बिहार में आसान नहीं है, गलत को गलत बोलना

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कोई भी आरटीआई कार्यकर्ता यह जानना चाहे कि उसके घर के सामने बनी सड़क के लिए कितना पैसा खर्च हुआ, वह धन विधायक फंड से आया या किसी अन्य स्रोत से, और उसे किस कंपनी के माध्यम से खर्च किया गया-यह सारी जानकारी आरटीआई के जरिए मांगी जा सकती है। लेकिन इस प्रक्रिया में समय, मेहनत और संसाधनों की जरूरत होती है। दुर्भाग्यवश, बिहार में आरटीआई कार्यकर्ताओं का यह समूह धीरे-धीरे थक रहा है। जब समाज में भ्रष्टाचार को सामाजिक मान्यता मिल चुकी हो, तो कोई कितने दिन अपनी जमा-पूंजी और ऊर्जा लगाकर परिवर्तन की लड़ाई लड़े? यह स्थिति और भी जटिल हो जाती है, जब समाज के लिए लड़ने वाला व्यक्ति अपने ही मोहल्ले में दर्जनों दुश्मन बना लेता है। विडंबना यह है कि जिनके लिए वह लड़ रहा होता है, वे अक्सर अपराधियों और भ्रष्ट लोगों के साथ उठते-बैठते हैं और उसी कार्यकर्ता को दलाल या गलत ठहरा देते हैं।

पटना। बिहार में एक आरटीआई कार्यकर्ता ने पूरे राज्य की पंचायतों में किए गए विकास कार्यों की जानकारी जुटाने का बीड़ा उठाया। इस कार्यकर्ता ने आरटीआई के माध्यम से हर पंचायत के विकास कार्यों का ब्योरा मांगा, जो स्थानीय मुखिया द्वारा पंचायती फंड से किए गए थे। बिहार का कोई भी नागरिक इस तरह की जानकारी आरटीआई के जरिए प्राप्त कर सकता है। आप भी अपने पंचायत में कितना अैर किस किस मद में खर्च हुआ है, इसका ब्यौरा मंगा सकते हैं?

लेकिन यह कार्य उतना आसान नहीं था। कार्यकर्ता के लिए ऐसी पंचायत ढूंढना चुनौतीपूर्ण रहा, जहां आवंटित धनराशि के अनुरूप वास्तव में काम हुआ हो। कई जगह कागजों पर सड़कें बन गईं, लेकिन गांव में उनकी मौजूदगी तक नहीं थी। यह आपके गांव का हाल भी हो सकता है? आपने जानकारी इकट्ठी की है क्या?

ऐसे में सवाल उठता है कि जब कागजों पर विकास हो रहा हो और जमीनी हकीकत कुछ और हो, तो न्याय की लड़ाई कौन लड़ेगा? भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाला व्यक्ति न केवल अपनी जेब से खर्च करता है, बल्कि स्थानीय नेताओं और मुखियाओं की दुश्मनी भी मोल लेता है। कई बार वह अपनी लड़ाई में इतना अकेला पड़ जाता है कि सड़क पर चलते चलते कोई ट्रक उसे रौंद कर एक दिन चली जाती है और उसके आस पास के समाज को इससे फर्क तक नहीं पड़ता। या फिर दो चार दिन समाचार पत्रों में चर्चा होती है फिर सब भूल जाते हैं।
जो लोग गलत रास्ते पर होते हैं, वे अक्सर भ्रष्टाचार में हिस्सेदारी ले कर चुप्पी साध लेते हैं। यह रास्ता अब लाइजनिंग और वसूली गिरोहों में सबसे प्रचलित है इन दिनों। बिहार के एक चर्चित यू ट्यूबर से जुड़ी ऐसी दर्जनों कहानियां बिहार के लोगों को पता है।

अब उसके समर्थक ही कहते हैं कि ईमानदारी से बिहार के लोगों के लिए लड़ता तो किसी दिन कोई शूटर ठोक कर चला जाता। क्रांतिकारी की इमेज भी बचा ली और दलाली की दूकान भी चल रही है। यही नए दौर की राजनीति है। यह जिसने नहीं सीखा वह राजनीति कर नहीं पाएगा।

बिहार में सुधार की शुरुआत कहां से हो? पंचायतों से, या नगर निगम से जहां एक साल के कार्यकाल में ही मुखिया हो या पार्षद घर के सामने स्कॉर्पियो खड़ी कर लेता है। गांव वाले हों या वार्ड वाले वे सब देखते हैं, लेकिन इस मुद्दे को अपनी बातचीत में शामिल करने से बचते हैं। इसके बजाय, वे राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मुद्दों—जैसे मोदी, राहुल गांधी या ट्रंप की विदेश नीति—पर चर्चा करना पसंद करते हैं। आप समझते हैं, वे ऐसा क्यों करते हैं?

बिहार को राजनीतिक रूप से जागरूक प्रदेश माना जाता है, लेकिन यह जागरूकता अक्सर सुरक्षित मुद्दों तक सीमित रहती है। कोई भी स्थानीय स्तर पर मुखिया हो या वार्ड सदस्य की आलोचना करने का जोखिम नहीं उठाना चाहता, क्योंकि इसके परिणाम गंभीर हो सकते हैं।

बिहार ही नहीं, पूरे देश में लोग भ्रष्टाचार और सामाजिक बुराइयों के साथ जीना सीख रहे हैं। परिवर्तन की उम्मीद धूमिल हो चुकी है। परिवर्तन की कहानी सुनाकर कोई केजरीवाल अपनी फैमिली का फ्यूचर बनाने में लग जाता है। अपने परिवार के हेल्थ पर लाखों रुपए साल में खर्च कर रहा है और दिल्ली वालों को मोहल्ला क्लिनिक देकर कहना कि यह विश्वस्तरीय है। यह ठगी ठीक नहीं है।

लोग मानते हैं कि उपलब्ध विकल्पों में मौजूदा नेतृत्व ही सर्वश्रेष्ठ है, और इसलिए वे उसी के साथ खड़े रहते हैं। धीरे-धीरे समाज में आत्मकेंद्रित लोगों की संख्या बढ़ रही है, जहां ‘स्व’ का मतलब केवल व्यक्ति, उसकी पत्नी और बच्चे तक सीमित हो गया है। स्व का विकास का अर्थ है, मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चों का विकास।
देश और समाज की चिंता अब उनके लिए प्राथमिकता नहीं रही। इस स्थिति में सवाल यह है कि क्या बिहार में बदलाव संभव है? इसके लिए न केवल जागरूकता, बल्कि सामूहिक इच्छाशक्ति और साहस की जरूरत है।

आरटीआई जैसे उपकरण सशक्त हो सकते हैं, लेकिन जब तक समाज भ्रष्टाचार को सामान्य मानना बंद नहीं करता, तब तक कार्यकर्ताओं की मेहनत रंग लाएगी, यह कहना मुश्किल है।

हिंदू थॉट: ए फाउंडेशन ऑफ द मॉरल लिविंग’ पुस्तक का भव्य विमोचन समारोह

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दिल्ली: केंद्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने बुधवार को दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में ‘हिंदू थॉट: ए फाउंडेशन ऑफ द मॉरल लिविंग’ पुस्तक का विमोचन किया। यह पुस्तक दिल्ली विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. वरुण गुलाटी द्वारा लिखी गई है। कार्यक्रम की शुरुआत दीप प्रज्वलन से हुई और इसमें प्रमुख अतिथियों के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. योगेश सिंह, भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री डॉ. बीआर शंकरानंद, सुरुचि प्रकाशन के अध्यक्ष राजीव तुली, डीन ऑफ कॉलेजेज़ प्रो. बलराम पाणी और रजिस्ट्रार प्रो. विकास गुप्ता उपस्थित रहे।

कार्यक्रम के दौरान गजेंद्र सिंह शेखावत ने पुस्तक की प्रासंगिकता पर प्रकाश डालते हुए कहा,  “यह पुस्तक प्रासंगिक और समय की आवश्यकता है। अब देश बदल रहा है और यह कार्यक्रम बदलते भारत के प्रतीक की तरह है।” उन्होंने सनातन संस्कृति के ‘सनातन’ होने के तात्त्विक बिंदुओं पर चर्चा की आवश्यकता को रेखांकित किया। साथ ही, भारतीय दर्शन की व्यापकता को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा, “भारतीय दर्शन इतना विशाल है कि कोई व्यक्ति उसमें अपने लिए कुछ ना कुछ आसानी से पा सकता है।”

उन्होंने पाश्चात्य और भारतीय दृष्टिकोणों की तुलना करते हुए कहा,  “पाश्चत्य संस्कृति ‘थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन’ की बात करती है, इसलिए उनके लिए जो नया है वही श्रेष्ठ है, जबकि भारत की संस्कृति कहती है कि चार युगों के बाद जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर का साक्षात्कार करना है। हमारा दर्शन यह मानता है कि हर जन्मा व्यक्ति ईश्वर का अंश है।” शेखावत ने कहा, “हम जिन वैज्ञानिक ताकतों के भरोसे दुनिया पर विजय करना चाहते थे, आज वही वैज्ञानिक प्रकृति के प्रकोप से सबसे ज्यादा डरे हुए हैं जबकि हमारे ऋषियों ने इन ताकतों को जीवन पद्धति से जोड़ा, और जो देता है उसे देवता के रूप में स्वीकार किया। चाहे माता-पिता, गुरु हों या पृथ्वी, नदियां, वृक्ष और गाय।”

उन्होंने आगे कहा कि 800 वर्षों की गुलामी के बावजूद भारत की संस्कृति इसलिए बची रही क्योंकि इसे ऋषियों ने जीवन पद्धति से जोड़ दिया था। जब भारत की छवि बदल रही है, तो दुनिया की दृष्टि भी भारत की ओर बदल रही है। हमें साहस के साथ अपनी संस्कृति के विचारों पर बात करनी होगी।

भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री डॉ. बी.आर. शंकरानंद ने पुस्तक की गंभीरता को रेखांकित करते हुए कहा, “किसी विचार को समाज के सामने रखते समय सावधान रहना होता है। आधार के बिना एक शब्द भी नहीं लिखा जाना चाहिए। इस पुस्तक में हर शब्द और वाक्य महत्वपूर्ण है।”
उन्होंने वैदिक परंपरा और भारतीय विमर्श पद्धति की ओर इशारा करते हुए कहा, “हिंदू कोई ‘Ism’ नहीं है। यह वाद से आगे बहुत से विषयों को समेटे हुए है। भारत में वाद की लंबी परंपरा है, वाद के लिए धैर्य चाहिए। यही धैर्य वैचारिक दृढ़ता और वैज्ञानिक दृष्टि से आता है।”

बी.आर. शंकरानंद ने हिंदू शब्द की उत्पत्ति पर हो रहे भ्रम को स्पष्ट करते हुए कहा, “कुछ लोग मानते हैं कि सिंधु नदी संस्कृति से ‘हिंदू’ शब्द आया। परंतु सरस्वती नदी की खोज के बाद स्पष्ट हो गया है कि यह संस्कृति सिंधु से भी प्राचीन है। कुछ मतों के अनुसार बाहर से आए लोग ‘स’ नहीं कह सकते थे, वे ‘ह’ कहते थे और वहीं से हिंदू शब्द आया। इस पर विवाद होता है।” उन्होंने बृहस्पति आगम के श्लोक का हवाला देते हुए कहा, “हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्, तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षत। से स्पष्ट होता है कि हिंदू शब्द मौजूदा अर्थ से कहीं अधिक प्राचीन है।” उन्होंने हिंदू धर्म को भारत की आत्मा बताया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. योगेश सिंह ने कहा, “हिंदू विचार पर लिखना आसान नहीं है। समाज कितना स्वीकार करेगा, यह एक बड़ा प्रश्न है। यह पुस्तक अतीत और वर्तमान के बीच एक पुल की तरह है।” उन्होंने कहा, “यह universal truth को पुनः प्रस्तुत करती है।” उन्होंने कहा कि 21वीं सदी में हमारे वैल्यू सिस्टम और विचार पर सवाल किए जाते हैं और उनकी आलोचना की जाती है, आज के समाज को देखते हुए, मॉडल लिविंग को लेकर हमारी आलोचना की जाती है। उन्होंने शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठाते हुए कहा कि जब भी हम शिक्षा और विद्या की बात करते हैं तो ज्ञान और बुद्धि की बात करते हैं। लेकिन हमारा सारा ध्यान ज्ञान पर ही है और बुद्धि को इग्नोर किया जाता रहा है। समझ की समझ को विकसित करना ही शिक्षा है। उच्च शिक्षा संस्थाओं में इस तरह की समस्याएं हैं।

साथ ही, उन्होंने कहा, “फाइनेंशियल लिटरेसी जैसे कोर्स लोकप्रिय हो रहे हैं लेकिन नैतिक-बौद्धिक पाठ्यक्रम नहीं। आतंकियों के पास ज्ञान और डिग्रियां थीं, लेकिन सही और गलत में फर्क करने की बुद्धि नहीं थी।”
उन्होंने कहा, “आज भारत में सबसे ज़्यादा कमी राष्ट्रीय चरित्र की है। देश के भीतर वो मन तैयार नहीं हुए, ये ही 800 वर्षों की गुलामी का सबसे बड़ा कारण था। राष्ट्रीय चरित्र के बिना व्यक्तिगत चरित्र घातक भी हो सकता है।” योगेश सिंह ने कहा, “धर्मो रक्षति रक्षत:, अगर आप धर्म की रक्षा नहीं करेंगे तो धर्म भी आपकी रक्षा नहीं करेगा। हिंदुओं का ज़्यादा अच्छा होना उनके लिए नुकसानदायक साबित हुआ है, हमारे वर्षों तक इसका ध्यान नहीं था और आज इस पर ध्यान किए जाने की ज़रूरत है।”

पुस्तक के लेखक डॉ. वरुण गुलाटी ने इस अवसर को अपने लिए एक भावुक क्षण बताया। उन्होंने कहा, “हिंदू विचार को समझने के लिए धैर्य चाहिए। विदेश से आए कुछ लोगों ने हमारी संस्कृति को नीचा दिखाने की कोशिश की, धर्मग्रंथों को पिछड़ा बताया और हमारी आत्मा में भ्रम पैदा किया।” डॉ. गुलाटी ने कहा, “यह पुस्तक हिंदू विचार को पुर्नजीवित करने का प्रयास है। यह किसी व्यक्ति की जीवनी नहीं, हमारी सांस्कृतिक आत्मा का पुनर्पाठ है।”

इस पुस्तक के प्रकाशक सुरुचि प्रकाशन के अध्यक्ष राजीव तुली ने संस्था की ऐतिहासिक भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि शास्त्र हमारे नयन हैं और सुरुचि प्रकाशन पिछले 55 वर्षों से राष्ट्रीय साहित्य का प्रकाशन कर रहा है। उन्होंने कहा, “सुरुचि प्रकाशन उस समय से है जब छापने और पढ़ने वाले कम थे। देश की स्वतंत्रता के समय राष्ट्रीय विचारधारा को छापने वाले बहुत कम होते थे। करीब 450 टाइटल्स सुरुचि प्रकाशन ने छापे हैं।” तुली ने कहा, “हमारा उद्देश्य किताबें बेचकर पैसा कमाना नहीं है। हमने 350 से अधिक पुस्तकें ऑनलाइन निशुल्क उपलब्ध कराई हैं, जिन्हें 39 देशों के लाखों पाठक हर माह डाउनलोड कर पढ़ते हैं।”

कार्यक्रम के अंत में सुरुचि प्रकाशन के मैनेजिंग डायरेक्टर रजनीश जिंदल ने सभी अतिथियों, वक्ताओं, शिक्षाविदों और उपस्थित लोगों का हार्दिक धन्यवाद ज्ञापन किया। उन्होंने कहा कि इस पुस्तक के माध्यम से हिंदू विचारधारा की गहराई को जन-जन तक पहुंचाना ही सुरुचि प्रकाशन का उद्देश्य है और भविष्य में भी ऐसे विमर्शों को आगे बढ़ाने का प्रयास लगातार जारी रहेगा।

संतोष भारतीय का आईजीएनसीए के अध्यक्ष राय साहब के नाम खुला पत्र

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चौथी दुनिया के पूर्व संपादक संतोष भारतीय ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष राम बहादुर राय को पहला मीसा बंदी के नाम पर संबोधित करने पर अपनी आपत्ति दर्ज की है। उन्होंने राय साहब को एक पत्र लिखा है, वे लिखते हैं:

आपसे विनम्रता के साथ एक इतिहास का टुकड़ा साझा करना चाहता हूं। 26 जून को अंबेडकर सभागार में आदरणीय दत्तात्रेय होसबोले साहब, आदरणीय नितिन गडकरी सहित सभी ने आपको प्रथम मीसा बंदी के रूप में संबोधित किया। मुझे नहीं मालूम कि आपको किस तारीख में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन 16 मार्च 1974 को मुजफ्फरपुर में कुमार प्रशांत, किशोर शाह और संतोष भारतीय को मीसा के तहत गिरफ्तार किया गया था और जेल भेज दिया गया था।

18 मार्च की सुबह मुजफ्फरपुर जेल में ख़ून से लथपथ एक छात्र नेता के अस्पताल में आने की खबर मिली, जो उन दिनों अपने को सुरेश वात्स्यायन के नाम से लिखते थे, आज वे सुरेश शर्मा के नाम से जाने जाते हैं जो प्रसिद्ध पत्रकार हैं, सांध्य टाइम्स के संपादक रहे हैं और उन्होंने बहुत सारी पुस्तकों का संपादन किया है, वह चौथे मीसा बंदी थे।

आदरणीय लोकनायक जयप्रकाश जी ने “सर्च लाइट” अख़बार में एक लेख लिखा था जिसमें हम सबके नाम के साथ उस समय के मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर से कहा था कि जिन लड़कों को आपने क़ानून व्यवस्था तोड़ने के अपराध में गिरफ्तार किया है, वह आपको कानून व्यवस्था कैसे रखी जाती है सिखा सकते हैं।

मैं सिर्फ इतिहास के इस टुकड़े को आपके सामने इस आशा से रख रहा हूं की आप जब भी कुछ लिखें या जब भी कुछ कहें तो इस तथ्य को अगर सत्यापन के साथ देश के सामने रखेंगे तो इतिहास को विकृत होने से बचा लेंगे।

आप वरिष्ठ पत्रकार हैं और मैं आपके सामने बहुत लघु हूं, पर फिर भी सत्य को आपके सामने रखने की धृष्टता कर रहा हूं। अगर मैं कोई गुस्ताख़ी कर रहा हूं तो मैं आपसे क्षमा चाहता हूं।

यह पत्र संतोष भारतीय ने लिख कर वाट्सएप कर दिया है। यहां सवाल है कि संतोष भारतीय हैं कौन? इन दिनों वे पत्रकारिता में किसी भी तरह से सक्रिय हैं, ऐसी कोई जानकारी मीडिया स्कैन के पास नहीं है। वे लुटियन दिल्ली में अक्सर दिखाई देते हैं। उनका लिखा—पढ़ा दिखाई नहीं देता। कुछ समय के लिए उन्होंने राजनीति में भी हाथ आजमाया था। संभव है कि राय साहब के सहारे वे थोड़ी चर्चा बटोरना चाहते हैं। पत्रकारिता में आई युवा पीढ़ी को पता भी नहीं है कि संतोष भारतीय हैं कौन? राम बहादुर राय के बहाने संतोष भारतीय थोड़ी चर्चा हासिल कर लें तो इसमें राय साहब को क्या आपत्ति होगी?

भ्रष्टाचार के खिलाफ समाज कब होगा एकजुट

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रिश्वत के रूप में लिया गया पैसा अवैध है, और इसे कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता। यह एक कड़वा सच है कि तमाम प्रयासों के बावजूद भ्रष्टाचार को पूरी तरह रोका नहीं जा सका। जहां भ्रष्टाचार की खबर कानो-कान फैलती है, वहां अपराधी को संदेह का लाभ दिया जा सकता है, लेकिन जहां वसूली खुलेआम हो रही हो, उसे क्यों नहीं रोका गया? भ्रष्टाचार चाहे चुपके से हो या खुलेआम, देने और लेने वाले दोनों को इसकी सच्चाई पता होती है। यह एक ऐसी बीमारी है, जो समाज के नैतिक ताने-बाने को कमजोर करती है।

रेलवे के उदाहरण से इसे समझा जा सकता है। चलती ट्रेन में पैसे लेकर लंबी यात्रा कराने वाले कर्मचारी, रिजर्वेशन डिब्बों में सीट से अधिक यात्रियों को ठूंसने वाले, या सीट के बदले पैसे लेने वाले—क्या ये कर्मचारी वसूली गई राशि को रेलवे के खाते में जमा करते हैं? यह पैसा जाता कहां है? देश में शायद ही कोई ऐसा यात्री हो, जिसे इस लेन-देन की जानकारी न हो। फिर भी, यह व्यवस्था दशकों से चल रही है।

इसी तरह, शहर के प्रवेश द्वार पर ट्रकों को रोककर खड़े ट्रैफिक पुलिसकर्मी, जिनके लिए सारे कागजात दुरुस्त होने के बावजूद बिना पैसे लिए ट्रक को प्रवेश की अनुमति नहीं मिलती। यह सब खुलेआम होता है, फिर भी व्यवस्था की नजर इन पर क्यों नहीं पड़ती? ये लोग छुपे हुए नहीं हैं, फिर भी इनके खिलाफ कार्रवाई का अभाव समाज में एक गलत संदेश देता है।

सरकारी कर्मचारियों को हर महीने एक निश्चित वेतन मिलता है, लेकिन क्या वह उनके परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी है? यह सवाल गंभीर है। मैं यह नहीं कह रहा कि उनकी मदद नहीं करनी चाहिए। मानवता के नाते, जरूरतमंद को ट्रेन में सीट देना या एक बार ट्रक वाले को कागजात पूरे करने की सलाह देना गलत नहीं है। लेकिन जैसे ही इसके बदले पैसा लिया जाता है, यह मानवता की भावना भ्रष्टाचार में बदल जाती है।

यदि कोई ट्रक वाला नियम तोड़ता है, तो उसे सही रास्ते पर लाने की कोशिश होनी चाहिए, न कि उससे पैसे वसूलने की। व्यवस्था तभी बदलेगी, जब सामूहिक प्रयास होंगे। यह विडंबना है कि कुछ लोग खुद नियम तोड़ते हैं और दूसरों को नियमों का पालन करने की सलाह देते हैं। उदाहरण के लिए, एक वकील सड़क के बीच अवैध पार्किंग करता है, लेकिन दूसरों को कायदे से चलने की नसीहत देता है। यह दोहरा मापदंड समाज में अविश्वास पैदा करता है।

सरकार को, चाहे वह केंद्र की हो या राज्य की, अपने कर्मचारियों के वेतन पर पुनर्विचार करना चाहिए। आज कई कर्मचारियों का वेतन उनकी जरूरतों को पूरा नहीं करता। बिहार में थानेदार, अंचलाधिकारी, या प्रखंड विकास पदाधिकारी—क्या उनके वेतन से उनका घर चल पाता है? जितना बड़ा अधिकारी, उतनी बड़ी उसकी जरूरतें। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि भ्रष्टाचार को उचित ठहराया जाए।

भ्रष्टाचार का सामान्यीकरण समाज के लिए खतरनाक है। यदि बच्चे को पता है कि उसके पिता की रिश्वत की कमाई से उसकी स्कूल फीस भरी जा रही है, और उसे इसमें कुछ गलत नहीं लगता, तो यह एक गंभीर समस्या है। बच्चों में अपने माता-पिता के प्रति सम्मान कम होने का एक कारण यह भी हो सकता है। वे अपने माता-पिता के व्यवहार को गहराई से देखते हैं, और इसका उनके जीवन पर गहरा असर पड़ता है।

उदाहरण के लिए, एक सरकारी कर्मचारी जो अस्सी हजार रुपये महीने की तनख्वाह पाता है, लेकिन अपने बच्चे की बारह लाख रुपये सालाना की स्कूल फीस भरता है, क्या वह अपने बच्चे से सम्मान की अपेक्षा कर सकता है? ऐसा धन, जो अनैतिक तरीके से कमाया गया हो, बच्चों का भविष्य उज्ज्वल नहीं बना सकता। यदि कोई व्यक्ति धन को ही उज्ज्वल भविष्य का पर्याय मानता है, तो उसे अपनी सोच पर पुनर्विचार करना होगा।

सरकार को एक ‘सकारात्मक आयोग’ बनाना चाहिए, जो यह समझे कि कर्मचारियों की वास्तविक जरूरतें क्या हैं। क्या वेतन कम होने के कारण वे भ्रष्टाचार की ओर बढ़ रहे हैं, या यह कोई मनोवैज्ञानिक समस्या है? भ्रष्टाचार को केवल सजा से नहीं, बल्कि इसकी जड़ों को समझकर खत्म करना होगा। समाज को प्रेरित करने के लिए हमें ईमानदारी और पारदर्शिता की मिसाल कायम करनी होगी। केवल तभी हम एक नैतिक और मजबूत समाज का निर्माण कर पाएंगे।

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