शृंखला आलेख – 15: यह रणनीति परिपक्व कही जाएगी

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रायपुर: माओवाद का उन्मूलन करने के अनेक प्रयास होते रहे लेकिन कभी भी प्रशासन अथवा सरकार इतनी आश्वस्त नहीं थी कि एक तारीख भी इसके लिए सुनिश्चित की जा सकती है। चार दशक में जो संभव नहीं हो सका, अब ऐसा क्या हुआ है जिससे इतनी आश्वस्ति है? क्या यह तिथि अनायास ही दे दी गयी अथवा इसके पीछे कोई सुनिश्चित रणनीति काम कर रही थी? इस बात को समझने का यत्न करते हैं तो हमें समय समय पर किसे गए प्रयासों और उनसे सीखे गए सबक की ओर देखना होगा।

लगभग दो दशक तो यथास्थितिवादिता थी। बस्तर संभाग वृहद मध्यप्रदेश राज्य के अंतर्गत आता था। एक बड़े राजय के लिए बस्तर की समस्या को आंकड़ों में छोटा दिखाना या बनाए रखना संभव था, यही किया जाता रहा। वर्ष 2001 के जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तो नक्सल प्रभावित क्षेत्र राज्य का एक तिहाई हिसा बना गया। ऐसे में राजनीति आंखे मूँद कर नहीं रहा सकती थी। राज्य द्वारा किए गए आरंभिक प्रयासों में असफलताएं अधिक थीं। माओवादी आधे से अधिक बस्तर की किलेबंदी कर चुके थे। सरकार ने वृहद बस्तर जिले को सात छोटे छोटे जिलों में विभाजित कर प्रशासन और आमजन् के मध्य की दूरी कम की, यह कदम नक्सलवाद को कमजोर करने में सबसे कारगर सिद्ध हुआ था।

सलवा जुडुम के दौर में सरकार को यह लगा कि ग्रामीण ही माओवादियों के विरुद्ध विजय प्राप्त कर सकते हैं लेकिन ऐसा हो न सका। सरकार ने शहरी माओवादियों को अपने लिए समस्या समझा ही नहीं था, साथ ही अनेक छद्म सामाजिक संस्थायें पुलिस व प्रशासन के माओवाद विरोधी हर कदम पर कानूनी अवरोध प्रस्तुत करने के लिए तत्पर थीं। इस सबसे देश-दुनिया में यह चित्र उभरा कि परिक्षेत्र में मानवाधिकार का हनन हो रहा है। विश्व भर में मानव अधिकार के नारे केवल और केवल राजनीति का हिस्सा बना चुके हैं उनका आम जन के वास्तविक दुख दर्द से कुछ भी लेना देना नहीं है। सतत पद रहे देशज व वैश्विक दबावों से सरकार में हताशा थी, उस दौर में सक्रिय पुलिस अधिकारियों का तबादला कर दिया गया और कमोबेश यह मान लिया गया था कि माओवाद की समस्या अमरबेल है।

ठीक इसी समय योजना बनाने वालों और तत्कालीन डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अपनी रणनीति बदली। माओवादियों ने कहा कि ग्रामीण स्कूल ध्वस्त किए जाएंगे, इनमें फोर्स रुकती है; सरकार ने पोर्टा केबिन बनवा दिए और इस तरह शिक्षण जारी रखा। सीधे सीधे टकराने की नीति से उलट हर पाँच किलोमीटर पर सैन्यबलों के कैंप स्थापित किए गये, धीरे धीरे एरिया डोमिनेशन किया गया जिससे कि स्थानीय जन न्यूनतम प्रभावित हों और सीधे माओवाद की जड़ पर ही प्रहार किया जाये। इससे मानव अधिकार के नाम पर होने वाली राजनीति पर भी लगाम लगाने लगी क्योंकि कैंप सिविक एक्शन (जन लाभ के कार्य) भी कर रहे थे साथ ही साथ जहाँ जहाँ भी ये स्थापित होते आस-पास के लगभग दस किलोमीटर क्षेत्र के माओवादियों का पीछे हटाना उनकी बाध्यता हो जाती थी। माओवादियों ने भी सुरक्षा बलों पर दबाव डालने के लिए रानी बोदली जैसे कैंप ध्वस्त किए लेकिन कैंप निर्माण और विस्तार का सिलसिला रुका नहीं। कुछ प्रयास यह भी हुए कि समूहों में क्रमिक आंदोलन द्वारा ग्रामीणों को आगे कर कैंपों के प्रसार को रोकने का प्रयास किया गया लेकिन इसमें भी माओवादी और उनके सहयोगी सफल नहीं हो सके। सरकारें बदलीं तो नक्सल नीति भी बदली, उदाहरण के लिए काँग्रेस पार्टी के शासन समय में भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री रहते माओवादीयों के प्रति बहुत अधिक आक्रामकता नहीं देखी गई लेकिन कैंप स्थापित करने का कार्य यथावत चलता रहा।

एक बार फिर विष्णुदेव साय के नेतृत्व में भाजपा की सरकार लौटी और अब माओवादियों के प्रति अधिक मुखर व निर्णायक नीति देखने के लिए मिल रही वस्तुत: अब शहरी माओवादी भी उजागर हो चले हैं, बैकफुट पर हैं। आज समाज को न नक्सलियों से सहानुभूति है न नक्सल समर्थकों से इसलिए बंदूख वाले नक्सली मिट रहे हैं और कलम वाले बेबस। समयपर्यंत जब यह सोचा जा रहा था कि माओवाद के विरुद्ध आखिरी लड़ाई अबूझमाड में होगी, चौंकाते हुए समानांतर ही सुरक्षाबलों ने आधार इलाके पर ही करारा प्रहार किया; इससे बड़ी संख्या में माओवादी या तो मारे गए याकि उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया है। इस परिस्थिति से लगता तो है कि मार्च 2026 तक नक्सलवाद का समूल नाश हो जाएगा।

शृंखला आलेख – 14: देवता नहीं नृशंस हत्यारा है वह!

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रायपुर: जनवरी, 2025 में माओवादी संगठन का सेंट्रल कमेटी मेम्बर चलपति उर्फ जयराम अपने सोलह साथियों सहित छत्तीसगढ़ राज्य के गरियाबंद जिले में मारा गया था। माओवादियों की सेंट्रल कमीटी का सदस्य चलपति जोकि आंध्र प्रदेश के चित्तूर जिले का रहने वाला था वह पुलिस रिकॉर्ड में प्रताप रेड्डी, रामचंद्र रेड्डी, अप्पाराव, जयराम, रामू जैसे अनेक अन्य नामों से जाना जाता था। उम्र में स्वयं से सैंतीस वर्ष छोटी नक्सल कैडर जिसका नाम अरुणा था, उससे चलपति ने शादी की थी। संज्ञान में लें कि इस तरह की क्रांति भी माओवादी करते हैं।

चलपति का ससुर लक्ष्मण राव अपने दामाद का शव लेने रायपुर पहुंचा था तो उसने मीडिया में कुछ बयान दिए। लक्ष्मण राव को अपनी बेटी के माओवादी हो जाने से शिकायत नहीं थी, युवती कन्या के बुजुर्ग व्यक्ति से विवाह कर लेने से भी कोई दिक्कत नहीं थी, उनके लिए तो दामाद देवता था। मेरे लिए आतंकवादी का यह देवत्व ऐसा प्रश्नचिन्ह था जिसके परोक्ष में उत्तर छिपा है कि क्या बंदूख मिट जाएगी तो भी माओवाद् समाप्त हो सकता है? इस दयनीय प्रतीत होने वाले पिता की कथित होनहार और जनपक्षधर बेटी का एक कारनामा यह भी है कि वह वर्ष 2018 में अरकू जिले के विधायक किदारी सरवेश्वर राव और पूर्व विधायक सिवेरी सोमा की हत्या में शामिल थी। इनके अतिरिक्त भी कई निर्दोषों की हत्या का उसपर आरोप है।

हत्यारी बेटी के हत्यारे दामाद चलपति को उसका मासूम दिखने वाला ससुर देवता क्यों मानता है? इस प्रश्न के उत्तर में उसका कहना था कि बेरोजगारी, महंगाई पर आवाज उठाने वाले को नक्सली बता कर मार दिया जाता है। मीडिया ने इससे नहीं पूछा कि मुखबिर बता कर किसे मार दिया जाता है? न् तो महंगाई का माओवाद से कोई संबंध है न् ही बेरोजगारी का। माओवादियों द्वारा इतनी कच्ची उमर के लड़के प्राथमिकता से रिक्रूट किए जाते है जिन्हे न बेरोजगारी का अर्थ पता होता है न् महंगाई का; यह तो छोडें, उन समयों में वे क्रांति क्या है यह तक नहीं जानते। महंगाई समस्या है, बेरोजगारी भी समस्या है और इस देश में ऐसी असंख्य समस्याएं विद्यमान हैं लेकिन क्या इसके लिए निकाल लिया जाये बंदूख ले कर और शामिल हो जाया जाए हत्यारों की टोली में?

आतंकवाद को इस तरह जस्टीफआई करने के लिए अगर लोग तैयार हैं तो क्या सचमुच माओवाद के जिंदा रहने के जमीनी कारण विद्यमान हैं? इसका उत्तर है नहीं; यह इसलिए क्योंकि आंध्र-तेलांगाना तुलनात्मक रूप से विकसित राज्य है। यहाँ से आने वाले आतंकवादियों ने भी छत्तीसगढ़ के जंगलों का उपनिवेश की तरह उपयोग किया और अपने परिक्षेत्र के जंगलों को केवल ट्रांजिट की तरह। समयपर्यंत भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी (माओवादी) पर आंध्र-तेलांगाना के लोग ही विक्रम की पीठ पर बैताल की तरह लटके रहे। छतीसगढ़ के भीतर अबूझमाड परिक्षेत्र में उपलब्ध आधार इलाका इन्हें अपनी व्यवस्था के संचालन के लिए राजधानी जैसी सुविधा उपलब्ध कराता था साथ ही इस पूरे मकड़जाल का अपना अर्थतंत्र भी है जो बंदूख के लिए गोली ही नहीं खरीदता शहरी नक्सलियों की स्याही और बोली भी खरीदता है। जड़ कटेगी तो पौधा भी सूखेगा तना भी मरेगा और पत्तियां भी जमीन पर सड़ेंगी। हाँ अपनी बेटी अरुणा को बंदूख तक पहुँचाने वाला पिता कितना संवेदनशील हो सकता है इसपर मेरी कोई टिप्पणी नहीं।

शृंखला आलेख – 13: जब स्कूल तोड़े जा रहे थे

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रायपुर : जनजातीय क्षेत्रों में शिक्षा की स्थिति, स्कूलों  के हालात और मास्टरों की हाजिरी को ले कर तरह तरह के प्रश्न चिन्ह हैं। यहाँ सवाल का उठना  सही भी हैं लेकिन सीधे माओवाद से जब इन कारकों को जोड़ दिया जाता है तब विवेचना अवश्यंभावी हो जाती है। ‘स्कूल नहीं हैं तो बच्चा क्या करेगा नक्सलवादी ही बनेगा’ वाला एक नैरेटिव दिल्ली और इर्दगिर्द के विमर्श जगत में बहुत सामान्य है। यह इतनी आसानी से हजम हो जाने वाली गोली है कि एक दौर में मेरा भी यही मानना था कि चम्बल में डाकू और देश में नक्सल शिक्षण संस्थाओं, विशेष रूप से स्कूलों की कमी की उपज हैं, बहुत बाद में पता लगा कि बागी होना भी एक विचार है जिसकी आड़ में डाकू ने बंदूख उठाई है और लाल-आतंकवादी ने भी वाम विचारधारा के पोषण के लिए हथियार थामें हुए हैं; इनका शिक्षा, स्वास्थ, सड़क जैसी बुनियादी आवश्यकताओं से कोई संबंध नहीं है। इंफ्रास्ट्रक्चर तो डकैतों और नक्सलियों के दुश्मन हैं, उनके अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। 

रियासतकालीन बस्तर में अंदरूनी क्षेत्रों में भी स्कूल खोले जाने लगे थे। बात वर्ष 1910 के आसपास की है, बस्तर रियासत के दीवान थे पंडा बैजनाथ जिनकी इच्छा तो प्रगतिशील सोच प्रदर्शित करती है लेकिन प्रतिपादन तानाशाही वाला था। उन दिनों बच्चों का स्कूल जाना केवल अनिवार्य ही नहीं किया गया बल्कि नहीं जाने पर बच्चों और उनके पालकों के लिए कठोर सजायें नियत कर दी गयीं। यह तरीका अञ्चल में हुए महानतम आंदोलन भूमकाल के विभिन्न कारकों में से एक गिना जाता है। बाद के राजाओं और अंग्रेजों ने इसके पश्चात अनेक छोटे बड़े शाला भवन बनवाये लेकिन अब बच्चों या पालकों से जोर-जबरदस्ती करने का रिवाज नहीं था। आजादी के बाद अबूझमाड को छोड़ कर शेष बस्तर के आमतौर पर सभी ब्लॉक तक छोटी बड़ी शालायें पहुँचने लगी थी, यद्यपि दुर्गम स्थलों की भरपूर अनदेखी हुई इसमें भी कोई संदेह नहीं है। जनजातीय क्षेत्रों में अध्यापकों की कामचोरी और लापरवाही की भी अनेक कहानियाँ हैं जिसको विषय से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। 

अब प्रश्न यह कि माओवादियों की आमद के बाद अचानक स्कूल जनता के शत्रु क्यों बना गये? वर्ष 2004 से 2010 के मध्य असंख्य शाला भवनों को माओवादियों ने बारूद लगा कर उड़ा दिया। इस कुकृत्य के पीछे तर्क दिया गया कि सुरक्षा बल इन स्कूलों में  कर रुकते हैं इसलिए इनको नष्ट किया जा रहा है। मैंने अनेक नष्ट शाला भवनों का उस दौर में दौरा किया है, सोचिए कि तीन चार कमरों के विद्यालय में सुरक्षा बलों को ठहरने पर कैसी और कितनी सुरक्षा मिल सकती थी? तत्कालीन सरकारों ने नक्सलियों और शहरी नक्सलियों के आरोप का तरह तरह से खण्डन करने का प्रयास किया था कि सुरक्षा बलों को विद्यालय में ठहरने से प्रतिबंधित किया जा रहा है अथवा आरोप मिथ्या हैं आदि, इसके बाद भी शाला भवनों का नष्ट किया जाना जारी रहा। उस दौर में छत्तीसगढ़ सरकार ने पक्के शाला भवनों का विकल्प पोर्टा केबिन के रूप में तलाशा जो टाट-चटाई और अस्थाई वस्तुओं से निर्मित हुए थे। यह असुरक्षित संरचना है कई बार आग लग चुकी है, जिनमें बच्चों की मौत भी हुई है।

विद्यालय इसलिए नहीं तोड़े गए थे कि उनमें फोर्स रुकती है, बल्कि इसलिए क्योंकि माओवादी एक व्यवस्था को पूरी तरह से अपने कब्जाये हुए परिक्षेत्र से खदेड़ देना चाहते थे। इससे भीतर क्या हो रहा है वह सूचनातंत्र अवरुद्ध होता, आधारक्षेत्र का विस्तार होता और वे अपना कैडर भी इस तरह बढ़ा सकते थे। कितना आश्चर्य है न कि केरल से भी बड़े भूभाग में दशकों से यह सब होता रहा फिर भी मौन ही पसरा रहा है।     

“राजधर्म का पालन करने वाला विश्व का एकमात्र देश भारत है” – शिवशंकर

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मुरैना: शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास, नई दिल्ली के 22वें स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री कॉलेज ऑफ एक्सीलेंस, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, मुरैना में “भारतीय ज्ञान परंपरा एवं न्यास की विकास यात्रा” विषय पर संगोष्ठी का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक एवं पर्यावरण गतिविधि के प्रांत संयोजक शिवशंकर रहे। उन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा पर प्रकाश डालते हुए एक प्रेरणादायक प्रसंग साझा किया, जिसमें दो मित्रों के आपसी ईमानदारी और न्यायप्रियता से संबंधित निर्णय को राजा द्वारा राजधर्म के आधार पर सुलझाया गया। उन्होंने कहा, “भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां राजधर्म का पालन युगों से होता आ रहा है।”

कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष एवं भाजपा के प्रदेश खेल प्रकोष्ठ संयोजक नीरज शर्मा ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति की सराहना करते हुए कहा कि वर्तमान युग युवाओं के लिए स्वर्णिम अवसरों से भरा हुआ है। उन्होंने प्रधानमंत्री द्वारा युवाओं के हित में लाई गई नीतियों की प्रशंसा की और कहा कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के लागू होने से भारत एक बार फिर विश्वगुरु बनने की ओर अग्रसर है।

मध्यप्रदेश की नई शिक्षा नीति 2020 की प्रदेश क्रियान्वयन समिति के सदस्य एवं न्यास के प्रांत संयोजक धीरेन्द्र भदौरिया ने पूर्व सरकारों द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में की गई अनियमितताओं की आलोचना करते हुए कहा कि बिना योजना के पाठ्यक्रम बनाकर भारतीय मूल्यों और ज्ञान परंपरा को हानि पहुंचाई गई। उन्होंने ‘चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास’ पर चर्चा करते हुए उपनिषदों में वर्णित पंचकोशीय अवधारणा को विस्तृत रूप से समझाया और कहा कि यह शिक्षा नीति व्यक्ति को स्थूल से सूक्ष्म, और फिर आनंद की ओर ले जाने वाली एक आध्यात्मिक यात्रा है।

न्यास के केंद्रीय प्रचार समिति सदस्य एवं प्रांत प्रचार प्रमुख अर्पित शर्मा ने छात्रों को मातृभाषा, मातृभूमि और माँ के प्रति सम्मान का महत्व समझाते हुए कहा कि मातृभाषा केवल बोली नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक आत्मा है, और इसकी रक्षा व प्रचार सभी भारतीयों का कर्तव्य है।

न्यास के विभाग संयोजक श्री राजकुमार वाजपेयी ने न्यास की स्थापना से लेकर अब तक की विकास यात्रा को रेखांकित किया।

महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ. ऋषिपाल सिंह ने सभी अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि शिक्षा तभी पूर्ण होती है जब उसमें संस्कार समाहित हों। उन्होंने छात्रों से देश की संस्कृति और परंपरा के प्रति सम्मान और गर्व की भावना रखने का आह्वान किया।

लगभग दो घंटे तक चली इस संगोष्ठी में छात्रों ने भारतीय ज्ञान परंपरा की गहराईयों को आत्मसात किया और इसे एक “ज्ञान की गंगा” की अनुभूति बताई।

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