वे ब्रिटिश नागरिक थीं फार भी स्वदेशी प्रचार को जीवन समर्पित

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दिल्ली। भारतीय परंपरा और संस्कृति ने सदैव विश्व को आकर्षित किया है । ऐसी ही ब्रिटिश नागरिक थीं नैली जिन्होंने भारतीय युवा जितेंद्र मोहन से विवाह किया, स्वतंत्रता आँदोलन में जुड़ी और अंत में स्वदेशी के लिये जीवन समर्पित कर दिया ।

नेली सेनगुप्त मूलतः भारतीय नहीं थीं वे इंग्लैंड में जन्मीं थीं । इग्लैंड की नागरिक थीं । उनकी शिक्षा भी इंग्लैंड के कैम्ब्रिज स्कूल में हुई । उनके पिता एडिथ फ्रेडरिक एक क्लब में काम करते थे और माता एडिथ हेनरीटा ग्रे भी एक डिपार्टमेन्टल स्टोर में काम करतीं थीं । पढ़ाई के दौरान उनका परिचय भारतीय छात्र यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त से हुआ । दोनों में प्रेम बढ़ा और विवाह कर लिया । नेली के माता पिता इस विवाह के विरुद्ध थे पर नेली अपने निर्णय पर दृढ रहीं । अंततः विवाह हुआ। विवाह के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की और 1909 में पति के साथ भारत आ गयीं । पति यतीन्द्र का संपर्क अनुशीलन समिति से था । यह समिति भारतीयों के साथ अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध जन जागरण कर रही थी । जब वे भारत लौटीं तब यहाँ अंग्रेज सरकार ने उन्हें ब्रिटिश नागरिक होने के नाते सरकारी नौकरी का प्रस्ताव दिया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया और नौकरी करने लगीं। किन्तु उन्हें शासकीय कार्यालयों और सार्वजनिक स्थलों पर भारतीयों के साथ अंग्रेजों द्वारा किया जाने वाला तिरस्कार का व्यवहार और शोषण अच्छा न लगा । वे मानवीय स्तर पर सबको समान मानती॔ थीं। यदि कहीं कोई भारतीय बड़े पद पर है और अंग्रेज छोटे पद पर तब भारतीय को क्यों खड़े होना चाहिए और क्यों सामान्य अंग्रेज को पानी पिलाना चाहिए। आरंभ में उन्होंने स्थानीय अधिकारियों से चर्चा करके मानवीय व्यवहार समझाना चाहा, पर बात नहीं बनी और वे भी नौकरी छोड़कर समाज के जागरण में जुट गयीं ।

उनका मानना था कि यदि समाज जागरुक हो, शिक्षित हो तो तो अनेक समस्याये अपने आप हल हो जाती है । उन्होंने स्पष्ट कहा कि वे नागरिक सम्मान की समानता केलिये प्रयत्नशील हैं। उनकी सक्रियता से अंग्रेज अधिकारी बेचैन हुये । अधिकारियों को उनको समझाना चाहा । पर बात नहीं बनीं। बातचीत में नैली ने स्पष्ट किया कि वे सरकार के विरुद्ध नहीं हैं, मानसिकता सुधारने केलिये प्रयास कर रहीं हैः। उनका सरकार के समर्थन या विरोध का कोई लेना देना नहीं । यह मानवीय अधिकार और मानवीय सम्मान का प्रश्न हैं । और नेली ने घूम घूम कर सभायें करना और लोगों को जाग्रत करना आरंभ कर दिया । वे नौकरी छोड़ कर भारत की स्वतंत्रता आँदोलन में जुड़ गयीं और अंग्रेज सरकार के विरूद्ध खुल कर सभाएँ करने लगीं । समय के साथ दो बेटे हुये । जिनके नाम शिशिर और अनिल रखे गये । नेली के पति जतिन्द्र मोहन ने कोलकाता में एक वकील के रूप में अच्छी प्रतिष्ठा अर्जित की । वे तीन बार कोलकाता के मेयर बने । 1921 के असहयोग आंदोलन भाग में दोनों पति पत्नि गिरफ्तार हुये । उन्हें तीन दिन कैद में रखकर डराया और समझाया गया अंततः ब्रिटिश नागरिक के नाते केवल चेतावनी देकर छोड़ दिया गया ।

इस घटना से उनका गुस्सा एक कदम और आगे बढ़ा । वे स्वतंत्रता आँदोलन के साथ स्वदेशी अभियान से भी जुड़ गईं । उन्होंने अपना खादी उत्पादन केन्द्र बनाया और घर-घर जाकर बेचने का अभियान चलाया । वे न केवल स्वयं खादी पहनने लगीं । अन्य को भी प्रेरित करतीं । उनके खादी अभियान ने जरूरत मंद महिलाओं को भी रोजगार उपलब्ध कराया। 1931 में पुनः गिरफ्तार हुईं इस बार उन्हें माह का कारावास मिला । वे दिल्ली की जेल में रहीं। 1933 में रांची जेल में जतिन की मृत्यु हो गयी । फिर भी स्वाधीनता संघर्ष से दूर न हुई। उन्होंने 1940 और 1946 में बंगाल विधान सभा के लिए कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा और विजयी हुईं । द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने घायल भारतीय सैनिकों की सेवा की । स्वतंत्रता के बाद पति के गृहनगर चटगाँव में आ गई।

बंटवारे में यह हिस्सा पाकिस्तान में चला गया और इस क्षेत्र को पूर्वी पाकिस्तान नाम मिला । पाकिस्तान में हिन्दू अल्पसंख्यक हो गये । और पीड़ित काये गये ।नैली बंटवारे की हिंसा से पीड़ित हिंदू अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा में जुट गई। 1954 में वे पूर्वी पाकिस्तान जो (अब बंगलादेश है) की विधान सभा के लिए निर्विरोध सदस्य बनीं ।

। 1972 में गिर पड़ने से घायल हो गईं उनका कुल्हा टूट गया और वे विस्तर पर आ गई। उन्होंने भारत आने की इच्छा व्यक्त की । पूर्वी पाकिस्तान 1971 में बंगलादेश बन चुका था । उनकी इच्छा के अनुरूप बंगलादेश के प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्हमान ने भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से संपर्क किया । 1972 में नैली जी को भारत लाया गया । उनके उपचार का प्रबंध भारत सरकार ने किया। और व्यवधान का कारण बनाइंदिरा गांधी कोकॉलेज लाया गया जहां उनका संचालन किया गया और सभी चिकित्सा खर्चों का भुगतान भारत सरकार द्वारा किया गया। अंततः 23 अक्टूबर 1973 में कलकत्ता में उनका निधन हुआ ।

आगामी चुनावों के लिए भाजपा को मिला नया मंत्र

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हरियाणा विधानसभा चुनावों में ऐतिहासिक सफलता का स्वाद चखने के बाद भारतीय जनता पार्टी में एक नया उत्साह आ गया है क्योंकि हरियाणा से भाजपा को विपक्ष के झूठ पर आधरित नैरेटिव ध्वस्त करने का मंत्र मिल गया है। अब झारखंड, महाराष्ट्र राज्यों सहित कई राज्यों की खाली पड़ी विधानसभा तथा दो लोकसभा सीटों पर उपचुनावों की तैयारियां अंतिम चरण में पहुंच गई हैं। इन सभी चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाला राजग गठबंधन अपनी तैयारी में काफी आगे निकल चुका है, गठबंधन ने अपने सहयोगी दलों के साथ सीटों का बंटवारा भी कर लिया है और उम्मीदवारों के चयन का काम पूरा करते हुए अपने नारे भी सेट कर लिये हैं।

हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणामों से स्पष्ट है कि लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा का जो कोर मतदाता किसी कारणवश उधर चला गया था अब वह फिर वापस आ रहा है क्योंकि उसे अपनी गलतियों का एहसास हो रहा है। लोकसभा चुनावों में संविधान और आरक्षण सहित जातिवार जनगणना का झूठा नैरेटिव चलाने के कारण ओबीसी समाज भाजपा से छिटका जिसके कारण उसका 400 पार का नारा धरातल पर नहीं उतर सका था। अब भपजा निराशा के उस भाव से उबर चुकी है।

हरियाणा में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नारे “हिंदू बटेंगे तो कटेंगे“ ने हिन्दू जनमानस को नयी चेतना दी थी ओैर अब यही नारा महाराष्ट्र की धरती तक पहुंच गया हे। साथ ही हरियाणा में ओबीसी समाज ने जिस प्रकार भाजपा का साथ दिया है उसे ध्यान में रखते हुए भाजपा अब अन्य राज्यों में भी ओबीसी समाज को साधने के लिए हर उपाय करने जा रही है। हरियाणा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की मंत्रिमंडल की पहली बैठक में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्ग के ज्यादा जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ देने के लिए प्रदेश सरकार एससी एसटी वर्ग में उपवर्गीकरण करने जा रही है। हरियाणा सरकार का यह कदम सर्वोच्च न्यायालय के कोटा में कोटा के ऐतिहासिक निर्णय की भावना के अनुरूप है। अभी तक वंचित एससी – एसटी के लिए10 -10 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय लिया गया है।

हरियाणा में विधानसभा चुनावों में भाजपा तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने साथ मिलकर कार्य किया था जिसका प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई दिया, वहां भाजपा के पक्ष में वातावरण बनाने के लिए 16 हजार से अधिक छोटी जनसभाएं और संगोष्ठियां भी आयेजित करी गई थीं। अब संघ भाजपा के साथ मिलकर महाराष्ट्र, झारखंड और उपचुनावों के लिए भी वही कार्य करने जा रहा है।

महाराष्ट्र विधनसभा चुनाव जीतने के लिए जहां बीजेपी ने कमर कस ली है वहीं संघ व विश्व हिंदू परिषद सहित समस्त हिंदू संगठनों के कार्यकर्ता भी सड़कों पर उतर आए हैं। बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान सहित विश्व के अनेक देशों में हिंदुओं व सनातन धर्म के आस्था के केंद्रों पर जिस प्रकार हमले किये जा रहे हैं तथा भारत का विपक्ष जिस प्रकार सनातन हिंदू के खिलाफ जहर उगल रहा है उससे उत्पन्न संकट को देखते हुए अब सभी हिंदू संगठनों को यह समझ में आ गया है कि सत्ता कितनी अनिवार्य है। अतः अब महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता अभी से ही लोगों के बीच जाकर हिंदुओं के कई ज्वलंत मुद्दों पर वोट मांग रहे हैं।बीजेपी के लिए केवल संघ ही नहीं अपितु उसके सभी समवैचारिक संगठन सक्रिय हो गये हैं। संघ के कार्यकर्ता जनमत तैयार करने के लिए बड़े पैमाने पर संपर्क कार्यक्रम भी करेंगे ऐसा सुनने में आ रहा है।

विश्व हिंदू परिषद पूरे महाराष्ट्र में साधु संतों के सम्मेलन करवाने की योजना बना रही है । मंदिर मठों के प्रतिनिधित्व करने वाले साधु -संत हिंदुत्व, सुशासन, विकास, लोक कल्याण, राष्ट्रीय हित के विषयों के विषय में जनमानस को बतायेंगे। पालघर में साधुओं की निर्मम हत्या एक बड़ा विषय बनकर उभर रहा है।लव जिहाद, धर्मांतरण आदि को रोकने के लिए वहां पर पहले भी कई रैलियां हो चुकी हैं। इसके साथ ही साधु- संत वोट जिहाद के प्रति भी हिंदू जनमानस को जगाने के लिए काम कर रहे हैं और वोट जिहाद के खिलाफ 100 प्रतिशत मतदान करने की बात कर रहे हैं।संतों का कहना है कि जन-जन तक यह बात पहुंचाई जाएगी कि जो हिंदू हित की बात करेगा उसे ही सत्ता पर लाया जायेगा। नागपुर और अकोला में संत सम्मेलन आयेजित किये जा चुके हैं।

विहिप महाराष्ट्र क्षेत्र प्रमुख गोविंद शेडे का कहना है कि वोट जिहाद एक गहरी चिंता का विषय है। अनेक प्रकार के जिहादी चल रहे हैं जमीन, लव, जल के बाद अब वोट जिहाद भी प्रारंभ हो चुका है। कितने जिहाद होने वाले हैं पता नहीं। संत समाज का कहना है कि लोकसभा चुनाव में जो हुआ वह वोट जिहाद का ही परिणाम था किंतु अब वोट जिहाद का हिसाब उसी तरह करा जायेगा। वोट का प्रतिशत बढ़ाया जाए। हमारा देश, हमारे संस्कार लेकर बढ़े इसलिए हमें अपना मत प्रतिशत बढ़ाना है। विहिप का कहना है कि अब आने वाले सभी निर्वाचनों में ऐसे लोग ही चुनकर आएं जो नीति निर्धारण हिंदू धर्म, हिंदी, संस्कृत, हिंदी परम्परा, हिंदू रीति रिवाज का संरक्षण करने वाले हों। महाराष्ट्र की राजनीति में हिंदुत्व एक बड़ा फैक्टर रहा है और इसी बात को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिये हैं जैसे गाय को राज्यमाता का दर्जा दिया जाना।

चुनावी राज्यों में योगी जी की बढ़ी मांग- भाजपा के नये विजय मन्त्र मंत्र के चलते महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी जी की मांग बहुत अधिक है, वहां उनके नारे व चित्र लगे पोस्टर दीवारों पर चिपक गये हैं। मुंबई की सड़कों पर लगे बैनर जिन पर,“ बंटेंगे तो कटेंगे“ लिखा है चर्चा में हैं । माना जा रहा हे कि योगी जी के इसी नारे से हरियाणा की राजनीतिक हवा बदल गई।अब इसे महाराष्ट्र में भी अपनाया जाने वाला है। वैसे भी योगी जी की विजय का स्ट्राइक रेट बहुत अच्छा है और हर राज्य योगी जैसे मुख्यमंत्री की मांग कर रहा है।

भाजपा ओबीसी व वनवासी समाज को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हर संभव प्रयास करेगी क्योंकि 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से चुनाव दर चुनाव ओबीसी समाज भाजपा का साथ देता आ रहा है। सबसे अधिक ओबीसी मुख्यमंत्री भाजपा ने ही बनाये हैं। सबसे अधिक ओबीसी विधायक व सांसद बीजेपी से ही जीतकर आ रहे हैं। भाजपा ओबीसी समाज के लिए कुछ बड़े निर्णय ले सकती है क्योंकि महाराष्ट्र में भी ओबीसी समाज की एक बड़ी भूमिका है।उत्तर प्रदेश के विधानसभा उपचुनावों में भी हिंदुत्व के साथ जातियों को भी साधने पर काम किया जा रहा है।

भाजपा के रणनीतिकार अब विशिष्ट रणनीतियों पर काम कर रहे हैं। विगत चुनावों में भाजपा ने “बंटेंगे तो कटेंगे” का नारा दिया और सफलता पाई। इसी नारे के बल पर जम्मू के हिंदू भी भाजपा के पक्ष में गोलबंद दिखे। अब यह नारा पूरे भारत में घूमने के लिए तैयार हो रहा है। ओबीसी समाज को आकर्षित करने के लिए सरकार बड़े कदम उठाने जा रही है जिसमें क्रीमीलेयर की सीमा बढ़ाने से लेकर अन्य कई योजनाओं का विस्तार करनेपर विचार कर रही है। इसीलिए कहा जा रहा है कि भाजपा ने विपक्ष के नैरेटिव को धराशायी करने का मंत्र खोज लिया है।

भारतीय सनातन संस्कृति के विरुद्ध गढ़े जा रहे है झूठे विमर्श

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ग्वालियर : भारत में विभिन्न क्षेत्रों में विकास से सम्बंधित हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों को देखने के पश्चात ध्यान में आता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अब पटरी पर तेजी से दौड़ने लगी है। परंतु, देश के मीडिया में भारत के आर्थिक क्षेत्र में लगातार बन रहे नित नए रिकार्ड का जिक्र कहीं भी नहीं है। इसके ठीक विपरीत देश में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं, गरीब अति गरीब की श्रेणी में जा रहा है, मुद्रा स्फीति की दर अधिक हो रही है, भुखमरी बढ़ रही है, हिंसा बढ़ रही है, अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं, आदि विषयों पर विमर्श गढ़ने का भरपूर प्रयास किया जा रहा है।

भारत में झूठे विमर्श गढ़ने का इतिहास रहा है। अंग्रेजों के शासन काल में भी कई प्रकार के झूठे विमर्श गढ़ने के भरपूर प्रयास हुए थे जैसे पश्चिम से आया कोई भी विचार वैज्ञानिक एवं आधुनिक है, भारत सपेरों का देश है एवं इसमें अपढ़ गरीब वर्ग ही निवास करता है, भारतीय सनातन हिंदू संस्कृति रूढ़िवादी एवं अवैज्ञानिक है, शहरीकरण विकास का बड़ा माध्यम है अतः ग्रामीण विकास को दरकिनार करते हुए केवल शहरीकरण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, शहरी, ग्रामीण एवं जनजातीय के बीच में आर्थिक विकास की दृष्टि से शहरी अधिक महत्व के क्षेत्र हैं, विदेशी भाषा को जानने के चलते नागरिकों में आत्मविश्वास बढ़ता है, संस्कृति से अधिक तर्क को महत्व दिया जाना चाहिए, व्यक्ति एवं समश्टि में व्यक्ति को अधिक महत्व देना अर्थात व्यक्तिवाद को बढ़ावा देना चाहिए (पूंजीवाद की अवधारणा), कम श्रम करने वाला व्यक्ति अधिक होशियार माना गया, सनातन हिन्दू संस्कृति पर आधारित प्रत्येक चीज को हेय दृष्टि से देखना, जैसे दिवाली के फटाके पर्यावरण का नुक्सान करते हैं, होली पर्व पर पानी की बर्बादी होती है। कुल मिलाकर पश्चिमी देशों द्वारा आज सनातन भारतीय सनातन संस्कृति पर आधारित हिन्दू परम्पराओं पर लगातार प्रहार किए जा रहे हैं।

इसी प्रकार, भारतीय सनातन संस्कृति पर हमला करते हुए “माई बॉडी माई चोईस”; “हमको भारत में रहने में डर लगता है”; आदि नरेटिव स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है। वाशिंगटन पोस्ट एवं न्यूयॉर्क टाइम्ज लम्बे लम्बे लेख लिखते हैं कि भारत में मुसलमानों पर अन्याय हो रहा है। कोविड महामारी के दौरान भी भारत को बहुत बदनाम करने का प्रयास किया गया था। वर्ष 2002 की घटनाओं पर आधारित एक डॉक्युमेंटरी को बीबीसी आज समाज के बीच में लाने का प्रयास कर रहा है। अडानी समूह, जो कि भारत में आधारभूत संरचना विकसित करने के कार्य का प्रमुख खिलाड़ी है, की तथाकथित वित्तीय अनियमितताओं पर अमेरिकी संस्थान “हिंडनबर्ग” अपनी एक रिपोर्ट जारी करता है ताकि इस समूह को आर्थिक नुक्सान हो और यह समूह भारत की आर्थिक प्रगति में भागीदारी न कर सके। हैपीनेस इंडेक्स एवं हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति को झूठे तरीके से पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान जैसे देशों से भी बदतर हालात में बताया जाता है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, भारतीय मुसलमानों की स्थिति के बारे में तब विपरीत बात करते हैं जब भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिका के दौरे पर होते हैं। ऐसा आभास होता है कि भारत के विरुद्ध यह अभियान कई संस्थानों एवं देशों द्वारा मिलाकर चलाया जा रहा है।

भारत द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में लगातार प्राप्त की जा रही विभिन्न उपलब्धियों को दरकिनार करते हुए, भारत के बारे में भ्रांतियां फैलाई जाती रही हैं। जैसे, भारतीय कुछ नया करे तो उसे ‘जुगाड़’ कहा जाता है और चीन यदि कुछ नया करे तो ‘रिवर्स इंजिनीयरिंग’। पश्चिम का प्रत्येक कदम वैज्ञानिक है, परंतु भारतीय आयुर्वेद को हर बात सिद्ध करने की आवश्यकता होती है। पश्चिम का अधूरा अध्ययन भी साइन्स की श्रेणी में है, परंतु भारत के कई प्राचीन वैज्ञानिक तथ्य भी रूढ़िवादी माने जाते हैं। पश्चिमी विचारधारा में व्यक्ति की भावुकता के लिए कोई स्थान नहीं है, केवल तकनीकी के बारे में ही विचार किया जाता है। इसी प्रकार से भारत में बाल श्रम को लेकर पश्चिमी देशों द्वारा हो हल्ला मचाया जाता है किंतु उनके अपने देशों में कई प्रतियोगिताओं में 16 वर्ष से कम उम्र के बच्चे भी भाग लेते हैं, परंतु उनकी दृष्टि में यह बाल श्रम की श्रेणी में नहीं आता है। भारत में यदि 16 वर्ष की कम उम्र के बच्चे अपने पारम्परिक व्यवसाय की कला में पारंगत होना प्रारम्भ करें तो यह बाल श्रम की श्रेणी में माना जाता है। भारत के संदर्भ में यह दोहरी नीति का विमर्श क्यों खड़ा किया जाता है।

भारतीय सनातन संस्कारों के अनुसार भारत में कुटुंब को एक महत्वपूर्ण इकाई के रूप में स्वीकार किया गया है एवं भारत में संयुक्त परिवार इसकी परिणती के रूप में दिखाई देते है। परंतु, पश्चिमी आर्थिक दर्शन में संयुक्त परिवार लगभग नहीं के बराबर ही दिखाई देते हैं एवं विकसित देशों में सामान्यतः बच्चों के 18 वर्ष की आयु प्राप्त करते ही, वे अपना अलग परिवार बसा लेते हैं तथा अपने माता पिता से अलग मकान लेकर रहने लगते हैं। इस चलन के पीछे संभवत आर्थिक पक्ष इस प्रकार जुड़ा हुआ है कि जितने अधिक परिवार होंगे उतने ही अधिक मकानों की आवश्यकता होगी, कारों की आवश्यकता होगी, टीवी की आवश्यकता होगी, फ्रिज की आवश्यकता होगी, आदि। लगभग समस्त उत्पादों की आवश्यकता इससे बढ़ेगी जो अंततः मांग में वृद्धि के रूप में दिखाई देगी एवं इससे इन वस्तुओं का उत्पादन बढ़ेगा। ज्यादा वस्तुएं बिकने से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लाभप्रदता में भी वृद्धि होगी। कुल मिलाकर इससे आर्थिक वृद्धि दर तेज होगी। विकसित देशों में इस प्रकार की मान्यताएं समाज में अब सामान्य हो चलीं हैं। अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारत में भी प्रयासरत हैं कि किस प्रकार भारत में संयुक्त परिवार की प्रणाली को तोड़ा जाय ताकि परिवारों की संख्या बढ़े एवं विभिन्न उत्पादों की मांग बढ़े और इन कम्पनियों द्वारा निर्मित उत्पादों की बिक्री बाजार में बढ़े। इसके लिए बहुराष्ट्रीय कम्पनियां इस प्रकार के विभिन्न सामाजिक सीरियलों को बनवाकर प्रायोजित करते हुए टीवी पर प्रसारित करवाती हैं जिनमे संयुक्त परिवार के नुक्सान बताए जाते हैं एवं छोटे छोटे परिवारों के फायदे दिखाए जाते हैं। सास बहू के बीच छोटी छोटी बातों को लेकर झगड़े दिखाए जाते हैं एवं जिनका अंत परिवार की टूट के रूप में बताया जाता है। भारत एक विशाल देश है एवं विश्व में सबसे बड़ा बाजार है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां यदि अपने इस कुचक्र में सफल हो जाती हैं तो उनकी सोच के अनुसार भारत में उत्पादों की मांग में बेतहाशा वृद्धि हो सकती है, इससे विशेष रूप से बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सीधे सीधे फायदा होगा। इसी कारण के चलते आज जोरज सोरोस जैसे कई विदेशी नागरिक अन्य कई विदेशी संस्थानों एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ मिलकर भारतीय संस्कृति पर हमला करते हुए दिखाई दे रहे हैं एवं भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं।

पश्चिमी देशों द्वारा भारत के विरुद्ध चलाए जा रहे इस अभियान (झूठे विमर्श) को आज तोड़ने की आवश्यकता है। इसके लिए उनके प्रत्येक विमर्श को अलग अलग रखकर भिन्न भिन्न तरीकों से तोड़ना होगा। जैसे किसी विज्ञापन में भारतीय परम्पराओं का निर्वहन करने वाली महिला यदि बिंदी नहीं लगाएगी तो उस उत्पाद को नहीं खरीदेंगे, यदि किसी फिल्म में भारतीय संस्कृति एवं आध्यातम का मजाक उड़ाया जाता है तो उस फिल्म का भारतीय समाज बहिष्कार करेगा। भारतीय त्यौहारों के विरुद्ध किये जा रहे प्रचार, जैसे दिवाली पर फटाके जलाने से पर्यावरण को नुक्सान होता है, होली पर पानी की बर्बादी होती है, शिवरात्रि पर दूध बहाया जाता है, आदि के विरुद्ध भी उचित प्रतिकार किया जाना चाहिए। यह हमें समझना होगा कि भारतीय परम्पराएं आदि-अनादि काल से चली आ रही हैं और यह संस्कृति वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत पर विश्वास करती है। अतः पूरे विश्व में यदि शांति स्थापित करना है तो भारतीय संस्कृति पर आधारित दर्शन ही इसमें मददगार हो सकता है, इससे पूरे विश्व की भलाई होगी।

आगरा में स्थानीय मेलों और सांस्कृतिक गतिविधियों को बहाल करने की जरूरत

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आगरा: क्यों बंद हो गए लोकल मेले, तमाशे, नुमाइशें?

आगरा में स्थानीय मेलों, और सांस्कृतिक गतिविधियों की समृद्ध परंपरा लगभग 40 साल पहले तक हमारे मोहल्लों और बाज़ारों में फलती-फूलती थी। दुर्भाग्य से, हमारे सामुदायिक जीवन का यह जीवंत हिस्सा काफी हद तक लुप्त हो गया है। सरकारी व्यावसायिक आयोजन, जैसे ताज महोत्सव, कार्निवल, होटलों में प्रदर्शनियां तो होती हैं, परन्तु पुराने जमाने के मेले तमाशे, ताज सिटी में अब नहीं होते। हमारे शहर और इसके निवासियों के लाभ के लिए इसे पुनर्जीवित करने का एक जबरदस्त अवसर है।

ऐतिहासिक रूप से, स्थानीय मेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों जैसे कि नुमाइश, कबूतरबाजी, पतंगबाजी, अखाड़ेबाजी प्रतियोगिताएं और यमुना में सामूहिक तैराकी मेलों ने विभिन्न इलाकों के लोगों को इकट्ठा किया, जिससे समुदाय और अपनेपन की भावना को बढ़ावा मिला। इन आयोजनों ने न केवल हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को उजागर किया, बल्कि स्थानीय कारीगरों, संगीतकारों और विक्रेताओं को अपनी प्रतिभा और सामान दिखाने के लिए एक मंच भी प्रदान किया, जिसने आगरा की सांस्कृतिक ताने-बाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कुछ आयोजन तो मुगलों के ज़माने से चल रहे हैं, ये कहते हैं इतिहासकार राज किशोर राजे।

जन कवि नजीर अकबराबादी ने आगरा के मेलों पर काफी लिखा है।

ताज महोत्सव से पहले तक, स्थानीय बाजार समिति के सहयोग से प्रत्येक मोहल्ला समिति वार्षिक मेला आयोजित किया करतीं थीं।। नगर पालिका प्रकाश, सफाई, पानी के टैंकर उपलब्ध कराती थी। स्थानीय मंदिरों के देवी, देवता को जुलूस के रूप में निकाला जाता था। हमारे यहां भैरों का मेला, पथवारी का मेला, कचहरी घाट का मेला, शाह गंज का मेला, ताज गंज का मेला आदि लगते थे। स्थानीय उत्पाद, खाद्य पदार्थ, खिलौने, सामान बेचे जाते थे। रामलीला मैदान में वार्षिक नुमाइश का आयोजन होता था। “दुर्भाग्य से आधुनिकीकरण की पागल दौड़ में ये सांस्कृतिक पदचिह्न खो गए हैं। इस सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने और संरक्षण की जरूरत है। हमारी सांस्कृतिक विरासत का अभिन्न अंग, स्थानीय संस्कृति जीर्णोद्धार की हकदार है, ” कहते हैं वरिष्ठ पत्रकार राजीव सक्सेना।

इन मेलों के पुनरुद्धार से कई महत्वपूर्ण लाभ हो सकते हैं:

जैसे, सामुदायिक एकता: स्थानीय मेले अपनेपन की मजबूत भावना पैदा करते हैं। वे लोगों को एक साथ आने, बातचीत करने और हमारी विविधता का जश्न मनाने के लिए एक जगह प्रदान करते हैं। यह एकता सामाजिक बंधन और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ा सकती है।
साथ ही, आर्थिक बढ़ावा मिलता है: स्थानीय मेले स्थानीय और पर्यटकों दोनों को आकर्षित करके अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दे सकते हैं। स्थानीय उत्पादों, हस्तशिल्प और पाककला के व्यंजनों को बढ़ावा देकर, हम छोटे व्यवसायों और कलाकारों का समर्थन कर सकते हैं, जिससे उन्हें फलने-फूलने के लिए एक बहुत ज़रूरी मंच मिल सके।

इसके अतिरिक्त, सांस्कृतिक संरक्षण: इन आयोजनों को पुनर्जीवित करने से हमारी स्थानीय परंपराओं, कला रूपों और लोककथाओं को संरक्षित करने में मदद मिलेगी, जिन्हें भुला दिए जाने का खतरा है। यह एक अंतर-पीढ़ीगत आदान-प्रदान की अनुमति देता है, जहाँ बुजुर्ग अपने ज्ञान को युवा पीढ़ी तक पहुँचा सकते हैं।

उद्योग जगत से जुड़े राजीव गुप्ता बताते हैं “पूर्व में स्थानीय आयोजनों को देखने टूरिस्ट्स भी आते थे, जिससे पर्यटन को बढ़ावा मिलता था: आगरा, ऐतिहासिक महत्व का एक शहर होने के नाते, अपने पर्यटन को बढ़ाने के लिए इन स्थानीय मेलों का लाभ उठा सकता है। आगंतुक अक्सर ऐसी अनुभवात्मक गतिविधियों की ओर आकर्षित होते हैं जो किसी स्थान की संस्कृति, परंपराओं और रोज़मर्रा की ज़िंदगी की झलक प्रदान करती हैं।””

यमुना के आसपास होने वाले कार्यक्रम, जैसे सामूहिक तैराकी और अन्य गतिविधियाँ, शारीरिक स्वास्थ्य और कल्याण को बढ़ावा देते हैं। प्रकृति से जुड़ना और सामुदायिक गतिविधियों में भाग लेना मानसिक स्वास्थ्य, आनंद और उद्देश्य की भावना को बढ़ा सकता है, कहना है डॉ देवाशीष भट्टाचार्य।
आगरा नगर निगम को स्थानीय मेलों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों को फिर से शुरू करने पर विचार करना चाहिए।

यह पहल मौसमी मेलों, स्थानीय कारीगरों के लिए कार्यशालाओं, स्थानीय कलाकारों द्वारा प्रदर्शन और सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने वाली सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं के आयोजन का रूप ले सकती है। स्थानीय स्कूलों और संस्थानों को शामिल करने से युवा पीढ़ी में हमारी संस्कृति के प्रति गर्व की भावना भी पैदा हो सकती है।

जब हम आगरा के विकास की ओर देखते हैं, तो हमें अपनी सांस्कृतिक विरासत के महत्व और हमारे समुदाय को एक साथ लाने में इसकी भूमिका को नहीं भूलना चाहिए। इन परंपराओं को बहाल करके हम एक अधिक जीवंत, एकजुट और आर्थिक रूप से समृद्ध आगरा का निर्माण कर सकते हैं।