकों को शुरू से ही गांधी नाम से ही घिन या चिढ़ रही है।
गांधी का कद छोटा करने के लिए, तमाम पिग्मी साइज नेताओं को मार्केट किया गया, लेकिन दुनिया ने उन्हें नहीं स्वीकारा। अभी भी विदेश से कोई भी नेता आता है, उसे सरकार सबसे पहले राज घाट ले जाकर गांधी जी को दंडवत कराती है।हकीकत ये है कि वैचारिक सोच के स्तर पर विश्व दो भागों में विभाजित हो चुका है: प्रो गांधी और एंटी गांधी, यानी गांधी हिमायती और गांधी विरोधी।
पश्चिमी एशिया और उत्तरी यूरोप, युद्ध की विभीषिका से जूझ रहे हैं। बढ़ती हिंसा, प्रति हिंसा, नफरत, द्वेष, आतंकवाद, और भय के साए में कुलबुलाती मानवता की मजबूरी है गांधी। युद्ध और हिंसा से कभी कोई मसला स्थाई तौर पर हाल नहीं हुआ है।

“जितने भी राज नेता, धार्मिक गुरु अंबानी परिवार की शादी में शामिल हुऐ, उनको गांधीवाद से प्रेम प्रदर्शन करने का ढोंग नहीं करना चाहिए,” कहते हैं बाबा राम किशोर, लखनऊ वाले। गांधी को समझकर जिंदगी में ढालना आज के नेताओं के वश की बात नहीं!
एक लिहाज से देखें तो अच्छा ही हुआ कि गांधी जी समय से पहले ही चले गए, वरना आजादी बाद के नेताओं के कुकर्मों को देखकर उनका आखरी वक्त बेहद तकलीफदायक हो सकता था।

एक आरोप जो गांधी पर अक्सर लगाया जाता रहा है कि देश का विभाजन उनकी वजह से हुआ, अब खारिज हो चुका है।आज बहुत लोग मानते हैं कि पार्टीशन होने की वजह से ही हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान बचे हैं।

बहरहाल, दो अक्टूबर फिर आ गया है, आओ महात्मा गांधी को फिर एक दिन याद करें।

महात्मा गांधी, एक एतिहासिक महा पुरुष ही नहीं, बल्कि एक विचारधारा हैं जिन्हें न तो भुलाया जा सकता है और न ही दरकिनार किया जा सकता है। महात्मा गांधी की प्रासंगिकता के बारे में सवालों के बावजूद, एक राजनीतिक रणनीतिकार और अहिंसक प्रतिरोध तकनीकों के प्रवर्तक के रूप में गांधी का योगदान अद्वितीय है।

हालाँकि, हम अक्सर उन्हें केवल 2 अक्टूबर और 30 जनवरी को ही याद करते हैं, उनकी शिक्षाओं को चरखा चलाने, भजन सुनाने और खादी को छूट पर बेचने जैसे प्रतीकात्मक गतिविधियों तक सीमित कर देते हैं।

महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने एक बार कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करने में कठिनाई होगी कि गांधी जैसा व्यक्ति जीता जागता कभी अस्तित्व में था। अपनी मृत्यु के दशकों बाद, गांधी अपने ही देश में एक किंवदंती और मिथक बन गए हैं, उनके शब्दों और कार्यों को काफी हद तक भुला दिया गया है।

आज आधुनिक भारत में पाखंड और झूठ ने जब अपनी जड़ें जमा ली हैं, तब गांधी की प्रासंगिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने वालों की जमात में तेजी से इजाफा हो रहा है। दुनिया, खासकर गरीब देशों को सामाजिक-आर्थिक समस्याओं और मानव मनोविज्ञान के बारे में गांधी की अंतर्दृष्टि की जरूरत है। उनके अहिंसक प्रतिरोध के तरीकों ने कपट और धोखे पर निर्भर आधुनिक राज्यों की कमजोरी को प्रदर्शित किया है।

सत्याग्रह, उपवास और हड़ताल के उनके तरीकों को आगे बढ़ाने के लिए अहिंसक प्रतिरोध सहित गांधीवादी मूल्यों पर फिर से विचार करने का समय आ गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं। गांधी के विचार २१ वीं सदी के लिए हैं ।

दुर्भाग्य से, अहिंसक आंदोलनों का दायरा बढ़ाने में हम असफल रहे हैं, और गांधीवादी संस्थान, जिसे चर्च ऑफ गांधी, कहा जाने लगा है, बिना किसी नई सोच के हर जगह कुकुरमुत्तों के जैसे फैल गए हैं।

वर्तमान में उस भ्रामक तर्क का मुकाबला करने का समय आ गया है जो प्रचारित करता है कि किसी राष्ट्र की प्रतिष्ठा उसके लोगों की भलाई के बजाय उसकी सैन्य शक्ति से मापी जाती है।

वास्तव में, वैश्विक स्वास्थ्य विशेषज्ञ इस बात पर जोर देते हैं कि अच्छी सेहत का निर्धारण स्वास्थ्य क्षेत्र के प्रत्यक्ष नियंत्रण से बाहर के कारकों जैसे शिक्षा, आय और रहने की स्थिति से होता है। यह गांधी के कल्याण के प्रति समग्र दृष्टिकोण से मेल खाता है।
आइए गांधी की शिक्षाओं और मूल्यों पर फिर से विचार करें, प्रतीकात्मक इशारों से आगे बढ़कर सार्थक कार्रवाई करें। दुनिया को आज उनकी अहिंसा, प्रेम, भाईचारे की पहले से कहीं ज़्यादा ज़रूरत है।

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