इन्हीं की रणनीति से मारा गया था शेरशाह सूरी कालिंजर में..

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रानी दुर्गावती भारतीय इतिहास की ऐसी वीराँगना हैं जिनके शौर्य, दूरदर्शिता और रणनीति का प्रभाव कालिंजर से गौंडवाना तक है। लेकिन इतिहास में उन्हें उतना स्थान नहीं मिला जितना उनका योगदान भारतीय संस्कृति की रक्षा में है। उन्हें आमने सामने की वीरता में कोई हरा नहीं पाया। अंततः मुगल सेनापति आसफ खाँ की कुटिल योजना से उनका बलिदान हुआ।

रानी दुर्गावती का जन्म 5 अक्टूबर 1524 को हुआ था। उनके पिता राजा कीर्तिवर्धन सिंह इतिहास प्रसिद्ध कालिंजर के राजा थे। यह राजघराना चंदेल राजवंश था। उनकी माता चित्तौड़ राजघराने की राजकुमारी और सुप्रसिद्ध यौद्धा राणा सांगा की बहन थीं। राणा सांगा का खानवा के मैदान में बाबर के साथ हुये युद्ध में भी राजा कीर्तिवर्धन की भूमिका महत्वपूर्ण थी। इसीलिए खानवा युद्ध के बाद बाबर ने कालिंजर पर आक्रमण किया था। लेकिन जीत नहीं पाया था।

कालिंजर यह किला उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के अंतर्गत आता है । यह राज्य और यह किला भारत के इतिहास के पन्नो पर हर युग की घटनाओं से जुड़ा है। यह कालिंजर का आकर्षण ही है कि लगभग प्रत्येक आक्रांता ने हमला बोला । मेहमूद गजनवी, अलाउद्दीन खिलजी, और शेरशाह सूरी ने भी कालिंजर पर हमला बोला था । आक्रांताओं ने कालिंजर क्षेत्र में हत्याएँ लूट और आतंक तो बहुत किया पर किला अजेय रहा। ऐसी वीरभूमि और साँस्कृतिक गौरव केलिये अपना बलिदान देने की परंपरा में जन्मी थीं रानी दुर्गावती। उनके पिता राजा कीर्तिवर्धन का बचपन में पृथ्वीदेव सिंह था जो कीर्तिवर्धन के नाम से गद्दी पर बैठे । इसलिए इतिहास की पुस्तकों में दोनों नाम मिलते हैं। जिस तिथि को उनका जन्म हुआ वह दुर्गाष्टमी का दिन था। माता देवीजी की भक्त थीं इसलिए उनका नाम दुर्गावती रखा गया । राजा कीर्तिवर्धन ने एक से अधिक विवाह किये थे। परिवार में और भी बेटियाँ थीं। दुर्गावती अपनी माता की इकलौती संतान थीं । इसलिये उनका लालन पालन बहुत लाड़ के साथ हुआ । वे बचपन से ही बहुत कुशाग्र बुद्धि, ऊर्जावान और साहसी थीं। जिस प्रकार कालिंजर ने आक्रमण झेले थे । इस कारण राजपरिवार की सभी महिलाओं और राजकुमारियों को भी आत्मरक्षा के लिये शस्त्र संचालन सिखाया जाता था। राजकुमारी दुर्गावती को शास्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा बचपन से ही दी गयी। वनक्षेत्र में भी अपनी सखियों के साथ निर्भय होकर करती थीं। बचपन से ही उनके साथ उनकी सखी सहेलियों की टोली भी वीरांगनाओं की थी । कालिंजर पर अक्सर हमले होते थे इस कारण वहां के नागरिकों में भी युद्ध कला के प्रशिक्षण का चलन हो गया था । इसी संघर्ष मय वातावरण में दुर्गावती बड़ी हुईं । वे हाथी पर बैठकर तीर कमान के युद्ध में भी पारंगत थीं। उनके तीर का निशाना अचूक था । वीरांगना दुर्गावती कितनी साहसी थीं इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे कृपाण से चीते का शिकार कर लेतीं थीं। उनकी माता ने उन्हे इतिहास और पूर्वजों की वीरोचित परंपरा की कहानियाँ सुनाकर बढ़ा किया था। 1544 में उनका विवाह गढ़ मंडला के शासक राजा संग्राम शाह के सबसे बड़े पुत्र दलपत शाह हे हुआ। गढ़ मंडला के शासक गौंड माने जाते थे और कालिंजर के चंदेल राजा सूर्यवंशी क्षत्रिय थे । यदि सूर्यवंशी राजा अपनी पुत्री का गौंडवाना में करते हैं तो इससे संकेत है कि भारत में नगरवासी और वनवासी का कोई भेद नहीं था।

विवाह के एक वर्ष पश्चात रानी ने पुत्र को जन्म दिया। जिसका नाम वीर नारायण रखा। रानी ने जब पुत्र को जन्म दिया तब वे मायके कालिंजर आयीं हुईं थीं। इन्हीं दिनों शेरशाह सूरी का आक्रमण कालिंजर पर हुआ। राजा कीर्तिवर्धन सिंह ने वीरता से युद्ध लड़ा लेकिन खानवा के युद्ध में भाग लेने और फिर बाबर के कालिंजर पर हमले से शक्ति क्षीण हो गई थी। राजा घायल हुये और किले के द्वार बंद करलिये गये। शेरशाह ने किले पर घेरा मजबूत किया और समर्पण की शर्त रखी। समर्पण में रनिवास और राजकोष के समर्पण की भी शर्त थी। राजा ने समर्पण से इंकार कर दिया। घेरा लंबा चला। शेरशाह की सेना में बेचैनी तो हुई पर वह खाली हाथ नहीं लौटना चाहता था। रानी दुर्गावती की एक बहन कमलावती भी थीं। उनके सौन्दर्य और वीरता के भी चर्चे थे। रानी दुर्गावती ने अपने पिता की ओर से संदेश भेजा कि यदि वे राजकुमारी से विधिवत विवाह कर लें तो आधीनता स्वीकार कर ली जायेगी और यह किला भी समर्पित कर दिया जायेगा। शेरशाह ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। योजना पूर्वक सगुन भेजा गया और किले में विवाहोत्सव की गीत संगीत होने लगे। तीसरे दिन शेरशाह को विवाह केलिये किले में आमंत्रित किया गया। शेरशाह किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ा। जैसे ही वह समीप आया किले की तोप चल पड़ी और शेरशाह मारा गया। भारतीय इतिहास के ऐसे गौरव प्रसंगों पर परदा डालने वाले कुछ इतिहासकार यह तो स्वीकार करते हैं कि शेरशाह की मौत किले से आने वाले तोप के गोले से हुई। लेकिन वे कुतर्क देते हैं कि वह तोप का गोला शेरशाह की तोप का ही था जो किले की दीवार से टकराकर लौट आया था। कोई पूछे इन इतिहासकारों से कि क्या तोप के गोले में हवा भरी थी जो दीवार से टकरा लौट आया।

कुछ समय रूककर रानी दुर्गावती गौंडवाना लौट आईं। इस घटना के बाद उनकी चर्चा पूरे भारत में हुई। लेकिन रानी दुर्गावती का दाम्पत्य जीवन अधिक न चल सका। 1550 में राजा दौलत शाह की मृत्यु हो गई। तब पुत्र वीर नारायण की आयु मात्र पाँच वर्ष थी। रानी ने अल्पवयस्क वीर नारायण को गद्दी पर बिठाकर राजकाज चलाना आरंभ किया। उन्होंने अपना नौ सदस्यीय मंत्री परिषद गठित की। इसमें कोष, सेना, अंतरिम व्यवस्था, शाँति सुरक्षा आदि के प्रमूख बनाये। मंत्री परिषद के प्रमुख को दीवान पद दिया। इसके साथ रानी दुर्गावती ने अपने पूरे राज्य में कृषि और वनोपज के व्यापार को बढ़ावा दिया। राज्य की आय बढ़ी तो नये निर्माण कार्य भी हुये। उन्होंने अपनी राजधानी सिंगोरगढ़ से चौरागढ़ स्थानांतरित की । चौरागढ़ सुरम्य सतपुड़ा पर्वतीय श्रृंखला पर किला है । सामरिक दृष्टि से यह किला महत्वपूर्ण था । तब गौंडवाना साम्राज्य मंडला, नागपुर से लेकर नर्मदा पट्टी तक फैला था । गौंडवाना राज्य के अंतर्गत कुल 28 किले आते थे । राज्य निरंतर प्रगति की ओर बढ़ रहा था। रानी दुर्गावती प्रजा वत्सल वीरांगना थीं । जबलपुर का आधारताल, चेरी ताल और रानीताल का निर्माण कार्य उन्हीं के कार्यकाल में हुआ । उनपर माँडू के सुल्तान बाज बहादुर ने तीन बार आक्रमण किया और तीनों बार पराजित होकर वापस लौटा। तीसरी बार तो उसे भारी नुकसान हुआ और मुश्किल से प्राण बचाकर भागा था। रानी वीरांगना थीं। रानी हाथी पर बैठकर युद्ध करतीं थीं।

गौंडवाना राज्य की बढ़ती समृद्धि और ख्याति ही उसपर आक्रमण का कारण बनी । यदि मालवा के सुल्तानों से कुछ राहत मिली तो मुगल सेना ने भारी सेना और तोपखाने से आक्रमण बोला। जो मुगलसेना गौंडवाना पर आक्रमण करने आयी उसका सेनापति आसफ खाँ था। उसने पहले इलाहाबाद में अपना कैंप लगाकर आसपास लूट की लोगों आधीन बनाया। रीवा राज्य को भी समर्पण करने विवश किया । समर्पण का संदेश रानी को भी भेजा गया। रानी ने इंकार कर दिया । मुगल सेना ने जोरदार आक्रमण किया लेकिन पराजित हुआ और आसफ खाँ भागकर वापस इलाहाबाद पहुँचा । उसने अतिरिक्त तोपखाना मंगाया, अतिरिक्तसेना भी बुलाई । और दोबारा हमला बोला। उसने लगातार चार आक्रमण किये। हर आक्रमण में रानी से पराजित हुआ। इन आक्रमणों में जीत के बाद भी उनकी शक्ति क्षीण हुई तो उन्होंने छापामार युद्ध की रणनीति अपनाई। किन्तु आसफ खाँ ने इस बार युद्ध के साथ एक कुटिल योजना पर भी काम किया। उसने अपना कैंप नरई नाले पर लगाया था। आसफ खाँ ने रानी के पास स्थाई समझौते का संदेश भेजा। और बातचीत के लिये अपने कैंप पर आमंत्रित किया। रानी सतर्क तो थीं पर उन्होंने समझौता वार्ता के लिये नाले तक जाना स्वीकार कर लिया। यह नाला गौर और नर्मदा नदी के बीच में था। आसफ खाँ ने अपनी रणनीति के अंतर्गत रानी को नर्मदा के इस पार आने दिया। घाट पर उनके स्वागत की व्यवस्था भी थी। लेकिन मुगल सेना के तीरंदाज पेड़ों पर छुपा दिया था। रानी अपने अंग रक्षकों की टोली के साथ आगे बढ़ीं तो तीरों से हमला हो गया। कुछ अंग रक्षक घायल हुये और एक तीर रानी को भी लगा। वे घायल हुईं । बेटा वीर नारायण भी उनके साथ था। रानी ने समर्पण करने की बजाय युद्ध करना बेहतर समझा । मुगल सेना उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी । इसलिये उनपर तीरों से हमला किया जा रहा था । जबकि अंग रक्षकों पर गोली और तोपखाना भी आग उगल रहा था । फिर भी रानी ने हार नहीं मानी तभी एक तीर उनके कान के पास और एक तीर उनकी गर्दन में लगा । वे बेहोश होने लगीं । महावत ने उन्हें कहीं छिपकर निकलने की सलाह दी । पर रानी को शत्रु की रणनीति का अनुमान हो गया था । वहाँ से सुरक्षित निकलना सरल न था । उनके पास पुनः समर्पण का संदेश आया । पर उन्होंने पराधीन जीवन से बेहतर स्वाभिमान से मर जाना बेहतर समझा और कटार निकालकर स्वयं पर वार कर लिया । यह 24 जून 1564 का दिन था जब वीरांगना रानी दुर्गावती ने कटार निकालकर स्वयं का बलिदान दे दिया। उनके बलिदान के बाद मुगल सेना राज्य घुसी लूट और हत्याओं के साथ महिलाओं के साथ जो व्यवहार हुआ । वह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है ।

शृंखला आलेख – 12: कम्युनिष्टों वे बच्चे हैं, दिखता नहीं?

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माओवादियों ने अनेक तरह के संगठन बनाए हुए हैं, कई तो स्कूलों के भीतर से संचालित होते हैं। बाल-यूनियन बना कर वस्तुत: अधपके छात्रों से ही कथित क्रांति का रस टपका लेने के लिए माओवादी आतुर हैं। माओवादियों के प्रकट और गुप्त दो तरह के संगठन हैं और वे योजनानुसार व कार्यशैली के अनुरूप उत्पादक बने हुए है, कैडर का रिक्रूटमेंट करने की पहली सीढ़ी यही है।

आज केवल बाल-संघम की चर्चा करते हैं चूंकि शहरी नक्सली जब भी किसी तरह का नैरेटिव गढ़ते हैं बच्चे उसका केंद्रविंदु होते हैं। दिमाग पर जोर दीजिए, बस्तर परिक्षेत्र में चार दशक से फैले-फले नक्सलवाद के अतीत में कभी किसी कम्युनिष्ट कथा-कहानी में, कविता में, यहाँ तक कि रिपोर्ताज में भी बालसंघम के माध्यम से माओवादी किस तरह अञ्चल के बचपन का शोषण कर रहे हैं, इसका उल्लेख हुआ है? यदि हुआ है तो बहुत ही रूमानियत के साथ। नक्सल समर्थन के लिए कुख्यात लेखिका अरुंधती रॉय का माओवाद पर केंद्रित चर्चित आलेख दी गार्डियन में “गांधी, बट विथ गन्स” और आउटलुक में “वाकिंग विथ द कॉमरेड्स” शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। आलेख के आरंभ में लेखिका बताती है कि वह कैसे दंतेवाड़ा पहुंची और वहाँ उसे नक्सलियों से मिलवाने के लिए जिसे भेजा गया वह मासूम बच्चा था। शब्दश: अरुंधती लिखती है – “मुझे आश्चर्य हुआ कि क्या कोई मुझे देख रहा है और हंस रहा है। कुछ ही मिनटों में एक छोटा लड़का मेरे पास आया। उसके पास एक टोपी और एक बैकपैक स्कूल बैग था। उसके नाखूनों पर लाल रंग की नेल-पॉलिश लगी हुई थी। ‘क्या तुम ही अंदर जा रहे हो?’ उसने मुझसे पूछा।“ इस तरह के विवरण वाले बच्चे से आपको या इस देश को क्या अपेक्षा होनी चाहिए? ऐसे बच्चे माओवादियों के टूल हैं, उनके संदेशवाहक हैं, उनके मुखबिर हैं यहाँ तक कि उनके लिए मालवाहक भी हैं। नक्सल संगठन में बाल संघम का यही कार्य है जिसके लिए नाबालिक बच्चे उपयोग में लाए जाते हैं। कम्युनिष्टों वे बच्चे हैं, दिखता नहीं?

यह एक विदित तथ्य है कि माओवादी प्रत्येक घर से एक सदस्य चाहते हैं और एक बच्चे को तो ये लाल-कमबख्त अपनी बपौती समझते हैं। इसके अतिरिक्त संगठन ऐसे बच्चों की तलाश में भी रहता है जिनके माता-पिता इस दुनिया में नहीं हैं याकि परिवार आर्थिक रूप से कमजोर है और बच्चों का लालन-पालन करने में कठिनाई का अनुभव कर रहा है। ये बच्चे माओवादी टूल हैं जिन्हें बाल संघम का सदस्य बना लिया जाता है और फिर उनसे सुरक्षाबलों के मूवमेंट की जानकारी लेने जैसे खतरनाक काम में लगा दिया जाता है। प्राय: सुरक्षा बाल छोटे बच्चों पर संदेह नहीं करते और यही बात माओवादियों के लिए ताकतवर सूचनातंत्र बन जाती है। अनेक स्थानों से एकत्र जानकारी के अनुसार माओवादी इन बच्चों को बंदूक चलाने, स्पाईक होल तैयार करने, आईईडी को एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाने जैसे कार्य भी लेते हैं। बाल संघम में कार्य कर रहे बच्चे घरों में रहते हैं, अपने स्कूल भी जाते हैं। समय पर्यंत इन बच्चों द्वारा की जाने वाली हरकतों और अपराधों की सूचना पुलिस तक भी पहुँचती है। इसी बात का भय दिखा कर माओवादी अब बच्चों को जंगल के भीतर आने के लिए बाध्य कर देते है और पार्टी से जोड़ लेते हैं। बाल संघम वस्तुत: बच्चों के मनोविज्ञान से खेलने का तंत्र है और उन्हें आतंकवादी बनाने के लिए धीमा वैचारिक जहर दिए जाने जैसी प्रक्रिया। कितना आश्चर्य है कि देश भर में जोर जोर से बजने वाली बाल अधिकार और मानव अधिकार की तूतियाँ नक्सल क्षेत्रों में खामोश रहती हैं, क्या कोई एजेंडा है?

शृंखला आलेख – 11: मौत, मुखबिर और मानवाधिकार

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माओवादियों द्वारा की जाने वाली हत्याओं का जो सबसे सामान्य कारण बताया जाता है वह है ग्रामीणों द्वारा कथित रूप से की जाने वाली मुखबिरी। लगभग दो दशकों से मैं बस्तर परिक्षेत्र के समाजशास्त्रीय विषयों पर कार्य कर रहा हूँ और जानता हूँ कि केवल संदेह के आधार पर ही अनेक ग्रामीण माओवादियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए गए। अनेक बार झूठी शिकायत पर भी किसी ग्रामीण को मुखबिर बता दिया गया और फिर धार विहीन हथियार से माओवादियों ने निर्ममता भरी मौत दी है। एक ऐसे ही परिवार सें मैं कुछ समय पूर्व मिला था जिसके परिजन की केवल इसलिए हत्या कर दी गई थी कि उसका एक सहपाठी सिपाही हो गया था और दोनों मित्र बाजार में बात करते देखे गये। एक ग्रामीण को केवल इसलिए मार दिया गया था क्योंकि उसे बैंक में पैसा जमा करते देखा गया था, पूछने पर ज्ञात हुआ कि वह तो अपने फसल से अर्जित राशि जमा करने गया था न कि किसी तरह की मुखबिरी करने या पुलिस को सहयोग करने। यह संभावना भी है कि अनेक ने पुलिस तंत्र का जाने अनजाने सहयोग किया हो लेकिन इसके लिए माओवादियों के पास मौत के घाट उतार देने जैसी एकमेव सजा क्यों है?

मैंने माओवादियों को और शहरी नक्सलियों को, सर्वदा एक ही स्वर में मानवाधिकार का नारा लगाते सुना है। उनकी सारी कवायद सुरक्षाबलों के विरुद्ध रहती है लेकिन स्वयं माओवादियों द्वारा मानव को मानव न समझे जाने के प्रश्न पर उनकी ओर से कभी कोई उत्तर नहीं आया। मेरा प्रश्न है कि क्या नक्सलक्षेत्र के ग्रामीणों का मानव अधिकार नहीं होता? आज इस प्रश्न का सामान्य कुछ आंकड़ों से करते हैं। इस विवेचना में मैंने केवल एक वर्ष (फरवरी 2024 से जनवरी 2025 तक) का आंकड़ा लिया है। इस अवधि में मैंने प्रत्येक माह में वह संख्या निकाली है जो नक्सलियों द्वारा की गई उन ग्रामीणों की हत्या है जिन पर मुखबिरी करने के आरोप लगाए गए थे। प्रतिमाह के आँकड़े देखें तो -(2 हत्या) फरवरी 2024, (4 हत्या) मार्च 2024, (4 हत्या) अप्रैल 2024, (1 हत्या) मई 2024, (3 हत्या) जून 2024, (2 हत्या) जुलाई 2024, (4 हत्या) अगस्त 2024, (3 हत्या) सितंबर 2024, (3 हत्या) अक्टूबर 2024, (1 हत्या) नवंबर 2024, (5 हत्या) दिसंबर 2024, (1 हत्या) जनवरी 2025; इस तरझ केवल एक वर्ष की अवधि में तैंतीस (33) ग्रामीणों को मुखबिर बताया कर मार दिया गया। मारे जाने वाले ग्रामीणों में 100% जनजातीय समाज के व्यक्ति हैं।

केवल एक साल में तैंतीस व्यक्ति मार दिए गए, इस बात को देश के बुद्धिजीवी वर्ग ने याकि मीडिया ने संज्ञान में क्यों नहीं लिया? क्या साल में तैंतीस हत्याओं का आंकड़ा कोई छोटी संख्या है? माह दर माह होने वाली ये हत्यायें बस्तर में सामान्य घटना बना दी गई हैं। शहरी नक्सलवाद जो नैरेटिव परोसता है उससे इतर इन ग्रामीणों की हत्या पर क्यों मानवाधिकार की मोमबत्तियाँ भीग जाती हैं? शोकसभाओं पर क्या बिजली गिर पड़ती है? मौत, मुखबिर और मानवाधिकार पर बस्तर में कभी खुल कर बहस हुई ही नहीं, शायद इसलिए क्योंकि यहाँ अवस्थित मानव अधिकार की दूकानों के एजेंडे अलग हैं और मीडिया की टीआरपी के लिए ऐसी खबरें कोई योगदान नहीं करतीं.

शृंखला आलेख – 10: यह देश गूंगा-बहरा क्यों है?

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रायपुर : यह बात वर्ष 2018 की है, सुकमा जिले के अंतर्गत आने वाले कुंदनपाल गाँव के उन्नीस वर्षीय छात्र कुंजामी शंकर की अपहरण के पश्चात माओवदियों ने बहुत ही निर्ममता से हत्या कर दी थी। किशोर तथा नव-युवक छात्रों की हत्या करना माओवादियों के लिए बहुत आम है, ऐसी हत्याएं कुंजामी शंकर से पहले भी होती रहीं हैं, समय बदल कर आज वर्ष 2025 हो चला है और अब भी क्या बदला है?

17 जून, 2025 को माओवादियों ने बीजापुर जिले के पेदाकोरमा गाँव से अनेक ग्रामीणों को अगवा किया, सभी के साथ अमानवीय रूप से मारपीट की गयी और तीन लड़कों जूंगू मोडियम, सोमा मोडियम और अनिल मांडवी की हत्या कर दी। माओवादियों ने जिनकी हत्या की वे स्कूली छात्र थे और एक तो केवल तेरह वर्ष का बालक था।जिन बंधकों को छोड़ा गया उनमें से अधिकांश किशोर थे, उन्हें आगे से स्कूल न जाने की हिदायत माओवादियों द्वारा दी गई है। सोचिए कि वह कौन की क्रांति है जो तेरह-चौदह वर्ष के किशोरों की आहूति मांग रही है? हत्या भी रस्सी से गला घोंट कर की गयी, अपराध यह कि इनका एक परिजन पूर्व-माओवादी था और आत्मसमर्पण कर चुका है। एक बार के लिए मान लेते हैं कि ये मारे गए बालक पुलिस के मुखबिर थे या ऐसा ही कोई अन्य कार्य उन्होंने किया जिसे माओवादी अपराध मानते हैं तो भी उनकी निर्मम हत्या करने का अधिकार कैसे प्राप्त हो जाता है? दुनिया का कौन सा कानून इतना अमानवीय है कि अल्पव्ययस्कों को मौत की सजा देता है? क्या यही कार्ल मार्क्स के सपने का रास्ता और माओत्से तुंग का तौर तरीका है?

बात एक बार फिर नैरेटिव की करूंगा क्योंकि इस समय हमारा देश सोनम ने अपने पति की हत्या क्यों की, इस प्रश्न में उलझा हुआ है। वही देश यह क्यों नहीं जानना चाहता कि कुंजामी शंकर को क्यों मारा गया या कि जूंगू मोडियम, सोमा मोडियम और अनिल मांडवी की हत्या क्यों और किस तरह की गयी? थोड़ा दिमाग पर जोर डालिये, याद कीजिए दक्षिण भारत के विश्वविद्यालय में पढने वाले एक छात्र ने आत्महत्या की थी, तब देश संवेदित ही नहीं, उग्र और आंदोलित भी हो उठा था। दिल्ली के एक विश्वविद्यालय का छात्र लापता हुआ था, सारा देश एक स्वर में उठ खडा हुआ। ये प्रकरण निश्चय ही आन्दोलित होने का समुचित आधार हैं, यदि हम अपने छात्रों के पक्ष में नहीं खडे हैं तो फिर देश के भविष्य को अंधेरा ही मानिये।….अब सोचिये कि यही देश माओवादियों द्वारा बस्तर में सतत मारे जा रहे किशोर छात्रों के पक्ष में क्यों नहीं खडा हैं? माओवादियों द्वारा की जाने वाली ऐसी नृशंसतम हत्याओं में ऐसी क्या विशेषता है कि उनपर खामोशी पसरी रहती है?

इस प्रश्न का उत्तर कुनैन की तरह कड़वा है और शहरी नक्सलवाद का मर्म है। यह देश किस हैडलाईन से संचालित होगा इसका निर्णय लेने वाले अधिकांश मष्तिष्क लाल हैं। आत्महंता वैमुला पर खबर वैश्विक हो जाएगी लेकिन कुंजामी शंकर पर चुप्पी और घनघोर चुप्पी। दिल्ली के लापता छात्र पर पूरी शिक्षा व्यवस्था कटघरे में होगी, लेकिन जिन छात्रों को आगे से स्कूल न जाने की धमकी माओवादियों ने दी है उस संदर्भ पर बात करने से बचना ही प्रगतिशीलता है। रायपुर के अखबार तो ऐसी घटनाओं पर बीच के किसी पन्ने में “तीन ग्रामीणों की मौत” कह कर इतिश्री कर भी लेते हैं लेकिन दिल्ली सोनम से जब जब फुरसत पाती है वह तत्क्षण गाजा के आँसू पोंछने निकल पड़ती है। सोचिए कि सच पर इतना कोहरा क्यों है? सोचिए कि यह देश देश गूंगा-बहरा क्यों है?

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