विश्व रेडियो दिवस पर युववाणी की याद

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पुनीत बिसारिया

कम से कम मैं उस युग में पैदा नहीं हुआ था, जब छोटे टीवी के आकार का बिजली से चलने वाला रेडियो हुआ करता था, लेकिन ऐसा रेडियो मेरे पिता को उनके विवाह पर मिला था, जिसे देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त है। बाद में आए छोटे ट्रांजिस्टर पर हवा महल, फिल्मी गीत और समाचार खूब सुने। बीबीसी और वॉइस ऑफ अमेरिका तथा जर्मनी से आने वाला हिंदी बुलेटिन भी सुना। बाद में पी-एच. डी. करते हुए सन 1996 से 1998 तक आकाशवाणी लखनऊ पर युववाणी कार्यक्रम बतौर उद्घोषक प्रस्तुत करने का सौभाग्य भी मिला। उस समय रमा अरुण त्रिवेदी आकाशवाणी लखनऊ में युववाणी कार्यक्रम देखती थीं और उन्होंने ही मेरा ऑडिशन लिया था। यह वह दौर था जब एफ एम चैनलों का आगमन शुरू हो गया था और पारंपरिक आकाशवाणी को कुछ नया करने की ज़रूरत महसूस की जा रही थी।

आलोक राजा, जो आज देश के जाने माने टीवी एंकर हैं, उनके साथ मिलकर हमने उस समय अनेक नए और विचारोत्तेजक विषयों पर युववाणी के कार्यक्रम प्रस्तुत किए। उस समय शाम सवा पांच बजे से शाम छह बजे तक आने वाले इस युवाओं पर आधारित कार्यक्रम के लिए हम लोग सुबह 10 बजे से ऑन एयर होने तक तैयारी किया करते थे। उस समय राजुल अशोक जी के साथ मिलकर भी कई कार्यक्रम प्रस्तुत किए थे। आज मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि मेरा उच्चारण साफ करने में आकाशवाणी लखनऊ और रमा मैडम का बड़ा योगदान है क्योंकि वे ऑन एयर जाने से पहले एक एक वाक्य को हम लोगों से सुनती थीं और गलतियां दुरुस्त करती थीं। हालांकि कुछ दिनों के बाद ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया कि आप लोग केवल लिखित मैटर दिखा दिया कीजिए, शेष आप लोग स्वयं सही उच्चारण करेंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। आज विश्व रेडियो दिवस के अवसर पर रेडियो से जुड़ी पुरानी यादें एक बार फिर से ताज़ा हो गईं।

मोहब्बत की दास्ताँ: ताजमहल की धरती पर वैलेंटाइन डे का असली मतलब

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आगरा: जबकि दुनिया गुलाबों और चॉकलेट के साथ “वैलेंटाइन डे” मना रही है, ताजमहल का शहर आगरा मोहब्बत की नई परिभाषा और एक ऐसी दास्तां लिखना चाहता है जो क्षणभंगुर इशारों और व्यावसायिक दिखावों से परे है।

“सच्चा प्यार कालातीत होता है,” ऑस्ट्रेलिया से आए एक पर्यटक जेम्स ने सर्दियों के सूरज के नीचे चमकते हुए सफेद संगमरमरी ताज महल के सामने खड़े होकर कहा।

एक दूसरे विदेशी पर्यटक ने कहा “शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ के लिए यह चमत्कार बनवाया था, जिसने

चौदह बच्चे पैदा किए। पश्चिम में, आपको इसके लिए एक दर्जन पत्नियों की आवश्यकता होगी!” उसने हँसते हुए कहा, उसके शब्द प्रेम की स्थायी विरासत को परिभाषित करते हैं।

ताजमहल, जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने “अनंत काल के गाल पर एक आंसू” कहा था, समय और नश्वरता को पार करने की प्रेम की शक्ति का एक वसीयतनामा है। फिर भी, जब जोड़े उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं और सोशल मीडिया पर प्यार के इजहार की धूम मची रहती है, फ्रांस से आई एक टूरिस्ट, मैरी प्यार की भौतिक अभिव्यक्तियों के साथ आधुनिक जुनून पर सवाल उठाती हैं। उन्होंने पूछा, “कामसूत्र की भूमि में चॉकलेट और गुलाब पर इतना जोर क्यों है?”

उधर, सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “यहां भारत में, प्यार हमेशा से गहरा, अधिक आध्यात्मिक, अधिक स्थायी और एक कालातीत बंधन रहा है।

भारत में प्यार की अवधारणा ने लंबे समय से बाहरी लोगों को आकर्षित किया है।” आगरा आने वाली एक पर्यटक, रोजलिंद ने आश्चर्य जताया, “लोग अपने साथी को करीब से जाने बिना कैसे शादी कर लेते हैं?” आजकल विदेशी मेहमान आगरा, वृंदावन, उदयपुर में भारतीय पद्वति से विवाह करने लगे हैं। फिर भी, अरेंज मैरिज के प्रचलन के बावजूद, भारतीय विवाहों को अक्सर उनकी लंबी उम्र के लिए जाना जाता है – जो पश्चिम में बढ़ती तलाक दरों के बिल्कुल विपरीत है।

लेकिन परंपरा की धाराएँ बदल रही हैं। विश्वविद्यालय के छात्र पवन कहते हैं, “प्रेम विवाह अब पहले की तरह वर्जित नहीं रह गए हैं। अधिक युवा लोग अपने साथी चुन रहे हैं, अक्सर कई सालों के प्रेम-संबंध के बाद।” उनकी सहपाठी अनीता का मानना ​​है कि प्रेम विवाह को लेकर समाज में डर को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। “विफलता की दर अरेंज्ड और लव मैरिज दोनों के लिए समान है। बस इतना है कि जाति-आधारित समाज में “विद्रोहियों” को हतोत्साहित किया जाता है और पुरानी परंपराओं को बनाए रखने के लिए विफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है।”

यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट निवेदिता, एक बढ़ती प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती हैं: ‘अरेंज्ड लव मैरिज’ – जहां जोड़े पहले प्यार में पड़ते हैं और फिर अपने परिवारों को रिश्ते को औपचारिक रूप देने के लिए मना लेते हैं। “अधिकांश मामलों में, जब दोनों साथी आर्थिक रूप से स्वतंत्र होते हैं, तो माता-पिता के पास बहुत कम विकल्प होते हैं।” कंप्यूटर साइंस की एक छात्रा कहती है, “प्यार अब अंधा नहीं रह गया है; यह सिर्फ़ सेलेक्टिव या चुनिंदा हो गया है। सोच विचार के, आगा पीछा देख कर ही आजकल मोहब्बत की जाती है।”

फिर भी, हर कोई वैलेंटाइन डे के उन्माद से प्रभावित नहीं होता। स्थानीय दुकानदार राकेश पूछते हैं, “प्यार को एक दिन तक सीमित क्यों रखा जाए?” “प्यार को हर दिन हमारे जीवन का मार्गदर्शन करना चाहिए, न कि इसे एक व्यावसायिक नौटंकी तक सीमित कर देना चाहिए, जहाँ आपको अपनी भावनाओं को साबित करने के लिए उपहार खरीदना पड़ता है।”

हालाँकि, प्यार हमेशा की तरह एक पहली या गुत्थी बना हुआ है। राहुल, एक शिक्षक, ने एक मिस्ड, गलत फ़ोन कॉल के ज़रिए अपना जीवनसाथी पाया। “मैं दिल्ली विश्वविद्यालय में था, वह ग्वालियर में थी। एक गलत नंबर डायल करने से अंतहीन बातचीत शुरू हुई और आखिरकार, शादी हो गई। प्यार अपनी राह खोज ही लेता है, चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों,” वह हँसते हुए कहते हैं, उनकी कहानी रोमांस की अप्रत्याशितता पर आधुनिक समय का एक मोड़ है।

सामाजिक कार्यकर्ता अभिनय कहते हैं कि प्यार के इर्द-गिर्द कलंक मिट रहा है। “पहले, लोग चुपचाप ज़िंदगी भर दिल का दर्द सहते थे। अब, युवा प्रेमी अपनी पसंद के लिए लड़ते हैं, भले ही इसका मतलब परंपराओं को तोड़ना हो।” वह ऐसे मामलों की ओर इशारा करते हैं जहाँ तीन या चार बच्चों की माँएँ भी शादीशुदा महिलाएँ प्यार के लिए भाग जाती हैं। “बढ़ती गतिशीलता और स्वतंत्रता के साथ, जातिगत बाधाएँ टूट रही हैं। प्यार विकसित हो रहा है, और समाज भी।”

इन बदलती कहानियों के बीच, ताजमहल प्यार का एक शाश्वत प्रतीक बना हुआ है। ताज गंज के एक होटल व्यवसायी कहते हैं, “हर दिन हज़ारों लोग इस स्मारक को देखने आते हैं, उनका मानना ​​है कि यह उनके रिश्तों को मज़बूत बनाता है।” “इसकी आभा में कुछ ऐसा है – कुछ ऐसा जो प्यार को इस तरह से मजबूत करता है जैसा कोई वैलेंटाइन डे कार्ड कभी नहीं कर सकता।”

जैसा कि शेक्सपियर ने एक बार लिखा था, “प्यार वह प्यार नहीं है जो बदलाव पाकर बदल जाता है।” ताज की छाया में, प्यार एक दिन या एक ही रूप तक सीमित नहीं है। यह एक शांत भक्ति, एक भव्य इशारा, एक फुसफुसाया हुआ वादा है। यह परंपरा को चुनौती देने का साहस है, एक गलत नंबर की अप्रत्याशितता, सहन करने की लचीलापन है। क्योंकि आखिरकार, प्यार एक दिन के बारे में नहीं है। यह एक जीवनकाल के बारे में है। और शायद, थोड़ा सा अनंत काल।

सही कहा है, “प्यार में जीने वाले, जन्नत भी ठुकराते हैं, क्योंकि मोहब्बत करने वाले, कभी किसी से नहीं डरते।”

क्राँतिकारी वीर बुधु भगत : अंग्रेजों ने पूरे गाँव में सामूहिक नरसंहार किया था

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भारतीय स्वाधीनता के संघर्ष में कितने बलिदान हुये इसका विस्तृत वर्णन कहीं एक स्थान पर नहीं मिलता । जिस क्षेत्र के इतिहास पर नजर डालों वहाँ संघर्ष और बलिदान की रोंगटे खड़े कर देने वाली कहानियाँ मिलती हैं। ऐसी ही कहानी क्राँतिकारी बुधु भगत की है जिन्होंने जीवन की अंतिम श्वाँस तक संघर्ष किया और अंग्रेजों ने उनके पूरे गाँव सिलारसाई के निवासियों को मौत के घाट उतारा ।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में वनवासी वीर बलिदानी बुधु भगत ऐसा क्राँतिकारी नाम है जिनका उल्लेख भले इतिहास की पुस्तकों में कम हो पर छोटा नागपुर क्षेत्र के समूचे वनवासी अंचल में लोगो की जुबान पर है । उस अंचल में उन्हें दैवीय शक्ति का प्रतीक माना जाता है । वन्य क्षेत्र के अनेक वनवासी परिवार उन्हें लोक देवता जैसा मानते हैं और उनके स्मरण से अपने शुभ कार्य आरंभ करते हैं ।

क्राँतिकारी वुधु भगत के नेतृत्व में स्वत्व का यह संघर्ष तब आरंभ हुआ जब अंग्रेजों ने पूरे वन्य क्षेत्र पर अधिकार करके वनवासियों को बंधुआ मजदूर बनाकर शोषण आरंभ किया तब वीर बुधु भगत ने अपने स्वाभिमान रक्षा केलिये युवाओं की टुकड़ियाँ बनाकर छापामार लड़ाई आरंभ की । उनके साथ लगभग तीन सौ युवाओं की टोली थी । जिसका सामना करने के लिये अंग्रेजों को आधुनिक हथियारों से युक्त सेना की एक पूरी ब्रिगेड को लाना पड़ा था । क्राँतिकारी बुधु भगत की वीरता और स्वत्व वोध का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने जीवन की अंतिम श्वाँस तक संघर्ष किया और बलिदान हुये । नेतृत्व अंग्रेजों से मुकाबला कर रही इस टुकड़ी ने समर्पण नहीं किया अंतिम श्वाँस तक युद्ध किया और बलिदान हुये ।

ऐसे क्रांतिकारी बुधु भगत का जन्म 17 फरवरी 1792 में रांची के वनक्षेत्र में हुआ था । उनके गांव का नाम सिलारसाई था । अब यह क्षेत्र झारखंड प्राँत में आता है । बुधु भगत बचपन अति सक्रिय और चुस्त फुर्त थे और मल्ल युद्ध, तलवार चलाना और धनुर्विद्या का अभ्यास करते थे । वे धनुषबाण और कुल्हाड़ी सदैव अपने साथ रखते थे । अंग्रेजों ने समूचे वन्यक्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया और वनवासियों को बंधुआ मजदूर बनाकर वनोपज का दोहन करने लगे । अंग्रेजों और उनके एजेंटो ने अनेक प्रकार के प्रतिबंध भी लगा दिये। वनवासियों के संघर्ष अनेक स्थानों पर आरंभ हुये जिन्हे इतिहास में अलग-अलग नामों से जाना जाता है । कहीं कोल विद्रोह, कहीं लरका विद्रोह तो कहीं संथाल विद्रोह। उस कालखंड में ऐसा कोई वनक्षेत्र नहीं जहाँ संघर्ष आरंभ न हुआ हो । सबने अपने अपने दस्ते गठित किये और संघर्ष हुये। राँची क्षेत्र में यह संघर्ष क्राँतिकारी बुधु भगत के नेतृत्व में आरंभ हुआ । उनके द्वारा गठित वनवासी युवाओं की इस टोली ने पूरे छोटा नागपुर क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाया और अंग्रेजों का जीना मुश्किल कर दिया ।

अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए एक हजार रुपये के इनाम की घोषणा की । अंग्रेजों को उम्मीद थी कि इनाम के लालच में कोई विश्वासघाती सामने आयेगा और बुधू भगत की सूचना दे देगा । पर अंग्रेजों की यह चाल सफल न हो सकी । एक स्थिति ऐसी बनी कि अंग्रेजों और उनके एजेन्टों को वनोपज बाहर ले जाना कठिन हो गया । तब फौज ने मोर्चा संभाला । अंग्रेजी ब्रिगेड ने पूरे वन क्षेत्र का घेरा डाला और घेरा कसना आरंभ किया । यह घेरा फरवरी के पहले सप्ताह आरंभ हुआ था और अंत में अंग्रेजी फौज उस चौगारी पहाड़ी के समीप 12 फरवरी को पहुंचे । इसी पहाड़ी पर क्राँतिकारियों का केन्द्र था । सेना ने पूरी पहाड़ी पर घेरा डाला और मुकाबला आरंभ हुआ । वनवासी युवाओं ने तीर कमान और कुल्हाड़ी से मुकाबला किया ।अंत में 13 फरवरी, 1832 को अपने ही गांव सिलागाई में बुधु भगत सहित सभी युवा बलिदान हुये। अंग्रेजों ने किसी को जीवित न छोड़ा । इनमें महिलायें और बच्चे भी शामिल थे । उनकी कहानियां आज भी वनवासी क्षेत्रों में सुनी जाती हैं।

आत्मनिर्भर राष्ट्र के लिए आत्मनिर्भर छात्र आवश्यक – दत्तात्रेय होसबाले

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प्रयाग। मनुष्यता को प्राचीन भारत की देन अद्भुत है, सभी क्षेत्रों में भारत के योगदान को कभी नकारा नहीं जा सकता। भारत के इस अद्भुत ज्ञान का परिचय आज की युवा पीढ़ी से कराना बहुत आवश्यक है। यह कहना है इसरो के अध्यक्ष वी नारायण का। श्री नारायण ने ज्ञान महाकुंभ 2018 के समापन अवसर पर कहा कि हमारे पास अनेक साक्ष्य हैं कि भारत में अनेक देशों के छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे। हमारे यहाँ के आयुर्वेद ने सभी सीमाओं को पार कर वैश्विक मान्यता प्राप्त की थी। श्री नारायण ने कहा कि अंग्रेजों के आने के बाद भारत में शिक्षा का स्तर बढ़ा, इस कथन को मैं सिरे से नकारता हूँ। उनका कहना था कि भारतीय ज्ञान और संस्कृति उत्कृष्ट थी और इसे आक्रांताओं ने आहत किया। लेकिन आज हम सभी का कर्तव्य बनता है कि देश के प्राचीन ज्ञान और संस्कृति के आधार पर इसे विकसित राष्ट्र बनाएँ। भारत आज सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ रहा है।

ज्ञान महाकुंभ के समापन सत्र के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह माननीय दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि भारत में समस्याओं की कमी नहीं है, लेकिन समस्याओं की ही चर्चा करते रहे तो देश आगे बढ़ ही नहीं सकता। यही कारण है कि शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने अपना जो ध्येय वाक्य रखा है, उसमें प्रमुख है कि समस्या नहीं समाधान की चर्चा करें। श्री होसबाले ने कहा कि देश के शिक्षा क्षेत्र में ऐसा बदलाव चाहिए, जिससे भारत में भविष्य निर्माता, विद्यार्थियों में ज्ञान और जीवन मूल्य को स्थापित कर सके। श्री होसबाले के अनुसार, भारतीय दृष्टि से क्या होना चाहिए, शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास ने इसकी न तो केवल सरकार से अपेक्षा रखी, बल्कि ऐसी मांग ही नहीं की। बल्कि न्यास ने समाज में प्रबोधन का कार्य भी किया है। श्री होसबाले ने कहा कि न्यास द्वारा भारत के शिक्षाविदों, चिंतकों, विद्वत्-जनों को एक मंच पर लाकर इस विषय के समाधान को लेकर समय-समय पर मंथन किया है। इसके साथ ही न्यास ने शिक्षण संस्था संचालित करने वालों को भी आवश्यक परिवर्तन की भूमिका से परिचित कराया और इस दृष्टि से शैक्षिक संस्थान चलाने के लिए प्रेरित किया। श्री होसबाले ने आगे कहा कि भारतीय मूल्यों के लिहाज से संस्कार देने वाली शिक्षा के साथ ही चरित्र निर्माण को लेकर भी न्यास ने कार्यक्रम चलाए। इसके साथ ही पर्यावरण, भारतीय भाषा जैसे अनेक आयामों पर कार्यक्रम करते हुए और आवश्यकता पड़ने पर न्यायालयों में संघर्ष के साथ ही आवश्यक होने पर शासन के सामने विचार रखते हुए न्यास ने ना केवल योग्य वातावरण बनाने का प्रयत्न किया है, बल्कि विद्यार्थियों, शिक्षकों, अभिभावकों, संचालकों, शिक्षाविदों के लिए शैक्षिक परिवर्तन के राष्ट्रव्यापी आंदोलन में उनकी सहभागिता और भूमिका को लेकर जागृति लाने का भी प्रशंसनीय कार्य किया है।

ज्ञातव्य है कि ‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते’ अर्थात् दुनिया में ज्ञान के समान पवित्र और कुछ नहीं है। श्रीमद्भगवद् गीता की इस पंक्ति की सार्थकता को व्यापक रूप देने को लेकर प्रयागराज में ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ ने ज्ञान महाकुंभ – 2081 का आयोजन किया, जो 10 जनवरी से शुरू होकर 10 फरवरी तक चला। जिसका उद्घाटन उत्तर प्रदेश के उप-मुख्यमंत्री श्री केशव प्रसाद मौर्य ने किया।

इस ज्ञान महाकुंभ में 01 फरवरी 2025 को भारत को इंडिया कहे जाने की सार्थकता को लेकर मंथन हुआ। इस विशिष्ट कार्यक्रम के संयोजक डॉ. मोतीलाल गुप्ता ने कहा कि ‘इंडिया’ शब्द सिर्फ़ नाम तक सीमित है, जबकि ‘भारत’ हमारे लिए भावना है, हमारे पूर्वजों की विरासत है। यह मात्र एक भू-भाग नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रतिबिंबित करता है। इस आयोजन में श्री एम. गुरु जी ने कहा कि “ये भारत है, हम भारतीय हैं और हम भारत की ही चिंता करते हैं, ‘इंडिया’ शब्द से हमारा कोई संबंध नहीं, हम भारत के जन कभी भी इसे मान्यता नहीं दे सकते।”

ज्ञान महाकुंभ में शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास और पर्यावरण संरक्षण गतिविधि के संयुक्त तत्वावधान में हरित महाकुंभ-2081 का 5 और 6 फरवरी को आयोजन किया गया। इसमें न्यास के राष्ट्रीय सचिव डॉ. अतुल कोठारी ने हरित महाकुंभ की संकल्पना साझा की। डॉ कोठारी ने कहा, “पर्यावरण की इस हालत के लिए सिर्फ़ हम ज़िम्मेदार हैं और इसके दुष्परिणाम से हमें और कोई नहीं बल्कि स्वयं हम ही बचा सकते हैं।” इस आयोजन में मोतीलाल नेहरू राष्ट्रीय तकनीकी संस्थान के निदेशक प्रो. आर एस वर्मा ने उपस्थित प्रतिभागियों को पर्यावरण के प्रति सजग करते हुए कहा कि सस्टेनेबल डेवलपमेंट से ही हम डेवलपमेंट रिटेन कर सकते हैं। प्रो. वर्मा ने प्लास्टिक के प्रयोग के दुष्परिणामों से आगाह करते हुए उसके न्यूनतम इस्तेमाल पर बल‌ दिया। इस दौरान गोपाल आर्य ने पर्यावरण को मातृभाषा हिंदी की समृद्धि से जोड़ते हुए कहा कि हरित से हरि को पाया जा सकता है, और ‘ग्रीन’ अंग्रेज़ी शब्द ‘ग्रीड’ का पर्याय-सा लगता है।

ज्ञान महाकुंभ में ‘भारतीय शिक्षा : राष्ट्रीय संकल्पना’ पर केंद्रित तीन दिवसीय आयोजन भी हुआ। इसके उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के राष्ट्रीय सचिव डॉ. अतुल कोठारी ने ज्ञान महाकुंभ की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि, इस अलौकिक महाकुंभ में ज्ञान महाकुंभ का आयोजन अपने आप में ही अद्भुत संयोग है। इस कार्यक्रम से पूरे देश की शिक्षा व्यवस्था को एक नई ऊर्जा और भारतीय ज्ञान परंपरा से युक्त दिशा मिलेगी। इस सत्र के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह डॉ कृष्ण गोपाल ने कहा कि हमारी ज्ञान परंपरा में एकांगी शिक्षा नहीं दी जाती थी, परंतु आज संपूर्ण विश्व एकांगी शिक्षा व्यवस्था से ग्रसित है। हमें समाज में एक बार फिर भारतीय ज्ञान परंपरा की चेतना का जागरण करना होगा। इस आयोजन में उपस्थित विशिष्ट अतिथि यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. डी. पी. सिंह ने शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास की सराहना करते हुए कहा कि अध्यात्म विद्या सभी विद्याओं में सर्वश्रेष्ठ है। भारतीय ज्ञान परंपरा आध्यात्म और शिक्षा का अद्भुत मिश्रण कर रही है और हमें इस परंपरा को एक बार फिर बल देना होगा।

तीन दिवसीय इस आयोजन में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, विश्व जागृति फाउंडेशन के वागीश स्वरूप, विनय सहस्रबुद्धे, साध्वी ऋतंभरा, राष्ट्रीय सेविका समिति की सीता अक्का, एनआईटी प्रयागराज के निदेशक प्रो आर.एस. शर्मा, मध्यप्रदेश राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त मनोज श्रीवास्तव, राजस्थान उच्च शिक्षा विभाग के आयुक्त ओमप्रकाश बैरवा, हरियाणा उच्च शिक्षा आयोग के अध्यक्ष प्रो कैलाश शर्मा, इंदौर के महापौर पुष्यमित्र भार्गव, नीति आयोग के शिक्षा निदेशक डॉ शेषांक शाह, पद्मश्री आनंद कुमार की उपस्थिति विशेष रही।

तीन दिन चले इस राष्ट्रीय कार्यक्रम में निजी शैक्षिक संस्थाओं की शिक्षा में भूमिका, शासन-प्रशासन की शिक्षा में भूमिका, विकसित भारत और भारतीय भाषाएं जैसे विषयों पर विचार-विमर्श हुआ। इस कार्यक्रम में पूर्व से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण तक के सभी प्रांतों के शिक्षा क्षेत्र से जुड़े दस हजार से अधिक विद्यार्थी, शिक्षाविद, आचार्य आदि ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जिसमें 100 से अधिक केंद्रीय और राजकीय विश्वविद्यालयों और संस्थानों के कुलपति, निदेशक, अध्यक्ष शामिल रहे। देश के प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थियों ने सोशल इंटर्नशिप के माध्यम से इस ज्ञान महाकुंभ में अपनी सेवाएँ दी तथा विद्यार्थियों हेतु विभिन्न कक्षाओं जैसे वैदिक गणित, दैनिक योग अभ्यास व संस्कृत कार्यशाला आदि का आयोजन भी हुआ।

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