PM Modi has shattered the ‘Trump mediation’ hoax and exposed the Opposition’s anti-India mindset

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Khemchand Sharma

Delhi : In a strong and unambiguous statement at the G7 Summit, Prime Minister Narendra Modi firmly denied any foreign intervention or mediation in the temporary ‘pause of fire’ during Operation Sindoor. He clarified that the decision was made independently by India and was based solely on Pakistan’s desperate request, after Indian forces had successfully achieved their military objectives against terror infrastructure.

This declaration is a direct rebuttal to the false narrative propagated by certain Opposition leaders and their international sympathizers, who attempted to portray the tactical pause as a result of pressure or intervention from former U.S. President Donald Trump. The Prime Minister made it categorically clear that India does not allow any third-party mediation in matters of national interest and security.

By doing so, PM Modi has not only reinforced India’s sovereign decision-making but also exposed the deliberate misinformation campaign aimed at undermining India’s strategic and military achievements.

The ‘Trump Ceasefire’ narrative, aggressively pushed by several Congress leaders, was part of a broader attempt to question India’s political leadership and discredit the Indian Armed Forces. Among the prominent Congress figures who promoted or echoed this propaganda were:

* **Jairam Ramesh**, who cited Trump’s remarks to question India’s stand.
* **Pawan Khera**, who mocked the government and amplified foreign claims over India’s sovereign decisions.
* **Manish Tewari**, who suggested that India’s actions were influenced externally, not strategically decided.
* **Rahul Gandhi**, who chose silence while allowing his party’s ecosystem to tarnish India’s success story.

This propaganda was not just a political misstep — it was a national embarrassment. It sought to question India’s global standing and insult the valor and planning of our security forces.

In light of Prime Minister Modi’s clear and public denial at the G7 platform, these Congress leaders must issue a public apology. They owe it to the nation, the armed forces, and the global Indian diaspora for:

* Spreading foreign-fabricated lies,
* Mocking India’s military achievements,
* And undermining the success of a strategically executed anti-terror operation.

Their actions were not just anti-Modi — they were anti-India. When national interest and security are at stake, there is no place for propaganda, pettiness, or political opportunism.

Operation Sindoor stands as a decisive, strategic, and sovereign achievement of India. It was neither dictated nor influenced by any foreign power. Prime Minister Modi’s statement has restored the truth and reaffirmed India’s position as a global leader that acts on its own terms.

ख़ामोश ताक़त: हिंदुस्तानी प्रवासी क्यों नहीं दिखाते अपनी हैसियत

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जो सिलिकॉन वैली चलाने का दावा करते हैं, कई मुल्कों की सत्ता भी संभालते हैं, अमेरिका के अस्पतालों में जान बचाते हैं — वही दुनिया के ज़ुल्म पर चुप क्यों रहते हैं? विदेशों में बसने वाला भारतीय समुदाय, सबसे कामयाब मगर सबसे बेअसर, असहाय क्यों नज़र आता है? क्यों हर जगह से भगाएं जाते हैं? कमाई के प्रति इतने समर्पित, खुदगर्ज हो गए, कि आत्म बल और सम्मान का सौदा कर लिया, और अब दुम दबाके दुबई से न्यू यॉर्क, डबलिन, ओटावा, कुली गिरी कर रहे हैं!

1972 में जब युगांडा के तानाशाह ईदी अमीन ने 80,000 भारतीयों को निकाल फेंका, तब दुनिया ने चुप्पी साध ली। 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध में भारत ने 22,000 छात्रों को निकाला, लेकिन एक बार फिर वही कहानी, कहीं न कहीं से निकाले जाते हैं स्टूडेंट्स या वर्कर्स— सबसे होनहार प्रवासी समुदाय, फिर भी अंतरराष्ट्रीय हालात का शिकार, न कि निर्माता।

आज दुनिया भर में 150 देशों में फैले 3.2 करोड़ से ज़्यादा भारतीय मूल के लोग सफलता की मिसाल हैं। अमेरिका में इनकी औसत सालाना आमदनी $1,23,700 है, जो राष्ट्रीय औसत से दोगुनी है। गूगल के सुंदर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सत्या नडेला जैसे दिग्गज दुनिया के नक्शे बदल रहे हैं। ब्रिटेन में ऋषि सुनक प्रधानमंत्री रहे हैं। कनाडा में 20 सांसद भारतीय मूल के हुए हैं।

मगर जब बात सामूहिक हित की रक्षा की हो, तब यह समुदाय पानी में लाठी मारता नज़र आता है।

ज़रा यह तुलना देखिए: यहूदी प्रवासी समुदाय अमेरिका में AIPAC जैसे संगठन के ज़रिए हर साल $100 मिलियन खर्च करता है ताकि उनकी नीति और सुरक्षा प्राथमिकता बनी रहे। जब 13 डेमोक्रेट सांसदों ने इज़राइल को आर्थिक मदद का विरोध किया, तो उनमें से 6 को चुनाव में पटकनी दी गई। उधर, कनाडा में जब प्रधानमंत्री ट्रूडो ने भारत पर इल्ज़ाम लगाया, तो 14 लाख भारतीय-कनाडाई लोगों की तरफ़ से कोई ढंग की प्रतिक्रिया नहीं आई — न प्रदर्शन, न दबाव। गोया खामोशी ही इनकी तक़दीर बन गई हो।

इस बेअसरियत की जड़ें गहरी हैं। यहूदी समुदाय जहाँ इज़राइल के लिए एकजुट रहता है, वहीं भारतीय प्रवासी टुकड़ों में बँटा है —वो पहले पंजाबी, तमिल, गुजराती है, बाद में हिन्दुस्तानी। “जहाँ सैंतीस बावन वहाँ रसोई न पके।” यही हाल है भारतीय प्रवासियों का — हर कोई अपनी ढपली, अपना राग अलापता है।

दूसरी बड़ी समस्या है — टकराव से घबराना। जब यू.एस. और यू.के. में भारतीय दूतावासों पर हमला हुआ, तो प्रवासी समुदाय का जवाब था — सन्नाटा। भारतीय मूल के लोग हार्वर्ड जैसे संस्थानों को करोड़ों डॉलर दान करते हैं — अकेले दो दानदाताओं से $75 मिलियन — मगर वहीं संस्थान भारत विरोधी कार्यक्रम कराते हैं और खालिस्तानी विचारकों को मंच देते हैं। उधर, यहूदी दानदाता फंड रोक देते हैं, जब तक कि कैंपस से यहूदी विरोधी बातें न हटा दी जाएं।

सबसे अफ़सोसनाक बात — इतनी आर्थिक हैसियत होने के बावजूद ये लोग अपना राजनयिक दबदबा नहीं बना सके। हर साल भारत को $125 अरब डॉलर के रेमिटेंस मिलते हैं, मगर इसका कोई राजनीतिक मोल नहीं बनता। जब क़तर ने भारतीय नौसेना के आठ पूर्व अधिकारियों को जेल में डाला, भारत बस हाथ जोड़ता रह गया। चीन होता, तो अपने नागरिक को छुड़वाने के लिए कूटनीतिक डंडा चला देता।

भारत सरकार भी दोष से अछूती नहीं। इज़राइल की 22 विदेशी शाखाएँ प्रवासी मामलों पर नज़र रखती हैं। भारत ने 2021 में अपने प्रवासी मंत्रालय को ही बंद कर दिया — बजट कटौती के नाम पर। “ऊंट के मुँह में जीरा।”

खाड़ी देशों में 80 लाख भारतीय प्रवासी आज भी लगभग गुलामी जैसी हालत में काम कर रहे हैं — पासपोर्ट ज़ब्त, अधिकार नाम की कोई चीज़ नहीं। जब पिछले साल सऊदी अरब ने 41 भारतीयों को कथित ‘ड्रग केस’ में फाँसी दी, भारत का जवाब था — एक औपचारिक विरोध पत्र।
उधर, अमेरिका के विश्वविद्यालय भारतीय छात्रों से हर साल $8 अरब डॉलर कमाते हैं और वहीं “हिंदुत्व उखाड़ो” जैसे सम्मेलन कराते हैं — जो इस्लाम या यहूदी धर्म पर होते तो कब के बंद हो जाते।

अब वक़्त आ गया है — या तो संगठित हो जाइए, या मिट जाइए। सुंदर पिचाई और सत्या नडेला जैसे दिग्गज अपने कॉर्पोरेट दबाव का इस्तेमाल करें। और भारत सरकार को भी अब अपनी सोच बदलनी होगी — प्रवासी को ‘कैश मशीन’ नहीं, बल्कि ‘रणनीतिक साथी’ मानना होगा।

शृंखला आलेख – 1: क्या माओवादियों के कारण ही बचे हैं जंगल?

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शहरी नक्सलियों का गढ़ा हुआ नैरेटिव है कि ‘देश के जंगल केवल इसी लिए सुरक्षित हैं क्योंकि वहाँ माओवादी हैं’। एक विमर्श में एक वाम-विचारक ने किसी लेख का हवाला देते हुए कहा कि तर्क के लिए अभी इसी क्षण से मान लीजिए कि माओवाद पूरी तरह समाप्त हो गया है, तब आप कल्पना कर सकते है कि अडानी-अंबानी जंगलों के भीतर घुस आए हैं…..कुछ ही वर्षों में जंगल पूरी तरह से साफ। यदि हम अपने दिमाग को घर के भीतर छोड़ आयें और तब इसी बात को सुनें तो वाह वाही कर उठेंगे, तालियाँ बजेंगी, जल-जंगल-जमीन के नारे बुलंद होंगे, है कि नहीं? वे लोग जिनके दिमाग उनके शरीर में निर्धारित स्थानों पर ही हैं, उनसे मेरा प्रश्न है कि भारत के कितने क्षेत्रफल पर माओवाद काबिज है?

भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के दावे तो बड़े बड़े हैं लेकिन उनका अधिकतम प्रभाव अबूझमाड के एक हिस्से में ही रहा है। कैलकुलेटर ले कर बैठिये क्योंकि थोड़े गुणा भाग करने होंगे। अबूझमाड का कुल क्षेत्रफल है 4000 वर्ग किलोमीटर और हमारे देश भारत का कुल कुछ क्षेत्रफल है 3,287,000 वर्ग किलोमीटर; अर्थात यह हिस्सा केवल 0.12% ही बनता है। इसे समझिए कि देश का 99.88% क्षेत्रफल माओवादियों के कथित आधार क्षेत्र से इतर हैं जिसमें अरुणाचल प्रदेश और मध्य प्रदेश के सघन वन क्षेत्र सम्मिलित हैं। छत्तीसगढ़ राज्य में अबूझमाड़ का कुल क्षेत्रफल 2.9% है अर्थात यहाँ भी 97.1% राज्य परिक्षेत्र भी माओवाद की कथित अधिसत्ता से बाहर है। छत्तीसगढ़ राज्य का कुल वन क्षेत्रफल है 55,812 वर्ग किलोमीटर, इसमें से 4000 वर्ग किलोमीटर को माओवाद प्रभावित मान कर घटा लेते हैं तो 51812 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र पर माओवादी प्रभाव नहीं है।

अबूझमाड के सम्पूर्ण वन क्षेत्र पर भी अब माओवादी काबिज नहीं हैं और देश के भीतर कभी लाल गलियारा की हुंकार भरने वाले माओवादियों के पास छुटपुट कुछ प्रभावक्षेत्र अब भी हैं। समग्रता से और परीक्षा में बहुत खुल कर, अधिक अंक देने वाले मास्टर से भी विवेचना करवा ली जाये तो भी देश के अधिक से अधिक 5000 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र पर ही माओवादियों की कुछ पकड़ शेष है। यह भारत के कुछ क्षेत्रफल का केवल 0.15% हिस्सा बनता है। इसमें भी यदि देखें तो भारत में कुल वन और वृक्ष आवरण का क्षेत्रफल 8,27,357 वर्ग किलोमीटर है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 25.17% है। इस क्षेत्रफल से यदि माओवाद प्रभावित 5000 वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र (0.60%) हटा देते हैं तो आज भी कुल 822,357 वर्ग किलोमीटर (99.4%) जंगल माओवाद विहीन हैं। सोचिए कि, क्या भारतीय वन क्षेत्र के केवल 0.60% क्षेत्र पर थोड़ा बहुत प्रभाव रखने वाले माओवादी सम्पूर्ण वन भूमि के संरक्षक हो सकते हैं? यह भी सोचिए कि वे जंगल जहां माओवादी नहीं हैं आखिर उनका संरक्षण कैसे हो रहा है? कश्मीर से कन्याकुमारी तक, क्या वह इंच इंच भूमि अडानी-अंबानी की हो गयी जहां माओवादी नहीं थे, या जहाँ से खदेड़े गये? यह भी सोचिए कि क्या वन क्षेत्र में परियोजनाएं लगाना आसान है?

घोषित होते ही वनभूमि किसी भी परियोजना के प्राधिकार में नहीं आती इसके लिए एक लंबी प्रक्रिया है। यदि वन क्षेत्र किसी राष्ट्रीय उद्यान, वन्य जीव अभयारण्य, टाईगर रिजर्व आदि क्षेत्रों से संबंधित है तो परियोजना के लिए वन्यजीव स्वीकृति को प्राप्त करना लगभग असंभव जैसी प्रक्रिया है। ऐसे में माओवादी जाएंगे और पूंजीपति आएंगे और देश का सारा जंगल खा जाएंगे वाले नैरेटिव को जरा ठीक से समझिये। हाँ, वन क्षेत्रों में संसाधन हैं और इसे ले कर अनक के तर्क-वितर्क, कानूनी प्रक्रियायें, विमर्श यदि होते रहे हैं, गए भी होंगे। इस सबका अर्थ यह नहीं कि माओवादी जंगल तो छोड़िए किसी लकड़ी भर के भी संरक्षक करार दिये जायें। वामपंथ के खोखले कुतर्क केवल संभावित डर पैदा करने और माओवाद को किसी भी तरह से सही ठहराने के लिए हैं।

शृंखला आलेख – 2: वन व वन्यजीव संरक्षण के प्राथमिक शत्रु हैं माओवादी

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माओवादियों ने केन्द्रीकृत रूप से अबूझमाड को तो अपना आधारक्षेत्र बनाया ही है, समानांतर रूप से वे संलग्न संरक्षित वनक्षेत्रों में भी सक्रिय हैं। सबसे निकट का उदाहरण है माओवादी संगठन की सेंट्रल कमेटी के सदस्य और तेलंगाना राज्य समिति से जुड़े माओवादी गौतम उर्फ सुधाकर का मारा जाना। वह मुठभेड़ जिसमें मानवता का यह हत्यारा माओवादी साहित्य उसने कई अन्य साथी मारे गये, वस्तुत: इंद्रावती टाइगर रिजर्व में चल रही थी। वर्ष 2022-23 के आसपास जब मैं इस क्षेत्र का अध्ययन कर रहा था, मेरी जानकारी में यहाँ सक्रिय दिलीप नाम के माओवादी की जानकारी थी जो संगठन में डीवीसी स्तर का कैडर था और उसकी दहशत हुआ करती थी। माओवादियों का यहाँ खौफ इतना था कि कई क्षत्रों में उन्होंने अपने नाके स्थापित किये थे जहाँ से गुजरने वालों को उन्हें टोल देना होता था; जिसकी बाकायदा पर्ची या रसीद भी भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) की ओर से दी जाती थी।

इस आलोक में जानते हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य में अबूझमाड और उसके सीमांत पर, मुख्यत: बीजापुर जिले में इंद्रावती टाइगर रिजर्व स्थित है जोकि देश के महत्वपूर्ण बाघ अभयारण्य में गिना जाता है। बस्तर अंचल की जीवनदायिनी सरिता इंद्रावती के नाम पर यह नामकारण किया गया है। इंद्रावती टाइगर रिजर्व को वर्ष 1983 में भारत के प्रोजेक्ट टाइगर के तहत बाघ अभयारण्य घोषित किया गया था, इसका कुल क्षेत्रफल लगभग 2799 वर्ग किलोमीटर है। यदि यहाँ अवस्थित प्राणी विविधता की बात की जाये तो मुख्य रूप से बाघ, जंगली भैंस, चीतल, गौर, सांभर, तेंदुआ और विभिन्न प्रकार के पक्षी सम्मिलित हैं। केवल जीव जगत ही नहीं वनस्पति वैविध्य के लिए भी यह परिक्षेत्र अपनी पहचान रखता है तथा अनेक विलुप्त प्राय अथवा संकटस्थ जीव-वनस्पतियों का यह संरक्षित क्षेत्र है।

इंद्रावती टाईगर रिजर्व पर जारी मुठभेड़ को ले कर मैंने एक समीक्षालेख पढ़ रहा था जिसके अनुसार संसाधन विहीन इस परिक्षेत्र में विकास कार्यों के लिए अनुमति नहीं मिल पाती इस कारण माओवादी यहाँ आसानी से सक्रिय हो जाते हैं। यह समझना होगा कि अभयारण्य क्षेत्र में किसी भी तरह का विकास कार्य पूर्णरूपेण वर्जित होता है अर्थात संसाधन होने के बाद भी यहाँ कोई गतिविधि, खदान, कारखाने लगाये जाने संभव ही नहीं हैं। बाघ के लिए संरक्षित अभयारण्यों को मानव गतिविधि विहीन ही रखा जाता है जिससे वन्य जीव संरक्षित रह सकें। ब्रिटिश शासन समय में इंद्रावती नदी के छोर का यह सघन वन क्षेत्र अंग्रेजों और राजा की शिकारगाह था, इतनी बड़ी संख्या में बाघ और जंगली भैंसे का शिकार किया गया कि वे विलुप्ति की कगार पर पहुँच गये। स्वतंत्रता के बाद जब संरक्षण की पहल हुई और यहाँ अभयारण्य निर्मित किया गया तब माओवादियों ने इसे अपनी सुरक्षित पनाहगाह बना लिया क्योंकि इसे परिक्षेत्रों में मानव गतिविधियां वर्जित कर दी जाती हैं।

एक पेड़ की टहनी तक जिस परिक्षेत्र से उठाना गैरकानूनी है वहाँ ठसके से बारूदी सुरंग बिछा कर, आईईडी और स्पाईक होल बना बना कर माओवादी अपने लिए तो किलेबंदी करते रहे लेकिन कितने ही मवेशियों और वन्यजीवों का जीवन खतरे में डाला, क्या इसका हिसब किताब लेने वाला कोई है? माओवादियों से क्षेत्र को मुक्त करने के लिए मुठभेड़ें भी इन्हीं क्षेत्रों में होने लगी तो सोचिए कि जीव जन्तु और पक्षी वहाँ किस अवस्था में होंगे अथवा पलायन कर गए होंगे। माओवादी क्या खाते हैं क्या पीते हैं बताने वाली शहरी नक्सलियों की किताबों को पढिए तो आपको स्पष्ट होगा कि कई जीव, पक्षी तो माओवादियों का भोजन बन गये; दुर्लभ सांपों तक को अपने बचाव में इन्होंने मार कर वन संपदा और उसके संतुलन को नष्ट किया है।

लालबुझक्कड शहरी नक्सलियों ने शब्दजाल से माओवादियों के समर्थन की जो ढाल बना रखी है, उनकी पहेलियों को हमें ठीक से बूझना होगा और यह पोल खोलनी होगी कि माओवादी ही वन और वन्यजीव सबसे बड़े शत्रु हैं, अन्यथा तो यह गिरोह हाथी के पैरों के निशान पर भी गीत का सकता है कि “पैर में चक्की बांध के, हिरणा कूदो कोय”।

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