डॉक्टर अम्बेडकर का आर्थिक दृष्टिकोण

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प्रहलाद सबनानी

आज भारत, पूरे विश्व में आर्थिक दृष्टि से एक सशक्त राष्ट्र बनकर उभर रहा है। वैश्विक स्तर पर कार्य कर रहे वित्तीय एवं निवेश संस्थान भारत की आर्थिक प्रगति की मुक्त कंठ से सराहना कर रहे हैं। भारत आज विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बन गया है और सकल घरेलू उत्पाद के मामले में विश्व की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तथा संभवत: आगामी दो वर्षों में ही जापान एवं जर्मनी की अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ते हुए विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थ बनने की ओर भारत आज अग्रसर है। इसी प्रकार, भारत आज विश्व का तीसरा सबसे बड़ा शक्तिशाली देश भी बन चुका है एवं भारत का शेयर बाजार भी आज विश्व का तीसरा सबसे बड़ा पूंजी बाजार बन चुका है। भारत ने वर्ष 1947 में जब राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त की थी तब भारत की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी। परंतु, वर्ष 1991 के बाद भारत में आर्थिक एवं वित्तीय क्षेत्र में लागू किए सुधार कार्यक्रमों के बाद एवं विशेष रूप से वर्ष 2014 के बाद से भारत की आर्थिक विकास दर में लगातार सुधार हो रहा है एवं भारत आज उक्त स्थिति में पहुंच गया है। डॉक्टर बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी भारत द्वारा राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत के आर्थिक विकास का सपना देखा था एवं अर्थशास्त्र विषय पर उनकी अपनी अलग सोच थी। यह देश का दुर्भाग्य था कि भारत की राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उन्हें आर्थिक क्षेत्र में काम करने का मौका ही नहीं मिला। अन्यथा, आज भारत की आर्थिक स्थिति और अधिक मजबूत बन गई होती।

डॉक्टर बाबा साहेब अम्बेडकर को हम केवल भारत के संविधान निर्माता के रूप में ही जानते हैं। परंतु, उन्होंने अपनी स्नातक एवं पीएचडी की पढ़ाई विश्व के श्रेष्ठतम विश्वविद्यालयों से अर्थशास्त्र विषय में ही की थी। अर्थशास्त्र उनका बचपन से ही पसंदीदा विषय रहा है। अर्थशास्त्र के विभिन्न विषयों पर उनके उल्लेखनीय शोध कार्य भी आज भी प्रासंगिक हैं। उक्त कारणों के चलते उनके सामाजिक कार्यों पर भी अर्थशास्त्र की छाप दिखाई देती थी। वे महिलाओं एवं दलितों को उद्यमी बनाने की बात करते थे तथा इस कार्य में तत्कालीन सरकार से इस संदर्भ में इन वर्गों की सहायता की अपील भी करते थे। उनका स्पष्ट मत था की आर्थिक उत्थान के बिना कोई भी सामाजिक एवं राजनैतिक भागीदारी संभव नहीं होगी। डॉक्टर साहेब ने जिन विषयों पर अपने शोध कार्य किए थे उनमें प्रमुख रूप से शामिल हैं – भारतीय मुद्रा (रुपए) की बाजार मूल्य (विनिमय दर) की समस्या, महंगाई की समस्या, भारत का राष्ट्रीय लाभांश, ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकास, प्राचीन भारतीय वाणिज्य, ईस्ट इंडिया कम्पनी का प्रशासन एवं वित्त, भूमिहीन मजदूरों की समस्या तथा भारतीय कृषि की समस्या। उक्त विषयों पर आपने केवल शोध कार्य ही सम्पन्न नहीं किया बल्कि इनसे सम्बंधित कई समस्याओं के व्यावहारिक एवं तार्किक हल भी सुझाए थे। अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित प्राध्यापक श्री अंबीराजन जी ने मद्रास विश्वविद्यालय में अपने अम्बेडकर स्मृति व्याख्यान में कहा था कि अम्बेडकर उन पहले भारतीयों में से एक थे, जिन्होंने अर्थशास्त्र में औपचारिक शिक्षा पाई और एक पेशेवर की तरह ज्ञान की इस शाखा का अध्ययन और उपयोग किया। भारतीय अर्थशास्त्र की परम्परा प्राचीन है। भारत में सदियों पहले ‘अर्थशास्त्र’, ‘शुक्रनीति’ और ‘तिरुक्कुरल’ जैसे ग्रंथ लिखे गए जबकि पश्चिम में अर्थशास्त्र का औपचारिक शिक्षण, 19वीं सदी के मध्य में प्रारम्भ हुआ। यह देश का दुर्भाग्य रहा कि तत्कालीन सरकारों ने डॉक्टर साहब की अर्थ के क्षेत्र में गहन समझ एवं अधय्यन का लाभ नहीं उठाया।

डॉक्टर केशव बलीराम हेडगेवार जी ने उस खंडकाल में ही कई देशों में तेजी से पनप रहे पूंजीवाद के दोषों को पहिचान लिया था तथा पूंजीवाद का पुरजोर विरोध करते हुए उन्होंने भारत में राष्ट्रीयत्व को प्राथमिकता देने का आह्वान किया था। बाद में, पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय ने भारत को ‘एकात्म मानववाद’ का सिद्धांत दिया, इस सिद्धांत के आर्थिक पक्ष को उभारते हुए पंडित दीनदयाल जी कहते थे कि सत्ता में रहने वाले दल की यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि समाज में पंक्ति में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक विभिन्न आर्थिक योजनाओं का लाभ पहुंचे, अन्यथा उस दल को सत्ता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। बाद के खंडकाल में श्री दत्तोपंत जी ठेंगड़ी जी ने भी अर्थ को राष्ट्रीयत्व से जोड़ा था तथा इस संदर्भ में भारतीय नागरिकों में “स्व” के भाव को विकसित करने पर जोर दिया था। इसी प्रकार, डॉक्टर अम्बेडकर के आर्थिक दर्शन में भी लगभग यही दृष्टि दिखाई देती हैं। डॉक्टर साहेब भी आर्थिक एवं सामाजिक असमानता पैदा करने वाले पूंजीवाद के एकदम खिलाफ थे।

वर्ष 1923 में डॉक्टर अम्बेडकर ने लंदन स्कूल आफ इकोनोमिक्स से डीएससी (अर्थशास्त्र) की डिग्री प्राप्त की थी। डीएससी की थीसिस का विषय था “The Problem of the Rupee – Its Origin and its Solution” और, आपने उस समय पर रुपए के अवमूल्यन जैसी गम्भीर समस्या पर अपना शोध कार्य सम्पन्न किया था, जो उस खंडकाल में सबसे महत्वपूर्ण और व्यावहारिक विषय का शोध कहा जाता है। आपने वर्ष 1923 में ही वित्त आयोग की चर्चा करते हुए सुझाव दिया था कि वित्त आयोग का प्रतिवेदन प्रत्येक 5 वर्ष के अंतराल पर अवश्य आना चाहिए। साथ ही, लगभग इसी खंडकाल में आपने भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना का ब्लूप्रिंट तैयार करने में अपना योगदान दिया था। बाद में, भारतीय रिजर्व बैंक ने डॉक्टर साहेब के इस योगदान को स्वीकार करते हुए अपनी स्थापना के 81 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष में डॉक्टर अम्बेडकर के नाम पर कुछ सिक्के जारी किए थे।

डॉक्टर साहेब कृषि क्षेत्र को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानते थे और कृषि क्षेत्र के विकास के हिमायती थे। परंतु साथ ही, आप बड़े आकार के उद्योग के खिलाफ भी नहीं थे। आपका स्पष्ट मत था कि औद्योगिक क्रांति पर जोर देने के साथ साथ कृषि क्षेत्र को नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता है। क्योंकि, देश की अधिकतम आबादी ग्रामों में निवास करती है एवं यह अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है और फिर उद्योग क्षेत्र के लिए कच्चा माल भी तो कृषि क्षेत्र ही प्रदान करता है। आधुनिक भारत की इमारत कृषि क्षेत्र के विकास पर ही खड़ी हो सकेगी। इन्हीं विचारों के दृष्टिगत आपने कृषि क्षेत्र के पुनर्गठन के लिए क्रांतिकारी उपाय सुझाए थे। जैसे, कृषि योग्य भूमि के राष्ट्रीयकरण की आप वकालत करते थे। आप राज्य को यह दायित्व सौपने की सोचते थे कि राज्य नागरिकों के आर्थिक जीवन को इस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ाए कि उससे नागरिकों की उत्पादकता का सर्वोच्चय बिंदु हासिल हो जाय, इससे इन नागरिकों की आय में वृद्धि होगी और उनका जीवन स्तर ऊपर उठाया जा सकेगा। साथ ही, निजी उद्योग को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए और देश की सम्पदा का समाज में वितरण करने के भी प्रयास किए जाने चाहिए। कृषि के क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व का नियोजन भी होना चाहिए ताकि सामूहिक रूप से खेती को बढ़ावा दिया जा सके तथा इसी प्रकार उद्योग के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को भी बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कृषि एवं उद्योग क्षेत्रों के लिए आवश्यक पूंजी की व्यवस्था राज्य द्वारा की जानी चाहिए।

“Small Holdings in India and their Remedies” नामक शोधग्रंथ डॉक्टर अम्बेडकर ने वर्ष 1918 में लिखा था। यह शोधग्रंथ, भारत में किसानों के सम्बंध में जमीनी यथार्थ की व्याख्या करने में उनके कौशल और आर्थिक समस्याओं के लिए व्यावहारिक नीतियों का सुझाव देने में इनकी प्रवीणता को दर्शाता है। उनकी इस शोधपत्र में की गई व्याख्या आज भी भारत में कृषि क्षेत्र के लिए प्रासंगिक है। आपका विचार था कि श्रम, पूंजी और संयत्र – तीनों भारत में कृषि उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है। पूंजी वस्तु है और श्रमिक व्यक्ति। पूंजी का यदि कोई उपयोग न किया जाय तो उससे कोई आय नहीं होती परंतु उस पर कोई खर्च भी नहीं करना पड़ता। परंतु, श्रमिक, चाहे वह आय का अर्जन करे अथवा नहीं, उसे जीवित रहने के लिए स्वयं पर व्यय करना होता है। यदि वह यह खर्च उत्पादन से नहीं निकाल पाता, जैसा कि होना चाहिए, तो वह लूटपाट करने को मजबूर हो जाता है। इसी प्रकार भारत में छोटी जोतों की समस्या, दरअसल, उसकी सामाजिक अर्थव्यवस्था की समस्या है। अतः इस समस्या का स्थाई हल खोजना ही चाहिए।

डॉक्टर साहेब द्वारा देश के आर्थिक विकास के संदर्भ में उस खंडकाल में दिए गए समस्त सुझाव आज की परिस्थितियों के बीच भी अति महत्वपूर्ण एवं उपयुक्त माने जाते हैं। वर्तमान समय में हालांकि कई प्रकार की आर्थिक समस्याओं का हल निकालने में सफलता हासिल हुई है परंतु फिर भी डॉक्टर साहेब द्वारा उस खंडकाल में किए गए शोधकार्यों एवं सुझावों की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। जैसे, बेरोजगारी, मुद्रास्फीति, गरीबी, आय की असमानता, भारतीय रुपए का अवमूल्यन आदि के उन्मूलन पर विचार डॉक्टर साहेब द्वारा आर्थिक विषयों पर किए गए शोधों में देखे जा सकते है। डॉक्टर साहेब ने अर्थशास्त्र के सिद्धांतों एवं अपने शोधों को भारतीय समाज के लिए व्यावहारिक स्तर पर लागू करने के सम्बंध में अपने सुझाव रखे थे। डॉक्टर साहेब भारतीय समाज व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर अर्थशास्त्र के सिद्धांतों को भारतीयता के अनुरूप लागू करना चाहते थे। यह उनकी सामाजिक आर्थिक संवेदना एवं सामाजिक एवं आर्थिक विषयों पर गहन वैचारिकी को प्रदर्शित करता है। डॉक्टर साहेब भारतीय आर्थिक व्यवस्था में भारतीय समाज में न्यायसंगत समानता, गरीबी का पूर्ण उन्मूलन, शून्य बेरोजगारी, नियंत्रित मुद्रा स्फीति, नागरिकों का आर्थिक शोषण नहीं होना एवं सामाजिक न्याय होना जैसी व्यवस्थाएं चाहते थे। यह व्यवस्थाएं पंडित दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ के सिद्धांत के बहुत करीब हैं।

ईवीएम का विरोध, संसद ठप – सुधरने वाला नहीं है भारत का विपक्ष

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चार जून 2024 के लोकसभा चुनाव में पिछली बार की तुलना में मिली मामूली बढ़त से उत्साहित कांग्रेस को इसके तुरंत बाद हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में अपने इंडी गठबंधन के साथ भारी पराजय का मुख देखना जिसके कारण ये अब गहरी निराशा व हताशा में हैं और उन्हीं हरकतों पर उतर आए हैं जो ये लोकसभा चुनावों से पहले कर रहे थे। कुछ राजनैतिक विश्लेषक अनुमान लगा रहे थे कि हरियाणा तथा महाराष्ट्र में भारी पराजय के बाद विपक्षी दल संसद चलाने में सहयोग करेंगे किंतु फिलहाल ऐसा होता प्रतीत नहीं होता कि संसद के शीततकालीन सत्र में कोई महत्वपूर्ण विधायी कार्य संपन्न हो सकेगा।

संसद के शीतकालीन सत्र का प्रथम सप्ताह अडाणी व संभल हिंसा को लेकर हंगामे की भेंट चढ़ चुका है। विपक्षी दल संसद में इसलिए भी बहस नहीं होने देना चाहते हैं क्योंकि जब संसद में बहस होने पर वे पूरी तरह बेनकाब हो जाते हैं। देश की जनता कांग्रेस को अडानी, संविधान व जातिगत जनगणना के मुद्दे पर लगातार नकार रही है किंतु कांग्रेस नेता राहुल गांधी लगातार इन्हीं मुददों को लाल किताब जिसे वे संविधान की प्रति कहते हैं हाथ में लेकर बार -बार हवा में उछालते हैं। इन्हीं मुद्दों पर सदन को बाधित करते हैं।

दिल्ली में कांग्रेस पार्टी के संविधान रक्षक सम्मेलन में राहुल गाँधी ने वही किताब दिखाते हुए कहा कि इसमें कहीं सावरकर का नाम नहीं है। इसी कार्यक्रम में बोलते हुए राहुल गांधी का माइक बंद हो गया और आदतन राहुल गाँधी इसके लिए भी मोदी सरकार को दोष देते हुए उसे तानाशाह बताने लगे। हर समय संविधान संविधान करने वाले राहुल गाँधी से अब पूछा जाना चाहिए कि संविधान की किताब में झूठे मुद्दे उठाकर संसद ठप करने की बात कहाँ लिखी गई है।

कांग्रेस और इंडी गठबंधन को लगातार मिल रही पराजय पर जब इन दलों के नेताओं को आत्मचिंतन करना चाहिए था उस समय ये ईवीएम मशीनों और चुनाव आयोग पर हमलावर हैं। कांग्रेस व विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट सहित देश की विभिन्न हाईकोर्ट में 42 याचिकाएं दायर कीं किंतु हर जगह उनके वकीलो को मुंह की खानी पड़ी । हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव परिणामों के बाद विरोधी दलों का ईवीएम पर आरोप लगाने का रेडियो एक बार फिर ऑन हो गया है। लोकसभा चुनावों के पहले भी अप्रैल माह में जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने सुनवाई करते हुए विपक्ष के सभी आरेपों को खारिज करते हुए कहाकि हमें भी वह दिन याद है जब बैलेट पेपर से चुनाव होते थे औेर पूरा का पूरा बूथ लूट लिया जाता था। हम अब देश को पुनः उस युग में नहीं ले जाना चाहते हैं। 26 नवंबर 2024 को भी सुप्रीम कोर्ट ने बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग करने वाली एक याचिका पर न सिर्फ याचिकाकार्ता को कड़ी फटकार लगाई अपितु राजनैतिक दलों को कड़ा संदेश देते हुए कहा कि आप जब चुनाव हार जाते हैं तो ईवीएम खराब हो जाती है ओैर जीत जाते हैं तो चुप्पी। हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ना ठीक नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश विक्रम नाथ और पीबी वराले की पीठ ने बैलेट पेपर से चुनाव कराने की मांग करने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की।

कोर्ट ने याचिकार्ता से पूछा कि यह याचिका दायर करने का शानदार विचार अपको कैसे मिला? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि विरोधी दलों ने अब अतिविश्वसनीय ईवीएम मशीनों के खिलाफ नफरत की दुकान खोल ली है और यही कारण है कि अब कांग्रेस ने ईवीएम मशीनों के खिलाफ अभियान प्रारम्भ करने की घोषणा कर दी है जिससे वह जनता में इन मशीनों के प्रति भ्रम उत्पन्न कर सके। हारे हुए दल देश में राजनैतिक अराजकता का वातावरण उत्पन्न करना चाहते हैं। 2014 से 2024 तक राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी लगभग 47 चुनाव बुरी तरह से हारी चुकी है और अब गांधी परिवार की नाकामी छुपाने के लिए ईवीएम विरोधी अभियान प्रारम्भ कर रही है। कांग्रेस की देखादेखी महाराष्ट्र की शिवसेना- उद्धव गुट व शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी ने भी ईवीएम के खिलाफ अभियान प्रारम्भ कर दिया है। शिवसेना उद्वव गुट ने तो अपने हारे हुए उम्मीदवारों से पांच प्रतिशत वीवीपैट से मिलान करवाने के लिए याचिकाएं दायर करवाने के लिए कह दिया है। शरद पवार के भतीजे रोहित पवार भी चुनावों को ईवीएम से हाईजैक कराने का आरोप लगा रहे हैं।

आज वही कांग्रेस ईवीएम का विरोध कर रही है जिसकी 2004 से 2014 तक ईवीएम द्वारा चुनी गई सरकार रही। यह वही कांग्रेस पार्टी है जो अभी 4 जून 2024 को 99 सीटों पर ईवीएम द्वारा विजयी होने के बाद राहुल गाँधी को शैडो पीएम बता रही थी। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से लेकर पंजाब व दिल्ली विधानसभा में आप पार्टी की सरकार ईवीएम से ही बनी है यही नहीं जम्मू कश्मीर में भी आप पाटी का खाता ईवीएम से ही खुला है। झारखंड में हेमंत सोरेन व जम्मू कश्मीर में उमर अब्दुल्ला की सरकार ईवीएम से ही वापस आई है। अगर बीजेपी को ईवीएम हैक करवानी होती तो वह उन सभी राज्यों में भी हैक करवा सकती थी जहां विरोधी दलों की सरकारें हैं । उत्तर प्रदेश के दोनों पूर्व मुख्यमंत्री क्रमशः अखिलेश यादव औैर बसपा नेत्री मायावती भी अब ईवीएम का खुलकर विरोध करने लग गये हैं। 4 जून 2024 को चुनाव परिणाम आने के बाद सपा मुखिया अखिलेश यादव ने बयान दिया था कि अगर बैलेट पेपर से चुनाव होते तो वह यूपी की सभी 80 सीटों पर सफलता प्राप्त करके दिखाते। उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में सपा नौ विधानसभा सीटों में से केवल दो सीटें ही जीत पाई उस पर सपा मुखिया बयान दे रहे हैं कि ईवीम मशीनों की वजह से ही भाजपा सात सीटें जीतने में कामयाब रही वहीं बसपा नेत्री मायावती का कहना है कि अब वह कोई उपचुनाव नहीं लड़ेंगी क्योंकि सभी चुनाव धांधली से हो रहे है।

स्मरणीय है कि निर्वाचन आयोग ने वर्ष 2017 में ईवीएम मशीनों को हैक करके दिखाने के लिए भरपूर अवसर दिया था किंतु कोई भी विरोधी दल उस हेकाथॉन में नहीं पहुंचा था। आप नेता सौरभ भारद्वाज ने एक बार दिल्ली विधानसभा में ईवीएम को हैक करके दिखाने का असफल प्रयास किया था। आज जो लोग संविधान रक्षक बनने का नाटक रच रहे हैं वास्तव में वही लोग संविधान के भक्षक हैं। यह सभी लोग चाहते हैं कि मतदान प्रक्रिया के दौरान कि मुस्लिम महिला का बुर्का उठाकर उसकी पहचान न की जाये क्योंकि बुर्के की आड़ में इनका फर्जी वोट पड़ता है । ये लोग एक समय में मतदाता पहचान पत्र का भी विरोध करते थे और उसमें फोटो लगाने का भी विरोध किया था, यही लोग हैं जो आधार कार्ड को मतदाता सूची से जोड़ने के भी विरोधी हैं। जनता द्वारा नकारा गया कांग्रेस का गांधी परिवार किसी न किसी तरह एक बार फिर सत्ता का नियंत्रण चाहता है औेर यही कारण है कि यह परिवार बार बार भारत की चुनाव प्रक्रिया तथा चुनाव आयोग को कठघरे में खड़ा करने का असफल प्रयास कर रहा है ।

ये देखना हास्यास्पद है कि वही राहुल गांधी और उनकी पार्टी ईवीएम विरोधी यात्रा की घोषणा कर रहे हैं जिन्होंने ईवीएम से ही वायनाड और रायबरेली का चुनाव जीता, जिनकी बहन प्रियंका गांधी ने वायनाड से उपचुनाव जीता, जिनको लोकसभा में इसी ईवीएम से 99 सीट प्राप्त हुयीं । ऐसे में राहुल एंड कंपनी से एक ही प्रश्न पूछा जाना चाहिए क्या ईवीएम विरोधी आन्दोलन से पहले राहुल, प्रियंका और उनके बाकी सांसद/ विधायक आदि अपनी अपनी सीटों से त्यागपत्र देंगे क्योंकि ईवीएम से जीते गए चुनावों में तो घोटाला हुआ है।

मुस्लिम नेतृत्व के आक्रामक प्रचार और वोट जिहाद की अपीलों के बीच भविष्य की राजनीति का संकेत

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महाराष्ट्र और झारखण्ड विधान सभा एवं 13 अन्य प्रदेशों की रिक्त 36 विधानसभा सीटों केलिये संपन्न उपचुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत की राजनीति मुस्लिम तुष्टीकरण और कट्टरपंथ की आक्रामकता से संचालित नहीं होगी । लेकिन यह संकेत भी दिया है कि आने वाला समय भारतीय सामाज जीवन केलिये सामान्य नहीं होगा और कट्टरपंथी शक्तियाँ कुछ नया प्रपंच भी कर सकतीं हैं।

हाल ही संपन्न चुनाव महाराष्ट्र और झारखंड में सरकार बनाने के लिये, लोकसभा के दो एवं तेरह प्राँतों में विधानसभा की 36 सीटों केलिये उपचुनाव हुये । प्रथम दृष्टया इनके परिणाम उतने असामान्य नहीं लगते जितना चुनाव प्रचार अभियान में असामान्य बनाने का प्रयास हुआ था । महाराष्ट्र और झारखंड दोनो प्राँतों के सत्तारूढ़ गठबंधनों ने अपेक्षाकृत अधिक बहुमत से सत्ता में वापसी की। जबकि अन्य सभी प्राँतों की 46 रिक्त विधानसभा सीटों पर भी उन प्राँतों के सत्तारूढ दलों को सफलता मिली । इनमें भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को 26 एवं कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को 20 सीटें मिलीं। इन परिणामों की तुलना यदि पिछले परिणाम से करें तो भाजपा गठबंधन को नौ सीटों का लाभ हुआ और विपक्ष को सात सीटों का नुकसान।

लेकिन ये परिणाम वैसे साधारण नहीं हैं जैसे प्रथम दृष्टि में दिखाई दे रहे हैं। विशेषकर महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा एवं उत्तर प्रदेश विधानसभा की रिक्त नौ सीटों केलिये हुये उपचुनाव परिणाम ने भारत की भावी राजनीति के एक संदेश दिया है । इन परिणामों ने उस धुँध को छाँट दिया है जो मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनैति करने वाले राजनैतिक दलों ने फैलाने का प्रयास किया था । उनके साथ कुछ मुस्लिम धर्मगुरु, कट्टरपंथी सामाजिक संगठन और एक विचार विशेष केलिये काम करने वाले कुछ पत्रकार भी साथ थे । चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच मुस्लिम तुष्टीकरण की मानों कोई स्पर्धा चल रही थी । यह मुस्लिम तुष्टीकरण की पराकाष्ठा ही तो है कि मतदान के दिन कोई राजनैतिक दल यह मांग करे कि मुस्लिम महिला मतदाता की पहचान बुरका उठाकर न की जाय । इन सबने प्रचार अभियान में ऐसा वातावरण बना दिया था मानों हार जीत का फैसला केवल मुस्लिम मतदाता ही करने वाले हैं। इसका लाभ दो प्रकार की शक्तियों ने उठाया । एक वे कट्टरपंथी शक्तियाँ जो मुसलमानों को सदैव राष्ट्र की मूलधारा से अलग रखकर कट्टर और आक्रामक बनाये रखने के बहाने खोजतीं हैं, और दूसरी भारत विरोधी वे अंतरराष्ट्रीय शक्तियाँ जो भारत के सामाजिक जीवन में अशान्ति उत्पन्न करके विकास की गति अवरुद्ध करना चाहतीं हैं । इन दिनों आर्थिक, सामरिक, तकनीकि और अंतरिक्ष अनुसंधान में भी भारत की गति तीब्र हुई है । इस विकास गति को रोकने केलिये सामाजिक अशांति उत्पन्न करने केलिये अंतराष्ट्रीय स्तर पर षड्यंत्र किये जा रहे हैं। इन दोनों प्रकार की शक्तियों ने इस चुनाव अभियान पूरी तरह साम्प्रदायिक मोड़ देने का प्रयत्न किया। कहीं “बटेंगे तो कटेंगे” नारे को मुद्दा बनाकर मुसलमानों में भ्रमित करने का प्रयास किया, कहीं “एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे” नारे पर भ्रम फैलाकर मुसलमानों से भाजपा के विरुद्ध वोट करने का आव्हान किया । लेकिन परिणामों ने सबके कुचक्र को उलटकर रख दिया और भाजपा गठबंधन को पहले से अधिक शक्ति प्रदान की । कुछ क्षेत्रों में साम्प्रदायिक मानसिकता का प्रभाव अवश्य देखा गया उसकी झलक उन क्षेत्रों के मतदान पर देखी गई । लेकिन अधिकांश मतदाताओं ने तुष्टीकरण, मुस्लिम कट्टरपंथ एवं छ्द्म सेकुलरों के कुचक्र को नकार कर राष्ट्र के विकास और सकारात्मक मुद्दों को प्राथमिकता देकर भाजपा गठबंधन को प्राथमिकता दी।

महाराष्ट्र चुनाव परिणाम : एक दृष्टि

महाराष्ट्र विधानसभा में कुल 288 सीटें हैं। इसमें भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में महायुति गठबंधन को 235 और काँग्रेस के नेतृत्व वाले महाविकास अघाड़ी गठबंधन को 47 सीटों पर जीत मिली। समाजवादी पार्टी को दो और औबेसुद्दीन ओबैसी की एआईएमआईएम को एक सीट मिली । तीन सीटें निर्दलीय उम्मीदवारों ने जीतीं। परिणाम के बाद इन तीनों निर्दलीयों ने भारतीय जनता पार्टी को अपना समर्थन देने की घोषणा कर दी । इस प्रकार अब महाराष्ट्र विधान सभा में महायुति गठबंधन कुल 238 विधायकों की शक्ति के साथ सरकार में आई है । (इसके अंतर्गत भारतीय जनता पार्टी को 132, शिवसेना को 57, अजित पवार की एनसीपी को 41 और तीन निर्दलीय हैं)। जबकि दूसरी ओर महाविकास आघाड़ी गठबंधन में उद्धव ठाकरे की शिवसेना 20, कांग्रेस को 16 और शरद पवार की एनसीपी को 10 सीटें और समाजवादी पार्टी को दो सीटें मिली हैं। वोट प्रतिशत और सीट दोनों दृष्टि से भाजपा ने इस बार महाराष्ट्र में सर्वाधिक आंकड़ा छुआ है । यह तब हुआ जब विपक्ष सहित भारत की विकास गति अवरुद्ध करने वाली शक्तियाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम जोड़कर केवल भाजपा को हराने के लक्ष्य पर काम कर रहीं थीं । विपक्षी प्रचार केवल चुनाव सभाओं और अपीलों तक सीमित नहीं था । इसमें उलेमा बोर्ड का समर्थन पत्र, 180 मुस्लिम सामाजिक संगठनों की सक्रियता और सेकुलरिज्म का बाना पहने एक विशिष्ठ मानसिकता पर काम करने वाले मुम्बई कुछ पत्रकार भी सक्रिय रहे । उनके अभियान को मीडिया, सोशल मीडिया एवं ट्यूटर पर उनकी टिप्पणियों से समझा जा सकता है । ये सब भ्रामक मुद्दे उछाल कर मुस्लिम मतदाताओं से प्रधानमंत्री श्रीनरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरुद्ध मतदान करने का खुली अपील कर रहे थे। यह प्रयत्न भी हुआ कि मुस्लिम मतदाता भाजपा के साथ उसके सहयोगी दल के उम्मीदवार के विरुद्ध भी एकजुट मतदान करें। कथित सामाजिक संगठनों ने मुस्लिम समाज के घर घर जाकर विकल्प भी समझाये थे ताकि मुस्लिम मतों का विभाजन न हो। उलेमा बोर्ड द्वारा प्रांतीय स्तर एक समर्थन पत्र जारी करने के साथ अनेक क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर मुस्लिम धर्म गुरुओं ने फतवे भी जारी किये । कहीं कहीं तो “वोट जिहाद” शब्द भी सुना गया । बावजूद इसके भाजपा नेतृत्व वाले महायुति गठबंधन को पूरे महाराष्ट्र प्रदेश में समर्थन मिला । भाजपा गठबंधन को उन सीटों पर भी विजय मिली जहाँ मुस्लिम मतदाता निर्णायक माने जाते हैं । महाराष्ट्र प्रदेश में ऐसी 38 सीटें हैं, जहाँ मुस्लिम मतदाताओं की भागीदारी 20 प्रतिशत से अधिक है कुछ पर तो पचास प्रतिशत से भी अधिक है । यदि महाराष्ट्र का चुनावी इतिहास देखे तो इन सीटों पर मुस्लिम मतदाताओं के मतदान का प्रतिशत अधिक होता है और वे एकजुट होकर मतदान करते हैं। इस बार इन 38 में से भाजपा गठबंधन ने 22 सीटें जीती । इसमें भाजपा की 14 और उसके सहयोगी दलों को आठ सीटें मिलीं । जबकि कांग्रेस और उसके सहयोगी महाविकास अघाड़ी गठबंधन को मुस्लिम बाहुल्य इन क्षेत्रों में 13 सीटें ही मिल सकीं। शेष तीन सीटों में समाजवादी पार्टी को दो और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम को एक सीट मिली है । 2019 के विधानसभा चुनावों में इन क्षेत्रों से कांग्रेस ने 11 सीटें जीती थीं । लेकिन इस बार वह केवल पाँच सीटें ही जीत सकी । काँग्रेस की सीटें ही कम नहीं हुई उसका मत प्रतिशत भी घटा है । नवाब मलिक और जीशान सिद्दीकी जैसे कांग्रेस के कद्दावर नेता अपनी-अपनी सीटों से चुनाव हार गए ।

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन ने अपनी इस जीत का श्रेय सरकार की कल्याणकारी योजनाओ को दिया है ।

उत्तर प्रदेश में नौ सीटों का परिणाम

चुनाव को साम्प्रदायिक रःग देने का जो अभियान महाराष्ट्र में चला उससे कहीं आगे उत्तर प्रदेश में चलाया गया । उत्तर प्रदेश में नौ विधानसभा सीटों केलिये उपचुनाव हुये थे । इसमें भाजपा गठबंधन को सात और समाजवादी पार्टी को केवल दो सीट मिलीं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, कांग्रेस सहित विपक्षी गठबंधन के सदस्यों ने कैसे केवल मुस्लिम कट्टरपंथ को प्रोत्साहित किया इसके समाचारों से मीडिया भरा रहा । तुष्टीकरणवादी इन राजनैतिक दलों को समर्थन करने केलिये अनेक मुस्लिम धर्मगुरु, बीस से अधिक सामाजिक संगठन और गाजियाबाद के कुछ पत्रकारों की एक पूरी टोली सक्रिय थी । इनमें से कुछ तो राष्ट्रीय मीडिया से भी संबद्ध थे शेष अन्य स्थानीय और सोशल मीडिया पर सक्रिय रहे । चुनाव प्रचार की कुछ घटनाओं को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया । फिर भी भाजपा गठबंधन का विजय रथ रुक न पाया । मुस्लिम तुष्टीकरण के लिये रात दिन एक करने वाली समाजवादी पार्टी को केवल दो सीट ही मिल सकी ।
उत्तर प्रदेश की जिन नौ विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हुये उनमें मीरापुर, कुंदरकी, गाजियाबाद, खैर, करहल, सीसामऊ, फूलपुर, कटेहरी और मझवां हैं। ये सभी मुस्लिम मतदाता के प्रभाववाली सीटें हैं । इनमें मुरादाबाद जिले के अंतर्गत कुंदरकी विधानसभा क्षेत्र ऐसा है जहाँ मुस्लिम मतदाताओं का प्रतिशत साठ से अधिक है फिर भी इस सीट पर भाजपा के रामवीर सिंह ने ऐतिहासिक विजय प्राप्त की । इस सीट पर समाज वादी पार्टी सहित सभी 11 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई। जबकि भाजपा के रामवीर सिंह ने यहां 1.44 लाख वोटों के बड़े अंतर से सीट जीती। यह इस चुनाव की सबसे बड़ी जीत है। भाजपा को यह सीट 31 साल मिली । यहाँ लगभग पचास प्रतिशत मतदान हुआ । यह भाजपा की एकतरफा जीत मानी जा रही है । इस सीट पर वे अकेले हिन्दु उम्मीदवार थे ।

अन्य उपचुनावों के परिणाम

झारखंड, महाराष्ट्र विधानसभा तथा उत्तर प्रदेश की इन सात सीटों के अतिरिक्त राजस्थान में 7, पश्चिम बंगाल में 6, असम में 5, पंजाब और बिहार में 4-4, मध्यप्रदेश में दो, छत्तीसगढ में एक, कर्नाटक और केरल में 3-3 और उत्तराखंड की एक सीट पर उपचुनाव हुये ।
लोकसभा केलिये उपचुनाव की दोनों सीटें कांग्रेस ने जीतीं। इनमें महाराष्ट्र की नांदेड़ और केरल की वायनाड सीट है । दोनों सीट जीतने के बाद भी कांग्रेस की लोकसभा में सीटों की संख्या 99 ही रहेगी । चूँकि ये दोनों सीटें काँग्रेस ने ही जीतीं थीं।
अन्य राज्यों के विधानसभा उपचुनावों में असम विधानसभा के लिये पाँच सीटों पर उपचुनाव हुये । ये सभी पांचों सीट भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दल असम गण परिषद ने जीती । केरल में तीन सीट पर चुनाव हुये तीनों सीट सत्तारूढ़ मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) गठबंधन एलडीएफ ने जीतीं। पंजाब में चार विधानसभा सीटों के लिये हुये उपचुनाव में आम आदमी पार्टी ने तीन और एक सीट कांग्रेस ने जीती ।
बिहार में सत्ताधारी एनडीए गठबंधन ने चारों विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव में जीते । इसमें सत्तारूढ एनडीए गठबंधन को तीन सीटों का फायदा हुआ । बंगाल की 6 सीटों पर उपचुनाव हुये । ये सभी टीएमसी ने जीतीं। यहाँ एक सीट भाजपा के हाथ से चली गई। सिक्किम में दो सीटों पर सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा उम्मीदवार ने निर्विरोध जीते । कर्नाटक में तीन सीट पर उपचुनाव हुये तीन सीट कांग्रेस ने जीतीं । इस चुनाव में भाजपा और जनता दल (एस) को एक एक सीट का नुकसान हुआ । मध्यप्रदेश में दो सीटों पर चुनाव हुये । एक पर कांग्रेस और एक सीट भारतीय जनता पार्टी ने जीती। छत्तीसगढ की एक सीट पर हुये चुनाव में भारतीय जनता पार्टी विजयी रही ।

भविष्य की राजनीति केलिये संकेत

इन चुनाव परिणाम से भारत के राजनैतिक स्वरूप पर कोई विशेष अंतर नहीं पड़ेगा। सभी राज्य सरकारों और केन्द्र सरकार की स्थिरता में भी कोई अंतर नहीं होगा लेकिन इन चुनाव परिणामों भविष्य के लिये एक बड़ा संकेत दिया है । इस चुनाव में मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन, धर्मगुरु और छद्म सेकुलरों ने पूरी योजना से काम किया । पहले लोकसभा चुनाव प्रचार में जातीय जनगणना का शोर किया गया ।गाजियाबाद के छद्म सेकुलर पत्रकार अभी खुलकर सक्रिय थे वे लोकसभा चुनाव प्रचार में जातीय समीकरणों को तूल दे रहे थे । तब न केवल उम्मीदवार की जाति से मतदाताओं के जाति आधारित आँकड़े देकर सामाजिक रेखाएँ खींची जा रहीं थीं अपितु व्यक्तिगत अपराध की घटनाओं को भी जाति से जोड़कर सनसनीखेज बनाने का प्रयास हुआ था जो अभी भी देखा जा रहा है । लोकसभा चुनाव परिणाम में इस जाति आधारित धुँध का प्रभाव देखा गया । सनातन समाज को जाति आधारित गणना में उलझाकर अब मुस्लिम समुदाय को संगठित और आक्रामक बनाने का प्रयास हुआ । यह ठीक वैसा ही है जैसे 1921 के बाद भारतीय समाज जीवन में देखा गया । इतिहास गवाह है कि मालाबार हिन्साके बाद जातीय गणित, मुस्लिम कट्टरता बढ़ी थी । वहीं कांग्रेस ने तुष्टीकरण की राह पकड़ी थी जो अभी भी यथावत है । लोकसभा चुनाव के बाद से ही मुस्लिम समुदाय को आक्रामक बनाने का प्रयोग किया जाने लगा था । इसे हम कांवड़ यात्राओं पर पथराव, गणेशोत्सव और दुर्गा उत्सव पर हुये हमलों से समझा जा सकता है ।

विधानसभा के इन चुनाव परिणामों में दोनों प्रकार की झलक है । एक तो सनातन समाज में जागरूकता देखी जा रही है और दूसरे कम प्रतिशत ही सही लेकिन मुस्लिम समाज में भी जागरुकता बढ़ी है । मुस्लिम समाज का प्रबुद्ध वर्ग कट्टरवाद की राजनीति का मर्म समझने लगा है इसीलिये आक्रामक प्रचार के बाद भी भाजपा गठबंधन उम्मीदवारों को मुस्लिम वोट मिले । उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की कुछ सीटों पर यह जागरुकता स्पस्ट देखने को मिल रही है ।
इन चुनाव परिणाम में हिन्दू और मुसलमान दोनों प्रकार के मतदाताओं में जागरूकता का संदेश है तो यह संकेत भी है कि भारत की विकास गति को अवरुद्ध करने वाली शक्तियाँ अथवा केवल तुष्टीकरण और हिन्दु मुस्लिम की राजनीति करके अपना स्वार्थ पूरा करने वाले तत्त्व भी चुप नहीं बैठेंगे। वे कोई नया कुचक्र करेंगे । इस चुनाव प्रचार के दौरान जिस प्रकार मुस्लिम धर्म गुरुओं और उलेमाओं ने जिस प्रकार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को और उड़ीसा के मुख्यमंत्री श्री नायडू को तोड़ने का प्रयास किया, ऐसे प्रयास और बढ़ सकते हैं। इसलिए समाज और सरकार दोनों के अतिरिक्त राजनैतिक दलों को भी चुनाव में तुष्टीकरण का खेल करने की बजाय राष्ट्र विकास के विन्दु सामने रखकर चुनाव तैयारी करनी होगी । तभी 2047 तक भारत के सर्वोन्नत राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठित होने का लक्ष्य पूरा होगा ।

क्या लेखक राजनीति के पीछे चलने वाला दलाल है?

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रंगनाथ राम

पिछले और मौजूदा निजाम में कई पुरस्कार बटोर चुके एक महात्मा ने अचानक से घोषणा की कि अब वे एंटी-सेकुलर फोर्सेज के खिलाफ निर्णायक यलगार शुरू कर रहे हैं। उन्होंने लम्बे-लम्बे फर्रे लिखने शुरू किये। कई सूरमाओं ने उनके लिए जी भर के ताली बजायी। उनके सेकुलर जिहाद का धारावाहिक प्रसारण जारी ही था कि अचानक 5 अगस्त आ गया। सेकुलर जिहाद की गाड़ी पर उन्हें पॉवर ब्रेक लगाना पड़ा। उनकी वॉल पर “सूई पटक सन्नाटा” छा गया। उसके बाद उनकी नींद केवल एक दिन खुली और उन्होंने लिखा कि गुरुदेव रविंद्रनाथ ठाकुर की प्रतिमा गिराना कोई बड़ी बात नहीं है, भारत में भी लोग मूर्तियों के संग तोड़फोड़ करते रहते हैं! एक तरह से महात्मा जी ने मूर्ति तोड़ने वालों के बचाव के लिए तर्क मुहैया कराने का कुकृत्य किया।

बांग्ला-देश में रविंद्रनाथ की प्रतिमा पर चढ़कर मूतने और फिर उसे तोड़ने के गहरे सांस्कृतिक निहितार्थ हैं। मेरे ख्याल से भारतीय उपमहाद्वीप के सांस्कृतिक इतिहास का यह ऐतिहासिक क्षण था। मैंने उसपर एक लम्बी पोस्ट लिखी थी लेकिन उसे फिनिश करने की फुरसत नहीं मिली तो उसे पोस्ट नहीं कर पाया था। मगर सच कहूँ तो रविंद्रनाथ वाली एक पोस्ट से वह लेखक मेरी नजरों में जितने गिरे उतने उसके पहले के विभिन्न मुद्दों पर अनगिनत वैचारिक मतभेद के बावजूद न गिरे होंगे क्योंकि मैं मानकर चलता हूँ कि लोकतंत्र परस्पर प्रतियोगी विचारों का तंत्र है मगर जिस लेखक के लिए राजनीति साहित्य से ऊपर हो जाए वह मूलतः लेखक नहीं है, बल्कि भाषा के अन्दर बैठा दलाल है। वह पोलिटिकली करेक्ट उपन्यास और कहानी लिखकर प्रसिद्ध और पुरस्कृत हो सकता है मगर वह लेखक नहीं हो सकता जिसे प्रेमचन्द “राजनीति के आगे चलने वाली मशाल” कह गये हैं और मैं उन्हें “राजनीति के पीछे चलने वाले दलाल” कहना पसन्द करता हूँ।

ऐसे ज्यादातर लेखक पहचान के संकट से मुक्त होने के लिए जवानी के जोश में दो-चार पठनीय कहानी-कविता लिखकर “बौद्धिक दलाली” के क्षेत्र में उतर जाते हैं। उसके बाद आजीवन वे प्रकाशक द्वारा पीछे से धक्का देकर आगे पहुँचाए जाने को अभिशप्त होते हैं। उनकी किताब झटपट छप जाएगी। किसी स्वजातीय द्वारा अनूदित हो जाएगी। अन्य स्वजातीय द्वारा पुरस्कृत हो जाएगी। किसी अन्य स्वजातीय द्वारा लाइब्रेरी में खरीद ली जाएगी। स्वजातीय समारोहों में बतौर लेखक सुर्खरू होते रहेंगे मगर मरने के 50 साल बाद वो दलाल के रूप में भी याद नहीं किए जाएँगे, लेखक होना तो दूर की बात है।

आज ऐसे ही एक अन्य लेखक चित्त से उतर गये। उन्होंने एक दशक पहले बांग्लादेश पर एक मोटी सी किताब लिखी थी। वे इंग्लिश दाँ हैं मगर अपने प्रोफाइल में “जय बांग्ला” (वस्तुतः जय हिन्द के काउंटर में) लिखते हैं मगर आज वे यह कहते हुए पाए गये कि बांग्लादेश में जो हो रहा है वह उसका “आंतरिक मामला” है! दोगलापन और दलाली का ऐसा कॉकटेल! जाहिर है कि उनका वही हश्र होगा जैसा सीपीए-परस्त के कई बुद्धिजीवियों का सिंगुर-नन्दीग्राम के समय हुआ था। उनका बरसों से ओढ़ा हुआ केचुल उतर जाएगा।

लेखकों के अन्दर इस प्रजाति के वर्चस्व ने लेखकीय संज्ञा की स्वायत्तता खत्म कर दी है। इनसे अच्छे वे दरबारी लेखक होते थे जो जीवनयापन के लिए दरबारी साहित्य लिखते थे और साहित्य सेवा के लिए वह भी लिखते थे जो वे लेखक के तौर पर लिखना चाहते थे! अमीर खुसरो और गालिब का दरबारी साहित्य आज भुला दिया गया है क्योंकि वह जिस मकसद से लिखा गया था वह उसी समय पूरा हो गया था। मगर आज का कथित वामपंथी लेखक आइडियोलॉजी साहित्य के अलावा अपनी लेखकीय आत्मा के लिए भी कुछ लिख रहा है क्या?!

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