रायपुर: माओवाद का उन्मूलन करने के अनेक प्रयास होते रहे लेकिन कभी भी प्रशासन अथवा सरकार इतनी आश्वस्त नहीं थी कि एक तारीख भी इसके लिए सुनिश्चित की जा सकती है। चार दशक में जो संभव नहीं हो सका, अब ऐसा क्या हुआ है जिससे इतनी आश्वस्ति है? क्या यह तिथि अनायास ही दे दी गयी अथवा इसके पीछे कोई सुनिश्चित रणनीति काम कर रही थी? इस बात को समझने का यत्न करते हैं तो हमें समय समय पर किसे गए प्रयासों और उनसे सीखे गए सबक की ओर देखना होगा।
लगभग दो दशक तो यथास्थितिवादिता थी। बस्तर संभाग वृहद मध्यप्रदेश राज्य के अंतर्गत आता था। एक बड़े राजय के लिए बस्तर की समस्या को आंकड़ों में छोटा दिखाना या बनाए रखना संभव था, यही किया जाता रहा। वर्ष 2001 के जब छत्तीसगढ़ राज्य बना तो नक्सल प्रभावित क्षेत्र राज्य का एक तिहाई हिसा बना गया। ऐसे में राजनीति आंखे मूँद कर नहीं रहा सकती थी। राज्य द्वारा किए गए आरंभिक प्रयासों में असफलताएं अधिक थीं। माओवादी आधे से अधिक बस्तर की किलेबंदी कर चुके थे। सरकार ने वृहद बस्तर जिले को सात छोटे छोटे जिलों में विभाजित कर प्रशासन और आमजन् के मध्य की दूरी कम की, यह कदम नक्सलवाद को कमजोर करने में सबसे कारगर सिद्ध हुआ था।
सलवा जुडुम के दौर में सरकार को यह लगा कि ग्रामीण ही माओवादियों के विरुद्ध विजय प्राप्त कर सकते हैं लेकिन ऐसा हो न सका। सरकार ने शहरी माओवादियों को अपने लिए समस्या समझा ही नहीं था, साथ ही अनेक छद्म सामाजिक संस्थायें पुलिस व प्रशासन के माओवाद विरोधी हर कदम पर कानूनी अवरोध प्रस्तुत करने के लिए तत्पर थीं। इस सबसे देश-दुनिया में यह चित्र उभरा कि परिक्षेत्र में मानवाधिकार का हनन हो रहा है। विश्व भर में मानव अधिकार के नारे केवल और केवल राजनीति का हिस्सा बना चुके हैं उनका आम जन के वास्तविक दुख दर्द से कुछ भी लेना देना नहीं है। सतत पद रहे देशज व वैश्विक दबावों से सरकार में हताशा थी, उस दौर में सक्रिय पुलिस अधिकारियों का तबादला कर दिया गया और कमोबेश यह मान लिया गया था कि माओवाद की समस्या अमरबेल है।
ठीक इसी समय योजना बनाने वालों और तत्कालीन डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने अपनी रणनीति बदली। माओवादियों ने कहा कि ग्रामीण स्कूल ध्वस्त किए जाएंगे, इनमें फोर्स रुकती है; सरकार ने पोर्टा केबिन बनवा दिए और इस तरह शिक्षण जारी रखा। सीधे सीधे टकराने की नीति से उलट हर पाँच किलोमीटर पर सैन्यबलों के कैंप स्थापित किए गये, धीरे धीरे एरिया डोमिनेशन किया गया जिससे कि स्थानीय जन न्यूनतम प्रभावित हों और सीधे माओवाद की जड़ पर ही प्रहार किया जाये। इससे मानव अधिकार के नाम पर होने वाली राजनीति पर भी लगाम लगाने लगी क्योंकि कैंप सिविक एक्शन (जन लाभ के कार्य) भी कर रहे थे साथ ही साथ जहाँ जहाँ भी ये स्थापित होते आस-पास के लगभग दस किलोमीटर क्षेत्र के माओवादियों का पीछे हटाना उनकी बाध्यता हो जाती थी। माओवादियों ने भी सुरक्षा बलों पर दबाव डालने के लिए रानी बोदली जैसे कैंप ध्वस्त किए लेकिन कैंप निर्माण और विस्तार का सिलसिला रुका नहीं। कुछ प्रयास यह भी हुए कि समूहों में क्रमिक आंदोलन द्वारा ग्रामीणों को आगे कर कैंपों के प्रसार को रोकने का प्रयास किया गया लेकिन इसमें भी माओवादी और उनके सहयोगी सफल नहीं हो सके। सरकारें बदलीं तो नक्सल नीति भी बदली, उदाहरण के लिए काँग्रेस पार्टी के शासन समय में भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री रहते माओवादीयों के प्रति बहुत अधिक आक्रामकता नहीं देखी गई लेकिन कैंप स्थापित करने का कार्य यथावत चलता रहा।
एक बार फिर विष्णुदेव साय के नेतृत्व में भाजपा की सरकार लौटी और अब माओवादियों के प्रति अधिक मुखर व निर्णायक नीति देखने के लिए मिल रही वस्तुत: अब शहरी माओवादी भी उजागर हो चले हैं, बैकफुट पर हैं। आज समाज को न नक्सलियों से सहानुभूति है न नक्सल समर्थकों से इसलिए बंदूख वाले नक्सली मिट रहे हैं और कलम वाले बेबस। समयपर्यंत जब यह सोचा जा रहा था कि माओवाद के विरुद्ध आखिरी लड़ाई अबूझमाड में होगी, चौंकाते हुए समानांतर ही सुरक्षाबलों ने आधार इलाके पर ही करारा प्रहार किया; इससे बड़ी संख्या में माओवादी या तो मारे गए याकि उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया है। इस परिस्थिति से लगता तो है कि मार्च 2026 तक नक्सलवाद का समूल नाश हो जाएगा।