शृंखला आलेख – 3: गुरिल्ला नहीं गिद्ध वारफेयर है माओवाद

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माओवादियों की युद्धनीति को गुरिल्ला वरफेयर कहना उचित उपमान नहीं है, यह शब्द शहरी नक्सलियों का नैरेटिव है जिसका उद्देश्य लाल-आतंकवादियों को महिमामण्डित करना। मेरा यह कथोपकथन अनायास नहीं है, इसे परिभाषा से समझते हैं। यह स्पैनिश भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है लघुयुद्ध, आम तौर पर गुरिल्ला शब्द छापामार के अर्थ में प्रयुक्त होता है। परम्परा से गुरिल्ला युद्ध अनियमित सैनिकों द्वारा शत्रुसेना पर पार्श्व से आक्रमण कर लड़े जाते हैं। योद्धा कम संख्या में होते हैं अत: बेहतर रणनीति के साथ, स्वयं की सामरिक बढ़त वाले स्थान चुन कर वे बड़ी सेना पर औचक आक्रमण करते हैं और संभालने का अवसर देने से पहले यथासंभव उद्देश्यपूर्ति के पश्चात भाग निकलते हैं। सबसे पहले ज्ञात छापामार अथवा गुरिल्ला युद्ध की जानकारी मिलती है जो चीन में 360 वर्ष ईसा पूर्व सम्राट् हुआंग और उनके शत्रु सी याओ के मध्य लड़ा गया था। भारत में महाराणा प्रताप ने अकबर के विरुद्ध और छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा औरंगजेब के विरुद्ध जिस शैली में लड़ाईया लड़ी गयीं, वह इसी श्रेणी में आती हैं।

इन उदाहरणों से माओवादी आतंकवादी क्यों अलग हैं इसे समझने के लिए हमें शैली पर एक दृष्टि डालनी होगी। छापामार योद्धा स्थान का चुनाव कर रहे थे, शत्रु पर अचानक हमला कर रहे थे लेकिन वह आमना-समाना था। ये सभी युद्ध वीरतापूर्ण थे, यहाँ योजना के साथ चिड़िया बाज से लड़ रही थी और जीत भी रही थी। इन युद्धों में बिना लड़े विजय पाने का दर्प नहीं था। माओवादी जिस तरह आईईडी लगा कर, एंबुश के माध्यम से विस्फोट कर ग्रामीणों और सुरक्षा बलों की लाशें बिछा रहे हैं, इसे गुरिल्ला कहना युद्ध और वीरता दोनों ही शब्दों का अपमान है, यह गिद्ध शैली है। गिद्ध लड़ता नहीं है लाश खाता है। माओवादी बिना सामना किये, लाशे ही चाहते हैं। सुरक्षा बलों ने यदि सौ अभियान किये तो सौ के सौ में उन्हें सतर्क, सटीक और सफल होना आवश्यक है लेकिन जाने-अनजाने की एक चूक वह होती है जिसकी अपनी निनानबे असफलताओं के बाद भी माओवादी प्रतीक्षा करते रहते हैं।

माओवादियों के गिद्ध वारफेर को दो उदाहरण से जानते हैं। पहला है, सुरक्षाबालों को मिल रही अनेक सफलताओं के बीच 6 जनवरी, 2025 की घटना। बीजापुर में नक्सल उन्मूलन की कार्रवाई में बड़ी सफलता अर्जित करते हुए जवानों ने पाँच माओवादियों को ढेर कर दिया था। पूरे क्षेत्र की सघन सर्चिंग करने के उपरांत जवान अपने कैंप की ओर लौट रहे थे। डीआरजी के जवानों को वापस लाने के लिए जो पिक-अप वाहन भेजी गई थी वह नक्सलियों का निशाना बन गयी। कुटरू क्षेत्र में अंबेली ग्राम के निकट नक्सलियों ने आईईडी ब्लास्ट किया। यह धमाका इतना अधिक शक्तिशाली था कि वाहन के परखच्चे उड़ गये। इस ब्लास्ट के कारण न केवल वाहन पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हुआ, बल्कि उसका एक हिस्सा निकट के पेड़ पर लटका हुआ देखा गया। सड़क के बीचोंबीच दस फुट से अधिक गहरा गड्ढ़ा हो गया। दंतेवाड़ा डीआरजी के आठ जवान और एक वाहन चालक इस घटना में शहीद हो गये। इसी तरह दूसरी घटना है 10 जून, 2025 की जब माओवादियों के भारत बंद के आह्वान के दृष्टिगत एक जलाए गए वाहन का निरीक्षण करने निकले अतिरिक्त एसपी आकाश राव गिरीपुंजे, लगायी गई आईईडी की चपेट में आ गए और शहीद हो गये, इस हादसे में अन्य अधिकारी एवं जवान भी घायल हुए हैं।

घात लगा कर लड़ना गुरिल्ला युद्ध नीति है जबकि एंबुश लगाना, आईईडी लगाना या स्पाईक होल लगा कर फिर छिप कर लाशे बिछ जाने की प्रतीक्षा करने वाले गिद्ध हैं और उनका तरीका गिद्ध वरफेयर कहा जाना चाहिए। देश भर से लाल आतंकवाद को समाप्त करने का समय आ गया है, लाशों के ढेर पर कथित क्रांति लाने के स्वप्नदृष्टा मिट्टी में मिला ही दिए जाएंगे। हमें लाल-आतंकवादियों के लिए सही सम्बोधन, उनकी युद्धनीति के लिए सही उपमान ही देने चाहिये। शहरी नक्सलियों के नैरेटिव उनके शब्दजाल में रचे-बुने हैं, समय है उनको भी ध्वस्त करने का।

शृंखला आलेख – 4: क्या वामपंथ के अस्तित्व के लिए चाहिये माओवाद?

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देश में कहीं कोई आक्रोश नहीं है, बल्कि अपने सुरक्षा जवानों पर गर्व का भाव है कि आजादी के समय से सतत तथा अपने उग्रतम रूप में चार दशक से जारी माओवाद की समस्या को निदान के करीब पहुँचा दिया गया है। इसी मध्य कई स्थानों से खुल कर तो कुछ दबे-छिपे स्वर उठ रहे हैं कि माओवादियों की अपील पर संज्ञान लिया जाना चाहिए और सरकार को उनके साथ “सीज फायर” करते हुए वार्ता करनी चाहिये। स्मृति पर जोर डालिये, जब तीन राज्यों की सीमा से जुड़ी कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों को घेर कर लगभग एक माह तक मुठभेड़ चली उसी समय तेलांगाना में एक “शांति समीति” सक्रिय हुई। इस कथित शांति के प्रयासकर्ताओं का “स्थान और समय” दोनों ही विचारणीय हैं। इस समीति को केवल एक ही राज्य की सरकार से समर्थन मिला, आखिर क्यों? क्या नक्सल उन्मूलन अभियान में छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र अलग तरह से काम कर रहे हैं और आंध्र-तेलांगना की सोच और शैली बिल्कुल अलग है?

जब यह स्पष्ट था कि अनेक माओवादी कैडर कर्रेगुट्टा की पहाड़ियों घेर लिए गए हैं जिनको बचाने के लिए एक के बाद एक अपील जारी हुई, माओवादियों ने पर्चे लिखे यहाँ तक कि मीडिया के सामने आ कर भी उन्होंने सरकार से बातचीत की पेशकश की। नक्सलियों की इसी बात पर सरकार किसी भी तरह सहमत हो जाये इसके लिए शांति समीति प्रयास कर रही थी। जो सत्यान्वेषी हैं उन्हें इस शांति समीति तथा इसी ही समीतियों के सदस्यों के तब के बयानों और कार्यों को संज्ञान में लेना चाहिए जब माओवादी मजबूत थे और सुरक्षा बल के जवान मारे जा रहे थे। यह अभियान सफल तो रहा लेकिन परिणाम अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहे, आखिर क्यों? इन विचारणीय प्रश्नों से हो कर ही हम उस उत्तर तक पहुँच सकेंगे कि निर्धारित तिथि तक माओवाद समाप्त हो सकेगा अथवा नहीं।

इस मध्य स्थान स्थान से यह सूचना भी आने लगी है कि स्थानीय ग्रामीण धरना दे कर मांग कर रहे हैं कि नक्सलियों से वार्ता होनी चाहिए। इस तरह की मांग और उसके पीछे के तथ्यों को समझने के लिए आपको माओवादियों के काम करने की शैली को भी जानना होगा। वे तरह तरह के स्थानिक संगठन जिसमें बच्चों के बीच बालसंघम सहित विभिन्न नामों से महिला संगठन, मजदूर संगठन, किसान संगठन आदि तैयार करते हैं। कुछ संगठन सीधे माओवादी कार्यशैली का हिस्सा हैं कुछ छद्म संगठन हैं जिनकी माओवादियों द्वारा ग्रामीणों के मध्य ही अपनी ढाल के रूप में संरचना की गई है। इसके अतिरिक्त कुछ नेटवर्क तो जंगल से शहर तक के बीच की कड़ी का काम करते हैं और कोर-शहरी नक्सली टीम को महत्वपूर्ण इनपुट देने के लिए बनाये गये हैं। माओवादी पत्रों और उनके हालिया बयानों को हमें पढ़ना चाहिए, उनकी अपील है कि वे अपने वरिष्ठ कैडरों से संपर्क नहीं बना सके हैं और इसलिए आगे क्या करना है इसकी स्पष्टता के लिए युद्धविराम चाहिए। पहली बात कि आतंकवाद न तो युद्ध होता है न ही मानवीय और दूसरी बात कि माओवादी सुरक्षाबलों की सफलता के कारण स्वयं के बिखरे संगठनात्मक ढांचे को फिर से खड़ा करने के लिए समय चाहते हैं। जब लोहा गर्म हो हथौड़े क असर तभी होता है यही कारण है कि कर्रेगुट्टा की आंशिक सफलता का क्षोभ अबूझमाड में माओवादी महासचिव वसवाराजू की मौत के साथ पूर्ण सफलता में बदला।

अब जबकि देश की पांच वामपंथी पार्टियों ने 9 जून, 2025 को प्रधानमंत्री को एक खुला पत्र लिखा है जिसमें यह अपील की गई है कि छत्तीसगढ़ और आसपास के इलाकों में माओवाद विरोधी अभियानों के नाम पर हो रही ‘न्यायेतर हत्याओं’ पर रोक लगानी चाहिये। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भाकपा (माले)-लिबरेशन, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक ने इस अपील पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं। पत्र के शब्द ‘न्यायेतर हत्याओं’ पर गौर कीजिए और अब रेखांकित कीजिए कि इस अपील के एक दिन पहले ही सुकमा-एर्राबोर-कोण्टा परिक्षेत्र में अतिरिक्त एसपी आकाश राव गिरीपुंजे की माओवादियों ने आईईडी विस्फोट के माध्यम से हत्या कर दी है। यही माओवादियों की बातचीत का तरीका और वास्तविक चेहरा है। इस पत्र के साथ ही यह समझ आता है कि वामपंथी दल और माओवादी दल एक ही पेज पर पूरी नग्नता के साथ सामने आ गए हैं और “गांधी विथ द गन्स” वाले स्थापित नैरेटिव को फिर से परोसने के प्रयास में हैं। इस पूरी कवायद का मेरा निष्कर्ष है कि आज वामपंथ देश में न केवल अप्रभावी है बल्कि राजनैतिक रूप से आखिरी साँसे ले रहा है, यही स्थिति माओवाद की भी है..। तो क्या यह समझा जाये कि उन्हें वामपंथ के अस्तित्व को बनाए रखने के लिए ही चाहिये माओवाद?

शृंखला आलेख – 5: मध्यस्थता और बातचीत की बेचैनी क्यों?

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आम तौर पर जीता हुआ युद्ध बातचीत की मेज पर पराजय में बदल जाता है। हम वर्ष 1971 का युद्ध इस तरह जीते कि विश्व के लिए एक उदाहरण बन गया, लेकिन बातचीत की मेज पर इस तरह हारे कि जीती हुई जमीन भी लौटानी पड़ी और तिरानबे हजार सैनिकों के बदले कोई ठोस समझौता भी न हो सका। बातचीत पराजितों का हथियार है जो पैना और धारदार है। माओवाद के संदर्भ में भी यह प्रसंग किसी तरह से भिन्न नहीं है। भारत में माओवाद के इतिहास पर पैनी नजर रखने वाले जानते हैं कि अनेक बार सरकार-माओवादी वार्ता हुई है लेकिन पूर्णतया असफल।

बातचीत के लिए बन रहे दबावों के वर्तमान प्रसंग को विवेचित करने से पूर्व मैं उदाहरण लेना चाहता हूँ जब वर्ष 2012 में सुकमा जिले के कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन का माओवादियों ने न केवल अपहरण किया बल्कि उनके दो सुरक्षा कर्मियों को गोली मार दी थी। इतने बड़े प्रशासनिक अधिकारी का अपहरण कोई साधारण घटना नहीं थी और सरकार बहुत अधिक दबाव में थी। इस समय माओवादी बस्तर क्षेत्र में बहुत मजबूत थे और सुकमा उनके मजबूत गढ़ों में गिना जाता था। माओवादियों ने बातचीत की टेबल सजायी, उस दौर में बीबीसी को उन्होंने बयान दिया – “हमने कलेक्टर को गिरफ्तार किया है। हमारी शर्तें हैं कि ऑपरेशन ग्रीनहंट को बंद किया जाए, दंतेवाड़ा रायपुर जेल में फर्जी मामलों में बंद लोगों को रिहा किया जाए, सुरक्षाकर्मियों को वापस बैरक भेजा जाए, कोंटा ब्लॉक में कांग्रेस नेता पर हमले के मामले में लोगों पर से मामले हटाए जाएँ। हमारे आठ साथियों को छोड़ा जाए- मरकाम गोपन्ना उर्फ सत्यम रेड्डी, निर्मल अक्का उर्फ विजय लक्ष्मी, देवपाल चंद्रशेखर रेड्डी, शांतिप्रिय रेड्डी, मीनाचौधरी, कोरसा सन्नी, मरकाम सन्नी, असित कुमार सेन।“

इन सभी मांगों पर गौर कीजिए। इनका सार संक्षेपण करें तो अर्थ निकलता है कि बस्तर में माओवादी ही रहेंगे सुरक्षाबालों को पीछे हटाओ, लाल-अपराधियों पर से मुकदमें ही नहीं हटाओ बल्कि कुख्यातों को रिहा भी करो। बातचीत जैसे जैसे आगे बढ़ती है मांगे भी बढ़ने लगती हैं यहाँ तक कि आठ से बढ़ कर उन माओवादियों की संख्या सत्रह पहुँच जाती है जिन्हें छोड़ने की मांग थी। नक्सलियों के मध्यस्थ बने हैदराबाद के प्रोफेसर जी. हरगोपाल एवं भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के पूर्व अधिकारी बी.डी. शर्मा पर विषयांतर से बचाने के लिए अलग से चर्चा करेंगे। यह राहत की बात थी कि माओवादियों की मांगे उस स्वरूप में नहीं मानी गयीं, जैसा वे चाहते थे; लेकिन इस घटना ने उन्हें वह वैश्विक ख्याति प्रदान की जो इस घटना का मूल उद्देश्य था। इस घटना के बाद माओवादियों ने स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विजेता और जन-अधिकारों के रक्षक की तरह सामने रखा, वे दुनिया भर के अखबारों की हैडलाईन थे, विदेशी समाचार चैनलों के लिए मसाला थे। इस घटनाक्रम और इसके हासिल से हमें वर्तमान में दिख रही मध्यस्थता की आतुरता और बातचीत के लिए दबावों के मायने समझ आ जाते हैं।

वर्ष 2016 में छत्तीसगढ़ पुलिस की स्पेशल टीम ने कलेक्टरके अपहरण में शामिल रहे नक्सली भीमा उर्फ आकाश को गिरफ्तार किया। फरवरी, 2023 को नई दुनिया में प्रकाशित एक खबर के अनुसार अदालत में स्वयं अलेक्स पाल मेनन ने अपने बयान में भीमा को नहीं पहचाना, उन्होंने कहा कि घटना काफी पुरानी है, इसलिए वे भीमा ही नहीं अभियुक्त गणेश उईके, रमन्ना, पापा राव, विजय मड़कम आकाश, हुंगी, उर्मिला, मल्ला, निलेश, हिड़मा, देवा यदि नक्सलियों को भविष्य में भी नहीं पहचान सकेंगे। इस तरह बातचीत से निकले समाधानों का पूर्ण पटाक्षेप हो गया है। इस घटना और ऐसी ही अनेक अन्य घटनाओं के जिम्मेदार लाल-अपराधी अब जा कर सुरक्षाबालों के हाथों या तो मारे जा रहे हैं या समर्पण कर रहे हैं। अब सरकार पूरी तरह सशक्त है, जीत की दहलीज पर खड़ी है और स्पष्ट है कि माओवाद को आने वाली पीढ़ियाँ इतिहास की पुस्तकों में ही पढ़ेंगी, ऐसे में उन सभी आवाजों को भी हमें ठीक ठीक से पहचानना होगा जो सीजफायर करो, बातचीत करो चीख रही हैं।

इस विषय के अंत में विचारार्थ आपके लिए मेरी ओर से छोड़ा गया प्रश्न है कि आखिर मध्यस्थता और बातचीत की ऐसी बेचैनी क्यों? क्या माओवादी स्वयं को पुनरगठित करने के लिए समय चाहते हैं और क्या उन्हें यही समय सरकार पर दाबाव बना कर शहरी नक्सली उपलब्ध कराने के लिए आतुर हैं। इस दबाव का सामना सरकार किस तरह करती है यह देखने वाली बात होगी।

शृंखला आलेख – 6: सफलता का मूलमंत्र है शहरी माओवादियों का दमन

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झिरम घाटी की घटना के कुछ ही दिनों पहले मैंने सलवा जुडुम आंदोलन के शीर्ष नेता महेंद्र कर्मा से बातचीत की थी। उनसे मेरा प्रश्न था कि माओवादियों से लड़ाई तो आप हार गये, इसका क्या कारण पाते हैं? तब उन्होंने दो टूक कहा था कि “जंगल में हम अपनी लड़ाई जीत जाते, उसे दिल्ली में पावर पॉईंट प्रेजेंटेशनों में हार गये”। यह कथोपकथन बहुत महत्व का है, उस दौर में दिल्ली वाली लॉबी कितनी सशक्त थी इसका उदाहरण यह कि तब एक वरिष्ठ कथाकार जिन्होंने बस्तर पर केंद्रित अनेक कहानियाँ लिखी हैं, उन्होंने महेंद्र कर्मा का यह साक्षात्कार जो तब छत्तीसगढ़ अखबार में प्रकाशित हुआ था, उसे फ़ेसबुक पर शेयर कर दिया। इसके बाद शहरी नक्सलतंत्र की प्रगतिशीलता जागी और उन्हें इस इस भांति की गालियां तथा साहित्यिक जगत से तड़ीपारी की धमकियाँ मिलने लगीं कि आखिर वे अपना पोस्ट डिलीट कर इस विषय पर सर्वदा के लिए शांत हो गये। शहरी नक्सल तंत्र एक दौर में इतना ताकतवर हो चला था कि केवल समूहों को ही नहीं, वह व्यक्तियों को भी निशाने पर ले रहा था, इसका उद्देश्य था कि केवल वही लिखा जाये जो वे निर्देशित करें, केवल वही कहा जाये जो जो वे चाहते हैं और केवल वही सुना जाये जो उन्होंने कहा है।

शहरी नक्सलवाद को हमेशा बहुत हल्के में लिया गया है। जिस दौर में आधे बस्तर संभाग पर माओवादी अपनी पकड़ बनाने में समर्थ हो चले थे, बड़ी बड़ी घटनायें जिनमें रानीबोदली के कैंप पर हमला हो या कि छिहत्तर जवानों का एंबुश में मारा जाना हो या कि झिरम घाटी में राज्य के शीर्ष कॉन्ग्रेसी नेतृत्व को मार दिया जाना हो, उसी दौर में समानांतर इन्हें जस्टीफाई करने के नैरेटिव गढे गये। देश के अधिकांश मीडिया संस्थानों पर वामपंथ हावी है शायद यही कारण है कि लाल नैरेटिव को फैलाने फैलाने में तब अधिक समस्या नही हुआ करती थी। माओवादी नेटवर्क केवल लेखक ही नहीं पालता-पोस्ता था बल्कि इनकी संगठित लीगल टीम भी विभिन्न नामों के साथ नक्सल क्षेत्रों में कार्य कर रही थी। देश की याददाश्त कमजोर है इसलिए मानवता के वे अपराधी भुला दिए गए है जो मानवअधिकार की खाल ओढ कर बंदूख वाले माओवादियों की अपनी कलम से ढाल बने हुए थे।

दिल्ली का एक विश्वविद्यालय तो तब शहरी नक्सलवादियों की राजधानी बन कर उभरा था। सुरक्षाबल यदि माओवादियों के विरुद्ध अभियान में सफल होते तो मानवाधिकार के हनन पर सेमीनार आयोजित होते, विश्व भर के लाल-घड़ियाल बुक्का फाड़ फाड़ कर रोते और जवानों के मारे जाने पर विश्वविद्यालय के भीतर जाम टकराये जाते थे। एक पुस्तक के सिलसिले में, बड़ी संख्या में आत्मसामार्थित माओवादियों से मेरी बातचीत हुई है, अनेक ने मुझे बताया कि आजकल आना बंद हुआ है अन्यथा पहले जब विश्वविद्यालय में गर्मी की छुट्टियाँ होती और प्राध्यापकों के निर्देश पर समाजशास्त्र के छात्रों का समरकैम्प नक्सलियों के मध्य अबूझमाड में लगा करता था। जैसे जैसे माओवाद कमजोर पड़ता गया, विद्यार्थियों का समाज और शास्त्र अलग अलग हो गया और अब जंगलों में इनकी आमद नहीं के बराबर है।

अब दो रणनीतियाँ स्मरण कीजिये। बात एक दौर में बस्तर आईजी रहे एसआरपी कल्लूरी से ले कर वर्तमान में इस पद पर अवस्थित सुंदराजन तक की कर लेते हैं। ये दोनों ही समय माओवाद के विरुद्ध बड़ी सफलताओं के दौर हैं। दोनों के समय अच्छा मुखबिर नेटवर्क बनाने के लिए जाने जाएंगे यहाँ तक कि इन समयों की कार्यशाली में दो नामों पर गौर कीजिए एक हैं एसपीओ और दूसरा डीआरजी। एसपीओ अथवा स्पेशल पुलिस ऑफिसर भी स्थानीय थे, अनेक युवक माओवादी जीवन छोड़ने के कारण तो अनेक सलवाजुड़ुम के कारण माओवादियों के निशाने पर थे। सरकार ने इन्हें प्रशिक्षित लिया, इनकी सेवाएं लीं और तब माओवादियों के पैर उखाड़ने लगे थे। ठीक इसी समय पिटीशन पर पिटीशन दायर होंने लगीं। पुलिस अधिकारी मानवता के शत्रु निरूपित कर दिए गए। देश भर के अखबार इस तरह रंग गए जैसे माओवादी नहीं सुरक्षाबल ही अपराधी हैं। इन दबावों को सरकार और पुलिस झेलने में असमर्थ रही एसपीओ को डिसमैन्टल कर दिया गया और माओवादी पहले से अधिक तकतवर हो कर उभरे। सलवाजुडुम से जुड़े ग्रामीणों और एसपीओ से सम्बद्ध युवकों को तलाश तलाश कर माओवादियों ने मारा और मानवता के नारे जो सुरक्षाबलों के विरुद्ध मुखर थे, अब मुंह में दही जमा कर बैठ गये। वर्तमान में छत्तीसगढ़ में डीआरजी (डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) सक्रिय है जिसमें अधिकांश आत्मसमार्थित माओवादी हैं। इन्हें मिलने वाली सफलता ऐसी है कि स्वयं माओवादी महासचिव वसवा राजू ने डायरी में लिखे एक संदेश में अपने कैडरों को डीआरजी से सावधान किया था। डीआरजी ने माओवाद की जड़ें ही ढीली नहीं की बल्कि नक्सल महासचिव को भी मिट्टी में मिला दिया है।

अब सोचिए कि एसपीओ से डीआरजी तक क्या बदला है? वस्तुत: अब शहरी माओवादी उजागर हो चले हैं, बैकफुट पर हैं। शहरी नक्सलवाद शब्द का पहले बहुत परिहास हुआ लेकिन जैसे जैसे इसके कारिंदे अपनी कलम और कारस्तानियों साहित उजागर होने लगे, बंदूख वाले नक्सली भी अपनी ढाल खो बैठे। अब बोलने-छापने वालों के बीच भी वामपंथ का दबदबा कम हुआ है और अन्य विचार विमर्श भी अपनी जगह बनाने लगे हैं। इससे आमजान ठीक से परिस्थतितियों को समझ सका, इसी कारण नक्सलवाद को लाल-आतंकवाद के रूप में उसकी सही पहचान मिली। आज समाज को न नक्सलियों से सहानुभूति है न नक्सल समर्थकों से इसलिए बंदूख वाले नक्सली मिट रहे हैं और कलम वाले बेबस।

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