शृंखला आलेख – 7: सड़क नहीं होगी तो सरकार भी नहीं होगी

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बस्तर परिक्षेत्र में सडक और माओवाद हमेशा एक बड़े नैरेटिव का हिस्सा रहे हैं। आज जब भी हम बस्तर के भीतर से आने वाले समाचारों, विशेषरूप से अबूझमाड के नक्सल परिक्षेत्रों और विकास की परिचर्चाओं से दोचार होते हैं तब सड़क पर विशेषरूप से विमर्श सामने आता है। इसे समझने के लिए हमें तीन पक्ष जानने होंगे – पहला रियासतकाल में बनाने वाली सड़कें, दूसरा स्वततंत्रता के पश्चात के प्रयास और तीसरा माओवाद के बाद की स्थिति। यहाँ हमें कुछ और बातें भी स्पष्ट होंगी जैसे नर्म वामपंथ और उग्रवामपंथ दोनों में केवल कार्यशैली का अंतर है और दोनों से परिणाम एक जैसे ही प्राप्त होने हैं। विमर्श की सुविधा के लिए सड़कों को ले कर नीति और समझ को चार विंदुओं में समझने का यत्न करते हैं। ये विंदु हैं – रियासत कालीन योजनायें, स्वतंत्र भारत के प्रशसकों के कदम, माओवादियों द्वारा सड़कों का नाश तथा बदलावों की दशा और दिशा।

बस्तर रियासत का गजट मानी जाती है पं. केदारनाथ ठाकुर की पुस्तक ‘बस्तर भूषण’ जोकि वर्ष 1910 में प्रकाशित हुई थी। यह पुस्तक तत्कालीन बस्तर का इतिहास, राजनीति, समाजशास्त्र, भूगोल आदि का समग्र दस्तावेज है। इस पुस्तक में हमें उस दौर में विकास की जो अवधारणा थी, इसकी स्पष्ट झलख मिलती है। जगदलपुर से चांदा जाने वाली सड़क सन 1904 में पूरी कर ली गयी जो एक छोर से अबूझमाड़ को छू कर गुजराती थी। सन 1907 ई. तक अतिदुर्गम मार्ग ‘कोंडागाँव-नारायनपुर-अंतागढ़, तक सड़क बना ली गयी थी जिसे बाद में डोंडीलोहारा होते हुए राजनांदगाँव तक बढ़ा दिया गया। यह सड़क भी अबूझमाड तक रियासतकालीन दस्तक थी। इसके अतिरिक्त भीतरी क्षेत्रों में कच्चे और बैलगाड़ी के रास्ते भी तब निर्मित किये गये थे। पुस्तक में स्पष्टता है कि दुर्गम क्षेत्र होने के कारण सड़क निर्माण का कार्य आसान नहीं है अत: प्रमुख मार्गों की निर्मिती के पश्चात भीतरी अबूझमाड़ में संपर्क मार्गों का विकास किया जायेगा।

स्वतंत्रता पश्चात बस्तर को जो आरंभिक प्रशासक मिलें उन्होंने अनेक ऐसी गलतियाँ की हैं जिसकी आज भी भरपाई नहीं हो सकी है। ब्रम्हदेव शर्मा जो साठ के दशक में कलेक्टर थे, उन्होंने तय किया कि अबूझमाड़ में सड़कें नहीं बनने दी जायेंगी। उनका मानना था कि जहाँ सड़कें जाती हैं, सड़कों की बीमारी भी साथ जाती है अर्थात जनजातीय समाज को मुख्यधारा से अलग रखा जाना चाहिए। सड़कें नहीं बनी और अबूझमाड को सप्रयास मानवसंग्रहालय बना दिया गया। हमें संज्ञान में लेना होगा कि ब्रम्हदेव शर्मा का वामपंथ की ओर झुकाव स्पष्ट रहा है, यही नहीं वे उग्र वामपंथ के लिए भी मित्रवत थे तभी नक्सलियों की ओर से उन्होंने कलेक्टर अपहरण प्रकरण मीन मध्यस्थता भी की थी। सड़कविहीनता की स्थिति से लाभ उठा कर माओवादी बस्तर के भीतर प्रवेश करते हैं। अबूझमाड को वे आधार इलाका केवल इसलिए बना पते हैं चूँकि वहाँ सड़क नहीं थी, प्रशासन नहीं था, पुलिस नहीं थी और यह सब केवल इसलिए क्योंकि एक दौर का कलेक्टर ऐसा ही चाहता था; आश्चर्य लेकिन यही सच है।

माओवादियों ने आधार इलाका अर्थात अबूझमाड़ को सभी ओर से सुरक्षित करने के लिए जो भी सक्रिय सड़कें उस ओर जाती थीं, सभी को नष्ट कर दिया। जो कच्चे रास्ते थे वे पहले बड़ी बड़ी डाईक अथवा नियमित अंतराल पर समानांतर गड्ढे खोद कर माओवादियों द्वारा नष्ट करवा दिए गये। विस्फोटकों ने पक्की सड़कों के नाम निशान भी रहने नहीं दिए, अनेक स्थानों पर तो स्वयं ग्रामीणों ने दबाव में आ कर अपने ही क्षेत्र के आवागमन मार्ग को नष्ट किया। इस तरह से एक व्यापक किलेबंदी की गई और अबूझमाड को माओवादियों ने अपने लिए सर्वथा सुरक्षित बना लिया। यही नहीं उन समयों में एरिया डोमिनेशन के तहत वे जहां जहाँ भी आगे बढ़ते गये, क्षेत्र की सड़कों को मिटाते गये। अभी एक दशक पहले तक गीदम से कोन्टा या कि गीदम से भोपालपट्टनम जाना कठिनतम कार्य हुआ करता था क्योंकि ये राजमार्ग असंख्य स्थानों पर माओवादियों द्वारा काट दिए गये थे।

मैं माओवादियों की उपराजधानी कहे जाने वाले जगरगुंडा में उस दौर में भी गया हूँ जब यहाँ तक पहुंचना असंभव की श्रेणी में आता था और आज यही परिक्षेत्र एक ओर दोरनापाल और दूसरी ओर अरणपुर के द्वारा जुड़ा गया है। पहले माओवाद यहाँ का वर्तमान था जो आज इतिहास हो गया है। शहरी नक्सलियों का यह बहुचर्चित नैरेरिव है कि आजादी के इतने साल बाद भी जब सड़कें नहीं होंगी तो माओवादी क्यों नहीं होंगे? इस पूरी रूप देखा को सामने रख कर हमें यह समझना होगा कि सड़क और माओवाद का क्या संबंध है। हमें यह भी रेखांकित करना होगा कि माओवाद को बंदूख से तो हराया जा रहा है, अब अबूझमाड के भीतर तक पहुँचती सड़कों ने भी उनकी हार तय की है।

शृंखला आलेख –8 माओवादियों का क्षेत्रीयतावाद

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वामपंथियों ने देश के भीतर की हर दरार को चौडा करने का कार्य किया है, ध्यान से देखें तो प्रांतवाद, भाषावाद, जातिवाद यहाँ तक कि साम्प्रदायवाद के पीछे भी, किसी न किसी रूप में लाल सलाम दिखाई पड़ जायेगा। किताबी रूप से सारी दुनिया एक समान का सपना देखने वालों का अस्तित्व ही टुकड़े टुकड़े में है, शायद इसीलिए देश ने लाल-समूह का स्वाभाविक नामकरण टुकड़े टुकड़े गैंग के रूप में किया है। वाम प्रगतिशीलता की पोल-पट्टी खोलने के यत्न में विषयांतर का भय है अत: इसी तथ्य की विवेचना हम माओवाद के संदर्भ में करते हैं।

वर्ष 2005 में जब देश भर में फैले उग्र-वामपंथी धड़ों का एकीकरण हुआ तब भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) अस्तित्व में आयी। सीपीआई (माओवादी) पोलित ब्यूरो भारत में प्रतिबंधित माओवादी विद्रोही समूह के भीतर एक उच्च स्तरीय निर्णय लेने वाला निकाय है। यदि समय पर्यंत के इसके सदस्यों को देखें तो अधिकांश सदस्य आंध्र-तेलंगाना के रहे हैं, आखिर क्यों? साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल के अनुसार, 2004 में पोलित ब्यूरो के सदस्यों की संख्या 16 थी, जो वसवराजू के मारे जाने के बाद की परिस्थितियों तक केवल तीन रह गयी है। इनमें भी मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति तथा मल्लजुला वेणुगोपाल राव उर्फ सोनू का संबंध आंध्र-तेलंगाना है जबकि अकेले मिसिर बेसरा झारखण्ड का रहने वाला है।

इसके अतिरिक्त केन्द्रीय समिति के 18 सदस्य अभी भी सक्रिय हैं, जिनमें से अधिकतर या तो छिपे हुए हैं या इतने वृद्ध हैं कि प्रभावी ढंग से कार्य नहीं कर सकते। इसी स्थिति में केन्द्रीय समीति के माओवादियों  सहित अन्य चर्चित बड़े नामों की विवेचना करें तो वे भी अधिकांश आंध्र-तेलंगाना के निवासी हैं। तेलांगाना से जो सक्रिय व चर्चित नाम जो पुलिस द्वारा समय समय पर जारी मोस्ट वांटेड की सूची में भी हैं उनमें प्रमुख हैं  – बल्लरी प्रसाद राव (करीमनगर), के रामचन्द्र रेड्डी (करीमनगर), मोडेम बालाकृष्णा (वारंगल), गणेश उईके (नालकोंडा), गजराला रवि (वारंगल), सुजाता (महबूबनगर) आदि। अन्य राज्यों से अनल दा उर्फ पतिराम माझी जोकि  गिरीडीह झारखण्ड जैसे गिनती के नाम ही हैं जो संगठन के उच्च पदों तक पहुँच पाते हैं। छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग से वरिष्ठतम कैडरों का अकाल है केवल एक नाम माडवी हिड़मा ही उल्लेखनीय है जो कि सुकमा जिले के पूवर्ती ग्राम (जगरगुण्डा) का रहने वाला है।

वस्तुत: भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) के गठन के बाद इसके अंदर सम्मिलित हुए विभिन्न घटकों में भी आपसी खींचतान बनी हुई थी। वर्चस्व की इस लड़ाई में बाजी मारी गठजोड़ के सबसे प्रमुख घटक अर्थात पीपुल्स वार ग्रुप ने। अपना आधिपत्य बनाए रखने के लिए तत्कालीन महासचिव गणपति ने सप्रयास आंध्र-तेलांगाना का वर्चस्व संगठन में बनाया और उसे उसके पश्चात वसवराजू ने भी कायम रखा। यहाँ ध्यान देना होगा कि जबतक नक्सल आधार क्षेत्र में सीधे सुरक्षाबल नहीं घुसे थे और निर्णायक लड़ाई आरंभ नहीं हुई थी तब तक संगठन में मरने वाला वाला कैडर स्थानीय था जिसका नाम-निशानलेवा भएए संभवत: कोई नहीं। छत्तीसगढ़ में बस्तर संभाग से बड़ी संख्या में स्थानीयों को तो माओवादियों के अपना कैडर बढ़ाने के लिए लक्ष्यित किया लेकिन एक सीमा के बाद उसे नक्सल संगठन में कोई जगह या पद नहीं दिया गया।

इस विवेचना के माध्यम से मैं केवल यह सिद्ध करने का प्रयास अकर रहा हूँ कि मार्क्सवाद-माओवाद के नाम पर कोरा गप्पवाद और अवसरवाद है, संगठन में वर्चस्व का संघर्ष प्राथमिकता रहा और वर्गसंघर्ष ऐसा ही था जैसे भेड़िया भेड़ की खाल पहने। क्षेत्रीयतावाद आज ऐसे समय पर भी हावी है जबकि संगठन में वरिष्ठ सदस्य उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। 

पोलिटिकली करेक्ट क्राइम का बढ़ता प्रकोप

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रंगनाथ सिंह

ब्रिटेन की सबसे बड़ी खबर बीबीसी हिन्दी पर न छपे तो आप इसे किस तरह देखेंगे! देश के एक बहुत बड़ी धार्मिक संस्था का उच्च पदाधिकारी एक लड़की के मर्डर को सही बताए और वह खबर भी राष्ट्रीय मीडिया में ज्यादा हंगामा न मचाए तो आप क्या कहेंगे!

अकाल तख्त के मुख्य ग्रन्थि का कहना है कि नीचे दिख रही लड़की की हत्या करना गलत नहीं था क्योंकि लड़की अश्लील वीडियो बनाती थी! मगर खुद को लिबरल कहने वाला तबका इस हत्या पर ज्यादा शोर नहीं मचा रहा है क्योंकि ऐसा करना पोलिटिकली इनकरेक्ट होगा! पोलिटिकल इनकरेक्टनेस से बचने के लिए रेप और मारपीट को चुपचाप स्वीकार कर लेने के बाद अब हत्या को भी स्वीकार करने की तरफ देश बढ़ रहा है। एक वर्ग तो पहले ही ऐसी हत्या को जायज मानता आ रहा था अब दूसरे वर्ग भी वही रास्ता अपनाने की तरफ बढ़ रहे हैें। अभी कुछ दिन पहले ही पाकिस्तान में भी सना यूसुफ नामक महिला की इसी कारण से हत्या की गयी।

इसी बीच ब्रिटेन की लेबर सरकार ने ग्रूमिंग गैंग की राष्ट्रीय जाँच के आदेश दे दिये हैं मगर याद रखें कि लेबर उर्फ लिबरल नेताओं ने ही नहीं ब्रिटेन के लिबरल पत्रकारों-बुद्धिजीवियों इत्यादि ने मिलकर दशकों तक नाबालिग बच्चियों के सुनियोजित रेप और उत्पीड़न पर पर्दा डाला ताकि उनका वोटबैंक बरकरार रहे!

जिन्हें आप लिबरल मीडिया समझते हैं उनमें से किसी की हेडिंग से यह जानना मुश्किल है कि ग्रूमिंग गैंग का मामला दरअसल है क्या! हेडिंग ही नहीं कॉपी तक में इस खबर को सैनिटाइज करने के प्रयास पहले की तरह जारी हैं। मसलन बीबीसी अब भी अपनी कॉपी में पाकिस्तानी की जगह एशियाई शब्द का प्रयोग कर रहा है ताकि वह यह बात छिपा सके कि ग्रूमिंग गैंग द्वारा किए गए रेप के दो-तिहाई अपराध उनके द्वारा किया गया है जिनकी आबादी ब्रिटेन में करीब दो प्रतिशत है।

भारत में जमीन या महिला के संग छेड़छाड़ के लिए दो समुदायों में झगड़ा हो जाए तो वह उनकी जाति या रिलीजन के कारण होता है मगर ब्रिटेन में दो-तिहाई से ज्यादा अपराधी एक ही मूल के हों तो उसमें उनके जाति-रिलीजन-देश-नस्ल इत्यादि का कोई रोल नहीं होता है, बल्कि वो बस एक क्राइम होता है! आप भारत के स्वघोषित लिबरल लोगों से भी बात कर लें। वे भी सेम डिफेंस मैकेनिज्म यूज करते हैं और अक्सर अपराधियों के डिफेंस लॉयर की तरह बहस करते हैं। उनकी सहानुभूति पीड़िता लड़कियों के संग नहीं बल्कि उनके संग अपराध करने वालों के संंग होती है और उसपर वो दावा करते हैं कि वे ऐसा हाई मोरल पोजिशन के नाम पर कर रहे हैं! यूजफुल इडियट!

क्या आप भी यही सोचते थे कि महिलाओं के संग बर्बर अपराध केवल पिछड़े ग्रामीण समाज में नार्मलाइज किए जाते हैं! लंदन, इस्लामाबाद और भटिंडा के जिन इलाकों में ये हत्याएँ हुई हैं वो पिछड़े इलाके में नहीं हुई हैं। इन हत्याओं को छिपाने और जस्टिफाई करने वाले भी बड़े शहरों में रहते हैं। वरना ब्रिटेन के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय जाँच का इतना विरोध न करते और अब जब मजबूरन उन्हें जाँच का आदेश देना पड़ा है तो भी लिबरल बुद्धिजीवी चुप रहकर इस तूफान के गुजर जाने की उम्मीद कर रहे हैं।

वैश्विक स्तर पर भारत के विरुद्ध पुनः गढ़े जा रहे झूठे विमर्श

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दिल्ली । वैश्विक स्तर पर आर्थिक जगत में भारत का उदय कुछ देशों को रास नहीं आ रहा है। विकसित देशों के बीच पूरे विश्व में भारत आज सबसे तेज गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था बना हुआ है। जापान, ब्रिटेन, फ्रांन्स, इटली आदि देशों से आगे निकलते हुए भारत आज विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है और शीघ्र ही लगभग एक वर्ष के बाद जर्मनी को पीछे छोड़ते हुए भारत के विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के आसार भी अब स्पष्टत: दिखाई दे रहे हैं। भारत एक ओर अतिआधुनिक तकनीकि के आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स एवं डाटा सेंटर जैसे क्षेत्रों में पूरे विश्व का नेतृत्व करता हुआ दिखाई दे रहा है तो दूसरी ओर वित्तीय क्षेत्र में ऑनलाइन व्यवहारों के मामले में भी भारत आज कई देशों का मार्गदर्शन करता हुआ दिखाई दे रहा है। कुल मिलाकर भारत आज लगभग प्रत्येक क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनते हुए विश्व के अन्य देशों पर अपनी निर्भरता को कम करता जा रहा है। भारत के विकास की यह गति एवं राह कुछ देशों को बिलकुल उचित नहीं लग रही है एवं वे वैमनस्य का भाव पालते हुए भारत के विरुद्ध एक बार पुनः कुछ झूठे विमर्श गढ़ने का प्रयास कर रहे हैं।

हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 2,730 अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है, जबकि बांग्लादेश में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 2,870 अमेरिकी डॉलर है। इस प्रकार, भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के मामले में बांग्लादेश जैसे छोटे देश से भी पीछे है। अतः यह झूठा विमर्श गढ़ने का प्रयास किया जा रहा है भारत में किस प्रकार का आर्थिक विकास हो रहा है जिससे भारतीय नागरिकों की आय तो उतनी तेजी से नहीं बढ़ पा रही है, जिस तेजी से भारत का आर्थिक विकास होता हुआ दिखाई दे रहा है। आंकड़ों का उचित तरीके से विश्लेषण न करते हुए भारत के संदर्भ में गलत जानकारी देने का कुत्सित प्रयास किया जा रहा है। यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि किसी भी मामले में तुलना दो आमों के बीच ही सम्भव है आम एवं संतरे के बीच तुलना कैसे सम्भव है। भारत की जनसंख्या 140 करोड़ है, जबकि बांग्लादेश की जनसंख्या केवल 17 करोड़ से कुछ ही अधिक है। भारत एक विशाल देश है जिसमें 60 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या आज भी गावों में निवास करती है। भारत में 28 राज्य एवं 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं। बांग्लादेश, भारत के सामने एक पिद्दी सा देश है। यदि तुलना करनी ही हो तो भारत की तुलना चीन से की जा सकती है। इसी प्रकार, बांग्लादेश की तुलना स्विट्जरलैंड, नीदरलैण्ड, स्वीडन आदि जैसे छोटे देशों से की जा सकती है। स्विट्जरलैंड में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद 99,564 अमेरिकी डॉलर; नीदरलैण्ड में 64,572 अमेरिकी डॉलर एवं स्वीडन में 55,516 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति है। ब्रिटेन ने जब भारत में अपनी सत्ता को छोड़ा था अर्थात भारत ने वर्ष 1947 में जब राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त की थी तब भारत की 70 प्रतिशत से अधिक आबादी गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही थी, परंतु आज केवल 4 से 4.5 प्रतिशत भारतीय ही गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे हैं। जबकि, बांग्लादेश में लगभग 19 प्रतिशत नागरिक गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने को मजबूर हैं। भारत के सकल घरेलू उत्पाद का आकार आज 4.19 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को पार कर गया है जबकि बांग्लादेश के सकल घरेलू उत्पाद का आकार केवल लगभग 46,700 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है। सकल घरेलू उत्पाद को देश की कुल जनसंख्या से बांट कर ही प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े को प्राप्त किया जा सकता है। भारत की जनसंख्या 140 करोड़ से अधिक है जबकि बांग्लादेश की जनसंख्या मात्र 17 करोड़ है। इससे प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का आंकड़ा बांग्लादेश की तुलना में कुछ कम हो जाता है। भारत में पिछले कुछ वर्षों के दौरान बहुत संतुलित विकास हुआ है। भारत में न केवल धनाडयों की संख्या में अपार वृद्धि दर्ज हुई हे बल्कि गरीबी उन्मूलन पर भी पर्याप्त ध्यान दिया गया है जिससे गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले नागरिकों की संख्या में भी अतुलनीय कमी दर्ज हुई है।

बांग्लादेश की तुलना में भारत एक विशाल देश है एवं भारत के कई राज्यों यथा महाराष्ट्र, गुजरात एवं तमिलनाडु आदि का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद बांग्लादेश की तुलना में दुगने से तिगुने आकार का है। इसी प्रकार, भारत के राज्य अभी भी कुछ पिछड़े राज्यों की श्रेणी में शामिल है, जैसे, बिहार, झारखंड आदि। परंतु किसी भी देश के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का औसत निकालते समय देश के समस्त राज्यों के आंकड़ों को शामिल करना होता है। इस कारण से भी भारत में प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद का औसत कुछ कम हो जाता है।

हाल ही के समय में एक और कुतर्क दिया जा रहा है कि भारत में तेज गति से हो रही आर्थिक प्रगति के बीच भी बच्चों की जन्म-मृत्यु की दर अफ्रीकी देशों के समान बनी हुई है। इस प्रकार का झूठा विमर्श गढ़ते समय संभवत: वास्तविक स्थिति की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया है। रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया की एसआरएस रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1,000 शिशुओं के जन्म के बीच शिशुओं की जन्म-मृत्यु दर केवल 26 है। जबकि अफ्रीकी देशों यथा नाईजीरिया में 67, कांगो में 62 एवं ईथियोपिया में 34 है। इन सभी अफ्रीकी देशों की तुलना में भारत में शिशुओं की जन्म-मृत्यु दर कम है। अतः भारत अब अफ्रीकी देशों से इस मामले में बहुत आगे निकल आया है। हां, इस संदर्भ में भारत की तुलना यदि विकसित देशों से की जाएगी यथा अमेरिका में 5 एवं जापान में 2, तब जरूर भारत में इस स्थिति को अभी और अधिक सुधारने की आवश्यकता है, जिसके लिए केंद्र सरकार लगातार प्रयास कर रही है। विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार बहुत तेज गति से किया जा रहा है। जिला स्तर पर मेडिकल कॉलेजों की स्थापना की जा रही है। भारत में इस संदर्भ में क्षेत्रीय विषमता भी दिखाई देती है। जैसे, केरल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, दिल्ली जैसे विकसित राज्यों में शिशुओं के जन्म के बीच जन्म-मृत्यु दर 10-15 के बीच ही है, जबकि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं बिहार जैसे राज्यों में यह 40-50 के बीच बनी हुई है। हालांकि धीमे धीमे इन राज्यों में भी तेजी से सुधार दृष्टिगोचर है। देश में संस्थागत प्रसव की दर में सुधार हुआ है, परंतु जननी सुरक्षा, पोषण एवं टीकाकरण के क्षेत्रों में विशेष रूप से ग्रामीण इलाकों में अभी भी प्रयासों को गति दी जा रही है। इसी प्रकार, ग्रामीण इलाकों में अति पिछड़े परिवारों (विशेष रूप से अनुसूचित जनजाति के क्षेत्रो में) के बीच गंदे पानी का उपयोग, कुपोषण, प्रसव के पूर्व की देखभाल में कमी के चलते शिशुओं के जन्म के बीच जन्म-मृत्यु दर को अभी और कम किया जाना शेष है। भारत में हालांकि स्वास्थ्य सेवाओं में तेजी से सुधार हुआ है, पर कुछ राज्यों पर अभी भी विशेष ध्यान केंद्रित कर ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ नीति से स्वास्थ्य सेवाओं को संतुलित किया जा रहा है।

एक तीसरा झूठा विमर्श और खड़ा किया जा रहा है कि जब भारत आर्थिक प्रगति के पथ पर तेज गति से दौड़ रहा है तो फिर 80 करोड़ नागरिकों को मुफ्त अनाज क्यों उपलब्ध कराया जा रहा है? तथ्यात्मक रूप से यह सही है कि भारत में “प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना” के अंतर्गत भारत में केंद्र सरकार द्वारा देश के 80 करोड़ नागरिकों को 5 किलो मुफ्त राशन प्रति माह उपलब्ध कराया जा रहा है। दरअसल, भारत में अभी भी गरीबी पूर्ण रूप से समाप्त नहीं हुई है। सरकार का यह परम कर्तव्य है कि वह अपने नागरिकों को पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध करवाए। कोरोना महामारी के खंडकाल में देश के नागरिकों पर आई प्राकृतिक आपदा के चलते करोड़ों की संख्या में नागरिकों ने अपने रोजगार खोए थे तथा इस गम्भीर समय में केंद्र सरकार ने अपने सामाजिक दायित्व का निर्वहन करते हुए देश के गरीब नागरिकों को उक्त योजना के अंतर्गत खाद्य सामग्री उपलब्ध कराना प्रारम्भ किया था, जो आज भी जारी है। दरअसल इसी योजना के चलते भारत में आज लाखों परिवार गरीबी रेखा से ऊपर उठकर मध्यम श्रेणी परिवार की श्रेणी में शामिल हो गए हैं एवं देश के आर्थिक विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। कोरोना महामारी के खंडकाल में मंहगाई एवं बेरोजगारी के दौर में देश के नागरिकों को आजीविका की गारंटी देना आवश्यक था। जब तक देश के समस्त परिवार आत्मनिर्भर नहीं जो जाते तब तक इसे एक “ट्रैंजीशनल सिक्यूरिटी नेट” माना जा सकता है। हां, आगे आने वाले 3-5 वर्षों के दौरान इस योजना के अंतर्गत शामिल नागरिकों की संख्या को कम जरूर किया जाना चाहिए क्योंकि जो परिवार अब गरीबी रेखा से ऊपर उठकर मध्यम श्रेणी परिवार की श्रेणी में शामिल हो गए है, ऐसे परिवारों को उक्त योजना का लाभ अब बंद किया जाना चाहिए।

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