नया साल मनाने जा रहे बेटे बेटियों को सावधान करें

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केवल भारत ही नहीं पूरी दुनियाँ नया साल मनाने की तैयारी हो रही है । नदियों झील, समन्दर और पहाड़ों के पर्यटन स्थल और महानगरों में बार, होटल रेस्टोरेंट बुक हो चुके हैं । लेकिन एक बात समझ लें। गत वर्ष सौ से अधिक युवा घर लौट ही नहीं सके थे । वे या तो या तो नशे में गाड़ी चलाने के कारण दुर्घटनाग्रस्त हुये अथवा नशे में हुये झगड़ों का शिकार बने थे। घायलों की संख्या भी सैकड़ों में रहीं। गत वर्ष केवल उत्तराखंड के पर्यटन स्थलों पर छै मौतें, पचहत्तर घायल हुये थे । आपसी झगड़ों में पुलिस ने आधीरात को 55 युवा बंदी बनाये थे ।

वर्ष 2024 के समापन के पल समीप आ गये । भारत में यह वर्ष अनेक उपलब्धियों की सौगात देकर विदा हो रहा है । पूरी दुनियाँ के साथ भारत में भी नववर्ष के स्वागत की तैयारी के समाचार मीडिया में आने लगे। यह तैयारी पर्यटन स्थलों, होटल, बार, रेस्टोरेंट आदि में अधिक है । अंग्रेज क्रिसमस की इन छुट्टियों में मंसूरी नैनीताल आदि पहाड़ों पर जाया करते थे । अंग्रेज भले चले गये छुट्टियों में पहाड़ों पर जाने की परंपरा छोड़ गये । हर वर्ष की भाँति इस वर्ष भी पहाड़ों के अधिकांश होटल बुक हो चुके हैं । पिछले वर्ष तो रास्ते में पाँच-पाँच किलोमीटर के जाम लगा था । इसके अतिरिक्त वर्ष हजारों लाखों लोगों द्वारा अपने नगर के होटलों में पार्टी देने की ही नहीं, कमरों की बुकिंग भी हो गई है ।

समय की तेज गति से अब यह प्रश्न पीछे छूट गया कि भारतीय परंपरा में नया साल कब आता है और कैसे मनाया जाता है। भारतीय शासन व्यवस्था और समाज जीवन एक जनवरी को नया साल मनाने की परंपरा में ढल गया है । दैनिक जीवन के कार्य ही नहीं अब तो जन्म पत्रिकाएँ भी अंग्रेजी वर्ष के दिनांक से बनती हैं। कुण्डली दिखाने के लिये भी अंग्रेजी दिनांक ही दी जाती है । यह आधुनिक नया साल प्रातःकालीन सूर्योदय से आरंभ नहीं होता । यह आधी रात से होता है । नये साल का उत्सव भी आधी रात को मनाया जाता है । आधी रात के इस उत्सव की दो विशेषताएँ होतीं हैं। एक यह उत्सव बिना शराब पार्टी के पूरा नहीं होता और दूसरा अधिकांश आयोजनों में स्त्री पुरुष साथ होते हैं । हालाँकि कुछ पार्टियों में परिवार और पारिवारिक मित्रों के साथ होती हैं । लेकिन अनेक पार्टियों में भाग लेने वाले जोड़े, पति पत्नि नहीं, “मित्र” होते हैं। इनमें अधिकांश वे युवा होते हैं जो पढ़ाई या जाॅब के लिये घरों से बहुत दूर रहते हैं। पिछले साल नववर्ष की रात जो घटनाएँ घटीं थीं उनमें अधिकांश इसी प्रकार के समूहों के बीच घटीं थीं। जो हत्या, प्राण घातक मारपीट, बलात्कार, बलात्कार का प्रयास और बेहद घटिया छेड़छाड़ से भरीं थीं। वर्ष 2022 और 2023 के बीच एवं वर्ष 2023 और 2024 के बीच मनाये गये नववर्ष उत्सव की मध्य में रात्रि 10 बजे से 2-30 बजे के बीच केवल साढ़े चार घंटे में देश की राजधानी दिल्ली में कुल बत्तीस बड़े अपराध घटे थे । जिसमें उन्नीस बहुत गंभीर थे। इनमें चार मर्डर और बारह बलात्कार एवं बलात्कार का प्रयास थे । यदि इसमें दून, मुम्बई, बंगलूर, हैदराबाद, चैन्नई आदि 17 महानगरों के आँकड़े जोड़ें तो बड़े अपराधों की यह संख्या सौ से अधिक होती है । गत वर्ष केवल उत्तराखंड के विभिन्न पर्यटन स्थलों पर झगड़े और दुर्घटनाओं में छै मौतें हुईं थीं। इनमें दून में चार, लालकुआँ भीमताल में एक और हल्द्वानी में एक मौत हुई थी । शराब के नशे में आधीरात को जो झगड़े हुये उनमें कुल 55 लोग बंदी बनाये गये थे। इनमें अकेले दून में तीस लोग बंदी बनाये गये थे । इसके अतिरिक्त छत्तीसगढ के जशपुर में एक कार पेड़ से टकराई चार मौतें, झारखंड में छै, हापुड़ में दो, जमशेदपुर में छै मौतें हुईं थी ।

नेशनल सिक्युरिटी काउन्सिल द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार देशभर नववर्ष की रात को कुछ 104 मौतें हुईं थीं। गतवर्ष अर्थात 2023 की 30 एवं 31 दिसम्बर तथा वर्ष 2024 की एक जनवरी के इन तीन दिनों में कुल 308 मौतें हुईं थीं। दो वर्ष पहले दिल्ली में एक बेटी को लगभग चौदह किलोमीटर घसीटा गया था । यह घटना सुल्तानपुरी इलाके में घटी थी । वह 20 अंजलि थी ।उसकी हड्डियां घिस चुकी थीं । शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं था । यह घटना मीडिया की सुर्खियाँ में आई थी इसलिए दो साल बाद अब भी सबके ध्यान में है लेकिन बाकी सब घटनाएँ एक दिन से आगे न बढ़ सकीं थीं। गत वर्ष नशे की पार्टियों से अलग कुछ टोलियाँ ऐसी भी थीं जो नया साल मनाने किसी होटल में नहीं धार्मिक स्थलों पर गये थे । नववर्ष पर ऐसी ही एक वैष्णों देवी से लौटते समय घटी । तेज रफ्तार गाड़ी खाई में गिरी और बारह लोग मारे गये । इन दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले कितने ही युवा अपने माता पिता की इकलौती संतान थे । और वे बेटियाँ जो उत्साह से नववर्ष मनाने गईं लेकिन बलात्कार या बलात्कार के प्रयास का शिकार हुईं । उनकी मनोदशा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। वे पीड़ित प्रताड़ित युवा और उनके परिवार ये दर्द जीवन भर नहीं भूलेंगे।

अपराध के ये आकड़े पहले नहीं हैं। हर साल ऐसी घटनाएँ घटतीं है । नववर्ष मनाने के पिछले दस वर्षों में ऐसी घटनाओं के आँकड़े लगातार बढ़ रहे हैं। ये आँकड़े वे हैं जो पुलिस तक पहुंचे। छेड़छाड़ आदि की कितनी घटनाएँ ऐसी होंगी जो पुलिस तक नहीं पहुँच सकीं। इसका कारण यह है कि नववर्ष की पार्टी केलिये उत्साह का अतिरेक और नशा विवेक को शून्य कर देता है । जिससे वह न तो अपने भविष्य का आकलन कर पाता है और न पिछली घटनाओं से कोई सबक ही लेता है । इस वर्ष भी यही हो रहा है। नववर्ष उत्सव मनाने की तैयारी के जो समाचार आ रहे हैं वे पिछले वर्ष से बहुत अलग नहीं है । इसे हम महानगरों के होटल बार और रेस्टोरेंट की बुकिंग से समझ सकते हैं। पर्यटन स्थलों पर जाने वाले मार्गों पर ट्रैफिक बढ़ गया है । यह ठीक है कि दुर्घटनाएँ सभी के साथ नहीं घटतीं। अधिकांश लोग हँसी खुशी से ही लौट आयेंगे। और नववर्ष उत्सव के आनंद को मित्रों से साँझा करेंगे।

पिछले सालों में भी ऐसा हुआ है । लेकिन सभी ऐसी सौभाग्यशाली नहीं होते। लेकिन जिन बेटे बेटियों का जीवन और मान संकट में पड़ता है उनकी क्षति की भरपाई कभी नहीं होती । इसलिए सावधानी और समझ दोनों आवश्यक हैं। किन मित्रों के साथ नया साल मनाना यह विचार आवश्यक है । जो युवक युवतियाँ अपने मित्रों के साथ नया साल मनाने जा रहे हैं तो सावधानी बरते । सावधानी हटी दुर्घटना घटी….!

संस्था के नाम का देश भर में दुरुपयोग

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आज दिनांक 25-12-2025 दिन बुधवार को ऑल इंडिया प्रेज़िडन्ट एसोसिएशन (आईपा) के बोर्ड ऑफ ट्रस्टी की ऑनलाइन बैठक की गई | बैठक का विषय संस्था के नाम का देश भर मे दुरुपयोग और संस्था के नाम पर बिना बोर्ड ऑफ ट्रस्टी के संज्ञान के चल रही बैठकों पर था |

जैसा की संज्ञान मे आया है की आईपा के नाम पर विपिन सोलंकी निवासी इज्जत नगर, बरेली के द्वारा गत दिनों संगठन के सदस्यों के साथ ऑनलाइन बैठक की गई और फरवरी माह मे नेनीताल मे एक राष्ट्रीय बैठक की योजना बनाई गई है – उक्त जानकारी संगठन को सोशल मीडिया और समाचार पत्रों मे छपी खबरों के माध्यम से हुआ | इस जानकारी के बाद ये आकस्मिक बैठक की गई उक्त बैठक मे संगठन के अध्यक्ष- विक्रम कुमार शिवम,उपाध्यक्ष – गौरव सिंह, महासचिव अभिषेक पाण्डेय, संयुक्त सचिव और सदस्य , इफराहिम,अक्षय शर्मा मोजूद रहे l सभी पदाधिकारियों ने सर्वसम्मति से ये निर्णय लिया की विपिन सोलंकी जो आईपा संगठन मे कोई दायितत्व नहीं रखते हैं उनके द्वारा की जा रही किसी भी गतिविधि से संगठन को लेना देना नहीं है तथा संगठन से जुड़े देश भर के राष्ट्रपति स्काउट/गाइड,रोवर रेंजर को भी ये सूचित किया जाता है की इनके द्वारा किसी भी प्रकार के आयोजन मे अगर आप सम्मिलित होते हैं तो उसका आईपा संगठन से कोई लेना देना नहीं होगा |

सर्व साधारण को ये भी सूचित किया जाता है की विपिन सोलंकी पर पूर्व मे अनियमितता और अन्य कईं गंभीर आरोप लग चुके हैं – अगर इस निर्णय के बाद भी वह आईपा संगठन के नाम पर कोई गतिविधि करते हैं तो संस्था के द्वारा कानूनी कार्यवाही का भी रुख किया जाएगा |

बैठक मे निर्णय लिया गया की जल्द ही आईपा संगठन की एक राष्ट्रीय बैठक आहूत की जाएगी जिसमे अग्रिम कार्यकर्मों की योजना बनाई जाएगी |

(Media Scan में प्रकाशित किसी समाचार के संबंध में mediainvite2017@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है)

गुरु गोविन्द सिंह के साहबजादों को दी गई क्रूर यातनाओं और बलिदान का स्मृति दिवस

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दिसम्बर माह की 21 से लेकर 27 के बीच गुरु गोविन्द सिंह के चारों पुत्रों को दी गई क्रूरतम यातनाओं और बलिदान की स्मृतियाँ तिथियाँ हैं। ऐसा उदाहरण विश्व के किसी इतिहास में नहीं मिलता। इनमें 26 दिसम्बर के दिन दो अवोध बालकों ने स्वत्व और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा के बलिदान दिया । प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी ने गत वर्ष इस दिन को “वीर बाल दिवस” के रूप में मनाने का आव्हान किया था ।

सनातन संस्कृति, राष्ट्र और परंपराओं की रक्षा केलिये भारत में असंख्य बलिदान हुये हैं। इनमें कुछ परिवारों की तो पीढ़ियों का बलिदान हुआ । इसमें गुरु गोविन्दसिंह की वंश परंपरा भी है जिनकी पीढियों का बलिदान इतिहास पन्नों में दर्ज है । दिसम्बर के अंतिम सप्ताह गुरु गोविन्द सिंह के चारों पुत्रों को दी गई क्रूरतम यातनाएँ और उनका बलिदान का विवरण आज भी रोंगटे खड़े कर देता है । इस बलिदान का स्मरण सामाजिक स्तर पर पूरा देश 21 दिसम्बर से 27 दिसम्बर के बीच करता है । गत वर्ष पहली बार केन्द्र सरकार के स्तर पर आयोजन की घोषणा की गई है । और प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसम्बर को वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का आव्हान किया।

सिक्ख परंपरा में गुरु गुरु गोबिंद सिंह दसवें गुरू थे । उनके पुत्रों के बलिदान ईस्वी सन् 1705 में हुये थे इनमें दो सबसे छोटे पुत्रों साहिबजादा जोरावर सिंह व साहिबजादा फतेह सिंह का बलिदान 26 दिसम्बर को बहुत छोटी सी आयु में हुआ था । यह सिख पंथ के गरिमामयी गौरव परंपरा और राष्ट्र संस्कृति की रक्षा के लिए दी गई प्राणों क आहूति थी । उनके दो पुत्रों ने युद्ध भूमि में वीरता और अनोखे साहस का परिचय दिया वहीं दो छोटे साहिबजादों ने जिन्दा दीवार में दफ़न होना पसंद किया पर धर्मांतरण न किया । उनके सबसे बड़े पुत्र की आयु सत्रह वर्ष और सबसे छोटे पुत्र की आयु मात्र पाँच वर्ष थी । इनके साथ इनकी दादी माता गूजरी का बलिदान भी क्रूरतम यातनाओं के साथ हुआ ।

वह समय भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब के शासन का अंतिम समय था । उसने सिख पंथ को जड़ से समाप्त करने का संकल्प कर लिया था । मुगल फौज पंजाब में फौज सिखों की तलाश में लगी थी । सिखों को को ढूंढ ढूंढ कर यातनाएँ दी जाने लगी । मतान्तरण का दबाब बना जो न मानें उनका बलिदान। उन दिनों सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह आनंदपुर किले में थे । मुगलों की फौज ने इस किले का घेरा डाला हुआ था । यह घेरा करीब छै माह तक पड़ा रहा । एक समय ऐसा आया जब किले का राशन पानी सब खत्म हो गया था । गुरू गोविन्द सिंह के सामने दो ही रास्ते थे एक अंतिम युद्ध लड़कर बलिदान हो जांय दूसरा सुरक्षित निकलकर युद्ध जारी रखा जाय । गुरु गोविन्द सिंह ने दूसरा मार्ग चुना । वे आनंदपुर से निकलकर चमकौर की ओर पहुँचे । यहां एक पुराना किला था वहां के निवासी सिख गुरु के प्रति श्रद्धा रखते थे । गुरु गोविन्द सिंह ने अपने परिवार और विश्वस्त सैनिकों के साथ यहीं आये । वे 21 दिसम्बर 1705 की रात थी जब वे चमकौर पहुँचे । गुरु गोविन्द सिंह जी आनंदपुर से निकलने की खबर मुगल सेना को लग गयी थी । मुगल फौज की एक टुकड़ी भी इस काफिले के पीछे चलने लगी । मुगलों की फौज का नेतृत्व सरहिन्द के नबाब बजीर खां के हाथ में था । जब गुरु गोविन्दसिंह चमकौर किले में पहुँचे तो मुगल फौज ने चमकौर किले पर घेरा डाल लिया । चमकौर की यह इमारत पुरानी थी । वह इस स्थिति में नहीं थी कि लंबे समय तक सुरक्षित रह सके । कुछ दीवारें तो केवल मिट्टी की थीं । इतिहास की पुस्तकों में मुगल फौज की संख्या तीन लाख अंकित है । जबकि किले के भीतर सिखों की संख्या मात्र दो हजार थी जिसमें सामान्य नागरिक और स्त्री बच्चे अधिक थे, सैनिक कम थे । सैनिकों की संख्या तो मात्र कुछ सैकड़ा ही थी । लेकिन सिख सेनानियों ने संख्या बल कम होने की चिंता नहीं की ।

सभी सिख सैनिकों ने साहस से मुकाबला किया । यहीं से यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि “सवा लाख से एक लड़ांऊ” । यहाँ दो निर्णय हुये जत्थों के साथ युद्ध किया जाय और गुरुजी यनि गुरु गोविन्द सिंह को सुरक्षित निकाला जाय । जत्था तैयार करके युद्ध लड़ने की रणनीति बनी । और प्रत्येक जत्थें में केवल दस ही सैनिक होंगे । पहले जत्थे का नेतृत्व साहबजादे अजीत सिंह को सौंपा गया । हालांकि अन्य सैनिकों ने साहबजादे को रोका पर अजीतसिंह न माने । गुरु गोविन्दसिंह ने अपने बेटे को स्वयं हथियार दिये । साहबजादे निकले और शत्रु सेना पर टूट पड़े । वे बहुत अच्छे तीरंदाज थे । उनके पास तीर कमान और तलवार दोनों थी । दूसरी ओर मुगल सैनिकों के पास बंदूकें भी थीं। सभी सिख सैनिक जानते थे कि युद्ध का परिणाम क्या होगा पर भी उन्होंने युद्ध किया और अपने अंतिम तीर तक युद्ध किया । तलवार से भी तब तक युद्ध किया जब तक तलवार टूट न गयी । कोई इस वीरता की कल्पना कर सकता है कि केवल दस सैनिकों को लेकर एक नायक ने युद्ध लड़ा हो फिर भी यह युद्ध दिन के तीसरे पहर तक चला । यह 23 दिसम्बर का दिन था जब साहबजादे अजीत सिंह का बलिदान हुआ । अगले दिन का युद्ध दूसरे साहबजादे फतेह सिंह के नेतृत्व में सिख जत्थे ने लड़ा । तब फतेह सिंह की आयु मात्र पन्द्रह साल थी । वे भी वीरता पूर्वक बलिदान हुये । तब पंच प्यारों ने गुरू जी से सुरक्षित निकल जाने का आग्रह किया ।

उनका आग्रह मानकर गुरु गोविन्द सिंह अपने परिवार और कुछ सैनिकों के साथ किले के गुप्त मार्ग से निकलना स्वीकार कर लिया । यह संख्या कुल इक्यावन थी । कहीं कहीं यह संख्या साठ भी लिखी है । बाकी लोगों ने किले में ही रहकर मुकाबला करने का निर्णय लिया ताकि मुगल सैनिकों को यह संदेह न हो कि गुरुजी निकल गये । चमकौर के पास सरसा नदी बहती थी । यह 24 और 25 दिसम्बर 1705 की दरम्यानी रात थी । भयानक ठंड और मावट का मौसम । पानी बर्फ की तरह ठंडा था । अभी गुरू गोविन्द सिंह का काफिला नदी पार भी न कर पाया था कि वजीर खान को खबर लग गयी । उसकी सेना नदी पर टूट पड़ी । इस अफरा तफरी मे गुरु गोविन्द सिंह का परिवार बिखर गया । सबसे छोटे दो साहबजादे जोरावर सिंह सात वर्ष और जुझार सिंह पाँच वर्ष दादी माता गुजरी के साथ बिछुड़ गये इनके साथ न कोई सेवक और न कोई सैनिक । अंधेरी रात और भीषण सर्दी के बीच दादी दोनों बच्चों ने नदी पार की । दादी अंधेरे में ही दोनों बच्चों को लेकर जहाँ राह मिली उसी ओर चल दी । कितना चलीं कितनी राह निकली कुछ पता नहीं । सबेरा हुआ । सूरज निकला । एक स्थान पर थकान मिटाने रुकीं, बच्चो को भोजन भी जुटाना था । तभी एक व्यक्ति दिखा । जिसका नाम गंगू था । वह गुरू गोविन्द सिंह का पुराना सेवक था । उसने माता गुजरी को पहचाना और विश्वास दिलाकर अपने घर ले गया ।

उसके गाँव का नाम खैहैड़ी था । उसने भोजन दिया विश्राम कराया । और घर से निकल लिया । यह 25 दिसम्बर का दिन था । उसने खबर बजीर खान को दी और इनाम में सोने की मुहर प्राप्त की । शाम तक मुगल सैनिक आ धमके । माता गुजरी और दोनों बच्चो को पकड़ ले गये । उन्हे रात भर बिना कपड़ो के बुर्ज की दीवार पर बांधकर रखा गया । अगले दिन वजीर खान के सामने पेश किया गया । वह 26 दिसम्बर 1704 का दिन था । वजीर खान ने माता गुजरी और दोनों बच्चो से इस्लाम कुबूल करने को कहा । बच्चो ने इंकार करदिया । वजीर खान ने आदेश दिया कि यदि बच्चे इस्लाम कुबूल न करें तो इन्हे जिन्दा दीवार में चुन दिया जाय । बच्चों को भूखा रखा गया । रात भर फिर बुर्ज पर पटका । पर दोनों साहबजादे अडिग रहे । उन्हें 27 दिसम्बर को जिन्दा दीवार में चुन दिया गया । और माता गुजरी के प्राण भी भीषण यातनाएं देकर लिये । इस तरह दिसम्बर माह का यह अंतिम सप्ताह गुरु गोविन्द सिंह के चारों साहबजादों और माता गूजरी के बलिदान की स्मृति के दिन हैं ।

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने 26 दिसम्बर वीर बाल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया । और पिछले वर्ष से 26 दिसम्बर को वीर बाल दिवस के रुप में मनाया जाता है ।

गुरुकुल पद्धति के माध्यम से आत्मनिर्भर शिक्षक छात्र एवं आत्मनिर्भर भारत

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समीर कौशिक

यह कहने में कोई अतिरेक नही है कि भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति में गुरुकुलों का महत्वपूर्ण एवं सर्वोच्च स्थान था। गुरुकुलों में शिक्षा, संस्कार, राष्ट्रबोध, धर्म, सँस्कृति का विवेक और जीवन कौशल प्रबंधन द्वारा आत्मनिर्भरता का समावेश होता था, जो विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर और समाज के प्रति जिम्मेदार नागरिक बनाता था। यह प्रणाली केवल शैक्षिक ज्ञान तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह जीवन के हर क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की भावना को प्रोत्साहित करती थी। आज भी, यदि हम गुरुकुलों की परंपरा को समझें और उसे समकालीन शिक्षा व्यवस्था में लागू करें, तो हम आत्मनिर्भर भारत के निर्माण में अहम योगदान दे सकते हैं।

गुरूकुल रोजगार के कई प्रकार के अवसर भी प्रदान करते थे। गुरुकुल समाज के लिए मात्र न शैक्षिक केंद्र होते थे, बल्कि वे एक प्रकार के सामुदायिक और सामाजिक विकास एवं चिंतन केंद्र भी थे, जहाँ से विभिन्न प्रकार के कार्यों और रोजगार के अवसर उत्पन्न होते थे।

प्राचीन समय में गुरुकुलों से जुड़ी रोजगार की संभावनाएं असीम थी जिसमें से कुछ वर्तमान में व्यवहारिक पक्षों को प्रकाशित करने का प्रयास इस लेख में करने का किया गया है

शिक्षक का रोजगार गुरुकुलों में शिक्षा देने के लिए गुरु की आवश्यकता होती थी। जो व्यक्ति वेद, शास्त्र, धर्म, दर्शन, आध्यत्म गणित, विज्ञान, भूगोल, खगोल, ज्योतिष, संस्कार शास्त्रों और संस्कृत एवं अन्य स्थानीय भारतिय भाषाओं के ज्ञाता होते थे, वे गुरुकुलों में शिक्षा प्रदान करते थे। गुरु का कार्य न केवल छात्रों को शास्त्रों का ज्ञान देना, बल्कि उन्हें जीवन की नैतिकता, धर्म और संस्कारों का पालन भी सिखाना था। विद्यार्थियों को कौशल, आत्मनिर्भरता स्वावलंबी और रोजगार के अवसरों से भी जोड़ना था। गुरुकुलों में शिक्षा के साथ-साथ आत्मनिर्भरता की अवधारणा को महत्वपूर्ण माना जाता था।
गुरुकुलों में केवल धार्मिक आध्यात्मिक या दार्शनिक शिक्षा नहीं दी जाती थी, बल्कि विद्यार्थियों को विभिन्न शिल्पों और तकनीकी कौशलों में भी पारंगत किया जाता था। जैसे कि ताम्र शिल्प, धातु विज्ञान, भस्म निर्माण, खनिज, अयस्कों हस्तशिल्प, निर्माण कार्य, औषधि निर्माण, और वास्तुकला, धातु विज्ञान, वस्त्र निर्माण, अभियांत्रिकी आदि का प्रशिक्षण गुरुकुलों के माध्यम से दिया जाता रहा है ।

1.*गुरुकुल पद्धति से आत्मनिर्भर भारत का संकल्प कौशल विकास*

आत्मनिर्भर भारत का उद्देश्य केवल आर्थिक विकास नहीं है, बल्कि यह सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक क्षेत्रों में भी आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देना है। आत्मनिर्भर भारत का निर्माण उन व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा संभव है, जो स्वयं में निर्णय करने में सक्षम हों और जो अपने प्रयासों से समाज और देश की प्रगति में भागीदार बन सकें। गुरुकुलों की शिक्षा पद्धति ने न केवल शैक्षिक ज्ञान दिया, बल्कि यह जीवन के हर आयाम में आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा भी दी।

2.*छात्रों की आत्मनिर्भरता*

गुरुकुलों में शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षा पास करना नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों को जीवन में सही निर्णय लेने, समाज में अपनी भूमिका निभाने, और स्वयं के जीवन के प्रति उत्तरदायी नागरिक बनाने का था। एक आत्मनिर्भर छात्र वह है जो न केवल पुस्तकीय ज्ञान में परिपूर्ण हो, बल्कि वह अपनी सोच, कार्य और निर्णयों में स्वतंत्र हो। उसे अपने कार्यों के परिणामों का बोध हो और वह दूसरों पर निर्भर रहने की अपेक्षा स्वयं मार्ग तय करने में सक्षम हो । रोजगार करने खोजने के स्थान पर रोजगार दाता बनें ।

गुरुकुलों में विद्यार्थी को संस्कार, नैतिक शिक्षा और जीवन कौशल सिखाए जाते थे। यह शिक्षा उसे जीवन के विभिन्न संघर्षों और समस्याओं का समाधान ढूंढने की क्षमता देती थी। आत्मनिर्भर छात्र वही है, जो न केवल आत्मनिर्भरता की ओर बढ़े, बल्कि दूसरों को भी प्रेरित करें और समाज में बदलाव लाने का कार्य करें।

वेदों और शास्त्रों की शिक्षा के माध्यम से वेदों और उपनिषदों के अध्ययन से विद्यार्थियों में भाषायी कौशल, विचारशीलता, तर्कशक्ति, और काव्य रचनात्मकता का विकास होता था। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य, गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, और अन्य शास्त्रों का अध्ययन भी किया जाता था।

गुरुकुलों में आयुर्वेद और चिकित्सा, आत्मरक्षा, युद्धकला, शस्त्र विद्या शस्त्रनिर्माण, वाणिज्य व्यवसाय , विदेश नीति, आंतरिक सुरक्षा, देश की सीमा सुरक्षा, हर व्यक्ति का सैन्य प्रशिक्षण, तर्क शास्त्र, खेल कूद, कृषि विज्ञान, मौसम विज्ञान की शिक्षा भी दी जाती थी। आयुर्वेदाचार्य, वैद्य, और चिकित्सक शल्य चिकित्सक के रूप में रोजगार प्राप्त करने के अवसर थे। इस प्रकार के विशेषज्ञ व्यक्ति गुरुकुलों से प्रशिक्षित होकर स्वास्थ्य सेवाओं में कार्य करते थे। वस्तुतः प्राचीन भारत गुरुकुलों के माध्यम से ही अपनी सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण करता था, एवं समाज के सामूहिक प्रयास से गुरुकुलों का संचालन भी होता था हर क्षेत्र में अपने स्वायत्त गुरुकुलों की व्यवस्था होती थी । गुरुकुलों के माध्यम से ही भारत मे लघु एवं कुटीर उधोगों का एक व्यापक प्रसार था । वस्तुतः भारत कृषि प्रधान देश नहीं एक रोजगार प्रधान, उत्पादक एवं वस्तु निर्यातक देश था इन्हीं गुरुकुलों की शिक्षा पद्धति ने भारत को विश्वगुरु के पद पर हज़ारों लाखो वर्षों तक आसीन रखा ।

इस प्रकार, प्राचीन गुरुकुल न केवल शिक्षा का केंद्र थे, बल्कि रोजगार के विभिन्न अवसर भी प्रदान करते थे, जिससे समाज के हर वर्ग को अपनी दक्षताओं का उपयोग करने का अवसर मिलता था।

वर्तमान में भी कुछ गुरुकुल आयुर्वेद, योग और स्वस्थ जीवनशैली से जुड़े शिक्षा प्रदान करते हैं, जिसके द्वारा चिकित्सक, योग प्रशिक्षक, और आयुर्वेदिक सलाहकार के रूप में रोजगार प्राप्त किया जा सकता है। इस तरह गुरुकुलों से रोजगार के विभिन्न मार्ग खुल सकते हैं, यदि सही दिशा में कार्य किया जाए।

गुरुकुलों के माध्यम से आध्यात्मिक पर्यटन को भी बढ़ाया जा सकता है अपितु यदि प्रयोग आरम्भ किये जाएं तो सामान्य विद्यालयों में गुरुकुल के अनुशासन एवं आचरण का आरंभ करके इसे वर्तमान में भी क्रियान्वित किया जा सकता है और कुछ स्तरों पर देश मे इसका आरम्भ शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास जैसे स्वयंसेवी संगठनों एवं शैक्षिक संस्थाओ के माध्यम से आरम्भ भी हो चुका है । गुरुकुलों में शिक्षा लेने आने वाले छात्रों या श्रद्धालुओं के लिए, स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा हो सकते हैं, जैसे- यात्रा मार्गदर्शक, अतिथियों पर्यटकों तीर्थयात्रियों के लिए ठहरने की व्यवस्था आदि।
हस्तशिल्प और कला कुछ गुरुकुल पारंपरिक कलाओं और हस्तशिल्प को सिखाते हैं, जिससे रोजगार के अवसर उत्पन्न होते हैं। छात्र अपने कौशल को बाजार में बेच सकते हैं या शिल्प उत्पादों की बिक्री के लिए बाज़ारों में काम कर सकते हैं।

3.*शिक्षक की आत्मनिर्भरता*

गुरुकुलों में शिक्षक का कार्य केवल पढ़ाना नहीं था, बल्कि विद्यार्थियों को जीवन के सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करना था। वह एक मार्गदर्शक, एक मित्र और एक संरक्षक के रूप में कार्य करते थे। आत्मनिर्भर शिक्षक वह होता है, जो न केवल शैक्षिक ज्ञान प्रदान करता है, बल्कि विद्यार्थियों के भीतर आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता का निर्माण करता है। ऐसे शिक्षक विद्यार्थियों को इस बात का एहसास कराते हैं कि शिक्षा सिर्फ नौकरी पाने के लिए नहीं, बल्कि जीवन में सफलता और संतुष्टि पाने के लिए है।

आत्मनिर्भर शिक्षक वह है, जो अपने ज्ञान के साथ-साथ अपनी शिक्षा की विधियों में भी नवाचार सृजन करता है और विद्यार्थियों को अपने प्रयासों से समाज और राष्ट्र की प्रगति में योगदान देने के लिए प्रेरित करता है। शिक्षक का यह दायित्व है कि वह विद्यार्थियों को केवल पढ़ाई में ही नहीं, बल्कि जीवन के अन्य पहलुओं में भी सफलता के मंत्र सिखाए।

4.*गुरुकुलों से शिक्षा और आत्मनिर्भरता का संबंध*

गुरुकुलों की शिक्षा पद्धति में हर विद्यार्थी को स्वतंत्र रूप से सोचने, जीवन के विभिन्न पहलुओं में संतुलन बनाने, और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझने की प्रेरणा मिलती थी। यहां पर विद्यार्थियों को अपने हाथों से काम करने, कठिनाइयों का सामना करने और आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाती थी। गुरुकुलों का यह संदेश आज भी प्रासंगिक है। यदि हम इस परंपरा को अपनाएं और शिक्षा के प्रत्येक क्षेत्र में आत्मनिर्भरता को बढ़ावा दें, तो हम न केवल अपने विद्यार्थियों को सफल बना सकते हैं, बल्कि एक सशक्त और आत्मनिर्भर भारत का निर्माण भी कर सकते हैं।

आत्मनिर्भर भारत का सपना तभी साकार हो सकता है, जब हम अपने विद्यार्थियों को आत्मनिर्भर बनाएंगे और उन्हें अपने जीवन के सभी पहलुओं में स्वतंत्रता और जिम्मेदारी का अहसास कराएंगे। गुरुकुलों से प्राप्त शिक्षा पद्धति को आज के समय में अपनाकर हम आत्मनिर्भर छात्र और आत्मनिर्भर शिक्षक तैयार कर सकते हैं, जो अंततः एक आत्मनिर्भर और समृद्ध भारत का निर्माण करेंगे।

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