Home Minister Shri Amit Shah inaugurated the Global Hospital with the blessings of Jain Acharya Lokeshji.

1-2-1.jpeg

New Delhi/Ahmedabad December 7, 2024: India’s Home Affairs and Cooperation Minister Shri Amit Shah, Jain Acharya Lokeshji, founder of Ahimsa Vishwa Bharti and World Peace Center inaugurated the Global Hospital in Ahmedabad. Home Minister Shri Amit Shah inaugurated the Global Hospital after Navkar Mantra and Mangalpath by Jain Acharya Lokeshji, Union Home Minister and Acharyashri Lokeshji were welcomed and honored by Shri Nathulal Agrawal in the inauguration ceremony of the newly constructed hospital by Reshambai Hospital Parivar and Dr. Hasmukh Agrawal.

Union Home Minister Shri Amit Shah said on this occasion that India’s hospitals are providing world class health services, Medical tourism is continuously increasing here. When Government hospitals like AIIMS are being opened in every corner of the country, most advanced medical treatment is possible in private hospitals. He appreciated the medical services by the Agrawal family.

Jain Acharya Lokeshji said that building a prosperous India is possible only through a healthy India. Reshambai Hospital netwok of Ahmedabad is a living example of Seva Parmo Dharma. Dr. Hansmukh Agrawal is continuously providing health services through many hospitals. He heartily congratulated Dr. Hasmukh Agrawal, MD of Global Hospital and his team.

Dr. Hasmukh Agrawal gave information about the services available in the hospital and said that he will continuously strive to improve health services and fulfill the principle of service is supreme religion.

Dr. Laxmi Agrawal, Dr. Rushabh Agrawal, Dr. Chinmay Agrawal, Dr. Kamlesh Agrawal, Mr. Dinesh Agrawal, Advocate Satish Agrawal gave full support in organizing the inauguration ceremony.

अयोध्या फिल्म फेस्टिवल के 18वें संस्करण का शुभारंभ: देश-विदेश के दिग्गजों ने डाला डेरा

1-1-2.jpeg

अयोध्या: अयोध्या फिल्म फेस्टिवल के तीन दिवसीय 18वें संस्करण का दीप जलाकर विधिवत शुभारंभ गुरु नानक अकादमी गर्ल्स इंटर कॉलेज के सभागार में शक्ति सिंह, सूर्यकांत पांडेय, प्रीतपाल सिंह पाली और प्रोफेसर मोहन दास ने संयुक्त रूप से किया। इस अवसर पर काकोरी एक्शन शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष प्रदर्शनी लगाई गई और शहीद-ए-वतन अशफ़ाक़ उल्ला खां की तस्वीर पर श्रद्धांजलि स्वरूप गुलपोशी की गई।

अयोध्या फिल्म फेस्टिवल, भारतीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्म उद्योग के लिए एक प्रमुख मंच बन चुका है। दुनिया भर के फिल्म निर्माता यहां अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। समारोह के दौरान स्विट्ज़रलैंड से आए अभिनेता-निर्देशक उवे श्वार्ज़वेल्डर ने दर्शकों को संबोधित करते हुए कहा, “स्विट्ज़रलैंड का प्रतिनिधित्व करते हुए मैं बेहद सम्मानित महसूस कर रहा हूं। मेरी फिल्म द स्पिरिचुअलाइजेशन ऑफ जेफ बॉयड इस फेस्टिवल में प्रदर्शित की जा रही है, जिसे लेकर मैं बहुत उत्साहित हूं।”

पेरिस, फ्रांस से आए निर्देशक जेरेमी ब्रुनेल ने कहा, “मूवी और सिनेमा लोगों को जोड़ते हैं और दुनिया को समझने का आसान अवसर प्रदान करते हैं। चर्चित अयोध्या फिल्म फेस्टिवल में भाग लेकर मुझे बेहद खुशी हो रही है। मेरी फिल्म मिरारी इस फेस्टिवल में सराही जा रही है।”

इटली के निर्देशक आंद्रिया फ़ॉर्टिस ने बताया, “यह मेरे लिए पहला अवसर है कि मैं अयोध्या फिल्म फेस्टिवल में आया हूं और यहां अपनी मूवी सिटी ऑफ मरमेड्स लेकर आया हूं। यह समारोह भारतीय लोगों को जानने और अपने सिनेमा को प्रस्तुत करने का बेहतरीन मंच है।”

फिल्म निर्देशक शारवी एम ने कहा, “अयोध्या फिल्म फेस्टिवल एकदम अनूठा है। इसका 18वां संस्करण सिने प्रेमियों को विभिन्न भाषाओं, संस्कृतियों और देशों की फिल्मों से परिचित कराने का एक बड़ा मंच है। मेरी फिल्म बेटर टुमॉरो यहां प्रदर्शित हो रही है।”

अभिनेता और लेखक संजीव विरमानी ने कहा, “पिछले 18 वर्षों से अयोध्या में फिल्म फेस्टिवल का आयोजन अद्भुत है। यह फेस्टिवल छोटे शहरों को विश्व सिनेमा से जोड़ने का एक अनोखा प्रयास है।”

उद्घाटन फिल्म कथाकार रही, जो महिलाओं की मुक्ति के प्रश्न को रेखांकित करती है। इसके बाद देर रात तक विभिन्न फिल्मों का प्रदर्शन जारी रहा।

अयोध्या फिल्म महोत्सव के चेयरमैन प्रोफेसर मोहन दास ने कहा, “इस वर्ष हमें विश्वभर के फिल्मकारों से अद्भुत और सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है। इस बार 39 से अधिक देशों के फिल्म निर्माताओं ने अपनी फिल्में भेजी हैं। इनमें भारत के साथ-साथ चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, यूक्रेन, कोरिया, फ्रांस, ताइवान, ऑस्ट्रेलिया, इटली, इज़राइल, कनाडा, यूनाइटेड किंगडम, स्विट्ज़रलैंड, स्वीडन, श्रीलंका, स्पेन, रोमानिया, पुर्तगाल, तुर्की, नॉर्वे, नेपाल, लीबिया, ब्राज़ील, जापान, नामीबिया, मैक्सिको, लक्ज़मबर्ग, जॉर्जिया, अर्जेंटीना, अल्बानिया आदि देश शामिल हैं।”

यह आयोजन न केवल भारतीय सिनेमा के लिए, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के लिए भी एक प्रभावी मंच प्रदान करता है, जहाँ विभिन्न देशों के फिल्मकारों को अपनी फिल्में प्रदर्शित करने का अवसर मिलता है।

अयोध्या फिल्म फेस्टिवल अपनी विविधता और विशिष्टता के साथ सिनेमा प्रेमियों के लिए एक अनूठा अनुभव बन चुका है।

पुस्तकें अपनी सामग्री से बिकती हैं, संबंधों से नहीं!

1-1-1.jpeg

कमलेश कमल

क्या आपने कभी सोचा है कि जब हमें कपड़े, दवाइयाँ या अन्य ज़रूरी चीज़ें खरीदनी होती हैं, तो हम कहाँ जाते हैं? निश्चित ही वहाँ, जहाँ हमारी ज़रूरत पूरी हो सके। केवल दोस्ती या संबंधों के कारण हम गलत दुकान से सामान नहीं खरीदते।

यही बात पुस्तकों पर भी लागू होती है। किताबें गुणवत्ता और सामग्री के कारण खरीदी जाती हैं, न कि किसी लेखक की बार-बार की अपील या अनुरोध पर। यदि कोई लेखक अनावश्यक रूप से लिंक भेजकर या किताब खरीदने की प्रार्थना करके अपनी पुस्तक को प्रचारित करता है, तो यह न केवल उसके प्रति पाठकों की रुचि को कम करता है, बल्कि उसकी मेहनत और रचनात्मकता का अवमूल्यन भी करता है।

एक और महत्वपूर्ण बात— जिसे दवा की आवश्यकता नहीं है, उसे दवा देंगे तो वह उसे फेंकेगा। यही बात पुस्तकों पर भी लागू होती है। किसी को अनावश्यक रूप से पुस्तक की प्रति देना लेखक की मजबूरी नहीं, बल्कि एक सरल और मासूम प्रयास है कि रचना सही हाथों तक पहुँचे। इससे बचना चाहिए! हाँ, अपनी रचना के बारे में बताना आपका अधिकार है। विज्ञापन का युग है, तो इसके लाभ भी हैं; लेकिन ‘content is king’ पुस्तकों के संदर्भ में एकदम सटीक है।

पुस्तकें उपहार नहीं, विचार हैं। वे तभी अर्थवत्ता प्राप्त करती हैं, जब सही पाठक तक पहुँचें। लेखक का काम अपनी श्रेष्ठ रचना देना है, न कि उसे जबरन किसी पर थोपना। मैंने सदा सर्वोत्तम साधना पर बल दिया है और शेष कार्य देश भर के हिंदीप्रेमी करते हैं। शब्द-संधान के प्रीबुकिंग की एक सूचना दी थी और पुस्तक वैश्विक रैंकिंग में नम्बर #1 बेस्टसेलर बन गई। पुस्तक छपकर कल से लोगों को मिलने लगी है। लगभग 80-90 लोगों से पुस्तक मिलने की सूचना प्राप्त हुई है। ऐसे बहुत से अन्य हिंदीप्रेमी होंगे। आप सबका स्नेह ही मुझे ऊर्जस्वित् करता है।

राजकपूर: बॉलीवुड के सबसे बड़े शोमैन

9762a3bc275e03879003ca03bdb1576d_1520397541-827x425-1.jpg

विजय मनोहर तिवारी

यह एक पुस्तक है, जो राहुल रवैल ने लिखी है। वे एक प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक हैं, जिनकी सिनेमाई शिक्षा-दीक्षा राजकपूर के साथ हुई है। पुस्तक की भूमिका रणधीर कपूर ने लिखी है। प्रभात प्रकाशन ने छापा है। पिछले दिनों दैनिक जागरण समूह के लोकप्रिय वार्षिक संवादी का आयोजन लखनऊ विश्वविद्यालय में हुआ, जहाँ मेरी भी एक पुस्तक पर बेस्ट सेलर में सूचीबद्ध होने के कारण विशेष सत्र रखा गया था। राहुल रवैल की यह पुस्तक संवादी के दूसरे दिन का विशेष आकर्षण थी।

हो सकता है राजकपूर पर और भी पुस्तकें लिखी गई हों, किंतु राहुल रवैल को पढ़ने के बाद इतना कहना चाहूँगा कि इससे गहरी अभिव्यक्ति संभवत: उनमें नहीं होगी। इसका कारण है। राहुल रवैल स्कूल के दिनों में ही लगभग पढ़ाई छोड़कर राजकपूर की छाया में सिनेमाई समझ को विकसित करने जा पहुँचे थे। वे स्कूल में ऋषि कपूर के सहपाठी थे और उनके पिता एचएस रवैल राजकपूर के मित्र थे।

यह पुस्तक राजकपूर के सिनेमाई व्यक्तित्व का विराट प्रदर्शन करती है, जिसके कारण उन्हें शोमैन ही नहीं, सबसे बड़ा शोमैन कहा गया। उनकी सूक्ष्म दृष्टि, मनोरंजन प्रेमी भारतीय दर्शकों की सिनेमा से अपेक्षाएँ और राजकपूर की समझ, परदे पर ढाई-तीन घंटे की बाँधे रखने वाले चलचित्रों की एक प्रभावी कथा, उसे कैमरे की दृष्टि से रीलों में उतारने की तकनीक, ह्दय में उतरने वाले गीत और गहरी छाप छोड़ने वाला उनका मधुर संगीत, फिल्माई गई रीलों के प्रयोगशाला में संपादन का कौशल और सबसे ऊपर, अपनी कल्पना को साकार करने में किसी भी सीमा तक जाने की हर प्रकार की अविलंब तैयारी, ये ऐसे कोण हैं, जिनसे राजकपूर के योगदान का आकलन किया गया है। वर्षों तक राहुल उनके सहायक बनकर रहे। 72 रुपए उनका आरंभिक मासिक वेतन था।

राहुल रवैल ने “मेरा नाम जोकर’ की असफलता से आर्थिक रूप से नष्ट होने की कगार तक पहुँचे राजकपूर को भी देखा और “बॉबी’ की रचना प्रक्रिया में अपनी ही राख से फिर आकार लेकर आकाश में उड़ान भरते हुए उन्हीं राजकपूर को देखा, जो एक-एक सीन की कल्पना में अदृश्य परछाईं की भांति उपस्थित रहे। किशोर आयु की प्रेम कथा के लिए नए चेहरों को लेकर आए और शैलेंद्र सिंह के रूप में एक नया स्वर भी। उनके निवेशक उनसे छिटके हुए थे लेकिन बॉबी की सफलता ने सिद्ध किया कि राजकपूर का सिक्का तब तक चलता रहेगा, जब तक आरके की टकसाल में उनकी छाया रहेगी। मुंबई के चेंबूर क्षेत्र में आरके स्टुडियो को खड़ा करने और उसके विस्तार की यात्रा ऐसा रोचक वृत्तांत कोई लिख नहीं सकता था।

वह कोई दृष्टि ही होती है, जो कुछ बड़ा रच डालती है। अगर वह दृष्टि आपके पास है तो आप जहाँ होंगे, वहीं कुछ अद्वितीय हो रहा होगा। और केवल दृष्टि नहीं, इतिहास में अंकित होने लायक सृजन के लिए कठोर अनुशासन और 360 डिग्री की बहुआयामी सामर्थ्य भी उतनी ही आवश्यक है। मैं अक्सर कहता हूँ कि इसके लिए पहले दिल और दिमाग खोलने आवश्यक हैं, तिजोरी का नंबर बाद में आता है।

चक्रवृद्धि जैसे ब्याज के साथ भारी कर्जे में डूबे राजकपूर अपनी अगली फिल्म के किसी एक दृश्य के लिए भी सब कुछ दाव पर लगा सकते थे, जबकि कृष्णा कपूर उनसे कह रही हैं कि एक घर तो ले लो, कब तक किराए के घरों में रखोगे? ऐसे संकटपूर्ण समय में भी वे एक गीत में दो मनोहारी दृश्यों के लालच में एक सर्वोत्तम लोकेशन के लिए हफ्तों कश्मीर में फिरते रह सकते थे, क्योंकि गीत में एक ऐसी पंक्ति पर उनका ध्यान अटका है, जिसमें रास्ते के भूलने की बात है-“हम तुम कहीं को जा रहे हों और रस्ता भूल जाएँ!’

राजकपूर के घोंसले में अपने पंखों को शक्ति संपन्न बनाने वाले राहुल रवैल स्वतंत्र निर्देशक के रूप में हिंदी सिनेमा में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने राजेंद्र कुमार के लिए “लव स्टोरी’ और धर्मेंद्र के लिए “बेताब’ के अलावा अर्जुन, अंजाम, बेखुदी और डकैत जैसी अपने समय की सफल फिल्मों का निर्देशन किया। लव स्टोरी में कुमार गौरव और बेताब में सनी देओल पहली बार परदे पर उतारे गए थे। डकैत की शूटिंग के लिए वे राजकपूर की सलाह पर ग्वालियर आए और फूलनदेवी से मिले। जावेद अख्तर के साथ चंबल के बीहड़ों की रैकी की ताकि कहानी में दम आए और असली डाकुओं को अपनी आंखों से देखकर परदे पर उतारने की उनकी तैयारी गहरी हो।

सागर के कवि, गीतकार, राजनेता सबके प्रिय विट्ठलभाई पटेल तब अर्जुन सिंह सरकार में एक शक्तिशाली मंत्री थे। राजकपूर ने उन्हें फोन किया। ग्वालियर जेल में राहुल रवैल और जावेद अख्तर की फूलनदेवी से भेंट के समय वे भी उपस्थित थे। राहुल रवैल ने जब फूलन से पूछा गया गोला-बारूद का भंडार कैसे मिलता था तो वह गाली देकर बोली कि अब क्या बताऊं इनको? विट्ठलभाई ने कहा कि जो बताना है सच सच बता दो, यहां कोई तुम पर एक्शन नहीं लेगा। फूलनदेवी एक पुलिस अधिकारी की ओर मुड़कर उसे माँ की गाली देकर बोली थी-“ये ….डिप्टी एसपी बेचता था।’

विट्ठलभाई पटेल के सहयोग से राहुल रवैल की डेढ़ सौ लोगों की टीम शूटिंग करने चंबल में आई। वे लिखते हैं कि दो हजार पुलिसकर्मियों को इस टीम की सुरक्षा और सुविधा के लिए तैनात किया गया था। 40 दिन की शूटिंग भिंड-मुरैना के क्षेत्र में तब तक चलती रही जब तक 45 डिग्री के तापमान में काम करना असहनीय नहीं हो गया।

“मेरा नाम जोकर’ के लिए जब संपादन की प्रक्रिया चल रही थी तब राजकपूर को सर्कस के कुछ शॉट कम महसूस हुए, जिन्हें दूर बाहर से फिल्माया जाना चाहिए था। वह सर्कस तब भोपाल आ गया था। राहुल रवैल को केवल तीन शॉट की चार घंटे की शूटिंग के लिए भोपाल भेजा गया। ऐसे मांग आधारित सर्कस शॉट के लिए उनका पाँच बार अलग-अलग शहरों में जाना हुआ। राजकपूर अपना कोई भी काम कामचलाऊ ढंग से करना पसंद नहीं करते थे, चाहे कितना भी खर्च हो जाए या कितना भी समय लगे। काम चौबीस कैरेट ही चाहिए।

खाने-पीने के शौकीन राजकपूर को पुणे बड़ा प्रिय था, जहाँ लोनावाला में एक फार्म हाऊस बनवाया था। वे मुंबई से पुणे की डेक्कन क्वीन की यात्रा के भी शौकीन थे, जिसमें परोसे जाने वाले खाने का लुत्फ उन्हें इस ट्रेन की ओर खींचता था। वे इस ट्रेन की कैंटीन कार में सवार होते और केवल ट्रेन में ही खाते हुए नहीं जाते, जहाँ ट्रेन रुकती तो उतरकर भी कुछ न कुछ खाने के लिए ले लेते।

एक बार अपने बढ़ते हुए वजन को कम करने के लिए वे नेचर क्योर क्लीनिक में भर्ती हुए, जो लोनी के पास कहीं था। रहने के लिए जंगल में एक कॉटेज किराए पर लिया। राहुल रवैल एक साप्ताहांत अपने गुरू से मिलने गए, जहाँ दोपहर के भोजन के लिए एक ग्रामीण साइकल पर मस्त चाइनीज रेस्तराँ के पैकेट लिए चला आ रहा था। यह राजकपूर की जीवन शैली थी। वहाँ बाहर का खाना प्रतिबंधित था। वे नेचर क्योर में भर्ती होने वाले अकेली विभूति थे, जिनका वजन कम होने की बजाए निकलने तक तीन किलो और बढ़ गया था।

राहुल रवैल की पुस्तक सिनेमा के एक शिक्षक के रूप में राजकपूर का परिचय कराती है। राहुल से उनका संबंध इतना प्रगाढ़ बना कि स्वतंत्र निर्देशक के रूप में अपनी पेशेवर पारी शुरू करने के बाद भी अपनी हर फिल्म के लिए वे राजकपूर के चरणागत रहे। कहानी से लेकर दृश्यों की सूक्ष्म प्रस्तुति, एंगल और लोकेशन तक राजकपूर अपने अनुभव अपने इस समर्पित शिष्य के साथ अंत तक बांटते रहे।

मैं कहूंगा कि सिनेमाप्रेमियों को ऐसी कुछ पुस्तकें भी पढ़ना चाहिए, जिनमें परदे के पीछे की जानकारियाँ और किस्से मिलें। सिनेमा एक तिलिस्म है। जो सच में नहीं है, उसे सच की भांति चलचित्रों में उतारना और वो भी एक कथा के तारतम्य में, गीतों और संगीत के कर्णप्रिय तड़के के साथ।

राजकपूर अपनी विधा के सच्चे महापुरुष थे। राहुल रवैल को उन जैसा गुरू मिला, यह उनका सौभाग्य था। पुस्तक के शीर्षक में बॉलीवुड शब्द अच्छा नहीं है। यह हॉलीवुड की घिसीपिटी सी नकल है।

क्या हिंदी सिनेमा भाषाई रूप से इतना विपन्न है कि अपने लिए एक मौलिक शब्द नहीं ला सकता?

scroll to top