आत्मनिर्भर भारत के प्रणेता -भारतरत्न श्रद्धेय अटलजी

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भारत के पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न स्वर्गीय अटल बिहारी बाजपेयी एक कुशल राजनीतिज्ञ, सहृदय व्यक्तित्व के धनी, भावपूर्ण कवि और प्रख्यात पत्रकार थे जिनके मन में सदैव देश ही सर्वोपरि रहता था। आज भारत जिस तेज गति से मिसाइलों के परीक्षणों के द्वारा अपनी सुरक्षा को अभेद्य बना रहा है और भारत के शत्रु इसकी बढ़ती सैन्य शक्ति व आत्मनिर्भर हो रही रक्षा प्रणाली से भयभीत हो रहे हैं वह अटल जी की ही सरकार का प्रारंभ किया हुआ कार्य है जिसे मोदी जी पूरा कर रहे हैं ।

अटल जी के प्रधानमंत्रित्व काल में जिन परियोजनाओं पर काम किया गया वही अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के शासनकाल में धरातल पर उतर रही हैं। इनमे से अधिकांश बीच में आई सरकारों ने ठन्डे बस्ते में डाल दी थीं। अटल जी का एक सपना अयोध्या में भव्य राम मंदिर के रूप में पूरा हो रहा है, दूसरी ओर जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद -370 और 35- ए का समापन हो चुका है । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी के शासनकाल में आगे बढ़ते कार्यों में सर्वत्र अटल जी की ही छाप है।

अटलजी का जन्म 25 दिसम्बर 1926 को शिंदे की छावनी (मध्य प्रदेश )में प्राइमरी स्कूल अध्यापक स्वर्गीय पंडित कृष्ण बिहारी बाजपेयी के घर पर हुआ।उनकी माता का नाम श्रीमती कृष्णा देवी था जो कि धर्मपरायण महिला थीं। अटल जी का पूरा परिवार संघ के प्रति निष्ठावान था। वह आठ वर्ष की आयु में ही संघ के संपर्क में आ गये और विद्यार्थी जीवन में ही संघ से प्रेरित होकर मन में ठान लिया था कि वे देश के लिये जियेंगे और दे केश लिये ही मरेंगे। अटल जी की शिक्षा दीक्षा ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज और कानपुर के डी ए वी कालेज में संपन्न हुई। स्नातक और उसके उपरांत राजनीति शस्त्र में स्नातकोत्तर कि परीक्षाएं अटल जी ने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं ।इसके बाद अपने पिता के साथ ही एल एल बी किया । छात्र जीवन में छात्र राजनीति में सक्रिय रहकर वे विक्टोरिया कालेज छात्र संघ के महामंत्री ,ग्वालियर छात्र संघ के अध्यक्ष एव आर्य कुमार सभा के महामंत्री बने।

अटल जी को मां सरस्वती का आशीर्वाद प्राप्त था जिससे वे छात्र जीवन में ही वाद विवाद और काव्य पाठ आदि में भाग लेकर लोकप्रिय हो गए थे । वह लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म ,पांचजन्य और वीर अर्जुन तथा स्वदेश जैसे समाचार पत्र पत्रिकाओें के संपादक रहे।उन्होंने 1946 में ही अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया था उन्होंने काफी समय तक पूर्णकालिक प्रचारक के रूप मे कार्य किया।अटल जी कहा करते थे कि भारत का प्रत्येक कण स्वर्ग से भी अधिक पवित्र है तथा महान तीर्थ है। उनका कहना था कि हमारे एकमात्र देवी देवता हमारे देशवासी हैं। उनकी पूजा अर्चना ही सच्ची मानवता है।हमारे राष्ट्रीय जीवन का मूल स्रोत हमारा धर्म है। निष्काम कर्मयोगी अटल जी भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से एक थे।

अटल जी का राजनैतिक जीवन संघर्ष पूर्ण रहा। श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल को उखाड़ फेकने में अटल जी ने महती भूमिका निभाई। अटल जी व संघ ने आपातकाल के विरुद्ध अनथक संघर्ष किया जिसके परिणामस्वरूप ही मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें अटल जी विदेश मंत्री बने ।वह देश के ऐसे पहले विदेश मंत्री थे जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण दिया।

अटल जी तीन बार देश के प्रधानमंत्री बने।पहले 13 दिन, फिर 13 माह व फिर पूरे सत्र के लिए । अटल जी की सरकार में कई ऐतिहासिक कदम उठाये गये थे जिनकी गूंज आज भी सुनायी दे रही है।अटल जी सरकार ने वैश्विक दबाव को नजरअंदाज करते हुए परमाणु परीक्षण किये जिसके करण कई देशों ने भारत पर प्रतिबंध भी लगाये लेकिन वह किसी दबाव में नहीं झुके।अटल जी ने पाकिस्तान के साथ मैत्री को बढ़ावा देने के उद्देश्य से लाहौर से बस यात्रा भी की लेकिन इसके बदले में भारत को पाकिस्तान के विश्वासघात का सामना करना पड़ा लेकिन कारगिल की पहाड़ियों पर भारतीय सेना ने अपना पराक्रम दिखाया और अटल सरकार की नेतृत्व क्षमता उजागर हुयी। तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर अटल जी सरकार में कई महत्वपूर्ण परियोजनाओं पर काम शुरू हुए। सौ वर्ष पुराना कावेरी विवाद सुलझाया गया। स्वर्णिम चतुर्भुज परियोजना प्रारंभ हुई।

अटल जी को अपने राजनैतिक जीवन में कई पुरस्कार प्राप्त हुए जिसमें 1992 में पद्म विभूषण,1994 में लोकमान्य तिलक पुरस्कार, 1994 में श्रेष्ठ सांसद पुरस्कार एवं भारतरत्न प्रमुख हैं । उन्हें कानपुर विश्वविद्यालय ने 1993 में डी लिट की मानद उपाधि भी प्रदान की। 2015 में बांग्लादेश की ओर से फ्रेंडस आफ बांग्लादेश लिबरेशन अवार्ड से सम्मानित किया गया।अटल जी एक ऐसे राजनेता थे जिनका सम्मान विरोधी का विचारधारा के लोग भी करते थे।
अटल जी ने अपने संसदीय क्षेत्र लखनऊ को अंतर्राष्ट्रीय पटल पर स्थापित किया। अटल जी लखनऊ से पांच बार सांसद रहे जिसमें तीन बार प्रधानमंत्री बने। अटल जी लखनऊ में 1991, 1996, 1998 1999 और 2004 में सांसद बने। 1991 में उन्होंने कांग्रेस के रंजीत सिह को हराया,19996 में उन्होंने सपा के राजबब्बर को, 1998 में सपा के मुजफ्फर अली को 1999 में कांग्रेस के डा कर्ण सिंह को और 2004 में सपा की मधु गुप्ता को दो लाख मतों के भारी अंतर से पराजित करने का रिकार्ड बना दिया। लखनऊ में अटल जी को पराजित करने के लिये विपक्ष ने हर चुनाव में नये तरीके आजमाए लेकिन हर बार उन्हें पराजय ही मिली।

अटल जी ने लखनऊ को एक माडल के रूप में विकसित किया।वह नये औेर पुराने शहर की बराबर चिंता किया करते थे।अटल जी को लखनऊ की तेजी से बढ़ रही आबादी का अनुमान था।इसी को ध्यान में रखते हुए उन्होंने गोमती नगर रेलवे स्टेशन को चारबाग जैसी सुविधाओं के साथ बनाने का प्रस्ताव तैयार कराया। फैजाबाद रोड से अमौसी तक अमर शहीद पथ के निर्माण की कल्पना उन्हीं की देन है। लखनऊ- कानुपर हाईवे का चौड़ीकरण लखनऊ – हरदोई का चौड़ीकरण, दीन दयाल स्मृतिका, निशातगंज फ्लाईओवर ,कल्याण मंडप भी अटल जी की ही देन है। अटल जी ने ही साइंटिफिक कन्वेंशन सेंटर बनवाया तथा टिकैतराय तालाब और कुड़ियाघाट का जीर्णोद्धार कराया। अटल जी की ही पहल पर पुराने लखनऊ की संकरी गलियों में गहरे गड्ढों वाली पतली सीवर लाइन की बुनियाद पड़ी।बाद में पूरे शहर के सीवरेज सिस्टम की योजना बनी। लखनऊ मेट्रो की कल्पना भी उन्हीं के कार्यकाल में आयी थी। राजधानी लखनऊ अटल जी की राजनैतिक कर्मभूमि थी। अटल जी ने 25 अप्रैल 2007 को कपूरथला चौराहे पर भाजपा उम्मीदवारों के समर्थन में अंतिम बार एक चुनावी सभा को संबोधित किया था ।

अटल जी के जीवन में “सादा जीवन उच्च विचार” के मन्त्र का वास्तविक स्वरुप दिखता है।

पूरब का लोक, समाज और शारदा सिन्हा के गीत

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मुझे एक ऐसे विषय पर कुछ कहने केलिए कहा गया है, जो मेरा विषय नहीं है. विषय का तात्पर्य यहाँ संगीत से है. संगीत कभी-कभार सुन लेना या उससे उत्फुल्ल हो जाना, एक बात है, लेकिन उसका मर्मज्ञ होना अलग है. मैं मर्मज्ञ तो क्या, अल्पज्ञ भी नहीं हूँ. बावजूद इसके मैंने आना स्वीकार किया तो इसलिए कि इसके बहाने दिवंगत पद्मभूषण शारदा सिन्हा जी को सार्वजनिक तौर पर श्रद्धांजलि देने का अवसर मिलेगा.

आज का विषय रखा गया है पूरबी लोक, समाज और शारदा सिन्हा के गीत. आयोजकों ने जब विषय तय किया होगा तो उनके मन में पूरबी लोक का कोई खाका रहा होगा. यह पूरब का लोक आखिर है क्या ! स्थान बदलने से पूरब या किसी भी दिशा का भूगोल भी बदलता है. यूरोप से देखें तो पूरा एशियाई समाज पूरब है. अंग्रेजों ने उन्नीसवीं सदी में ओरियन्टलिज़्म का एक फलसफा गढ़ा था, जिससे आप सब परिचित होंगे. हम निश्चित ही आज उस पौर्वत्यवाद की बात नहीं करने जा रहे हैं. हमारा यह पूरबी लोक देसी है. देस के भीतर का पूरबी लोक, जिसे तनिक तत्सम होकर हम पूर्वांचल कहते हैं. हमारा बिहार, बंगाल, असम सब इसके हिस्सा हैं. यह विद्यापति, कबीर, बाउल गीतों और असंख्य अनाम कवियों-कवयित्रियों, गायकों के गीतों पर पली-बढ़ी दुनिया है. जाने कितने कवि लेखकों ने इस दुनिया को संवारा. रवींद्र, शरत, रेणु सब इसी दुनिया की सांस्कृतिक हस्तियां हैँ. शारदा सिन्हा जी ने इसी दुनिया को अपने स्वरों से संवारा था.

मैं कहने की इजाजत चाहूंगा कि हमारा सब कुछ अच्छा ही नहीं है. बंगाल का एक सांस्कृतिक लोक हमारे निकट है, उसका अपना इतिहास है, पहचान है. वह नवजागरण से निमज्जित इलाका है,जहाँ उठने-बैठने, सोचने-विचारने से लेकर भाषा, भाव, साहित्य, संगीत सब पर बहुत गहरे उतर कर बहुत काम हुए हैं. हम उससे भौगोलिक तौर पर निकट होकर भी सांस्कृतिक रूप से बहुत दूर हैं. बंगाल, विशेषकर उसके कोलकाता में ही हमारी बिहारी संस्कृति को पूरबी के नाम से अभिहित किया गया. हमारे गीत-गवनई वहां पूरबी के नाम से जाने जाते थे. यह वहिष्कृत समाज अथवा वर्नाकुलर दुनिया की सांस्कृतिक धड़कन थी, जिसे कोई भिखारी ठाकुर, कोई महेन्दर मिसिर या इसी परंपरा के लोग सहेज रहे थे. कोई धर्मशास्त्र या अगम-निगम इनका केन्द्रक नहीं था, इसकी जगह लोक या जन इनके केन्द्रक थे. उसे ध्यान में रख कर ही एक सांस्कृतिक दुनिया गढ़ रहे थे. कार्ल मार्क्स ने बताया है धर्म ने मध्यकाल में एक आभासी फलसफे से मानव जाति को टूटने से बचाया, उसने उस तरह दुःख दर्द से निजात दिलाने की कोशिश की, जैसे अफीम करता है. ट्रैंकुलाइजर की तरह का काम. लेकिन हम जिस सांस्कृतिक अभियान की बात कर रहे हैं, पुरबिया संस्कृति की, इसने जनता केलिए ट्रैंकुलाइजर बनकर नहीं, चेतना बन कर उसे संभाला. आज भी उस पर अध्ययन की आवश्यकता है.

यह पुरबिया लोक-समाज और संस्कृति मध्यकाल में नहीं, औपनिवेशिक काल में विकसित हुई. उस ज़माने को हमें याद करना चाहिए. भारत के इतिहास में पहली बार विदेशी पश्चिम के बजाय पूरब से आये थे. यह यूरोप द्वारा समुद्री रास्तों की खोज का परिणाम था. पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंततः अंग्रेजों ने भारत में जगह बनाई. कोलकाता एक महानगर के रूप में विकसित होने लगा. उसके शीर्ष पर तो विलायती लोग और उनकी संस्कृति थी, लेकिन उनके नीचे हिंदुस्तानी व्यापारी, जमींदार और दूसरे बड़े लोग थे,जो अंग्रेजी संस्कृति से तेजी से प्रभावित हो रहे थे. बगल के सिरामपुर में ईसाई मिशनरियां सक्रिय थीं. विलियम केरी (1764-1834) और दूसरे लोग पश्चिम और पूरब में एक सांस्कृतिक वैचारिक सेतु स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे. मुगलिया राज का सांस्कृतिक उत्कर्ष तवायफ संस्कृति थी, जिसका अवध के पतन के साथ पूरी तरह पतन हो गया था. अपने बिखराव के बाद यह बाई जी की संस्कृति बनकर फ़ैल गई थी. बाद में यह लौंडा नाच के रूप में भी आया.

लगभग इसी दौर में बंगाल का विभाजन हुआ. 1905 में कर्जन के द्वारा सांप्रदायिक आधार पर, जिसे बाद में ब्रिटिश हुकूमत को रद्द करना पड़ा. लेकिन 1911 के दिल्ली दरबार में बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग करने की घोषणा कर दी गई और इसका कार्यान्वयन भी हुआ. 1912 में बिहार अलग प्रान्त बना. बिहारी अस्मिता के उन्नायक और बिहार आंदोलन के प्रमुख सच्चिदानंद सिन्हा, जिनके प्रयास से बिहार अलग प्रान्त बना था, को बिहारी संस्कृति की बड़ी चिंता थी. उन्होंने हिन्दी को अपनी जुबान नहीं माना. भोजपुरी और अन्य बोलियों को भाषा रूप देने के वह हिमायती रहे. वह हमारी संविधानसभा के प्रथम अध्यक्ष थे. उन्होंने जनगणमन को राष्ट्रीय गान के रूप में स्वीकार किये जाने पर एतराज जताया था. रघुवीर नारायण का बटोहिया उन्हें अधिक प्रिय था. भिखारी ठाकुर के महत्त्व को भी उन्होंने ही पहली बार स्वीकार किया था. भले ही उन्होंने कोई नाम न दिया हो ,लेकिन बाद में जिसे पुरबिया संस्कृति कहा गया उसके वह मौन प्रस्तावक थे.

हमारी शारदा सिन्हा जी इसी संस्कृति को विकसित करती हुई मील का पत्थर हैं. कोई अनुमान कर सकता है 1970 के दौर के बिहारी समाज का. पारम्परिक कुलीन परिवार की एक महिला हारमोनियम के साथ मंच पर उतरती हैं अपने गीतों के साथ. लोक गीतों को प्रतिष्ठा दिलाने में बिंध्यवासिनी देवी की महती भूमिका है,लेकिन वह सार्वजानिक मंच पर कभी नहीं उतरीं. शारदा जी केलिए अन्य अवसर भी थे. वह फिल्मों में जा सकती थीं या रेडियो दूरदर्शन में सिमटकर रह सकती थीं. लेकिन उन्होंने अपने को व्यापक किया. कई स्तरों पर. उन्होंने पारम्परिक भजन गाये, छठी मैया को स्वरांजलि दी और उससे आगे बढ़ कर लोकतान्त्रिक मूल्यों और चेतना को जगाने केलिए प्रयास किये. उन्होंने जगदम्बा घर में दियरा तो जलाये ही, रजरतिया की पाती भी लिखी. लिखवले रजरतिया पतिया रोइ-रोइ ना. दुःख में डूबी रजरतिया करे तो क्या करे. पति को चिट्ठी लिखने के अलावे उसे कुछ सूझ नहीं रहा है. गोतनी से चिट्ठी लिखवानी है. पति को बताना है कि पड़ोस की समुद्री सर्दी से ठिठुर कर मर गयी. रज़ाई के बिना बच्चों को बचाना मुश्किल है. बिटिया बुधनी सयानी हो चुकी है. उसे अब पहनने केलिए साड़ी चाहिए. उसका दुःख कालिदास के यक्ष का दुःख नहीं है जो प्रेमविरह से तप रहा है. रजरतिया दुःख में डूबी है. एक दूसरे गीत में उसकी नवविवाहिता का दुःख है. अपने देवर द्वारा की जा रही छेड़खानी और ननद के तानों से ऊब कर वह कभी सास तो कभी पति का गुहार लगा रही है. लेकिन इन सब से आगे बढ़ कर वह एक बनिहार का घोषणापत्र भी रखती हैं.
हमसे न होइ बनिहरिया ए मालिक ! हमसे ना होइ .
अपने लड़िकवा के इस्कूल भेजाइला
हमारा लड़िकवा से भैंसी चरवाइला
ए मालिक! हमसे न होइ बनिहरिया. ..

नहीं होगी हमसे तुम्हारी बनिहारी ओ मेरे मालिक ! यह अब नहीं होगी. मुझे तुम्हारा भेद पता लग चुका है. अपने बेटे को स्कूल भेजते हो और हमारे बेटे से भैंस चरवाते हो. एक बनिहार के इस घोषणापत्र गाने का साहस कितने लोगों में है? निश्चय ही इसे गाने पर उन्हें न धन मिला होगा, न शाबाशी मिली होगी. लोकतंत्र को जाग्रत करने का उनका यह आत्मसंकल्प था. यह शारदा जी थीं, जिन्होंने इसे स्वर देना जरूरी समझा था.

बातें निकलती हैं तो दूर तक जाती हैं. जानी चाहिए. शारदा जी आज नहीं हैं. लेकिन उन्होंने जो सांस्कृतिक दुनिया गढ़ने की कोशिश की उसे याद रखा जायेगा. बिहारी समाज जरूरत से अधिक राजनीतिकृत है. इस समाज में ढंग से कोई सामाजिक सांस्कृतिक नवजागरण नहीं हुआ. यहाँ का नगर जीवन आज भी बहुत छोटा है. नगरीकरण राष्ट्रीय औसत का आधा है. जो नगर जीवन है भी, वह ग्रामीण संस्कारों से खचित है. यहाँ तक की पटना तक का सांस्कृतिक जीवन बहुत संक्षिप्त है. थियेटर, नृत्य संगीत साहित्य को यहाँ के समाज में कोई प्रतिष्ठा नहीं है. ऐसे समाज को सुसंस्कृत बनाने केलिए शारदा सिन्हा जी ने आजीवन तपस्या की. आज का यह समारोह कृतज्ञ समाज की एक श्रद्धांजलि है. इस बात का प्रतीक भी कि उनका बिहारी समाज अब इतना संस्कृत तो हुआ ही है कि उन्हें याद कर सके.

( 22 दिसंबर 2024 की शाम बिहार म्यूजियम, पटना में दिवंगत शारदा सिन्हा पर आयोजित एक कार्यक्रम में दिया गया वक्तव्य )

धर्म प्रचार और समाज प्रबोधन का केंद्र बने मंदिर

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– मिलिंद परांडे, (केंद्रीय संगठन महामंत्री- विहिप)

हमारे मंदिर पहले की तरह समजाभिमुख बनकर शिक्षा, चिकित्सा, सेवा, आस्था, प्रेरणा, शक्ति, धर्म प्रचार और समाज प्रबोधन का केंद्र बने, यह आज की आवश्यकता है। यह वक्तव्य मिलिंद परांडे ने ‘मंदिर राष्ट्र के ऊर्जा केंद्र’ ग्रंथ के विमोचन कार्यक्रम के दौरान प्रमुख वक्ता के तौर पर दिया।

मंदिर के विविध पहलुओं को हिंदी विवेक प्रकाशित “मंदिर : राष्ट्र के ऊर्जा केंद्र” ग्रंथ में रेखांकित किया गया है। अतः निश्चित रूप से मंदिर ग्रंथ मार्गदर्शक सिद्ध होगा, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। हिंदी विवेक के इस सराहनीय कार्य के लिए मैं उनका अभिनंदन करता हूं।

मुंबई के दादर पूर्व स्थित स्वामी नारायण मंदिर के सभागृह में हिंदी विवेक पत्रिका द्वारा प्रकाशित ‘मंदिर: राष्ट्र के ऊर्जा केंद्र’ ग्रंथ का विमोचन समारोह हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हुआ। इसी के साथ विहिप के दिनदर्शिका का भी विमोचन किया गया। मंच पर विराजमान विहिप के केंद्रीय संगठन महामंत्री मिलिंद परांडे जी, मंदिर स्थापत्य व मूर्ति विशेषज्ञ डॉ. गो. बं. देगलूरकर, झा कंस्ट्रक्शन प्रा. लि. के चेयरमैन व एमडी रामसुंदर झा एवं उनकी धर्म पत्नी मनोरमा झा, विहिप कोंकण प्रांत मंत्री मोहन सालेकर, हिंदुस्थान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष पद्मश्री रमेश पतंगे, हिंदी विवेक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमोल पेडणेकर एवं हिंदी विवेक की कार्यकारी सम्पादक श्रीमती पल्लवी अनवेकर आदि मान्यवर उपस्थित थे।

हिंदी विवेक के मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमोल पेडणेकर ने अपनी प्रस्तावना में हिंदी विवेक पत्रिका के १५ वर्षों की उल्लेखनीय सफल यात्रा पर संक्षेप में प्रकाश डाला और विशेष तौर पर मंदिर राष्ट्र व समाज जागरण के प्रमुख केंद्र रहे है इसलिए हमारी मंदिर की परंपरा से ही भारत विश्वगुरु की भूमिका में आएगा। लोकरंजन के साथ लोकमंगल के उद्देश्य से पत्रकारिता क्षेत्र में कार्य करने वाले हिंदी विवेक पत्रिका द्वारा ‘मंदिर: राष्ट्र के ऊर्जा केंद्र’ ग्रंथ को प्रकाशित किया गया है।

इसके बाद हिंदुस्थान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष पद्मश्री रमेश पतंगे ने अपने भाषण में कहा कि सरदार पटेल को ऐसा क्यों लगा कि सोमनाथ का मंदिर खड़ा होना चाहिए? के.एन. मुंशी और राजेंद्र प्रसाद को क्यों लगा कि मंदिर खड़ा होना चाहिए? वो तो विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता नहीं थे। परंतु वो इस बात को जानते थे कि भारत स्वतंत्र हो रहा है और स्वतंत्रता का प्रतीक क्या है तो वह हमारा मंदिर है। यदि मंदिर खड़ा होता है और भारत स्वतंत्र होता है तो दुनिया में एक सकारात्मक संदेश जाएगा।

मंदिर स्थापत्य व मूर्ति विशेषज्ञ डॉ. गो. ब. देगलूरकर जी ने अपने वक्तव्य में कहा कि मंदिर के स्थापत्य कला के शिल्पकारों को हमने भुला दिया। जिन्होंने भव्य दिव्य मंदिर बनाए। मंदिर एक सामाजिक संस्था है जिसमें समाज के सभी वर्गों की सहभागिता होती है।

इस दौरान झा कंस्ट्रक्शन प्रा. लि. के चेयरमैन व एमडी तथा डायरेक्टर रामसुंदर झा एवं उनकी धर्मपत्नी मनोरमा झा, गोवर्धन इको विलेज के निदेशक गौरंगदास प्रभुजी, टेम्पल कनेक्ट के संस्थापक गिरीष वासुदेव कुलकर्णी एवं हिंदी विवेक के प्रतिनिधि दत्तात्रेय ताम्हणकर एवं महेश जुन्नरकर को मंच पर उपस्थित मान्यवरों के हाथों पुरस्कार, पुस्तक, शाल देकर विशेष तौर पर सम्मानित किया गया।

कार्यक्रम का सफल संचालन हिंदी विवेक की कार्यकारी सम्पादक श्रीमती पल्लवी अनवेकर ने किया और सभी का आभार माना। अंत में श्रीमती मानसी राजे द्वारा पसायदान के उपरांत कार्यक्रम का समापन किया गया।

हिन्दुओं की सहिष्णुता और संविधान दोनों को रौंधा गया है संभल में

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उत्तर प्रदेश के संभल से प्रतिदिन नये समाचार आ रहे हैं। वे सभी चौंकाने वाले हैं । पहले तो संविधान के अंतर्गत न्यायालय के आदेश का पालन करने गई पुरातत्व और पुलिस टीम पर पथराव करके वापस लौटाया गया, फिर एक अतिक्रमण में मंदिर निकला, फिर एक मस्जिद सहित पूरी बस्ती में तीन सौ बिजली कनेक्शन चोरी के निकले अब मस्जिद के बगल में एक कुँए से प्राचीन खंडित मूर्तियाँ भी निकलीं। ये सभी चिन्ह संभल में हिन्दुओं की सहिष्णुता और संविधान दोनों को रौंधने की कहानी कह रहे हैं।
संभल भारत का ऐतिहासिक ही नहीं प्रागैतिहासिक नगर है । अतीत में जहाँ तक दृष्टि जाती है, संभल का उल्लेख मिलता है । सतयुग, त्रेता और द्वापर में भी संभल एक विकसित और प्रतिष्ठित नगर रहा है। मध्यकाल में संभल कितना समृद्ध और आकर्षण का नगर रहा होगा, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि हर आक्रमण कारी की नजर संभल पर गई । संभल पर ग्यारहवी शताब्दी से आक्रमणों का क्रम आरंभ हुआ वह निरंतर रहा । मेहमूद गजवनी के भतीजे सालार मसूद से लेकर अलाउद्दीन खिलजी, तुगलक, लोदी, बाबर, शेरशाह और औरंगजेब तक सभी के आक्रमण संभल ने झेले । इतिहास तलाशने कोई आधा दर्जन अंग्रेज इतिहासकार भी संभल आये । इन सभी उतार चढ़ावों के बीच अंग्रेजों से भारत की मुक्ति का समय आया । स्वतंत्रता की पृष्ठभूमि में भारत विभाजन के समय जिन क्षेत्रों में सर्वाधिक उथल पुथल हुई उनमें संभल भी एक था । संभल से कुछ मुस्लिम नागरिक भी पाकिस्तान चले गये । 

संभल में हिन्दुओं की सहिष्णुता 

संभल से सभी मुस्लिम परिवार पाकिस्तान नहीं गये थे । जो मुस्लिम परिवार पाकिस्तान नहीं गये उनको हिन्दू समाज ने सहर्ष अपनाया, अपनी सहिष्णुता का परिचय देकर न उनके घरों को छुआ और न उनके किसी धर्म स्थल को छेड़ा। यह संभल के हिन्दुओं की आत्मीयता और सहिष्णुता ही थी कि 1947 में भारत विभाजन के बाद संभल में मुस्लिम समाज की जनसंख्या 45 प्रतिशत और हिन्दू जनसंख्या 55 प्रतिशत थी ।अब पता नहीं यह मुस्लिम समाज की कोई रणनीति थी या केवल संयोग, कि बँटवारे के समय संभल से जो मुस्लिम नागरिक पाकिस्तान गये थे, वे अपना पूरा परिवार पाकिस्तान नहीं ले गये थे । उनमें अधिकांश परिवार ऐसे थे जो अपने परिवार के कुछ सदस्यों को छोड़ गये थे । जो मुस्लिम बंधु संभल में रह गये थे वे स्वयं को अकेला या असुरक्षित न समझें इसके लिये हिन्दुओं ने भाईचारे का आत्मीय वातावरण दिया । सामाजिक जीवन से लेकर सार्वजनिक जीवन तक हिन्दुओं ने सदैव मुस्लिम परिवारों को अपने साथ रखा । जो मुस्लिम बंधु संभल में रह गये थे उन्होने न केवल अपना घर मकान जमीन जायदाद अपितु अपने निकटतम रिश्तेदारों की संपत्ति भी सहेजी थी । इसमें भी हिन्दु समाज ने कोई आपत्ति नहीं की । दोनों समाज एक दूसरे के पूरक बनकर रहने लगे और समय अपनी गति से आगे बढ़ा ।
 संभल का इतिहास गवाह है कि बँटवारे के समय जो मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गये थे उनमें से किसी की भी संपत्ति किसी हिन्दू के पास नहीं है । और जब मुस्लिम समाज के उन लोगों ने जो पाकिस्तान चले गये थे, उनमें से कुछ लोग भारत लौटने लगे, चूँकि उनके परिजन संभल में रहते थे इसलिये उन्हे लौटने में कोई कठिनाई नहीं हुई । उनके परिजनों के साथ हिन्दू समाज ने पाकिस्तान से लौटे मुस्लिम समाज के इन बंधुओं का स्वागत किया और प्रशासन ने भी कोई आपत्ति नहीं की। इसके साथ ही संभल की जनसंख्या के अनुपात में परिवर्तन आने लगा और समय के साथ कुछ दूरियाँ भी बढ़ने लगीं। ये दूरियाँ को 1965 और 1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद बहुत स्पष्ट देखी गईं । युद्ध की उस विभीषिका में संभल के कुछ मुस्लिम नागरिकों का स्पष्ट सद्भाव पाकिस्तान के प्रति देखा गया । इसी के साथ संभल में साम्प्रदायिक तनाव भी झलकने लगा। कहा जाता है कि इस खिंचाव और तनाव के पीछे उन जमातों की भूमिका रही है, जो समय समय पर संभल आतीं रहीं उनमें कुछ जमाती पाकिस्तान के धर्मगुरु रहे हैं। कारण जो भी हों लेकिन यह खिंचाव और तनाव जो एक बार आरंभ हुआ फिर कभी कम न हुआ हुआ ।

 हिन्दुओं की सहिष्णुता का दमन 

जिस हिन्दू समाज ने भारत विभाजन के दिनों में मुस्लिम परिवारों को अपनत्व दिया था, स्नेह, सहिष्णुता और भाईचारे का वातावरण दिया था । उसी हिन्दु समाज पर मुस्लिम समूह ने हमला बोल दिया। वह मार्च 1976 की बात है । संभल में भीषण दंगा हुआ । कहने केलिये यह दंगा था । यह तो एक हिंसक भीड़ द्वारा हिन्दुओं का नरसंहार था । इस नरसंहार में 184 हिन्दू मारे गये थे । इस भीषण नरसंहार के बाद जो हिन्दू बचे उनमें से कुछ डरकर भागे और कुछ औने पौने दाम में अपने घर मकान बेच गये । उस भीषण नरसंहार से बचकर भागे कुछ लोग इन दिनों मुरादाबाद में रह रहे हैं उन्होंने मीडिया को जो विवरण दिया वह रोंगटे खड़े देने वाला है। उनका कहना था कि 29 मार्च के एक ही दिन में 46 हिन्दु मारे गये थे, उनकी आँखों के हिंसक भीड़ ने सड़क पर टायरों से बाँधकर जिंदा जलाया था । यह हिंसा लगभग पन्द्रह दिन चली । मरने वाले हिन्दुओं की संख्या 184 तक पहुँच गई । यदि इसमें दस वर्ष के साम्प्रदायिक दंगों के आँकड़े जोड़े जायें तो यह संख्या दो सौ के ऊपर बैठती है । संभल के कयी मोहल्ले हैं जिनमें आबादी एक तरफा हो गई। उनमें कोई घर हिन्दु का नहीं बचा । सारे घर मुस्लिम समाज के हैं। अब संभल में जनसंख्या के अनुपात में भी जमीन आसमान का अंतर आ गया है । संभल में मुस्लिम जनसंख्या 45 प्रतिशत से बढ़कर अब 78 प्रतिशत हो गई और हिन्दू जनसंख्या 55 प्रतिशत से घटकर 22 प्रतिशत रह गई है । संभल में खाली भूमि थी उस पर भी अतिक्रमण हो गये  । उसपर मुस्लिम समाज के घर मकान बन गये ।मुस्लिम समाज के ये घर मकान केवल खाली पड़ी भूमि पर ही नहीं बने अपितु मंदिरों पर अतिक्रमण हो गया । इन दिनों उत्तरप्रदेश सरकार उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा अतिक्रमण विरोधी अभियान चला गया है । इसमें दो प्राचीन मंदिर सामने आये हैं। एक मंदिर तो 1976 के दंगे में ही वीरान हुआ था । तब से खुला ही नहीं था । जिस हिन्दू समाज ने भारत विभाजन के समय मुस्लिम समाज के किसी धर्म स्थल को नहीं छुआ अपितु सुरक्षित रखने में सहयोग किया उस हिन्दू समाज के इस मंदिर परिसर पर भी अतिक्रमण, मुस्लिम समाज के घर मकान बन गये । कुछ मूर्तियाँ खंडित करके कुएँ में फेकदी गई। अब प्रशासन ने इस मंदिर परिसर को मुक्त करा लिया है और कुएँ से भी मूर्तियाँ निकाल ली गई हैं।

संभल में संविधान की भावना भी रौंधी गयी

संभल में हिन्दु समाज की सहिष्णुता का ही दमन नहीं हुआ, संविधान की भावना और प्रावधान भी रौंधे गये । संभल से पिछले तीन सप्ताह से जो समाचार आ रहे हैं उनसे लग रहा है कि संभल में मुस्लिम समाज के एक समूह को संविधान की भी कोई परवाह नहीं। वे मानों एक भीड़तंत्र चलाना चाहते हैं। संविधान किसी भी देश की केन्द्रीभूत चेतना होती है । सभी प्रशासनिक न्यायायिक प्रक्रिया और विधायिका ही नहीं समाज का सार्वजनिक जीवन भी संविधान से ही संचालित होता है । संविधान प्रत्येक नागरिक को अपने अधिकार वोध के साथ दूसरे नागरिक के अधिकार की सीमा में अतिक्रमण न करने के प्रति भी सचेत करता है । जो इसका उल्लंघन करते हैं, वे अपराधी की श्रेणी में आते हैं । संविधान का यह उल्लंघन दो प्रकार से होता है । एक असावधानी से उलंघन हो जाना और दूसरा योजना पूर्वक संविधान के विरुद्ध आचरण करना । यह गंभीर अपराध की श्रेणी में आता है । संभल में अतीत की जो घटनाएँ सामने आ रहीं हैं वे सब गंभीर अपराध की श्रेणी में आतीं हैं । सामूहिक हिंसा करके किसी को भागने पर विवश करना, घर मकान पर अतिक्रमण करना, किसी अन्य पंथ के धर्म स्थल पर भी अतिक्रमण करना सब संविधान की भावना और संविधान के प्रावधान के विरुद्ध है । 1976 के उस भीषण नरसंहार के किसी अपराधी को कोई सजा नहीं हुई । कुछ लोग गिरफ्तार तो किये गये थे लेकिन साक्ष्य के अभाव में सब अदालत से छूट गये । हत्या और लूट करने वाले, घर छीनने वाले आज भी खुल्ला घूम रहे हैं उनपर ऊंगली उठाने तक का साहस किसी को नहीं है। इस बस्ती में नल और बिजली के अधिकांश कनेक्शन अवैध हैं। लाखों रुपये की बिजली प्रतिमाह चोरी होती है । बस्ती में रहने वालों का रौब इतना है कि कोई सरकारी कर्मचारी तो दूर पुलिस का सिपाही बस्ती के भीतर नहीं घुस सकता । 24 नवम्बर को जिस बड़ी घटना से इतिहास की ये परतें खुलना आरंभ हुई, वह परिसर किसी व्यक्ति, संस्था या समाज के नहीं भारतीय पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है । उस पर कोई निर्माण नहीं कर सकता। उस परिसर के बारे में माना जाता है कि वह प्राचीन हरिहर मंदिर था । हमलावर बाबर के एक सेनापति ने उसका रूपांतरण करके मस्जिद का स्वरूप देने का प्रयास किया । उस परिसर का निर्माण कुछ ऐसा था कि विश्व भर के पुरातत्वविद  आकर्षित हुये । इतिहास में उपलब्ध विवरण के अनुसार 1874 में ब्रिटिश पुरातत्वविद् एसीएल कार्लले ने सर्वेक्षण किया था और इतिहासकार अलेक्जेंडर कनिंघम का मानना था कि वह हिंदू मंदिर था जिसे परिवर्तित कर मस्जिद का स्वरूप दिया गया । इस परिसर की कलात्मकता कुछ ऐसी थी कि इस परिसर को 1920 भारत सरकार के पुरातात्विक विभाग ने अपने संरक्षण में ले लिया । समय के साथ सरकार ने आदेश देकर परिसर के एक हिस्से में नवाज पढ़ने और एक हिस्से में पूजन हवन की अनुमति दे दी । लेकिन 1976 में हिंसक भीड़ ने हिन्दुओं का प्रवेश रोक दिया जिस हवन कुण्ड में हवन होता था उसे वुजू के लिये उपयोग किया जाने लगा। यद्यपि पुरातात्विक अधिनियम के अनुसार उसमें कोई निर्माण नहीं हो सकता लेकिन परिसर को पूरी तरह मस्जिद के रूप में बदलने केलिये सतत निर्माण होने लगे । पुरातात्विक टीम जब भी जाती एक भीड़ एकत्र हो जाती । भीड़ के भय से पुरातात्विक टीम ने जाना लगभग बंद कर दिया । पुरातत्व विभाग ने न्यायालय में अपनी जो रिपोर्ट प्रस्तुत की, उसमें परिसर में परिवर्तन और वहाँ जाने पर अवरोध उत्पन्न करने की बात कही । सभी पक्षों को सुनकर न्यायालय ने संविधान के प्रावधान के अनुरूप परिसर का सर्वेक्षण करने का आदेश दिया । न्यायालय के आदेश पर पुलिस और प्रशासन को साथ लेकर पुरातात्विक टीम परिसर में पहुँची थी । लेकिन भीड़ ने भारी पथराव किया हिंसा और संविधान के अनुरूप काम करने पहुँची टीम को लौटना पड़ा। उस परिसर में हिंसा करके दूसरे पक्ष को रोकना, पुरातात्विक परिसर में अपनी इच्छा से निर्माण करके उसके स्वरूप को बदलना और न्यायालय के आदेश से गई टीम को हिंसा करके लौटाना, सीधा सीधा संविधान विरोधी कार्य है । फिर भी भारत में एक राजनैतिक धारा ऐसी है जिसे संविधान के सम्मान की नहीं अपने वोट बैंक की चिंता है इसलिये वे नारा तो संविधान बचाने का लगाते हैं लेकिन देश के भाईचारे को मिटाकर संविधान की भावना को रौंधने वालों का खुला समर्थन कर रहे हैं।

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