भारत आध्यात्म एवं युवाओं के बल पर प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में अतुलनीय वृद्धि कर सकता है

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जापान की अर्थव्यवस्था को पीछे छोड़ते हुए भारत आज विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और संभवत आगामी लगभग दो वर्षों के अंदर जर्मनी की अर्थव्यवस्था से आगे निकलकर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा। विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की अपनी अपनी विशेषताएं हैं, जिसके आधार पर यह अर्थव्यवस्थाएं विश्व में उच्च स्थान पर पहुंची हैं एवं इस स्थान पर बनी हुई हैं। प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में आज भी कई विकसित देश भारत से आगे हैं। इन समस्त देशों के बीच चूंकि भारत की आबादी सबसे अधिक अर्थात 140 करोड़ नागरिकों से अधिक है, इसलिए भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बहुत कम है। अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 30.51 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति ब्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 89,110 अमेरिकी डॉलर हैं। इसी प्रकार, चीन के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 19.23 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 13,690 अमेरिकी डॉलर है और जर्मनी के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.74 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 55,910 अमेरिकी डॉलर है। यह तीनों देश सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में आज भारत से आगे हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.19 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है तथा प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद केवल 2,880 अमेरिकी डॉलर है। भारत के पीछे आने वाले देशों में हालांकि सकल घरेलू उत्पाद का आकार कम जरूर है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में यह देश भारत से बहुत आगे हैं। जैसे जापान के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 4.18 लाख करोड़ है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 33,960 अमेरिकी डॉलर है। ब्रिटेन के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.84 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 54,950 अमेरिकी डॉलर है। फ्रान्स के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 3.21 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 46,390 अमेरिकी डॉलर है। इटली के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.42 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 41,090 अमेरिकी डॉलर है। कनाडा के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.23 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर है और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 53,560 अमेरिकी डॉलर है। ब्राजील के सकल घरेलू उत्पाद का आकार 2.13 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर और प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 9,960 अमेरिकी डॉलर है।

सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में विश्व की सबसे बड़ी 10 अर्थव्यवस्थाओं में भारत शामिल होकर चौथे स्थान पहुंच जरूर गया है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में भारत इन सभी अर्थव्यवस्थाओं से अभी भी बहुत पीछे है। इस सबके पीछे सबसे बड़े कारणों में शामिल है भारत द्वारा वर्ष 1947 में राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्ति पश्चात, आर्थिक विकास की दौड़ में बहुत अधिक देर के बाद शामिल होना। भारत में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों की शुरुआत वर्ष 1991 में प्रारम्भ जरूर हुई परंतु इसमें इस क्षेत्र में तेजी से कार्य वर्ष 2014 के बाद ही प्रारम्भ हो सका है। इसके बाद, पिछले 11 वर्षों में परिणाम हमारे सामने हैं और भारत विश्व की 11वीं अर्थव्यवस्था से छलांग लगते हुए आज 4थी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। दूसरे, इन देशों की तुलना में भारत की जनसंख्या का बहुत अधिक होना, जिसके चलते सकल घरेलू उत्पाद का आकार तो लगातार बढ़ रहा है परंतु प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अभी भी अत्यधिक दबाव में है। अमेरिका में तो आर्थिक क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम 1940 में ही प्रारम्भ हो गए थे एवं चीन में वर्ष 1960 से प्रारम्भ हुए। अतः भारत इस मामले में विश्व के विकसित देशों से बहुत अधिक पिछड़ गया है। परंतु, अब भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में तेजी से कमी हो रही है तथा साथ ही अतिधनाडय एवं मध्यमवर्गीय परिवारों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है, जिससे अब उम्मीद की जानी चाहिए कि आगे आने वाली समय में भारत में भी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि होगी।

विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, अमेरिका में सेवा क्षेत्र इसकी सबसे बढ़ी ताकत है। अमेरिका में केवल 2 प्रतिशत आबादी ही कृषि क्षेत्र पर निर्भर है और अमेरिका की अधिकतम आबादी उच्च तकनीकी का उपयोग करती है जिसके कारण अमेरिका में उत्पादकता अपने उच्चत्तम स्तर पर है। पेट्रोलीयम पदार्थों एवं रक्षा उत्पादों के निर्यात के मामले में अमेरिका आज पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है। वर्ष 2024 में अमेरिका ने 2.08 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर का सामान अन्य देशों को निर्यात किया है, जो चीन के बाद विश्व के दूसरे स्थान पर है। तकनीकी वर्चस्व, बौद्धिक सम्पदा एवं प्रौद्योगिकी नवाचार ने अमेरिका को विकास के मामले में बहुत आगे पहुंचा दिया है। टेक्निकल नवाचार से जुड़ी विश्व की पांच शीर्ष कम्पनियों में से चार, यथा एप्पल, एनवीडिया, माक्रोसोफ्ट एवं अल्फाबेट, अमेरिका की कम्पनियां हैं। इन कम्पनियों का संयुक्त बाजार मूल्य 12 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से भी अधिक है, जो विश्व के कई देशों के सकल घरेलू उत्पाद से बहुत अधिक है। अतः अमेरिका के नागरिकों ने बहुत तेजी से धन सम्पदा का संग्रहण किया है इसी के चलते प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद अमेरिका में बहुत अधिक है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वर्ष 1944 में अमेरिका के ब्रेटन वुड्ज नामक स्थान पर हुई एतिहासिक बैठक में विश्व के 44 देशों ने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के नए ढांचे पर सहमति जताते हुए अपने देश की मुद्रा को अमेरिकी डॉलर से जोड़ दिया था। इसके बाद से वैश्विक अर्थव्यवस्था में अमेरिकी डॉलर का दबदबा बना हुआ है। आज विश्व का लगभग 80 प्रतिशत अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग लेन देन अमेरिकी डॉलर में होता है।

अमेरिका के बाद विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन को पूरे विश्व का विनिर्माण केंद्र कहा जाता है क्योंकि आज पूरे विश्व के औद्योगिक उत्पादन का 31 प्रतिशत हिस्सा चीन में निर्मित होता है। चीन में पूरे विश्व की लगभग समस्त कम्पनियों ने अपनी विनिर्माण इकाईयां स्थापित की हुई हैं। चीन के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण इकाईयों का योगदान 27 प्रतिशत से अधिक हैं। पूरे विश्व में आज उत्पादों के निर्यात के मामले में प्रथम स्थान पर है। विभिन्न उत्पादों का निर्यात चीन की आर्थिक शक्ति का प्रमुख आधार है। सस्ती श्रम लागत के चलते चीन में उत्पादित वस्तुओं की कुल लागत तुलनात्मक रूप से बहुत कम होती है। वर्ष 2024 में चीन का कुल निर्यात 3.57 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का रहा है।

विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अर्थात जर्मनी ने पिछले एक वर्ष में 25,000 पेटेंट अर्जित किए हैं। जर्मनी को, ऑटोमोबाइल उद्योग ने, पूरे विश्व में एक नई पहचान दी है। चार पहिया वाहनों के उत्पादन एवं निर्यात के मामले में जर्मनी पूरे विश्व में प्रथम स्थान पर है। जर्मनी में निर्मित चार पहिया वाहनों का 70 प्रतिशत हिस्सा निर्यात होता है। यूरोपीय यूनियन के देशों की सड़कों पर दौड़ने वाली हर तीसरी कार जर्मनी में निर्मित होती है। जर्मनी विश्व का तीसरा सबसे बड़ा निर्यातक देश है, जिसने 2024 में 1.66 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य के बराबर राशि के उत्पाद एवं सेवाओं का निर्यात किया था। मुख्य निर्यात वस्तुओं में मोटर वाहनों के अलावा मशीनरी, रसायन और इलेक्ट्रिक उत्पाद शामिल हैं।

आज भारत सकल घरेलू उत्पाद के आकार के मामले में विश्व में चौथे पर पहुंच गया है परंतु भारत को प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में जबरदस्त सुधार करने की आवश्यकता है। भारत पूरे विश्व में आध्यात्म के मामले में सबसे आगे है अतः भारत को धार्मिक पर्यटन को सबसे तेज गति से आगे बढ़ाते हुए युवाओं के लिए रोजगार के नए अवसर निर्मित करने चाहिए जिससे नागरिकों की आय में वृद्धि करना आसान हो। दूसरे, भारत में 80 करोड़ आबादी का युवा (35 वर्ष से कम आयु) होना भी विकास के इंजिन के रूप में कार्य कर सकता है। भारत की विशाल आबादी ने भारत को विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में अपना योगदान दिया है। भारत की अर्थव्यवस्था में विविधता झलकती है और यह केवल कुछ क्षेत्रों पर निर्भर नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का योगदान 16 प्रतिशत है तथा रोजगार के अधिकतम अवसर भी कृषि क्षेत्र से ही निकलते हैं, जिसके चलते प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद विपरीत रूप से प्रभावित होता है। सेवा क्षेत्र का योगदान 60 प्रतिशत से अधिक है परंतु, विनिर्माण क्षेत्र का योगदान बढ़ाने की आवश्यकता है। वाणिज्य मंत्रालय द्वारा प्रदान की गई जानकारी के अनुसार वित्तीय वर्ष 2024-25 में भारत में 81 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हुआ है अर्थात विदेशी निवेशक भारत में अपनी विनिर्माण इकाईयों की स्थापना करते हुए दिखाई दे रहे हैं। आज विदेशी निवेशकों का भारतीय अर्थव्यवस्था में विश्वास बढ़ा है। आज भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी 694 अरब अमेरिकी डॉलर की आंकड़े को पार कर गया है। आगे आने वाले समय में अब विश्वास किया जा सकता है कि भारत में भी प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में तेज गति से वृद्धि होती हुई दिखाई दी।

मीसा की कलुष स्मृतियां

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डॉ विकास दवे
(निदेशक, साहित्य अकादमी, म प्र)

भोपाल: जून का दिवस प्रतिवर्ष हमें स्मरण कराता है भारतीय राजनीतिक इतिहास के एक ऐसे काले अध्याय की जब पूरे भारत में संविधान को ताक में रखकर इस देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपने अहंकार की तुष्टि के लिए आपातकाल लगा दिया था। जी हां हम चर्चा कर रहे हैं आपातकाल यानी इमरजेंसी की, इमरजेंसी अर्थात मीसा की। जी हां इस मीसा को मेंटेनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट अर्थात आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के नाम से पुकारा गया।

25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक पूरे 21 माह तक पूरा भारत एक महिला की जिद और अहंकार की भेंट चढ़ कर रह गया था। यह काल पूरे भारतीय इतिहास में इसलिए दुर्भाग्यशाली माना जाता है क्योंकि इस युग में आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत संपूर्ण भारत में 34986 राष्ट्रभक्त कार्यकर्ताओं को नजरबंद किया गया था। मध्य प्रदेश में ही नजरबंद किए गए लोगों की संख्या 5620 थी। इतना ही नहीं तो इस कानून के अंतर्गत देशद्रोह का आरोप लगाकर पूरे भारत में 75,818 और मध्य प्रदेश में 2,521 राष्ट्रभक्त नागरिकों को जेल में बंद किया गया था।
मेरे साथ भी इस विषयक अनेक स्मृतियां हैं जो विचलित कारती हैं परंतु मुझे उन घटनाओं की गंभीरता तब इसलिए अधिक पता नहीं चली क्योंकि वह मेरा बचपन का समय था। हालांकि तब की कुछ कठोर स्मृतियां मुझे आज तक सिहरा देती हैं किंतु इस समय मैं बात कर रहा हूं राष्ट्रीय सुरक्षा कानून अर्थात देशद्रोह में बंदी बनाए गए व्यक्तियों की। विगत दिनों मध्यप्रदेश के नीमच में एक विधि महाविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में सहभागिता के लिए मेरा जाना हुआ। स्वाभाविक रूप से अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में अनेक पूर्व न्यायाधीश वरिष्ठ अधिवक्ता और विधि के विशेषज्ञ सम्मिलित थे। मुख्य अतिथि के रुप में उपस्थित नीमच के एक अत्यंत श्रद्धेय सज्जन जब उद्बोधन देने के लिए खड़े हुए तो उन्होंने अपनी पुरानी स्मृतियों को खंगालते हुए माइक पर जब यह कहा कि मुझे आपातकाल के समय टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर भारत सरकार की टेलीफोन लाइनें काटने के आरोप में जेल में निरुद्ध किया गया था तो उनके इस कथन को सुनकर वर्ष 2020 में युवा हो गई पीढ़ी को घोर आश्चर्य हुआ। बाद में अनेक युवाओं ने इतने वरिष्ठ व्यक्ति के इतने घिनौने आरोप में बंदी होने संबंधी अनेक जिज्ञासाएं प्रकट की और उन्होंने सब का समाधान भी किया।
वास्तव में आज की पीढ़ी इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकती कि उन 21 महीनों में पूरे भारत में कैसी खामोशी, श्मशान जैसा सन्नाटा, अत्यधिक निराशा और अज्ञात भय में जी रहे राष्ट्र भक्तों को किस मानसिक प्रताड़ना से गुजरना पड़ा था। यह तो देश का सौभाग्य था कि भारत में जयप्रकाश नारायण जैसा एक बुजुर्ग राजनेता था जिसने युवाओं और छात्रों को जगा कर तत्कालीन सरकार के खिलाफ समग्र क्रांति का नारा देकर खड़ा कर दिया था। उस युग के छात्र आंदोलन की परिणीति के रूप में इस देश को अनेक युवा राजनीतिज्ञ प्राप्त हुए। इन नवोदित छात्र नेताओं में केंद्र की राजनीति के शिखर पर पहुंचे चंद्रशेखर जी और लालू प्रसाद यादव जैसे राजनेताओं से लेकर वर्तमान में मध्यप्रदेश के यशस्वी मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान जैसे युवा तुर्क भी सम्मिलित रहे।

उसी आंदोलन से राजनीतिक क्षेत्र में प्रकट हुए और ध्रुव नक्षत्र बनें श्री अटल बिहारी वाजपेई, श्री लालकृष्ण आडवाणी और समकालीन अनेक वरिष्ठ राजनीतिज्ञ बाद में राष्ट्रीय राजनीति की धुरी बन कर उभरे थे। आपातकाल को हटाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों का त्याग पूर्ण सहभाग इस पूरे आंदोलन की एक अनकही कहानी है। उस युग में प्रत्येक संघ का कार्यकर्ता प्राण अर्पित कर देने के भाव से इंदिरा गांधी के द्वारा लादे गए इस काले कानून के विरुद्ध डट कर खड़ा हो गया था। केंद्र में जहां जॉर्ज फर्नांडिस जैसे लोकतंत्र सेनानी को अंग्रेजी हुकूमत की क्रूरता की याद दिलाते हुए लोहे की जंजीरों से जकड़ा गया, रेल के इंजन से बांधा गया ठीक उसी तर्ज पर पूरे भारत में इस आंदोलन में सहभाग करने वाले मीसा बंदियों के साथ जो क्रूरता पूर्ण व्यवहार हुए उनके विषय में चर्चा करते समय रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

आपातकाल की पूर्व पीठिका को अगर हम देखें तो ध्यान में आता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया गया था। तत्कालीन राजनेता स्वर्गीय राजनारायण ने यह याचिका लगाई थी और न्यायालय ने यह माना कि इंदिरा गांधी ने भ्रष्ट आचरण करके चुनाव जीता है। न्यायालय ने सत्ता के दुरुपयोग के पुख्ता प्रमाण होने पर इंदिरा गांधी से प्रधानमंत्री पद छोड़ने का आदेश दे दिया था किंतु सत्ता के दुरुपयोग के अभ्यस्त नेतृत्व ने राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आपातकाल लगवा दिया। 25 और 26 जून की उस मध्य रात्रि में गिरफ्तारियों का एक ऐसा भयावह बवंडर चला कि पूरा भारत एक खुली जेल में बदल गया। देशद्रोह के मुक़दमों की बाढ़ सी आ गई। समाचार सेंसर होने लगे। अखबारों पर प्रतिबंध लगने लगा। संवाददाता से लेकर संपादक तक और अखबारों के मालिकों तक हर कोई तत्कालीन प्रधानमंत्री के उस क्रूर कानून का शिकार हुए थे। रेवा प्रकाशन लिमिटेड के ‘स्वदेश’ जैसे समाचार पत्र तो इस कुचक्र के ऐसे शिकार हुए कि भृत्य से लेकर संपादकों तक और प्रबंधन मंडल के एक-एक सदस्य तक जेल में डाल दिए गए। प्रेस पर ताले पड़ गए। श्रद्धेय माणिक चंद जी वाजपेई के मुख से हमने अनेक बार उस युग के भयावह प्रसंग सुने थे। इतना ही नहीं तो पूज्य मामी जी के देहावसान के पूर्व भी मामा जी घर पर नहीं आ पाए थे और अपनी अर्धांगिनी से उनका जीवन भर का विछोह इस आंदोलन के प्रसाद स्वरूप ही उन्हें प्राप्त हुआ।

कांग्रेस कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर पूरे भारत की पुलिस एक प्रकार से कांग्रेस कार्यकर्ताओं का ही दायित्व निभा रही थी। विधि के सारे नियम ताक पर रखकर इसी लूट, खसोट, हिंसा, हत्या, क्रूरता, बर्बरता, दमन, आतंक और भय का ऐसा नंगा नाच चला कि उसे देखकर मुगलों की यातनाएं शर्मसार हो गईं, अंग्रेजों के कारागार भी पानी मांग गए। कोई सोच भी नहीं सकता था कि भारत की एक महिला प्रधानमंत्री देशभक्त नागरिकों के साथ इतना क्रूर आचरण कर सकती हैं। केवल जेल में बंद कर देने मात्र से आज की पीढ़ी अंदाजा नहीं लगा सकती कि वह जेल कितनी भयावह रही होगी। आज राजनीतिक कैदियों को जेलों में टीवी, अखबार, सुस्वादु भोजन, बढ़िया आरामदायक बिस्तर और मुंह मांगी सुविधाएं प्राप्त होती है किंतु आपातकाल में इस प्रकार की सुविधाएं इन राजनीतिक कैदियों को प्राप्त नहीं हुई थी बल्कि हत्या, लूट जैसे जघन्य अपराधों में बंद कैदियों से भी बदतर यातनाएं इन्हें दी गई थी।

उफ्फ!! वो अव्यक्त वेदना

उस युग में आपातकाल के मीसा बंदियों के मुख से सुने हुए अनेक प्रसंग आज भी मेरे शरीर में झुरझुरी पैदा कर देते हैं। जेल की नारकीय जिंदगी को संक्षेप में समझाएं तो इन कैदियों को मोटे मोटे सरियों वाली छोटी-छोटी अंधेरी कोठरी में बंद किया जाता था जिसे 12 ताड़ी गेट की कैद कहा जाता था। छोटी सी दुर्गंध मारती खोलियों में प्रकाश की कोई व्यवस्था नहीं होती थी। रात्रि में यदि लघुशंका या शौच के लिए जाना हो तो उसी बैरक में एक खड्डा नुमा खुले स्थान पर निवृत होना होता था। जो दो कंबल बिछाने और औढ़ने के लिए दिए जाते थे वे इतने गंदे होते थे कि उन्हें बिछाना और औढना कांटो पर सोने से कम नहीं होता था। सैकड़ों खटमल उन निरपराधों का खून रात भर चूसते रहते थे। यदि रात्रि में स्वास्थ्य खराब हो जाए तो उपचार की कोई व्यवस्था नहीं। प्रातः काल उठकर जिस सार्वजनिक शौचालय में शौच हेतु जाना होता था उनमें दरवाजे केवल आधी ऊंचाई के होते थे। बाहर हौदी से जिस डिब्बे को पानी भरकर ले जाना होता था उसमें जानबूझकर छेद कर दिए जाते थे इस कारण शौचालय में पानी समाप्त होने से पहले ही बाहर निकलना अनिवार्य हो जाया करता था। विद्यार्थियों को पढ़ने की कोई व्यवस्था नहीं दी गयी थी इसलिए अत्यंत युवावस्था के विद्यार्थी अपनी पढ़ाई से वंचित हो गए और उनकी इस पढ़ाई का छूटना जीवन भर के लिए अभिशाप बन गया। इंदौर के अक्षय जी सौढाणी और कांतिलाल जी जैन ऐसे ही विद्यार्थी थे जिनकी मुछ की रेख भी नहीं उभरी थी और उन्हें कारागार में भेज दिया गया था।पत्र लिखकर बाहर भेजना सेंसर का शिकार होता था। पहले जेलर हर पत्र को पढ़ता फिर ही वह डाक में जाता था।समाचार पत्र के दर्शन तो लगभग दुर्लभ से ही थे। इन राजनीतिक बंदियों के सामने ही जब रोटी बनाने के लिए आटा निकाला जाता था तो उसमें बड़ी संख्या में धनेरिये तैरते दिखाई देते थे और जघन्य अपराधों के कैदी इनकी आंखों के सामने ही उस आटे में पानी डालकर रोटियां बनाना शुरु कर देते थे। कच्ची पक्की रोटियों को सेंक कर एक लगभग दुर्गंध मारते सड़े हुए कंबल पर फेंका जाता था जिससे उस कंबल के बाल रोटियों पर चिपक कर थालियों तक की यात्रा संपन्न कर लेते थे। लेकिन इन सब यातनाओं को हम जेल की बड़ी यातनाएं नहीं समझें क्योंकि जघन्य घटनाओं का विवरण इन छोटी छोटी यातनाओं की तुलना में बहुत अधिक दुखद है।

जेल से छूटने के बाद जघन्य यातनाओं के प्रभाव की यदि हम चर्चा करें तो केवल एक उदाहरण पर्याप्त होगा। उत्तर प्रदेश के एक कार्यकर्ता को दोनों पैर मोड़कर और दोनों हाथ जोड़कर कोहनी और घुटनों के बीच से एक मोटा डंडा निकाल कर इस ढंग से फंसा दिया गया था कि यदि वह लुढ़क भी जाएं तो पुनः बैठ नहीं सकते थे और इस अवस्था में उनको इतने लंबे समय तक रखा गया कि जेल से छूटने के बाद परिवार को पलंग पर लेटा कर उनके पैरों में भारी भारी पत्थर बांधकर लटकाना पढ़ते थे। जैसे ही वे पत्थर उनके पैरों से खोल दिए जाते थे उनके पैर घड़ी होकर घुटने उनकी ठोड़ी से लग जाते थे। यह तो केवल एक सामान्य सा उदाहरण है किंतु इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकरण ऐसे थे जिनका विवरण देते समय आत्मा कांप जाती है। राजनीतिक बंदियों को बर्फ पर रात रात भर लेटा कर रखना, उनकी हाथों की हथेलियों पर कुर्सी के पाए रखकर भारी वजन वाले 2-3 पुलिस कर्मचारियों को बैठाना, गुदाद्वार में मोटे डंडे डाल देना और रक्त स्राव होने पर उसमें नमक और मिर्ची लगा देना, 36 घंटे इन कार्यकर्ताओं को प्यासा रखना और पानी मांगने पर उनके मुंह में थानेदार द्वारा मूत्र विसर्जन कर देना इस तरह के घटनाक्रम 10-20 और सैकड़ों की संख्या में नहीं थे अपितु हजारों प्रकरण थे। अनेक प्रसंग तो कार्यकर्ता गण ठहाकों के साथ सुनाते थे किंतु उन से पैदा हुए कष्ट की कल्पना हम आज नहीं कर सकते। किसी कार्यकर्ता की पत्नी इस भयावह हादसे के कारण उन्हें छोड़कर चली गई। परिवार के परिजन बीमार होकर मृत्यु को प्राप्त हो गए। कहीं कॉंग्रेस के लोगों ने संघ और राष्ट्रभक्त कार्यकर्ताओं को सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित करते हुए उनके बाल मुंडकर गंजा कर दिया। कहीं संघ के स्वयंसेवकों के नाम पते पूछने के लिए परिवार के लोगों के हाथ पैर तोड़ दिए गए तो किसी की दाढ़ी मूछें मुंड दी गई।

मध्य प्रदेश के लोकतंत्र सेनानियों में आदरणीय मेघराज जी जैन, डॉ लक्ष्मी नारायण जी पांडे, दादा बेलापुरकर, श्री कन्हैया लाल जी मोर्य, श्री कृष्ण कुमार जी अस्थाना, श्री हिम्मत कोठारी सहित अनेक ऐसे नाम हैं जिनको एक साथ इस आलेख में उल्लेख करना भी संभव नहीं। इतना ही नहीं तो अनेक पिता-पुत्र एक साथ आपातकाल में जेल में बंद रहे ऐसे जोड़े भी मध्यप्रदेश में कई थे। स्वर्गीय अंबालाल जी जोशी और उनके पुत्र डॉ रघुनंदन जोशी हों या रतलाम के डॉक्टर मोघे जी और उनके पुत्र विनय मोघे जी हों, दत्ता जी मांदले और उनके पुत्र अनिल मांदले सहित ऐसे अनेक नाम इस समय स्मरण आते हैं।

समाज का प्रतिरोध प्रत्येक स्तर पर इस ढंग से चल रहा था कि आपातकाल का विरोध करने के लिए लोग किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार थे। ग्वालियर का एक प्रसंग तो इस हिम्मत को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। हम सब जानते हैं कि ग्वालियर का तानसेन समारोह संगीत का विश्व प्रसिद्ध कार्यक्रम होता है। आपातकाल के दौर में तत्कालीन नेतृत्व के विरुद्ध अपना बुलंद स्वर प्रकट करने के लिए चलते तानसेन समारोह के मंच पर ग्वालियर के एक युवा कार्यकर्ता श्री सुभाष गोयल मंच पर चढ़े और आपातकाल मुर्दाबाद, इंदिरा गांधी मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे। पुलिस ने उन्हें पकड़कर इतना अधिक पीटा और मारा कि आखिरकार उस पिटाई के कारण उस नौजवान की मृत्यु हो गई। वास्तव में इस प्रकार की यातनाओं के शिकार बने कार्यकर्ताओं के परिवारों का संबल बन रहे थे कुशाभाऊ ठाकरे और हरीभाऊ जी जोशी जैसे अनेक कार्यकर्ता। वे स्वयंसेवकों का उत्साहवर्धन करने के लिए सदैव उनके साथ खड़े रहते थे।

उस संघर्ष ने अपने कार्यकर्ताओं का साहित्यबोध भी जागृत कर दिया था। मुझे स्मरण आता है स्वर्गीय हरिभाऊ जोशी ने उस युग में एक कविता लिखी थी-

मैं समर्पण के लिए उत्सुक
यहां पर मांग लो कितना लहू तुम मांगते हो
आज सत्ता के नशे में चूर हो
तुम बुद्धि से हर तरफ से ही दूर हो तुम
न्याय की तुमने उड़ाई धज्जियां
दंभ से अन्याय से भरपूर हो तुम
यह न समझो सत्य आवाज मेरी
झूठ के आक्रोश में तुम दाब दोगे
और कारागार में बंदी बनाकर
क्रांति के बढ़ते चरण तुम बांध दोगे
मत समझना यह समर्पण हार है
तोल लूं कितना करारा वार है
विश्व देखेगा समय के पृष्ठ पर
स्वाभिमानी रक्त की यह धार है
भूलना मत यह नशा महंगा पड़ेगा
दंभ का मस्तक यहां गहरा पड़ेगा

मुझे इस बात का आश्चर्य होता है कि यह जो कार्यकर्ता उस युग में इतने ओजयुक्त गीत और कविताएं लिख रहे थे उनका साहित्य से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था किंतु फिर भी उनकी कविताओं के स्वर मुझे स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों के स्वर से मिलते जुलते प्रतीत होते हैं । वास्तव में इसी घनीभूत पीड़ा को लोकतंत्र सेनानियों ने अपनी पंक्तियों में प्रकट किया था। यह गीत और कविताएं स्वयंसेवकों को अपना सर्वस्व समर्पण कर देने की प्रेरणा दे रहे थे। यही कारण है कि आपातकाल के दौरान अथवा वहां की पीड़ाओं के कारण से अस्वस्थ होकर जेल से बाहर आने के बाद भी हुतात्मा हुए कार्यकर्ताओं की एक बड़ी मालिका हमें दिखाई देती है। केवल मध्य प्रदेश की ही चर्चा करें तो श्री शालिग्राम आदिवासी खरगोन, श्री प्रभाकर राजे कटंगी, श्री परशुराम रजक जबलपुर, श्री सोमनाथ खेड़ा सिवनी, श्री हशमत वारसी भोपाल, श्री भैरव भारती नागदा, श्री घीसा लाल गोयल नलखेड़ा, श्री अमर सिंह जी भूतिया देवास, श्री ठाकुर लाल जेठवानी उज्जैन जैसे अनेक सेनानियों की स्मृतियां आज भी आंखें भिगो देती हैं। इन देशभक्तों के बलिदान की संख्या पूरे भारत में बहुत बड़ी मात्रा में रही। उत्तर प्रदेश में 26, मध्य प्रदेश में 16, बिहार में 15, महाराष्ट्र में 14, पश्चिम बंगाल में 11, कर्नाटक में 8, केरल में 6, पंजाब में 6, दिल्ली में 4, असम में 2, गुजरात में 2, हिमाचल में 2, जम्मू कश्मीर में 2, राजस्थान में 2, चंडीगढ़ में 1, और तमिलनाडु में 1 कार्यकर्ता के हुतात्मा होने के समाचार उन दिनों प्राप्त हुए थे। दुर्भाग्य यह कि इतने बड़े प्रत्यक्ष नरसंहार की दोषी को कभी इसका दंड नहीं मिला।

आज की पीढ़ी के लोगों को यह लग सकता है कि कारावास से बाहर आने के बाद आखिरकार इन कार्यकर्ताओं की मृत्यु क्यों हुई होगी? इस प्रश्न के समाधान के लिए हम सबको आपातकाल का काला इतिहास विस्तार से पढ़ना चाहिए। हम आज इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि उस काल की सर्वमान्य राजनीतिक महिला नेत्री परम आदरणीया राजमाता सिंधिया जी को भी सीलन और दुर्गंध से युक्त एक ऐसे बैरक में रखा गया था जिसमें पागल, दुर्दांत अपराधी और वेश्याओं को रखा गया था किंतु राजमाता सिंधिया जैसी मातृशक्ति ने भी उस युग में इस संघर्ष को अत्यंत निर्लिप्त भाव से स्वीकार किया था। राजमाता गायत्री देवी ,श्रीमती मृणाल गोरे, श्रीमती मालती देवी चौधरी जैसी अनेक बहने उस काल में जिस प्रकार के कठोर कारागार को झेल कर आई थीं वह अत्यंत भयावह था। पुरुष कार्यकर्ताओं के साथ हुए अत्यंत विभत्स घटनाक्रमों ने उन्हें मौत की ओर धकेला था। किसी कार्यकर्ता को सीधे बिजली के झटके दिए गए तो किसी कार्यकर्ता के मूत्र विसर्जन स्थान पर 10- 10 किलो के पत्थर लटका दिए गए। भयावह पीटाई के दृश्यों का विवरण बताता है कि एक साथ 15 -15/ 20 – 20 संतरी कार्यकर्ताओं को लगातार बेंतों और लाठियों से पीटा करते थे। खून से लथपथ हो जाने और बेहोश हो जाने का भी उन पर कोई असर नहीं होता था। किसी के दांत टूटते थे तो किसी का सिर फट जाता था। 16- 16 और 18-18 टांके आना सामान्य बात हुआ करती थी।

आपातकाल को हटाने के लिए जेल में बंदी बने स्वयंसेवकों के अतिरिक्त बाहर भूमिगत रहकर उस संघर्ष को परवान चढ़ाने वाले कार्यकर्ताओं का योगदान भी अपने आप में अद्भुत रहा। सरकार के विरुद्ध भूमिगत रहकर संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं में रघुनंदन जी शर्मा और बालमुकुंद जी झा जैसे अनेक कार्यकर्ताओं के स्मृति प्रसंग आज भी मुझे रोमांच से भर देते हैं। मैं रतलाम जिले के एक छोटे से स्थान आलोट का निवासी हूं। मुझे आज भी स्मरण आता है कि उस समय आलोट के श्री शांतिलाल जी तलेरा, श्री पंचम लाल जी जैन, श्री शांतिलाल जी डूंगरवाल सहित मेरे पिताजी श्री जीवन लाल जी दवे भूमिगत रहकर इस पूरे आंदोलन को सक्रिय रखने के दायित्व का निर्वाह कर रहे थे। पिताजी क्षिप्रा नदी के किनारे ग्रामों और जंगलों में भटककर कार्यकर्ताओं से देर रात अंधेरे में मिलने आते थे। मेरी अत्यंत बाल्यकाल की भयावह स्मृतियों में आज भी वे दृश्य दौड़ने लगते हैं जिनमें लावरे सरनेम वाले एक थानेदार का आगमन हमारे घर में बगैर समय देखे होता था। पिताजी को गिरफ्तार करने के लिए वह थानेदार केवल दिन में ही नहीं बल्कि कई बार मध्य रात्रि में भी अचानक आकर पूरे घर का सामान बिखेर दिया करता था। एक-एक कोठी, एक-एक पेटी को वह खोल खोल कर सारे सामान पूरे घर में फैला कर जाता था। इतना ही नहीं तो हम बच्चे जब भोजन कर रहे होते थे तो वह आकर हमारी भोजन की थालीयों को लात मारने से भी नहीं हिचकता था। उस भयावह दौर में भूमिगत रहकर सरकार के विरुद्ध पर्चे बांटने और रात्रि के अंधकार में सरकारी कार्यालयों की दीवारों पर पोस्टर चिपकाना तथा साइक्लोस्टाइल से छोटे-छोटे पत्र तैयार करके घर घर में फेंक कर आने जैसे काम उस समय यही सारे भूमिगत कार्यकर्ता कर रहे थे।

पीड़ित परिवारों के अनेक प्रसंग तो आज भी हमें द्रवित कर देते हैं। जबलपुर की पूर्व सांसद जयश्री बनर्जी दीदी को और उनके पति को जब गिरफ्तार किया गया था तब उनका बेटा दीपांकर मात्र 4 वर्ष का था। हम कल्पना कर सकते हैं एक महिला प्रधानमंत्री सहज मातृत्व के उस भाव को भी पहचान नहीं पाई और यातनाओं के कारागार में इन सब कार्यकर्ताओं को डालती रही। कुछ युवाओं को तो विवाह की वेदी पर से दूल्हे के वेश में ही उठाकर कारागार में डाल दिया गया। सुसनेर के श्री गिरिराज शरण शर्मा जो कि अधिवक्ता थे उनके साथ हुआ यह घटनाक्रम इस बात को सिद्ध करता है कि उस युग की सरकार ने तानाशाही का कोई तरीका छोड़ा नहीं था। भूमिगत आंदोलन के सेनानियों में श्री कुशाभाऊ ठाकरे के साथ प्यारे लाल जी खंडेलवाल, नारायण प्रसाद जी गुप्ता, मोरेश्वर रावजी गदरे, कैलाश नारायण जी सारंग, हरि मोहन जी मोदी जैसे अनेक कार्यकर्ता लगातार संघर्ष कर रहे थे। नारायण प्रसाद जी गुप्ता तो बताते रहे कि वह पायजामा और बनियान पहने 3 दिन तक कार्यकर्ताओं के घरों के दरवाजे खटखटाते रहे किंतु हर घर से बच्चे बाहर निकल कर एक ही बात कहते थे पापा जेल में हैं।परिचय के अभाव में आखिर इन भूमिगत कार्यकर्ताओं कहाँ ठौर मिलता?

वास्तव में इन संघर्षों की दास्तानें जितनी मात्रा में लिखी जाना चाहिए उतनी मात्रा में लिखी नहीं गई किंतु फिर भी साहित्य क्षेत्र में होने के कारण इस अवसर पर मैं साहित्यकारों के साथ उन कार्यकर्ताओं को भी प्रणाम करता हूं जिन्होंने अपनी लेखनी इस आपातकाल के विरुद्ध उठाई थी। नागार्जुन की “जयप्रकाश पर पड़ी लाठियां लोकतंत्र की” माधव शंकर इंदापुरकर जी द्वारा लिखित “आपातकाल इतिहास का कालापन्ना” सर के पी सिंह जी द्वारा लिखित “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बनाम लोकतंत्र प्रहरी” गुलशन सेठिया जी का आलेख “आपातकाल एक प्रशिक्षण वर्ग” पूर्व सरसंघचालक सुदर्शन जी द्वारा लिखित “अरे यह तो सत्य की लड़ाई है” शरद यादव द्वारा लिखित “इस देश में कोई हिटलर नहीं बन सकता” से लेकर रामलीला मैदान में सस्वर गाया गया रामधारी सिंह दिनकर का गीत “सिहासन खाली करो कि जनता आती है” तक का उल्लेख करते हुए ऐसे सभी लेखनीधर्मी कार्यकर्ताओं को इस आलेख के माध्यम से मैं अपना विनम्र प्रणाम अर्पित करता हूं। वास्तव में आपातकाल के इस अंधेरे युग के प्रसंगों को लिखना बड़ा कठिन कार्य है। इन सबको लिखने के लिए कलम में स्याही के साथ अपने खारे आंसुओं को मिलाना पड़ता है। आपातकाल की स्मृतियों को एक बार पुनः स्मरण कराने का तात्पर्य केवल इतना है कि नई पीढ़ी जान सके कि आज वर्ष 2021 में टीवी चैनलों पर और अखबारों में बड़े-बड़े लेख लिख कर अथवा प्रेस वार्ताओं को आयोजित करके कांग्रेस के जो नेता आज के प्रधानमंत्री जी पर हिटलर होने का आरोप मढते हैं और बोलने की स्वतंत्रता छीनने का गंदा आरोप लगाते हैं उन्हें अपना स्वयं का यह घृणित इतिहास पढ़ लेना चाहिए। बोलने की आजादी छीनना, प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करना और निरपराध नागरिकों को क्रूर यातनाएं देना क्या होता है यह जानना है तो कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को अपना ही पुराना इतिहास पढ़ लेना चाहिए। इसकी वास्तविक परिभाषाएं उन्हें सहज रूप से समझ आ जाएगी। 25 जून को आपातकाल की वर्षग्रंथि के अवसर पर मैं हूतात्मा हुए कार्यकर्ताओं को श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं। उन कार्यकर्ताओं को भी विनम्र प्रणाम करता हूं जो यातनाओं को भोग कर बाद में पुनः समाज और राष्ट्र कार्य में सक्रिय हुए और आज भी हम सबको मार्गदर्शन प्रदान कर रहे हैं।

पूज्य बाबा साहब अंबेडकर के द्वारा निर्मित संविधान को इससे बुरे दिन कभी न देखना पड़े यही प्रार्थना ईश्वर से करते हुए इस आलेख को समाप्त करता हूं।

इजराईल – ईरान युद्ध में भारत निभा सकता है अहम भूमिका

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भोपाल।रूस – यूक्रेन एवं इजराईल – हम्मास के बीच युद्ध अभी समाप्त भी नहीं हुआ है और तीसरे मोर्चे इजराईल – ईरान के बीच भी युद्ध प्रारम्भ हो गया है। हालांकि इस बीच भारत – पाकिस्तान के बीच भी युद्ध छिड़ गया था परंतु भारत की बड़े भाई की भूमिका के चलते इस युद्ध को शीघ्रता से समाप्त करने में सफलता मिल गई थी। दो देशों के बीच युद्ध में किसी एक देश का फायदा नहीं होकर बल्कि दोनों ही देशों का नुक्सान ही होता है। परंतु, आवेश में आकर कई बार दो बड़े देश भी आपस में टकरा जाते हैं एवं इन दोनों देशों के पक्ष एवं विपक्ष में कुछ देश खड़े हो जाते हैं जिससे कुछ इस प्रकार की परिस्थितियां निर्मित हो जाती हैं कि विश्व युद्ध छिड़ जाते हैं। वर्ष 1914 से वर्ष 1918 के बीच प्रथम विश्व युद्ध एवं वर्ष 1939 से वर्ष 1945 के बीच द्वितीय विश्व युद्ध इसके उदाहरण हैं। इजराईल – ईरान के बीच हाल ही में प्रारम्भ हुए युद्ध में अमेरिका भी कूदने की तैयारी करता हुआ दिखाई दे रहा है। अगर ऐसा होता है तो बहुत सम्भव है कि ईरान की सहायता के लिए रूस एवं चीन भी इस युद्ध में कूद पड़ें एवं यह युद्ध तृतीय विश्व युद्ध का स्वरूप ले ले। ऐसा कहा जा रहा है कि इजराईल एवं अमेरिका ईरान में सत्ता परिवर्तन करवाना चाह रहे हैं ताकि ईरान में उनके हितों को साधने वाली सरकार स्थापित हो सके।

वैश्विक स्तर पर आज परिस्थितियां बहुत सहज रूप से नहीं चल रही है। विभिन्न देशों के बीच विश्वास की कमी हो गई है जिसके चलते छोटे छोटे मुद्दों को तूल दी जाकर आपस में खटास पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं। कुछ देश, दो देशों के बीच, इन मुद्दों को हवा देते हुए भी दिखाई दे रहे हैं। जैसे आतंकवाद के मुद्दे को ही लें, यदि ये देश आतंकवाद से स्वयं ग्रसित हैं तो इनके लिए आतंकवाद बुराई की जड़ है और यदि कोई अन्य देश आतंकवाद को लम्बे समय से झेल रहा है तो इन देशों के लिए आतंकवाद कोई बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है। बल्कि, आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों को प्रोत्साहन दिया जाता हुआ दिखाई दे रहा है। चौधरी बन रहे कुछ देश अपनी विस्तरवादी नीतियों के चलते कई देशों में अपने हित साधने वाली सरकारों की स्थापना करना चाह रहे हैं एवं इन देशों में इस प्रकार की परिस्थितियां निर्मित करने के प्रयास कर रहे हैं ताकि ये देश आपस में लड़ाई प्रारम्भ करें। रूस एवं यूक्रेन के बीच युद्ध इसका जीता जागता उदाहरण है । साथ ही, कुछ देशों की कथनी और करनी में पाए जाने वाले फर्क के चलते भी वैश्विक स्तर पर परिस्थितियां बिगड़ रही हैं। चौधरी बन रहे देशों को तो उदाहरण पेश करते हुए अपनी कथनी एवं करनी में फर्क को समाप्त करना ही होगा। अन्यथा, वैश्विक स्तर पर परिस्थितियां भयावह स्तर तक पहुंच सकती हैं।

चूंकि इजराईल भी आतंकवाद से पीड़ित देश है एवं इजराईल की सीमाएं चार मुस्लिम राष्ट्रों से जुड़ी हुई हैं; यथा, उत्तर में लेबनान, दक्षिण पश्चिम में ईजिप्ट (एवं गाजा), पूर्व में जॉर्डन (एवं वेस्ट बैंक) एवं उत्तर पूर्व में सीरिया। अतः इजराईल अत्यधिक आक्रात्मकता के साथ आतंकवादियों (हम्मास एवं हूथी आदि संगठनों) से युद्ध करता रहता है। इस्लाम के अनुयायी यहूदियों के कट्टर दुश्मन हैं, इसके चलते भी इजराईल के नागरिकों को आतंकवाद को लम्बे समय से झेलना पड़ रहा है।

ईरान के बारे में तो कहा जा रहा है कि ईरान स्थित लगभग 60 प्रतिशत मस्जिदों में इबादत के लिए कोई भी व्यक्ति पहुंच ही नहीं रहा है क्योंकि ईरान में एवं ईरान द्वारा पड़ौसी देशों में फैलाए गए आतंकवाद से ईरान के मूल नागरिक अत्यधिक परेशान हैं। महिलाओं पर आतंकवादियों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों से स्थानीय नागरिक बहुत दुखी हैं। अतः अब वे अपने पुराने धर्म जोरोस्ट्रीयन को अपनाने के लिए आतुर दिखाई दे रहे हैं अथवा इस्लाम धर्म का परित्याग करना चाह रहे हैं। जोरोस्ट्रीयन, ईरान का मूल धर्म हैं एवं यह अब ईरान के कुछ (बहुत कम) क्षेत्रों में सिमट कर रह गया है। भारत में भी जोरोस्ट्रीयन धर्म को मानने वाले पारसी समुदाय के कुछ नागरिक शांतिपूर्वक रह रहे हैं एवं भारत के आर्थिक विकास में अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं।

वैश्विक स्तर पर निर्मित हो रही उक्त वर्णित परिस्थितियों के बीच भारत की विशेष भूमिका रह सकती है क्योंकि भारत के इजराईल एवं ईरान दोनों ही देशों के साथ आर्थिक रिश्ते बहुत मजबूत हैं। भारत, ईरान से भारी मात्रा में कच्चा तेल खरीदता रहा है एवं भारत ने ईरान में चाबहार बंदरगाह के निर्माण में भारी आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान की है। चाबहार बंदरगाह का संचालन भी ईरान की सरकार के साथ भारतीय इंजीनियरों द्वारा ही किया जा रहा है। भारत और ईरान के बीच प्रतिवर्ष 200 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि का विदेशी व्यापार होता है। दूसरी ओर, इजराईल भारत का रणनीतिक साझीदार है। भारत इजराईल से भारी मात्रा में सुरक्षा उपकरण भी खरीदता है। भारत और इजराईल के बीच प्रतिवर्ष 650 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि का विदेशी व्यापार होता है, इसमें भारत द्वारा इजराईल से आयात किये जाने वाले सुरक्षा उपकरणों की राशि शामिल नहीं है। कुल मिलाकर, भारत के इजराईल एवं ईरान, दोनों देशों के साथ बहुत पुराने व्यापारिक एवं सांस्कृतिक रिश्ते हैं।

भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति में “वसुधैव कुटुम्बकम”; “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” एवं “सर्वे भवंतु सुखिन:” की भावना पर विश्वास किया जाता है। अतः भारतीय नागरिक सामान्यतः शांत स्वभाव के होते है एवं पूरे विश्व में ही भ्रातत्व के भाव का संचार करते हैं। आज 4 करोड़ से अधिक भारतीय मूल के नागरिक विभिन्न देशों के आर्थिक विकास में अपना भरपूर योगदान दे रहे हैं। इन देशों में होने वाले अपराधों में भारतीय मूल के नागरिकों की संलिप्तता लगभग नहीं के बराबर पाई गई है। इसी कारण के चलते आज वियतनाम, जापान, इजराईल, आस्ट्रेलिया एवं सिंगापुर जैसे कई देश भारतीय मूल के नागरिकों को अपने देश में कार्य करने एवं बसाने में सहायता करते हुए दिखाई दे रहे हैं। खाड़ी के देश यथा ओमान, बहरीन, सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात आदि में भी लाखों की संख्या में भारतीय मूल के नागरिक निवास कर रहे हैं एवं शांतिप्रिय जीवन व्यतीत कर रहे हैं। कुल मिलाकर, विभिन्न देशों में निवासरत भारतीय मूल के नागरिकों का रिकार्ड बहुत ही संतोषजनक पाया जाता है, क्योंकि, भारतीयों की मूल प्रकृति ही सनातन हिंदू संस्कारों के अनुरूप पाई जाती है एवं वे किसी भी प्रकार के कर्म में धर्म को जोड़कर ही इसे सम्पन्न करने का प्रयास करते हैं। और, धर्म के अनुरूप किये गए किसी भी कार्य से किसी का अहित हो ही नहीं सकता।

उक्त वर्णित परिप्रेक्ष्य में वैश्विक स्तर पर जब चौधरी बन रहे देशों द्वारा अन्य देशों के साथ न्याय नहीं किया जाता हुआ दिखाई दे रहा है तो ऐसे में भारत को आगे आकर युद्ध में झौंके जा रहे देशों के नागरिकों की मदद करनी चाहिए। भारत की तो वैसे भी नीति ही “वसुधैव कुटुम्बकम” की है। यदि पूरे विश्व में भाईचारा फैलाना है तो सनातन हिंदू संस्कृति के अनुपालन से ही यह सब सम्भव हो सकता है। उक्त परिस्थितियों के बीच सनातन हिंदू संस्कृति की स्वीकार्यता विभिन्न देशों के नागरिकों की बीच तेजी से बढ़ भी रही है क्योंकि कई देश अब आतंकवाद से बहुत अधिक परेशान हो चुके हैं। अतः अब वे किसी तीसरे रास्ते की तलाश में हैं। इन विपरीत परिस्थितियों के बीच उनके पास अब विकल्प केवल सनातन हिंदू संस्कृति के संस्कारों को अपनाने का ही बचता है, जिसके प्रति वे लालायित भी हैं। और फिर, आतंकवाद से यदि छुटकारा पाना है तो इससे लड़ते हुए छुटकारा पाने में तो कुछ देशों को कई प्रकार के बलिदान देने पड़ सकते हैं और यदि सनातन हिंदू संस्कृति के संस्कारों को स्वीकार कर लिया जाता है तो कई देशों के नागरिकों को इस बलिदान से बचाया जा सकता है। अतः विश्व के देशों में सनातन हिंदू संस्कृति के संस्कारों को तेजी से वहां के स्थानीय नागरिकों के बीच किस प्रकार फैलाया जा सकता है, इस विषय पर विश्व में शांति स्थापित करने के उद्देश्य से अब गहन चिंतन एवं मनन करने की आवश्यकता है।

गुरु को बचाने अपने प्राण न्यौछावर किये

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यह घटना उन दिनों की है जब अंग्रेजों ने भारत से जाने की घोषणा कर दी थी और भारत विभाजन की प्रकिया भी आरंभ हो गई थी। लेकिन अंग्रेज जाते जाते कुछ ऐसा करके जाना चाहते थे चर्च की जमाशट पर कोई अंतर न आये और न उनकी कोई सांस्कृतिक परंपरा प्रभावित हो। इसके लिये उनके कुछ “स्लीपर सेल” सक्रिय थे जो देशभर में काम रहे थे। इसी षड्यंत्र में इस बालिका का बलिदान हुआ।

कालीबाई एक तेरह वर्षीय वनवासी बालिका थी। यह राजस्थान के डूंगरपुर जिले के वनाँचल की रहने वाली थी । कालीबाई का जन्म कब हुआ इसका इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता । अनुमानतः कालीबाई का जन्म जून 1934 माना गया। अंग्रेजीकाल में चर्च ने वनवासी अंचलों में चर्च ने अपने विद्यालय आरंभ करने का अभियान चलाया हुआ था। जिनका उद्देश्य वनवासी समाज को उनके मूल से दूर करना था। उनकी शिक्षा की शैली कुछ ऐसी थी कि वनवासी क्षेत्र में मतान्तरण तेजी से होने लगा था । उस समय के अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और सामाजिक साँस्कृतिक संगठन इसके लिये चिंतित थे। विशेषकर ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जो आर्यसमाज या राम-कृष्ण मिशन से जुड़े हुये थे उनमें यह भाव अधिक प्रबल था। राजस्थान में स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्वामी विवेकानंद के बहुत प्रवास हुये थे इसलिये राजस्थान क्षेत्र में इन दोनों संस्थाओं का प्रभाव था । सुप्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी नानाभाई खांट आर्यसमाज से जुड़े थे उन्होंने डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गाँव में एक विद्यालय आरंभ किया। विद्यालय में वनवासी बच्चों की शिक्षा का प्रबंध किया गया था । विद्यालय में उस समय की आधुनिक शिक्षा तो दी जाती थी पर भारतीय गुरु शिष्य परंपरा को भी जीवंत किया था। विद्यालय ने शाम को एक प्रार्थना सभा का आरंभ भी किया। जिसमें वनवासी परिवार भी आने लगे। इस विद्यालय में मुख्य शिक्षक सेंगाभाई थे। वनवासी बालिका कालीबाई भी यहाँ पढ़ने आती थी । यह भील समाज से संबंधित थी। उसकी आयु अनुमानित तेरह वर्ष थी। यह क्षेत्र डूंगरपुर रियासत के अंतर्गत आता था। आर्यसमाज ने विद्यालय आरंभ करने की अनुमति महारावल डूंगरपुर से ले ली थी। इस क्षेत्र में एक चर्च भी सक्रिय था। इस विद्यालय और उसकी गतिविधि से वनवासी समाज चर्च से दूर होने लगा। चर्च को आपत्ति हुई। चर्च ने कमिश्नर को शिकायत की। अंग्रेजों ने भले भारत से जाने की घोषणा कर दी थी पर उनकी पूरी प्रशासनिक व्यवस्था और रियासतों पर रुतबा कम न हुआ था।

शिकायत मिलते ही कमिश्नर ने डूंगरपुर के महारावल पर दबाब बनाया और विद्यालय बंद करने के आदेश हो गये। आदेश मिलते ही नानाभाई ने विद्यालय तो यथावत रखा और उन्होने महाराज से मिलने का प्रयास किया लेकिन अनुमति न मिली। मिलने का समय टाला गया। नानभाई को आशा थी महाराज से मिलने के बाद अनुमति यथावत हो जायेगी इसलिये विद्यालय बंद न हुआ । वे यह भी जानते थे कि अंग्रेज तो जाने वाले हैं। तब चर्च और अंग्रेज अधिकारियों के आगे क्यों झुकना। उनके इंकार करने से अधिकारी बौखला गये । एक भारी पुलिस बल के साथ अधिकारी विद्यालय पहुँचे। वे ताला लगाकर विद्यालय सील करना चाहते थे । किन्तु शिक्षक सेंगाभाई ने विद्यालय के द्वार पर खड़े होकर रास्ता रोकना चाहा। पुलिस ने पकड़ कर किनारे किया और विद्यालय पर ताला लगा दिया । शिक्षक सेंगाभाई को रस्सी से गाड़ी के पीछे बाँध दिया गया। गाड़ी रवाना हुई तो शिक्षक सेंगाभाई घसीटते हुये जा रहे थे । उनका पूरा शरीर लहूलुहान हो गया । रास्ते में कालीबाई खेत में काम कर रही थी ।

उसने देखा कि उनके गुरू को पुलिस गाड़ी में पीछे बाँधकर घसीटते हुये लेकर जा रही है। कालीबाई के हाथ में हँसिया था । वह हँसिया लेकर दौड़ी और रस्सी काट दी। पुलिस इससे और बौखला गई। पुलिस ने गोलियाँ चला दीं। पुलिस की गोली से कालीबाई का शरीर छलनी हो गया। गोली की आवाज सुनकर भील समाज एकत्र हो गया। सबने शिक्षक की दुर्दशा और अपनी बेटी का शव देखा। पूरा भील समाज आक्रोशित हो गया और पुलिस दोनों को छोड़कर भाग गई। कालीबाई का बलिदान मौके पर ही हो गया था । यह घटना 19 जून 1947 की है । सेंगाभाई इतने घायल हो गये थे कि रात में उनका भी प्राणांत हो गया । अगले दिन बीस जून को दोनों का अंतिम संस्कार किया गया । गुरु के प्राण बचाने केलिये बालिका कालीबाई का बलिदान इतिहास की पुस्तकें में आज भी लोकगीतों में है । स्वतंत्रता के बाद उस स्थान पर एक पार्क बनाया गया है इस पार्क में कालीबाई की प्रतिमा भी स्थापित है ।

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