MIME AND MIMICRY EVENT REPORT

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An inter college Mime and Mimicry event was organized by Indraprastha College for Women on 14th November, 2024.
This event was conducted under the Theatre Category as a part of an initiative by the Culture Council and University of Delhi to promote and discover young talents.

Indraprastha College hosted several teams from the various colleges of Delhi University for both of the events.

The event was graced by the presence of our Guests of Honour Shri Anoop Lather, Chairperson, Steering Committee, Culture Council, University of Delhi and PRO, University of Delhi along with Prof. Ravinder Kumar, Dean, Culture Council, University of Delhi and Director, Centre for Independence & Partition Studies University of Delhi.
We were also joined by Prof. Anand Sonkar from University of Delhi as our eminent observer for the event.

This event was judged by our respected judges , Dr. Lakha Lehri, Dr. Rohit Tripathi and Dr. Ramesh Manchanda.

The Mime competition was held from 11 am onwards and had 11 participating teams from various prestigious colleges such as Hansraj College, Lady Shri Ram College for Women , Gargi college among others.


Each team was given 5 minutes to check their lights and sounds and 5 minutes to perform where they showcased a vibrant and diverse display of emotions through mime .

Zakir Hussain Delhi College was awarded the first prize while Bharati College bagged the second and Lakshmibai College received the third prize, respectively.

The Mimicry event started post the lunch break at 2 pm. This event witnessed enthusiastic solo participation from 13 participants who belonged to various colleges of University of Delhi.
The mimicry event witnessed a great display of voice and character variations by the participants.

Nikhil Bhaskar from Kirori Mal College secured the first position, Ananya Anil Kumar of Laxmibai College stood second and Tanish Sharma from Acharya Narendra Dev College received the third prize. The judges appreciated the will and presentation of the participants.

This was followed by the valedictory ceremony, where the judges and the guests of honor shared some words of wisdom with the teams and motivated them.
They also congratulated the host college for the successful conduction of the event .

This event was concluded by the prize distribution ceremony and later our respected Principal ma’am Prof. Poonam Kumria felicitated Prof. Ravinder Kumar Ji for his kind presence on the day .

रामजन्म भूमि आंदोलन के मार्गदर्शक

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक प्रचारक. श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन के दौरान जिनकी हुंकार से रामभक्तों के हृदय हर्षित हो जाते थे, वे श्री अशोक सिंहल संन्यासी भी थे और योद्धा भी, पर वे स्वयं को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक प्रचारक ही मानते थे।

उनका जन्म आश्विन कृष्ण पंचमी (27 सितम्बर, 1926) को आगरा (उ.प्र.) में हुआ। सात भाई और एक बहिन में वे चौथे स्थान पर थे। मूलतः यह परिवार ग्राम बिजौली (जिला अलीगढ़, उ.प्र.) का निवासी था। उनके पिता श्री महावीर जी शासकीय सेवा में उच्च पद पर थे।

घर में संन्यासी तथा विद्वानों के आने के कारण बचपन से ही उनमें हिन्दू धर्म के प्रति प्रेम जाग्रत हो गया। 1942 में प्रयाग में पढ़ते समय प्रो. राजेन्द्र सिंह (रज्जू भैया) ने उन्हें स्वयंसेवक बनाया। उन्होंने अशोक जी की मां विद्यावती जी को संघ की प्रार्थना सुनायी। इससे प्रभावित होकर उन्होंने अशोक जी को शाखा जाने की अनुमति दे दी।

1947 में देश विभाजन के समय कांग्रेसी नेता सत्ता पाने की खुशी मना रहे थे, पर देशभक्तों के मन इस पीड़ा से सुलग रहे थे कि ऐसे सत्तालोलुप नेताओं के हाथ में देश का भविष्य क्या होगा ? अशोक जी भी उन्हीं में से एक थे। इस माहौल को बदलने हेतु उन्होंने अपना जीवन संघ को समर्पित कर दिया।

बचपन से ही उनकी रुचि शास्त्रीय गायन में रही। संघ के सैकड़ों गीतों की लय उन्होंने बनायी। उन्होंने काशी हिन्दू वि.वि. से धातुविज्ञान में अभियन्ता की उपाधि ली थी। 1948 में संघ पर प्रतिबन्ध लगा, तो वे सत्याग्रह कर जेल गये। वहां से आकर उन्होंने अंतिम परीक्षा दी और 1950 में प्रचारक बन गये।

प्रचारक के नाते वे गोरखपुर, प्रयाग, सहारनपुर और फिर मुख्यतः कानपुर रहे। सरसंघचालक श्री गुरुजी से उनकी बहुत घनिष्ठता थी। कानपुर में उनका सम्पर्क वेदों के प्रकांड विद्वान श्री रामचन्द्र तिवारी से हुआ। अशोक जी अपने जीवन में इन दोनों का विशेष प्रभाव मानते थे। 1975 के आपातकाल के दौरान वे इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए संघर्ष में लोगों को जुटाते रहे। 1977 में वे दिल्ली प्रांत (वर्तमान दिल्ली व हरियाणा) के प्रान्त प्रचारक बने।

1981 में डा. कर्णसिंह के नेतृत्व में दिल्ली में ‘विराट हिन्दू सम्मेलन’ हुआ; पर उसके पीछे शक्ति अशोक जी और संघ की थी। उसके बाद उन्हें ‘विश्व हिन्दू परिषद’ की जिम्मेदारी दे दी गयी। एकात्मता रथ यात्रा, संस्कृति रक्षा निधि, रामजानकी रथयात्रा, रामशिला पूजन, रामज्योति आदि कार्यक्रमों से परिषद का नाम सर्वत्र फैल गया।
अब परिषद के काम में बजरंग दल, परावर्तन, गाय, गंगा, सेवा, संस्कृत, एकल विद्यालय आदि कई नये आयाम जोड़े गयेे। श्रीराम जन्मभूमि आन्दोलन ने तो देश की सामाजिक और राजनीतिक दिशा ही बदल दी। वे परिषद के 1982 से 86 तक संयुक्त महामंत्री, 1995 तक महामंत्री, 2005 तक कार्याध्यक्ष, 2011 तक अध्यक्ष और फिर संरक्षक रहे।

सन्तों को संगठित करना बहुत कठिन है, पर अशोक जी की विनम्रता से सभी पंथों के लाखों संत इस आंदोलन से जुड़े। इस दौरान कई बार उनके अयोध्या पहुंचने पर प्रतिबंध लगाये गये, पर वे हर बार प्रशासन को चकमा देकर वहां पहुंच जाते थे। उनकी संगठन और नेतृत्व क्षमता का ही परिणाम था कि युवकों ने छह दिसम्बर, 1992 को राष्ट्रीय कलंक के प्रतीक बाबरी ढांचे को गिरा दिया। कार्य विस्तार के लिए वे सभी प्रमुख देशों में गये। अगस्त-सितम्बर, 2015 में भी वे इंग्लैंड, हालैंड और अमरीका के दौरे पर गये थे।

अशोक जी काफी समय से फेफड़ों के संक्रमण से पीड़ित थे। इसी के चलते 17 नवम्बर, 2015 को उनका निधन हुआ। वे प्रतिदिन परिषद कार्यालय में लगने वाली शाखा में आते थे। अंतिम दिनों में भी उनकी स्मृति बहुत अच्छी थी। वे आशावादी दृष्टिकोण से सदा काम को आगे बढ़ाने की बात करते रहते थे। उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि तभी होगी, जब अयोध्या में विश्व भर के हिन्दुओं की आकांक्षा के अनुरूप श्री रामजन्मभूमि पर भव्य मंदिर का निर्माण कार्य सम्पन्न होगा।

इंद्रप्रस्थ महाविद्यालय में माइम और मिमिक्री की प्रतिभाओं का प्रदर्शन

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14 नवंबर, 2024 को इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय द्वारा एक अन्तर्महाविद्यालयी माइम और मिमिक्री कार्यक्रम का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम युवा प्रतिभाओं को बढ़ावा देने और ऐसी प्रतिभाओं को खोजने के लिए संस्कृति परिषद और दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा एक संयुक्त पहल के एक भाग के रूप में थिएटर श्रेणी के तहत आयोजित किया गया था। इंद्रप्रस्थ कॉलेज ने दोनों आयोजनों के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों की कई टीमों की मेजबानी की। इस कार्यक्रम में हमारे सम्मानित अतिथि श्री अनूप लाठर, अध्यक्ष, संचालन समिति, संस्कृति परिषद, दिल्ली विश्वविद्यालय और पीआरओ, दिल्ली विश्वविद्यालय के साथ प्रोफेसर रविंदर कुमार, डीन, संस्कृति परिषद, दिल्ली विश्वविद्यालय और निदेशक, स्वतंत्रता एवं विभाजन अध्ययन केंद्र, दिल्ली विश्वविद्यालय की उपस्थिति रही।

इस कार्यक्रम में हमारे प्रतिष्ठित पर्यवेक्षक के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आनंद सोनकर भी शामिल हुए।

इस कार्यक्रम का मूल्यांकन हमारे सम्मानित न्यायाधीशों, डॉ. लाखा लहरी, डॉ. रोहित त्रिपाठी और डॉ. रमेश मनचंदा द्वारा किया गया। माइम प्रतियोगिता सुबह 11 बजे से आयोजित की गई थी और इसमें हंसराज कॉलेज, लेडी श्री राम कॉलेज फॉर वुमेन, गार्गी कॉलेज जैसे विभिन्न प्रतिष्ठित कॉलेजों की 11 टीमों ने भाग लिया। प्रत्येक टीम को अपनी रोशनी और ध्वनि की जांच करने के लिए 5 मिनट और प्रदर्शन करने के लिए 5 मिनट का समय दिया गया, जहां उन्होंने माइम के माध्यम से भावनाओं का जीवंत और विविधतापूर्ण प्रदर्शन किया। जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज को प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जबकि भारती कॉलेज को दूसरा और लक्ष्मीबाई कॉलेज को तीसरा पुरस्कार मिला।

दोपहर 2 बजे भोजनावकाश के बाद मिमिक्री कार्यक्रम शुरू हुआ। इस कार्यक्रम में दिल्ली विश्वविद्यालय के विभिन्न कॉलेजों से जुड़े 13 प्रतिभागियों की उत्साहपूर्ण एकल भागीदारी देखी गई। मिमिक्री कार्यक्रम में प्रतिभागियों द्वारा आवाज और चरित्र विविधता का शानदार प्रदर्शन किया गया। किरोड़ीमल कॉलेज के निखिल भास्कर ने पहला, लक्ष्मीबाई कॉलेज के अनन्य अनिल कुमार ने दूसरा और आचार्य नरेंद्र देव कॉलेज के तनिष शर्मा ने तीसरा स्थान प्राप्त किया।

निर्णायकों ने प्रतिभागियों की उत्साह और प्रस्तुति की सराहना की। इसके बाद समापन समारोह हुआ, जहां न्यायाधीशों और सम्मानित अतिथियों ने टीमों के साथ कुछ ज्ञानवर्धक बातें साझा कीं और उन्हें प्रेरित किया। उन्होंने कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए मेजबान कॉलेज को भी बधाई दी।

यह कार्यक्रम पुरस्कार वितरण समारोह के साथ संपन्न हुआ और बाद में हमारी सम्मानित प्रिंसिपल महोदया प्रो. पूनम कुमरिया ने प्रो. रविंदर कुमार जी को उनकी गौरवमयी उपस्थिति के लिए सम्मानित किया।

भगतसिंह के प्रेरणास्रोत करतार सिंह सराबा

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गिरीश सक्सेना

अमर बलिदानी करतार सिंह सराबा को भगतसिंह अपना अग्रज, गुरु, साथी तथा प्रेरणास्रोत मानते थे। वे भगतसिंह से 11 वर्ष बड़े थे और उनसे 11 वर्ष पूर्व केवल 19 वर्ष की तरुणावस्था में ही भारतमाता के पावन चरणों में उन्होंने हंसते हुए अपना शीश अर्पित कर दिया।

करतार सिंह का जन्म 1896 ई. में लुधियाना जिले के सराबा गाँव में हुआ था। इनके पिता श्री मंगल सिंह का देहान्त जल्दी ही हो गया था। प्रारम्भिक शिक्षा खालसा स्कूल, लुधियाना में पूरी कर चाचा जी की अनुमति से केवल 14 वर्ष की अवस्था में पढ़ाई के लिए सान फ्रान्सिस्को चले गये।

उन दिनों वहाँ भारतीयों में देशप्रेम की आग सुलग रही थी। करतार सिंह भी उनमें शामिल हो गये। उन्होंने थोड़े समय में ही यह देख लिया कि गोरे लोग भारतीयों से घृणा करते हैं और उन्हें कुली समझते हैं। करतार सिंह का मत था कि इसे बदलने का एकमात्र मार्ग यही है कि भारत स्वतन्त्र हो। इसके लिए उन्होंने स्वयं की आहुति देने का निश्चय कर लिया।

शीघ्र ही उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हो गया। फिर तो वे ही करतार के मार्गदर्शक बन गये। ‘गदर पार्टी’ की स्थापना के बाद करतार उसके प्रमुख कार्यकर्ता बने। पोर्टलैण्ड में हुए उसके सम्मेलन में भी वे शामिल हुए। करतार के प्रयास से वहाँ ‘युगान्तर आश्रम’ की स्थापना हुई और पार्टी का साप्ताहिक मुखपत्र ‘गदर’ कई भाषाओं में छपने लगा। उन्होंने घर से पढ़ाई के लिए मिले 200 पौंड भी लाला जी को समाचार पत्र के लिए दे दिये। इस पत्र में 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की कुछ प्रेरक सामग्री अवश्य होती थी।

प्रथम विश्व युद्ध छिड़ने पर वे भारत आये। उनका विचार था कि यह अंग्रेजों को बाहर निकालने का सर्वश्रेष्ठ समय है। उन्होंने रासबिहारी बोस तथा शचीन्द्रनाथ सान्याल जैसे क्रान्तिकारियों से भी भेंट की। 21 फरवरी, 1915 को पूरे देश में एक साथ क्रान्ति की योजना बनी।

करतार सिंह पर पंजाब की जिम्मेदारी थी। उन्होंने कई धार्मिक स्थानों की यात्रा कर युवकों तथा सेना से सम्पर्क किया। रेल तथा डाक व्यवस्था को भंग करने की योजना बन गयी। इन सबका केन्द्र लाहौर था। वहाँ छावनी में शस्त्रागार के चौकीदार से भी बात हो गयी। धन के लिए कई डाके भी डाले गये।

पर दुर्भाग्य ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। कृपाल सिंह नामक एक पुलिस वाले ने मुखबिरी की और धरपकड़ होने लगी। करतार अपने कुछ साथियों के साथ भारत की उत्तर पश्चिम सीमा की ओर चले गये; पर उन्हें सरगोधा के पास पकड़ लिया गया और लाहौर के केन्द्रीय कारागार में बन्द कर दिया। इनके साथ 60 अन्य लोगों पर पहला लाहौर षड्यन्त्र केस चलाया गया।

करतार ने अपने साथियों को बचाने के लिए सारी जिम्मेदारी स्वयं पर ले ली। न्यायाधीश ने इन्हें अपना बयान बदलने को कहा; पर इस बार करतार ने और कठोर बयान दिया। अतः उन्हें फाँसी की सजा सुना दी गयी। एक बार उन्होंने जेल से भागने का भी प्रयास किया; पर वह योजना विफल हो गयी। करतार का उत्साह इतना था कि फाँसी से पूर्व इनका वजन बढ़ गया।

16 नवम्बर, 1915 को करतार सिंह सराबा और उनके छह साथियों ने लाहौर केन्द्रीय जेल में फाँसी का फन्दा चूम लिया। इनके नाम थे – विष्णु गणेश पिंगले, हरनाम सिंह, बख्शीश सिंह, जगतसिंह, सुरेन सिंह एवं सुरेन्द्र सिंह।

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