अंतरराष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्ति दिवस: ‘मैं और मेरा थैला’

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आगरा । पचास वर्षों का साथ ! मेरे जीवन का एक विश्वस्त साथी रहा है—मेरा झोला। यह कोई साधारण थैला नहीं, बल्कि मेरे व्यक्तित्व, मेरे विचारों और मेरी आदतों का प्रतीक है। पचास वर्षों से यह मेरे साथ रहा है। कभी किताबों से भरा, कभी कागज़ातों से, तो कभी सपनों से। मेरे मित्र स्व. श्रवण कुमार समय-समय पर मुझे नए थैले भेंट करते रहे, जिनमें से हर एक की अपनी एक कहानी थी। दिल्ली के पुराने समाजवादी साथी प्रो. पारस नाथ चौधरी (दरभंगा वाले) तो अपने थैले के साथ ही सोते हैं। वहीं, स्व. कामरेड राम किशोर का झोला ज़माने भर के क्रांतिकारी पेम्प्लेट्स और पर्चों से भरा रहता था। ये झोले सिर्फ़ थैले नहीं थे, बल्कि आत्मनिर्भरता, विचारधारा और परिवर्तन के प्रतीक थे।

झोला: आज़ादी और स्थिरता का प्रतीक

झोला या कपड़े का थैला केवल एक सामान रखने की वस्तु नहीं है—यह एक जीवनशैली है। यह उस सोच को दर्शाता है जो प्लास्टिक की गुलामी से मुक्त होकर प्रकृति के साथ तालमेल बिठाती है। जब हमारे पास अपना झोला होता है, तो हमें प्लास्टिक या पॉलीथिन की थैलियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। यह छोटा-सा कदम पर्यावरण को बचाने की दिशा में एक बड़ा बदलाव ला सकता है।

प्लास्टिक मुक्ति: एक ज़रूरी संकल्प

आज अंतरराष्ट्रीय प्लास्टिक बैग मुक्ति दिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि हम प्लास्टिक बैग्स का उपयोग बंद कर देंगे। प्लास्टिक प्रदूषण आज दुनिया की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। यह न सिर्फ़ हमारी धरती को प्रदूषित कर रहा है, बल्कि समुद्री जीवन, वन्यजीवों और मानव स्वास्थ्य के लिए भी घातक साबित हो रहा है। प्लास्टिक की थैलियाँ सैकड़ों वर्षों तक नष्ट नहीं होतीं और मिट्टी व पानी को जहरीला बना देती हैं।

कपड़े के थैले: टिकाऊ और स्टाइलिश विकल्प
कपड़े के थैले न केवल पर्यावरण के अनुकूल हैं, बल्कि ये टिकाऊ और स्टाइलिश भी हैं। आजकल बाज़ार में कई तरह के आकर्षक डिज़ाइनों वाले कपड़े के झोले उपलब्ध हैं, जिन पर प्रेरक संदेश लिखे होते हैं, जैसे—

– “प्लास्टिक फ्री, दैट्स मी!”
– “कैरी क्लॉथ, सेव अर्थ!”
– “मेरा झोला, मेरी पहचान!”

ये थैले न सिर्फ़ आपके शॉपिंग एक्सपीरियंस को बेहतर बनाते हैं, बल्कि आपको एक जागरूक नागरिक के रूप में भी पहचान दिलाते हैं।
एक छोटा कदम, बड़ा बदलाव

हर व्यक्ति यदि अपने स्तर पर प्लास्टिक बैग्स का उपयोग बंद कर दे, तो इससे बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। आइए, इस दिवस पर हम यह प्रण लें—
1. हमेशा अपना कपड़े का थैला साथ रखेंगे।
2. दुकानदारों को प्लास्टिक बैग देने से मना करेंगे।
3. अपने परिवार और दोस्तों को भी प्लास्टिक मुक्त जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित करेंगे।

मेरा झोला मेरे लिए सिर्फ़ एक थैला नहीं, बल्कि एक विचारधारा है—सादगी, स्वावलंबन और पर्यावरण संरक्षण की। आप भी अपने जीवन में एक सुंदर-सा झोला अपनाइए, जो न सिर्फ़ आपका सामान संभालेगा, बल्कि प्रकृति के प्रति आपकी ज़िम्मेदारी भी निभाएगा।

शृंखला आलेख – 18 उस दौर के शहरी माओवादी

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रायपुर : बंदूख लेकर माओवाद सीधे नहीं उपजा, बल्कि उसे उर्वरा जमीन शहरी माओवादियों ने प्रदान की है। बस्तर परिक्षेत्र में माओवाद को अस्सी के दशक का बताया जाता है लेकिन आश्चर्य होगा इससे दशकों पहले जमीन तैयार की जा रही थी। इसका प्रयास महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव के जीवित रहते ही आंध्रप्रदेश की ओर से आरंभ हो चला था।

तेलांगाना सशस्त्र संघर्ष के इतिहास लेखक पी. सुंदरैया ने लिखा है कि “1951 में पहली बार अविभाजित सीपीआई ने गोदावरी पार कर बस्तर में प्रवेश करने की कोशिश की, लेकिन उन लोगों के बीच से उन्हें कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली। वे उनकी भाषा तक नहीं समझ सकते थे। इसके बजाय उनका सामना हुआ शत्रुतापूर्ण पुलिस से। भोपालपट्टनम में जब उनके तीन साथियों को गोली मारी गई तो कम्युनिष्ट वहाँ से लौट गये”। सुंदरैया के अनुसार प्रयास यहीं नहीं रुके बल्कि वर्ष 1963 में लाल झंडों के साथ एक सायकिल रैली भी कम्युनिष्टों द्वारा निकाली गई थी। महाराजा प्रवीर के कारण बस्तर को एक स्वर और प्रतिनिधित्व प्राप्त था इसलिए असफलता स्वाभाविक है।

जब शहरी नक्सलवाद शब्द आविष्कृत भी नहीं हुआ था उस दौर की यह घटना महत्व की है। बात है वर्ष 1968 की और स्थान है जगदलपुर जबकि दीवारों पर उग्र वामपंथी नारों के लेखन के लिए वाई. एस. मूर्ति नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया था। यह व्यक्ति भी आंध्र-तेलांगाना का ही था। मूर्ति की गिरफ्तारी बहुत चर्चा में रही थी और इसका विरोध तब शंकर गुहा नियोगी ने भी किया और अपनी गिरफ्तारी भी दी थी।

इन छुटपुट घाटनाओं के बीच एक वारंगल का एक शहरी नक्सली चुपचाप अपना काम कर रहा था और उसका नाम था पी विजय कुमार। बंदूख वालों के आगमन से पहले ही आंध्र-तेलांगाना से शहरी नक्सली लगातार दस्तक दे रहे थे और बस्तर में माओवाद के लिए जमीन तैयार करने में लगे थे। विजय कुमार एक डॉक्टर था और उसने वर्ष 1974 में भोपालपट्टनम में डॉ. श्रीनिवास राव के नाम से काम शुरू किया। इसका सहयोगी था तुषार कान्ति भट्टाचार्य जो बदले हुए नाम मोहन सिंह के साथ काम कर रहा था। बाद में तुषार ने अपना अलग क्लीनिक तारलागुड़ा में खोल लिया। इनकी गतिविधियों पर पुलिस की निगाह थी। जब छापा मारा गया तो बहुत बड़ी मात्रा में जमीन में गाड़ कर छिपाया गया नक्सल साहित्य बरामद हुआ। डॉक्टरों के भेस में आतंकवाद का पोषण करने वाला विजय कुमार या तुषार कोई अकेले उदाहरण तो नहीं है बल्कि यहाँ से आरंभ कर विनायक सेन तक यह एक श्रंखला है जो शहरी माओवाद शब्द को तथ्यपरक बनाती है। विजय कुमार के बारे में बताया जाता है कि गिरफ्तार होने के डर से संभवत: वह अमेरिका भाग गया था।

शहरी नक्सलवाद आज मीडिया और सोशल मीडिया का सहारा लेता है। वर्ष 1980 के दौर में टेलीविजन बहुत हद तक सरकारी नियंत्रण में था और सोशल मीडिया समुपस्थित नहीं था परंतु तब सिनेमा, विशेषरूप से समानांतर सिनेमा कम्युनिष्टों और शहरी माओवादियों की ताकत बना। इस कडी में माओवसाद को महिमामण्डित करती वर्ष 1980 में बनायी गयी ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म दि नेक्सलाईट पर चर्चा आवश्यक है। कथानक आश्चर्य में डालता है चूंकि फिल्म में उस दौर का बस्तर दिखाया गया है जब यहाँ नक्सल गतिविधियाँ आरम्भ भी नहीं हुई थीं। बस्तर को बहुत शोध के स्थान पर रुमानियत के साथ दिखाया गया है। फिल्म का बस्तरिया पात्र अर्जुन आदिवासी रॉबिन हुड अधिक प्रतीत होता है। नायिका स्मिता पाटिल ने ताकतवर भूमिका अदा की है। केवल शक के आधार पर नायिका अपने कमांडर का आदेश मिलने के कारण प्रेमी पर उसके निर्दोष होने की बात जानते-बूझते हुए भी गोली चला कर हत्या कर देती है।

मुझे यह बात आश्चर्य में डालती है कि जब आंध्र-तेलांगाना नक्सलवाद की आग में झुलस रहे थे तब उसे ओर से बस्तर के भीतर कोई अध्यापक, कोई चिकित्सक या कोई सिनेमा कैसे बंदूख की आमद के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर रहा था। उस दौर के शहरी नक्सली भी भुलाये नहीं जाने चाहिए क्योंकि माओवाद केवल बंदूख नहीं है।

शृंखला आलेख – 17 मानवश्रम का ऐसा निर्मम शोषण और माओवाद

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रायपुर : छत्तीसगढ़ के गृह मंत्री श्री विजय शर्मा ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहा था “कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है अथवा समर्पण कर देता है तो उसपर आगे विश्वास करना असंभव है लेकिन बस्तर का कोई लड़का जो माओवादी बन गया है, यदि आज आत्मसमर्पण कर देता है तो कल से मैं उसे अपनी सुरक्षा में भी ले सकता हूँ, मुझे इतना भरोसा है कि वह जीजान लगा कर मेरी रक्षा ही करेगा। इस कथन ने मुझे विवेचना के लिए बाध्य किया है कि क्या माओवादी कैडर सवेच्छा से संगठन में है अथवा सत्य कुछ और है?

इसी कड़ी में बताना चाहता हूँ कि पिछले कुछ वर्षों में मैं अनेक माओवादियों-पूर्वमाओवादियों से मिला (इस संबंध में रचना नायडू जी Rachana Yadav Naidu के साथ मिल कर लिखी मेरी एक पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित हो कर आने वाली है)। नक्सल अर्थशास्त्र को उनसे जब जाना-समझा तो एक बात मेरे सामने थी कि मानवाधिकार की चीख पुकार मचाने वाले शहरी नक्सलियों ने कभी इस बात को रेखांकित क्यों नहीं किया कि मानवश्रम के सबसे बड़े शोषक हैं माओवादी।थोड़ी और स्पष्टता से बात करते हैं। नव-माओवादी अधिकतम पंद्रह से अठारह वर्ष की आयु में रिक्रूट किए जाते हैं। इससे पूर्व अधिकांश ग्रामीण बच्चे माओवादी खुफियातन्त्र की प्रथम पंक्ति अर्थात बालसंघम में कार्य कर चुके होते हैं। इस आयु में किस किशोर से क्रांति की बुनियादी समझ की अपेक्षा की जा सकती है? दुनिया की कौन सी मानवअधिकार संस्था इस आयु के बच्चों और किशोरों को मुखबिरी करने और शस्त्र चलाने जैसे कार्यों में झोंके जाने की समर्थक है? यदि कोई नहीं तो दुनिया भर के शहरी नक्सली देश-विदेश में मानवाधिकार के नाम पर सेमीनार करते ही रहते हैं, उन्होंने कभी अपना गिरेबान इस तरह से क्यों झांक कर नहीं देखा?

यह भी जानिए कि माओवादी बाकायदा एक आर्मडफोर्स की तरह कार्य करते हैं, उनकी बटालियन हैं अलग अलग रैंक हैं, पदोन्नति की विधियाँ हैं। दुनिया की कोई आर्मडफोर्स बताईये वह चाहे आतंकवाद का ही पोषण क्यों न् कर रही हो, जो अपने कैडर से मुफ़्त में काम लेती है? यह सही है कि माओवादियों का अर्थतन्त्र बहुत व्यापक है और उगाही करोड़ों की है लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सत्य है कि माओवादी अपने कैडरों को उनके श्रम का एक रुपया भी नहीं देते। हां!! मजदूरों-किसानों की बात करने वाली पार्टी अपने मजदूर और किसान वर्ग से आये कैडरों को उनकी मेहनत और जीवन झोंक देने के एवज में कोई राशि नहीं देती। कैडर मुठभेड़ में मर गया तो परिजन को कोई कंपनशेसन नहीं दिया जाता, कैडर या उसके परिवार का कोई गंभीर रूप से बीमार हो गया तो गिनती के अपवाद छोड़ कर बहुत हद तक नीम-हकीमों के भरोसे ही उन्हें छोड़ दिया जाता है और माओवादी पार्टी इलाज का पैसा देने के नाम पर कन्नी काटती रहती है। अगर दिया जाता है तो मासिक कंघी, तेल, साबुन जैसी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दल के कमांडर को पैसा, जो अपने समूह की रोजमर्रा की आवश्यकताओ के सामान उन्हें उपलब्ध करा देता है। कोई वेतन न् दिए जाने के पीछे का तर्क है कि क्रांति का सिपाही को तनख्वाह क्यों चाहिए?

सोचिए कि यही तर्क बड़े माओवादी कैडरों पर लागू क्यों नहीं? माओवादीयों ने जो अर्थतन्त्र बना रखा है उसकी मोटी मलाई स्वयं शहरी नक्सली निगलते है। बड़े कैडर भी पीछे नहीं, अन्यथा सोचिए कि एक समय माओवादी संगठन के महासचिव रहे गणपति के सिंगापुर में होने के समाचार हवा में क्यों हैं? कई बड़े माओवादी इकट्ठा किया गया कैशडंप ले कर भी फरार हुए हैं। क्या आपने बालश्रम का ऐसा दोहन कहीं देखा, पढ़ा या सुना है? क्या मानवश्रम का ऐसा दोहन आपकी कल्पना में है? सच यह है कि विचारधारा की चाश्नी चटा कर बंदूख पकड़ने वाले बंधुआ मजदूरों की फौज है नक्सलवाद। मार्क्स और माओ के समानता और अधिकारवादी विचारों की वास्तविकता, थेथरई और नंगई को जानना है तो माओवाद को ठीक से समझिये।

शृंखला आलेख – 16: जनाधार विहीन लेकिन जनता की बात!!

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रायपुर: यदि आप माओवादी परिक्षेत्र में यदि जायें तो एक शब्द से सतत सामना होगा और वह है “जनता”। क्या जनता भी माओवादियों के साथ है इसे समझने का क्या पैमाना हो सकता है? आलोक पुतुल की पुस्तक “नक्सलबाड़ी अबूझमाड” में नक्सलवाद के जनक माने जाने वाले कानू सान्याल का साक्षात्कार है जिसमें एक प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं “बंदूख पकड़ने से रेड कॉरीडोर नहीं बनाता है, जबतक लोग आपके साथ नहीं हैं।” इसी तरह एक आने प्रश्न के उत्तर में वे कहते हैं “भारत की धरती में केवल जंगल ही नहीं हैं, बड़े बड़े शहर, देहाती इलाके, हजारों लाखों किसान, कला कारखाने में काम करने वाले एक-एक प्रांत में पचास से साठ लाख मजदूर काम करते हैं। अगर ये आपका साथ न् दें तो कामयाबी नहीं मिलेगी।” इसी साक्षात्कार में एक स्थान पर कानू न् केवल अपने साथी चारू मजूमदार से असहमति दिखाते हैं बल्कि माओवाद की आतंकवाद से भी तुलना कर देते हैं। भले ही कानू सान्याल ने आत्महत्या कर ली है लेकिन आरंभकर्ता होने के कारण नक्सलवाद के किसी भी प्रसंग में वे और उनके विचार हमेशा प्रासंगिक रहेंगे। क्या माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व को यह समझ में आने लगा था कि उनकी जनाधार विहीनता एक न् एक दिन उनके विनाश की तारीख तय कर सकती है?

जनता क्यों माओवादियों के साथ नहीं है? वस्तुत: आमजन ने वामपंथ को ही कभी स्वीकार नहीं किया अन्यथा ऐसा क्यों होता कि जिस देश में आंचलिक दल भी अपना आकार विस्तार बढ़ा लेते हैं सभी वामदल एक साथ मिलकर भी उंगलियों में गिने जाने जितना प्रतिनिधित्व पाते हैं? छत्तीसगढ़ के बस्तर परिक्षेत्र में माओवाद की केन्द्रीय राजधानी मानी जाती है लेकिन यहाँ नर्म-वामपंथ का उद्भव तब था जबकि बैलाड़ीला लौह अयस्क परियोजना में कार्य मुख्य रूप से मजदूरों के माध्यम से होता था। राष्ट्रीय राजनीति के प्रभाव वाले इस दौर में एनएमडीसी की आमद के साथ ही दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र में मजदूर राजनीति का उद्भव हुआ। वर्ष 1980 के चुनाव परिणाम में पहली बार मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की टिकट से उन्हीं महेन्द्र कर्मा ने दंतेवाडा सीट जीत ली थी जो बाद में नक्सलवाद विरोधी अभियान ‘सलवा जुडुम’ का सबसे बड़ा चेहरा बने। इस जीत के पीछे बैलाडिला लौह अयस्क परियोजना में कार्यरत कम्पनी एनएमडीसी की मजदूर यूनियनों का बहुत बडा योगदान था, साथ ही साथ वर्ष 1978 में हुआ किरन्दुल गोलीकाण्ड भी इस मजदूर बाहुल्य क्षेत्र में वामपंथ की जमीन तैयार करने में मुख्य सहयोगी बना। वामपंथी दलों को वर्ष 1990 और 1993 के चुनावों में दो दो सीटे मिली थीं और उसके बाद चूंकि मजदूर ही साथ नहीं रहे, एनएमडीसी की मजदूर यूनियन में कॉंग्रेस और भाजपा के समर्थित समूहों की भी आमद हुई अतः दक्षिण बस्तर में जो गिनी चुनी विधान सभा की सीटे मिला करती थीं वह मिलना भी बंद हो गयीं।

बस्तर संभाग में नक्सलवाद और चुनाव एक बार फिर वर्ष 2014 में चर्चा में आए जबकि आम आदमी पार्टी की ओर से लोकसभा की प्रत्याशी सोनी सोरी को बनाया गया। जो लोग नक्सलवाद पर पैनी दृष्टि रखते हैं वे स्वामी अग्निवेष की बस्तर में विशेष रुचि से अवश्य अवगत होंगे। अग्निवेश ने बाकायदा सोनी सोरी के पक्ष में चुनाव प्रचार किया और नक्सलियों से यह अपील भी की थी कि वे चुनाव जीतने में सोनी सोरी की मदद करें। नक्सलियों से मांगी गयी इस मदद के व्यापक मायने हैं, कोई गहरे इसे बूझने का यत्न तो करे। अब परिणाम विवेचित करते हैं ऐसा क्यों हुआ कि बस्तर के आम मतदाता ने सोनी सोरी को वोट देने के स्थान पर उससे अधिक नोटा के बटन दबाये। बस्तर में कुल नोटा मत पडे 38772 अर्थात कुल प्राप्त मतों का पाँच प्रतिशत, जबकि आम आदमी पार्टी की प्रत्याशी सोनी सोरी को केवल सोलह हजार नौ सौ तीन मत प्राप्त हुए अर्थात महज दो प्रतिशत।

इन सभी उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि वह चाहे नरम वामपंथ हो अथवा उग्र वामपंथ, बस्तर परिक्षेत्र में उनकी लोकप्रियता नहीं के बराबर है इसीलिए सारी चर्चा बारूद, बंदूख और ब्लास्ट पर केंद्रित है। शहरी माओवादियों का ‘लोग साथ हैं इसलिए माओवाद’ वाला नैरेटिव तो तथ्यों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता। माओवाद क्या मिट पायेगा इसपर अभी संभावना पर बात न् कर यही कहना उचित होगा कि ‘आरंभ है प्रचंड’।

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