दुनिया में बढ़ रहा है भारतीय संस्कृति का महत्त्व- शेखावत

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नई दिल्ली: भारत की बढ़ती समुद्री साझेदारी और सुरक्षा पहलों की पृष्ठभूमि में, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र (आईजीएनसीए) केन्द्रीय संस्कृति मंत्रालय की अंतरराष्ट्रीय पहल ‘प्रोजेक्ट मौसम’ के तहत ‘मानसून: द स्फीयर ऑफ कल्चरल एंड ट्रेड इन्फ्लुएंस’ शीर्षक से दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित कर रहा है। सेमिनार का आयोजन एसजीटी विश्वविद्यालय के एडवांस स्टडी इंस्टीट्यूट ऑफ एशिया के सहयोग से किया जा रहा है। उद्घाटन सत्र में केन्द्रीय संस्कृति एवं पर्यटन मंत्री श्री गजेन्द्र सिंह शेखावत मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित रहे। आधार वक्तव्य (कीनोट एड्रेस) डॉ. विनय सहस्रबुद्धे ने दिया, जबकि आईजीएनसीए के सदस्य सचिव डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने स्वागत भाषण दिया। इस अवसर पर ‘एशिया’ के शोध निदेशक प्रो. अमोघ राय ने भी अपने विचार प्रकट किए। अंत में, आईजीएनसीए के प्रोजेक्ट मौसम के निदेशक डॉ. अजित कुमार ने गणमान्य व्यक्तियों और अतिथियों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया। दो दिनों के इस अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान कुल 38 शोधपत्र प्रस्तुत किए जाएंगे। इन शोधपत्रों के माध्यम से विद्वान तथा विशेषज्ञ हिंद महासागर क्षेत्र में ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंधों की पड़ताल करेंगे।

यह सेमिनार समुद्री संपर्कों के माध्यम से हिंद महासागर के देशों के बीच ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंधों की खोज करते हुए हिंद महासागर क्षेत्र में व्यापार, परंपराओं और संबंधों को आकार देने में भारत की केंद्रीय भूमिका को रेखांकित करेगा। यह पहल विशेष रूप से सामयिक है, क्योंकि भारत और फ्रांस ने हाल ही में नई दिल्ली में समुद्री सहयोग वार्ता संपन्न की, जिसमें हिंद महासागर क्षेत्र में समुद्री सुरक्षा के लिए खतरों का आकलन करने और उनका मुकाबला करने के लिए संयुक्त उपायों पर सहमति व्यक्त की गई। इसके साथ ही, भारतीय नौसेना का ‘2025 कैपस्टोन थिएटर लेवल ऑपरेशनल एक्सरसाइज’ (TROPEX) चल रहा है, जो हिंद महासागर में भारत की तैयारियों को प्रदर्शित करता है।

‘प्रोजेक्ट मौसम’ न केवल भारत के ऐतिहासिक समुद्री प्रभाव पर जोर देता है, बल्कि इस क्षेत्र में देश की विकसित हो रही भू-राजनीतिक रणनीति को भी प्रतिध्वनित करता है। यह प्राचीन नौवहन मार्गों, बंदरगाह शहर नेटवर्क और तटीय बस्तियों जैसे प्रमुख विषयों पर ध्यान केंद्रित करता है। ‘प्रोजेक्ट मौसम’ मूर्त और अमूर्त सांस्कृतिक विरासत को एकीकृत करके कनेक्टिविटी और समुद्री साझेदारी को बढ़ावा देने में भारत के निरंतर नेतृत्व को भी रेखांकित करता है, जो यूनेस्को के समुद्री विरासत अध्ययनों (मेरीटाइम हेरिटेज स्टडीज) में योगदान देता है। इस दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सेमिनार का उद्देश्य भविष्य की नीतिगत बातचीत के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाले अकादमिक सहयोग और विरासत संरक्षण के साथ गहन सांस्कृतिक कूटनीति को बढ़ावा देना है।

उद्घाटन सत्र में केन्द्रीय संस्कृति मंत्री श्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा, “हमारे यहां से लेकर के सेंट्रल एशिया तक, सब देशों के बीच हमारी संस्कृति का प्रभाव निर्विवाद रूप से दिखाई देता है। और उसके चलते जो वृहत्तर भारत की कल्पना है, उसका मूल आधार भारत की सांस्कृतिक और आर्थिक संपन्नता है। हजारों साल पहले जब दुनिया में बाकी सब देश अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे थे और एक सभ्यता के रूप में विकसित हो रहे थे, तब भारत समृद्धि के शिखर पर था। भारत व्यापार का केन्द्र था। इस नाते जो लोग भारत में आए, ज्ञान प्राप्त करने के दृष्टिकोण से हजारों साल तक आए, विद्यार्थियों की तरह आए, शिक्षकों की तरह आए, भिक्षुकों की तरह आए और आक्रांताओं की तरह भी आए, वह भारत से जो पदचिह्न लेकर गए, उसका प्रभाव पूरे विश्व के अनेक देशों में दिखाई देता है। अब भारत का सामर्थ्य बढ़ रहा है, भारत की पहचान बदल रही है, भारत की जनशक्ति बढ़ रही है और पूरे विश्व भर में भारत की क्षमताओं का प्रभुत्व नए सिरे से स्थापित हो रहा है। माननीय प्रधानमंत्री जी के नेतृत्व में भारत ने आर्थिक दृष्टिकोण से, सामरिक दृष्टिकोण से, तकनीकी दृष्टिकोण से प्रगति की है और आज पूरा विश्व एक बार फिर नए सिरे से भारत की तरफ आशा की दृष्टि से देख रहा है और जब भारत की ये महत्ता स्थापित होती है, तो निश्चित रूप से हमारी सांस्कृतिक महत्ता भी स्थापित होती है।”

आधार वक्तव्य (कीनोट एड्रेस) देते हुए डॉ. विनय सहस्रबुद्धे ने कहा कि यह संस्कृति ही थी, जिसने भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच संबंधों की संरचना को बुना था। और, मजबूत सांस्कृतिक संबंधों के लिए अलग प्रकार के निवेश की आवश्यकता होती है। वित्तीय संसाधनों के अलावा, हमें बौद्धिक और भावनात्मक, दोनों तरह से निवेश करने की आवश्यकता है। यह केवल सरकारी नीतियों की नही, बल्कि दक्षिण-पूर्व एशिया को हमारी लोक-सुलभ चेतना का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाने की गहरी इच्छा और दृढ़संकल्प की मांग करता है।

डॉ. सच्चिदानंद जोशी ने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रोजेक्ट मौसम में शुरुआत में 39 देशों की पहचान की गई थी, लेकिन आईजीएनसीए पहले से ही दक्षिण और मध्य एशिया पर ध्यान केंद्रित करते हुए क्षेत्र अध्ययन कर रहा था। आईजीएनसीए में क्षेत्र अध्ययन कार्यक्रम के तहत वृहत्तर भारत की अवधारणा विकसित की गई, जिसका उद्देश्य इन देशों को जोड़ने वाले सांस्कृतिक मार्गों और संपर्कों की खोज और पहचान करना था।

माधव संगति सरनी तुम्हारी

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मनोज श्रीवास्तव

अपना विभाजक एजेंडा चलाने के लिए लोग संत रैदास का भी उपयोग कर लेते हैं। एक सज्जन ने तो यह सैद्धांतिकी प्रतिपादित की कि रैदास निर्गुण होने के लिए इस कारण बाध्य हुए क्योंकि उन्हें मंदिर प्रवेश की अनुमति नहीं थी। एक कहते हैं कि रैदास आजीवक थे। एक उन्हें निर्वाण संप्रदाय का बताते हैं। एक उन्हें तुलसीदास की तुलना में देखकर तुलसी-विरोध की अपनी खुजली मिटाते हैं। एक के हिसाब से रैदास के राम निर्गुण राम थे, सगुण को उन्होंने स्वीकारा ही नहीं। एक तो उन्हें दलित धर्म का पैरोकार ही मानते हैं। एक उन्हें वेद के विरोध में खड़ा करते हैं :

इनमें से कोई संत नहीं है, इसलिए रैदास की ऊँचाई तक पहुँचना इनमें से किसी को संभव नहीं है। सबको अपनी अपनी राजनीति चलाना है और भिन्नता का एक dialectics तैयार करना है।

पर यदि रैदास को सगुण निर्गुण का आवश्यक तौर पर विरोधी लग रहा होता क्योंकि निर्गुण संत मंदिर में प्रवेश नहीं कर सकते थे तो इस सम्पूर्ण कथित रूप से निर्गुण साहित्य में ऐसी किसी घटना का कोई तो विवरण होता। लेकिन कुछ लोगों की वैचारिक पूर्वांधता उन्हें बिना किसी ऐतिहासिक प्रमाण के ऐसी बकवास करने की छूट दे देती है। ये रैदास ही थे जो सगुण कृष्ण की यों याद कर रहे थे:

माधौ संगति सरनि तुम्हारी।
जगजीवन कृश्न मुरारी।।
तुम्ह मखतूल गुलाल चत्रभुज, मैं बपुरौ जस कीरा।
पीवत डाल फूल रस अंमृत, सहजि भई मति हीरा।

अब यह माधव, यह कृष्ण मुरारी कौन थे? और ये बनवारी :

ऐसा ध्यान धरूँ बनवारी।
मन पवन दिढ सुषमन नारी।।

और यहां माधव के हवाले से वेद की बात भी रैदास ही कह रहे :

पांवन जस माधो तोरा।
तुम्ह दारन अघ मोचन मोरा।।
कीरति तेरी पाप बिनासै, लोक बेद यूँ गावै।
जो हम पाप करत नहीं भूधर, तौ तू कहा नसावै।।

और गोविन्द से ही उनकी समाधि लगती है और उसी में उन्हें शिवरूप भी ध्यान आता है :

गोबिंदे तुम्हारे से समाधि लागी।
उर भुअंग भस्म अंग संतत बैरागी।।
जाके तीन नैन अमृत बैन, सीसा जटाधारी, कोटि कलप ध्यान अलप, मदन अंतकारी।।
जाके लील बरन अकल ब्रह्म, गले रुण्डमाला, प्रेम मगन फिरता नगन, संग सखा बाला।।
अस महेश बिकट भेस, अजहूँ दरस आसा, कैसे राम मिलौं तोहि, गावै रैदासा।।

और राम यदि निर्गुण थे तो उनके वे चरण कौन से थे जिसके लिए रैदास लिख रहे थे:

तुझहि चरन अरबिंद भँवर मनु।
पान करत पाइओ, पाइओ रामईआ धनु।

और रैदास के राम यदि निर्गुण थे तो वे राजा कैसे थे :

रांम राइ का कहिये यहु ऐसी।
जन की जांनत हौ जैसी तैसी।

या फिर ऐसे :

न बीचारिओ राजा राम को रसु।
जिह रस अनरस बीसरि जाही।।

और ये कैसा निर्गुण है जो सारी सगुण संज्ञाएँ प्रयुक्त करता है:

राम बिन संसै गाँठि न छूटै।
कांम क्रोध मोह मद माया, इन पंचन मिलि लूटै।

ही नहीं बल्कि विष्णु के अवतार भी :

एक अधार नांम नरहरि कौ, जीवनि प्रांन धन मोरै।

या :

नरहरि प्रगटसि नां हो प्रगटसि नां।
दीनानाथ दयाल नरहरि।।

ये रैदास को जिस दलित धर्म का पैरोकार बताते हैं, उसकी प्रतिज्ञाओं में तो राम और कृष्ण को नहीं मानना था। उन प्रतिज्ञाओं में ये कब कहा गया था कि निर्गुण राम को मानना है और सगुण राम को नहीं मानना है।

जब रैदास यह कहते हैं कि

तब रांम रांम कहि गावैगा।
ररंकार रहित सबहिन थैं, अंतरि मेल मिलावैगा।

तो वे उन तुलसीदास से कहाँ भिन्न हैं जो कहते हैं :

राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ, जौं चाहसि उजिआर॥

और राजा राम की सेवा न कर पाने का वह मूर्खतापूर्ण गर्व रैदास में नहीं है जो आजकल के इन बुद्धिरिपुओं में दिखता है, बल्कि उसका खेद है :

जाती ओछा पाती ओछा, ओछा जनम हमारा।
राजा राम की सेव न कीनी, कहि रैदास चमारा॥

जब वे यह कह रहे थे कि :

मन हीं पूजा मन हीं धूप, मन ही सेऊँ सहज सरूप।।
पूजा अरचा न जांनूं रांम तेरी, कहै रैदास कवन गति मेरी।

तो वे ऐसी कोई गैरब्राह्मणवादी बात नहीं कह रहे थे। मानसपूजा भारत में बहुत पुराने समय से मान्य चली आई है। हर पूजा के अंत में ब्राह्मणादि हिन्दू ‘आवाहनं न जानामि न जानामि तवार्चनं/ पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वर’ कहता ही कहता है।

और जैसे रैदास कलिकाल का वर्णन करते हैं, तुलसी भी करते हैं।

बल्कि रैदास कुछ मामलों में कबीर की याद दिलाते हैं:

रैदास जीव कूं मारकर कैसों मिलहिं खुदाय।
पीर पैगंबर औलिया, कोए न कहइ समुझाय॥
या

देता रहै हज्जार बरस, मुल्ला चाहे अजान।
रैदास खोजा नहं मिल सकइ, जौ लौ मन शैतान॥

पर रैदास के ऐसे पद याद करने में भीम-मीम समीकरण में बाधा न आ जाये, इसका एहतियात हमारे बुद्धिरिपु बराबर रखते हैं। रैदास का उस काल में यह कहना धर्मांतरणकारियों को चुनौती था :

जब सभ करि दोए हाथ पग, दोए नैन दोए कान।
रैदास प्रथक कैसे भये, हिन्दू मुसलमान॥

और धर्मरक्षा का भाव रैदास में किसी से कम नहीं है:

रैदास सोई सूरा भला, जो लरै धरम के हेत।
अंग−अंग कटि भुंइ गिरै, तउ न छाड़ै खेत॥

ध्यान दें कि रैदास किसी दलित धर्म की बात नहीं कर रहे हैं। वे उसी धर्म की बात कर रहे हैं जिसके दश लक्षण मनु ने गिनाए थे। और दलित धर्म जैसी किसी मनमानी की जगह वे तो यह कह रहे थे कि : वेद धर्म छोडूं नहीं चाहे गले चले कटार।

यह भी कि : वेद धर्म छोडूं नही कोसिस करो हजार /तिल-तिल काटो चाहि गोदो अंग कटार

और यह कोई निर्वाण संप्रदाय या आजीवक संप्रदाय की मनगढ़ंत नहीं थी। वे वैदिक धर्म के आगे किसी को नहीं गिनते थे :

वेद धर्म सबसे बड़ा अनुपम सच्चा ज्ञान,
फिर क्यों छोड़ इसे पढ़ लूं झूठ कुरान

वर्ण व्यवस्था को वे समझते थे कि वह कर्ममूलक है, जन्मना नहीं है:

बेद पढ़ई पंडित बन्यो, गांठ पन्ही तउ चमार।
रैदास मानुष इक हइ, नाम धरै हइ चार॥

यही स्टैंड मनु का था और यही गीता का।

संत रैदास को जो आदर मिला वह इतना था कि स्वयं राजपूतानी मीरा ने उन्हें अपना गुरु बनाया और यहाँ आधुनिक समय की संकीर्णताएँ उन पर थोपी जा रही हैं।आज के मान से तो उनकी ये पंक्तियाँ तो खासी ब्राह्मणवादी हैं :

सकल सुमृति जिती, संत मिति कहैं तिती, पाइ नहीं पनंग मति परंम बेता।
ब्रह्म रिषि नारदा स्यंभ सनिकादिका, राम रमि रमत गये परितेता।।

यदि रैदास यह कहते हैं कि ‘बरन रहित कहै जे रांम, सो भगता केवल निहकांम’

तो तुलसी के राम भी जात-पाँत नहीं मानते। सिर्फ़ भक्ति के नाते को मानते हैं:

कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।

जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।

भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।

तुलसी भी कहते हैं:

स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥

और इसलिए यदि रैदास यह कहते थे कि:

माथे तिलक हाथ जपमाला, जग ठगने कूं स्वांग बनाया।
मारग छाड़ि कुमारग उहकै, सांची प्रीत बिनु राम न पाया॥

तो दुष्ट ब्राह्मण से तुलसी भी कोई सहानुभूति नहीं करते :

सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना।
तजि निज धरमु बिषय लयलीना।

या

विप्र निरच्छर लोलुप कामी।
निराचार सठ बृषली स्वामी।

वे रैदास अपने समय की पराधीनताओं की प्रकृति को पहचानते थे:

पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन सौं, कौन करैहै प्रीत॥

और तुलसी भी ‘पराधीन सपनेहुं सुख नाहीं’ की त्रासदी जानते थे। पर आज जिन्होंने भारत के बाल्कनाइजेशन के विदेशी विचार को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तरह से अपना लिया है वे पराधीनमनस्क लोग स्वतंत्र चेतना के रैदास के शुभचिंतक कभी हो ही नहीं सकते।

इफको ने ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म के माध्यम से अपने उत्पादों की अनधिकृत बिक्री को लेकर किसानों को सतर्क किया है

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इफको द्वारा किसानों, सहकारी समितियों, खरीदारों और खुदरा विक्रेताओं को सूचित किया गया है कि इंडियन फारमर्स फर्टिलाइजर कोआपरेटिव लिमिटेड (इफको) ने किसी भी ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म को अपने उत्पाद बेचने की अनुमति नहीं दी है। इन ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म से की गई खरीद का जोखिम और दायित्व पूरी तरह से खरीदार पर होगा । ये अनधिकृत प्लेटफॉर्म खरीदारों को गुमराह कर उनसे अनुचित क़ीमत वसूल रहे हैं और घटिया उत्पाद बेच रहे हैं। किसानों के हित में पिछले पांच दशकों से अधिक समय से कार्यरत इफको खुदरा विक्रेताओं और कृषि क्षेत्र की अखंडता की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है। ऑनलाइन उर्वरक बिक्री विनियमन नियमों के अनुसार, इफको एफसीओ लाइसेंस या इफको से जारी आवश्यक ‘ओ’ फॉर्म के बिना इफको उत्पादों की अनधिकृत बिक्री में शामिल लोगों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई की जाएगी । इफको के अधिकृत खुदरा विक्रेता ही अपने अनुमोदित चैनलों के माध्यम से इफको के उत्पाद बेच सकते हैं। नैनो उर्वरक सहित सभी इफको उत्पादों की आधिकारिक कीमतें हमारी आधिकारिक वेबसाइट www.iffco.in पर उपलब्ध हैं।

इफको आम जन को ऐसी धोखाधड़ी वाली गतिविधियों, नकली इफको फ्रेंचाइजी देने वालों या इफको के नाम पर पैसे की मांग करने वालों से सावधान रहने की सलाह देता है। अंतिम उपयोगकर्ता वास्तविक इफको उत्पाद ही खरीद रहा है, यह सुनिश्चित करने के लिए हमेशा हमारे अधिकृत स्टोर से या सीधे इफको की वेबसाइट के माध्यम से जांच कर लें ।

संस्कृति स्वाभिमान और वैदिक सत्य की पुनर्प्रतिष्ठा में जीवन समर्पित

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भारतीय वाड्मय में ऋषियों के जीवन का वर्णन मिलता है । जो अलौकिक सत्य के साधक तो रहे ही साथ ही लौकिक जगत जीवन के कल्याण के लिये भी नये मानविन्दु स्थापित करते थे । आधुनिक युग के ऐसे ही साधक हैं स्वामी दयानन्द सरस्वती। जिन्होंने अपनी साधना और अंतर्चेतना से न केवल मानवीय जीवन के आदर्श मूल्यों के आधारभूत मानदंड स्थापित किये अपितु राष्ट्र और संस्कृति की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये ही जीवन समर्पित कर दिया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती के जीवन शैली और दर्शन के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि वे साधारण मानव नहीं थे । मानों कोई अवतारी महर्षि थे । वे संसार में एक उद्देश्य और संदेश लेकर आये, समाज में जाग्रति की ज्योत जलाई और चले दिये ।

ऐसे महामानव महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष दसवीं विक्रम संवत 1981 (ईस्वी सन् 1924) को हुआ था । यह तिथि इस वर्ष 12 फरवरी को है, गत वर्ष यह 15 फरवरी को थी । गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के ग्राम मोरवी में जन्में दयानन्द सरस्वती सनातन संस्कृति और धर्म के पुनर्द्धारक थे । उनके पिता कृष्णलाल जी तिवारी भी वैदिक विद्वान थे । और माता यशोदाबाई परम शिवभक्त । पिता ने वैदिक शिक्षा के साथ उस समय की अंग्रेजी पद्धति की शिक्षा भी ग्रहण की थी । इस नाते पिता कर कलेक्टर हो गये । इससे परिवार का प्रभाव और प्रतिष्ठा पूरे क्षेत्र में फैली । महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म धनु राशि के अंतर्गत मूल नक्षत्र में हुआ था । इसलिये पिता ने अपने पारिवारिक पुरोहित जी के परामर्श से इनका नाम मूलशंकर रखा । इसमें पिता के परंपरा के साथ माता की शिव भक्ति भी आ गई। उनका बाल्यकाल बहुत सुख सुविधा के साथ बीता। प्रारंम्भिक शिक्षा काठियावाड़ में हुई और संस्कृत एवं वैदिक शिक्षा बनारस में । वे बचपन से बहुत जिज्ञासु स्वभाव के थे । परिवार के संस्कार से मिले आध्यात्मिक रुझान के चलते उन्होने अपने विद्यार्थी जीवन में निर्धारित अध्ययन के साथ धार्मिक पुस्तकों और ग्रथों का अध्ययन भी आरंभ किया । उनकी स्मरण शक्ति अद्भुतथी वे एक बार पढ़ लेते या सुन लेते तो कभी भूलते थे । सुनकर, पढ़कर या देखकर प्रश्न करना उनका स्वभाव था ।

उनके बचपन की एक घटना से मानों मूलशंकर का नया जन्म हुआ । महाशिवरात्रि का त्यौहार था । परिवार में व्रत उपवास पूजन चल रहा था । परिवार की परंपरानुसार बालक मूलशंकर ने भी व्रत रखा था । शिव मंदिर में कथा चल रही थी तभी एक चूहा आया और शिवलिंग पर रखा प्रसाद कुतरने लगा । यह देखकर बालक मूल शंकर के मन मेंअनेक जिज्ञासा जागी । यह चूहा क्या कोई प्रकृति की नियति है ? और शिव के आकार का सत्य क्या है ? ईश्वरीय सत्ता का स्वरूप क्या है ? ऐसे अनेक प्रश्न उनके मन में उठे । वे इन प्रश्नों का समाधान खोजने में लग गये । उन्होंने माता पिता से भी पूछा और प्रवचन कर्ताओं से भी। अभी वे इन प्रश्नों का उत्तर खोज ही रहे थे कि क्षेत्र में हैजे की बीमारी फैली जिसमें छोटी बहन एवं चाचा की मृत्यु हो गई। इस घटना से उनके मन में कुछ नये प्रश्न उठे और जीवन-मरण के अर्थ की जिज्ञासा भी जागी । वे इनके समाधान के लिये बैचेन रहते । उनकी यह मनोदशा देखकर माता पिता को चिंता हुई । माता-पिता ने समाधान केलिये अपने पुत्र मूलशंकर का विवाह करने का सोचा । पर मूलशंकर विवाह के लिये तैयार नहीं हुये । जब बहुत दबाव आया तो वे घर छोड़कर सत्य और ईश्वर की खोज के अनंत मार्ग पर चल दिये ।

वे उस समय के परम् प्रतिष्ठित संत गुरु विरजानन्द के पास पहुंचे। गुरुवर के सानिध्य में उन्होने पाणिनी व्याकरण, पातंजलि-योगसूत्र तथा वेद-वेदांग का अध्ययन किया । स्वामी विरजानंद तीन बातों पर चिंतित रहते थे । एक दासत्व के चलते देश की दुरावस्था, दूसरी सनातन संस्कृति का होता निरंतर ह्रास और तीसरा सनातन संस्कृति में मिथ्या धारणाएँ। स्वामी विरजानंद को आभास हो गया था कि शाष्य मूलशंकर इनका समाधान खोज सकता है । शिक्षा पूर्ण होने पर स्वामी विरजानन्द जी ने अपने शिष्य गुरु दक्षिणा में मांगा- “विद्या को सफल करके दिखाओ, परोपकार करो, संसार से अविद्या का अंधकार मिटाओ और सनातन राष्ट्र के सूर्य को प्रखर करो । गुरूदेव ने कहा कि वैदिक प्रकाश से विश्व आलोकित हो और भारत प्रतिष्ठित हो। यही तुम्हारी गुरु दक्षिणा है । गुरुजी ने ही उनको दयानंद नाम दिया । उन्होंने गुरुदेव का आदेश शिरोधार्य किया । गुरुदक्षिणा पूर्ति के लिये “मूल शंकर” का दयानन्द सरस्वती स्वरूप सामने आया । वे वेदों के प्रकाश से अज्ञान रूपी अंधकार दूर करने में लग गये ।

जब उन्होने भारत का भ्रमण आरंभ किया तब उन्होंने देखा कि किस प्रकार भारतीय जीवन दीन हीन हो गया है । उनके सामने वे घटनाएँ भी छुपी न रहीं कि किस प्रकार पेट भरने और प्राण बचाने केलिये लोगों ने मतान्तरण किया । उन्हे लगा कि यदि जीवन विपन्न और भयभीत है तब कोई कैसे सत्य को समझेगा इसलिये उन्होंने एक साथ एक से अधिक दिशाओं में कार्य आरंभ किया । सबसे पहले अपनी संस्कृति के वास्तविक ज्ञान अर्जित करने, स्वाभिमान जाग्रत करने का अभायान छेड़ा। उनके इस प्रयास से विदेशी शासन की कुचेष्ठा स्पष्ट हुई और समाज अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित होने लगा। स्वामी ने अनुभव किया कि भारत बैचेन है और संघर्ष के दिये तैयार है लेकिन संगठन और मार्गदर्शन का अभाव है । स्वामीजी ने इसी दिशा में काम आरंभ किया । इस कार्य के लिये उन्होंने समूची संत शक्ति को सक्रिय किया । इसके लिये जो टोली तैयार हुई उसका नेतृत्वकर्ता स्वामी दयानन्द जी ने ही किया । इस टोली ने समाज के प्रबुद्ध और प्रभावशाली व्यक्तियों को संगठित करना आरंभ किया । उस काल-खंड के लगभग वे सभी लोग स्वामी जी के संपर्क में आये जो भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक वैभव को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिये चिंतित थे । इनमें नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे, हाजी मुल्ला और बाला साहब जैसे वीर महापुरुष भी थे । कार्य आगे बढ़ाने के लिये संदेश वाहकों की टीम तैयार हुई । स्वामी जी के प्रवचन होते और वहाँ लोगों को संगठित कर क्रांति के लिये तैयार किया जाता ।

इससे परस्पर संबंध बने और एकता आयी । “रोटी और कमल” इस अभियान का प्रतीक चिन्ह बना । संपर्क कार्य के लिये पुजारी, पुरोहित और साधु संत भी जुड़े । पूरे देश में स्वाधीनता का एक ज्वार उठ आया । 1857 की क्रांति की पृष्ठभूमि में कुछ रियासतों के अपने स्थानीय कारण तो थे पर सबको संगठित करके एक सूत्र में पिरोने का काम स्वामी जी के प्रवचनों सभाओं और संतों ने किया । स्वामी जी की सभाएँ कानपुर, लखनऊ, मेरठ, लाहौर, इंदौर, आदि अनेक स्थानों हुईं। मेरठ क्रांति के समय स्वामी जी मेरठ में ही थे । समय के साथ क्रान्ति आरंभ हुई किन्तु सफल न हो सकी । इससे स्वामी जी निराश नहीं हुये । उनके मन में नकारात्मकता का कोई भाव न था । उनकी मान्यता थी कि शताब्दियों की दासता से मुक्ति किसी एक झटके में नहीं मिल सकती । इसके लिये लंबा संघर्ष करना होगा । वे समझाते थे कि प्रसन्नता एक आंतरिक संकल्प है । आशा की निरंतरता से ऐसी आत्मशक्ति से उत्पन्न होती है जो सफलता और असफलता दोनों से ऊपर होती है । उन्होनें अपने प्रवचनों का अभियान तेज किया इससे समाज में नई ऊर्जा का संचार होने लगा और लोग नये सिरे से सक्रिय होने लगे । नयी परिस्थिति में गुरु स्वामी विरजानंद जी ने स्वामी दयानन्द जी ने इस अभियान के साथ वैदिक वाड्मय की व्याख्या करने की भी सलाह दी । दयानन्द जी जन जागरण के साथ इस काम में भी जुट और हरिद्वार आये । यहाँ उन्होंने ‘पाखण्डखण्डिनी पताका’ फहराई । स्वामी जी कर्मकांड के विरोधी नहीं थे पर कर्मकांड के नाम पर दिखावे का जोरदार खंडन किया । उनका कहना था कर्मकांड में भावनात्मक समर्पण होना चाहिए। केवल गंगा नहाने, सिर मुंडाने और केवल भभूत मलने से स्वर्ग का मार्ग नहीं मिलता मिलता, इसके लिये प्राणशक्ति, ज्ञान शक्ति और आत्म शक्ति में तादात्म्य होना चाहिए । जीवन में माता पिता और वरिष्ठ जनों अपमान करने वाले यदि बुजुर्गों की मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करें तो यह केवल ढोंग ही होगा इससे न दिवंगत की आत्मा शाँत होगी और न समाज का कल्याण होगा । समय के साथ समाज में आई॔ विकृतियों के विरुद्ध भी स्वामी जी ने जागरुकत अभियान चलाया । वे समाज को संगठित करके वह सनातन स्वरूप देना चाहते थे जो वास्तव में वेदों और सनातन संस्कृति का मूल है । स्वामी जी का स्पष्ट मत था कि विदेशी शक्तियों ने भारतीय समाज में आये विखराव का लाभ उठाया और इससे बढ़ाने का षड्यंत्र भी किया। उन्होंने धर्मान्तरित लोगों की घर वापसी के द्वार खोले। असमानता और आडंबरों को दूर कर महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए ।

ग्रन्थ रचना और वेदों का भाष्य

आर्यसमाज की स्थापना के साथ स्वामी जी ने हिन्दी में ग्रन्थों की रचना आरम्भ की। और स्वयं के द्वारा पहले रचित संस्कृत ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद भी किया। ‘ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका’ उनकी असाधारण भाष्य दृष्टि साकार ग्रन्थ है। ‘सत्यार्थप्रकाश’ इस अभियान के केन्द्र में रहा। उन्होंने श्रीमद्भागवत गीता में वर्णित सांख्ययोग को अपनाया । जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था । यही उनका दार्शनिक स्वरूप था इसी के माध्यम से उन्होने वेदों की भी व्याख्या की। और जीवन की अन्तिम श्वाँस तक वे इसी अभियान मे लगे रहे । उन्होंने पण्डितों से ही नहीं मौलवियों और पादरियों से भी शास्त्रार्थ किया ।

आर्य समाज की स्थापना

1863 से 1875 ई. तक स्वामी जी देश भर का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार किया । वेदों के प्रचार उनका प्रमुख लक्ष्य था । और इस काम को पूरा करने के लिए अप्रैल 1875 ई. में ‘आर्य समाज’ नामक संस्था की स्थापना की । शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली । स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाह का विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।

हिन्दी भाषा का प्रचार

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था – “मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।”
स्वामी जी की अन्य महत्त्वपूर्ण रचनाओं में सत्यार्थप्रकाश (1874 संस्कृत), पाखण्ड खण्डन (1866), वेद भाष्य भूमिका (1876), ऋग्वेद भाष्य (1877), अद्वैतमत का खण्डन (1873), पंचमहायज्ञ विधि (1875), वल्लभाचार्य मत का खण्डन (1875) आदि हैं ।

षड्यंत्र से देह त्यागी

स्वामी दयानन्द सरस्वती को बहुत विरोध का सामना करना पड़ा । यह विरोध दोनों तरफ से था एक ओर धर्मान्तरित हिन्दुओः की घर वापसी केलिये और दूसरी ओर आडंबर मुक्ति अभियान के लिये भी । और इसी कुचक्र के अंतर्गत उन्होंने देह त्यागी। एक वेश्या के कुचक्र से हुआ। कहते हैं षड्यंत्र कारियों ने स्वामी जी के रसोइये को लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और दूध में विष मिलाकर स्वामी जी को पिला दिया। इसी षड्यंत्र में 30 अक्टूबर 1883 को दीपावली के दिन स्वामीजी भौतिक शरीर त्यागकर अनंतयात्रा पर चल दिये।
अपनी अंतिम यात्रा का आभास संभवतः स्वामी जी को हो गया था । उन्होंने 27 फरवरी 1883 को उदयपुर में एक स्वीकारपत्र प्रकाशित किया था जिसमें 23 सदस्यों को परोपकारिणी सभा की जिम्मेदारी सौंपी थी जो उनके बाद उनके काम को आगे बढ़ा सकें। इनमें महादेव गोविन्द रानडे का नाम सबसे प्रमुख था। इस स्वीकारपत्र पर 13 गणमान्य व्यक्तियों के साक्षी के रूप में हस्ताक्षर हैं। इसके छः माह पश्चात उन्होंने देह त्यागी ।
स्वामी जी भले असमय संसार छोड़ गये पर उनकी शिक्षाएँ, संदेश और संस्था ‘आर्यसमाज’ के माध्यम से वैदिक आन्दोलन भारतीय इतिहास में अमर है ।

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