हाॅकी से बदल रहा कस्बा

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वर्ष 2009 शाहबाद के लोगोें के लिए थोड़ा खास रहा क्योंकि इसी कस्बे को महिला हाॅकी के मानचित्र पर ऊंचाई तक पहुंचाने वाले कोच बलदेव सिंह को इसी साल गुरू द्रोणाचाय अवार्ड मिला और उनके साथ ही उनकी शिष्या और उस वक्त भारतीय हाॅकी टीम की कप्तान सुरिन्दर कौर को अर्जून अवार्ड से सम्मानित किया गया।
कोच बलदेव सिंह

कोच बलदेव सिंह

वास्तव में राष्ट्रीय महिला हाॅकी टीम की बात की जाए और शाहबाद (कुरुक्षेत्र) का नाम ना आए, यह कैसे हो सकता है? हरियाणा के इस अंजाने से कस्बे से अब तक दो दर्जन से अधिक अंतरराष्ट्रीय महीला खिलाड़ी तैयार हुईं हैं। उस दिन को यह कस्बा अभी भी नहीं भूला जब हांगकांग में आयोजित एशियन गेम्स में महिला हाॅकी टीम में शामिल ग्याहरह में से छह खिलाड़ी (सुरिन्दर कौर, राजविन्दर कौर, जाॅयदीप कौर, सुमन बाला, ऋतु बाला और जसजीत कौर) इसी कस्बे से थीं। शाहबाद के लोगों का मानना है कि यदि टीम में चयन का आधार सिर्फ योग्यता हो तो पूरी टीम शाहबाद की लड़कियों से ही तैयार हो जाएगी।

30 हजार की आबादी वाले इस छोटे से गांव से निकले कई खिलाड़ियों के माता-पिता को यह तक पता नहीं था कि यह हाॅकी किस बला का नाम है। गोल मशीन के नाम से प्रसिद्ध शाहबाद की सुरिन्दर कौर के पिता ने एक पत्रकार सम्मेलन में कहा – ‘जब मेरी बेटी ने हाॅकी खेलना शुरू किया, उस वक्त मुझे पता ही नहीं था कि हाॅकी वास्तव में होता क्या है?’
शाहबाद की हाॅकी टीम को जिस एक व्यक्ति ने अपनी लगन, परिश्रम और निष्ठा से संवारा है, उसका नाम बलदेव सिंह है। जब वे 1982 मंे वे कुरुक्षेत्र आए थे, उस वक्त कोई यहां हाॅकी को जानने वाला नहीं था। उन्होंने बच्चों की तलाश शुरू की। बकौल बलदेव सिंह- ‘शुरूआत में हाॅकी के लिए कोई अपने बच्चों को देने के लिए तैयार नहीं था।’
उस दौर में उन्होंने बच्चों की एक टीम बनाई नाम रखा गया नामधारी। अभी टीम ने आकार भी नहीं लिया था, 1986 जून में  उनका तबादला सिरसा (जीवनगर) कर दिया गया। सन् 1992 में वे फिर एक बार शाहबाद लौटें। इस बार उन्होंने टीम के लिए 20 लड़कियांे का चयन किया। जिनकी उम्र 10 साल से कम थी। अभ्यास कठीन था। सुबह 5 से 8ः30 तक का अभ्यास। उसके बाद लड़कियां स्कूल चली जाती थीं। स्कूल से लौटकर 2ः30 से अंधेरा होने तक अभ्यास करना होता था। कठीन परिश्रम की वजह से बहुत सी लड़कियां बीच में ही अभ्यास का साथ छोड़ गईं। शाहबाद की हाॅकी टीम में शामिल लगभग सभी लड़कियां गरीब पृष्ठभूमि की रहीं हैं। इसलिए बलदेव सिंह ने हमेशा बच्चों के खाने पीने का ख्याल रखा है; क्योंकि श्री सिंह का अपना मानना है कि अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए, अच्छी सेहत की जरुरत है और अच्छी सेहत के लिए अच्छी खुराक का होना बेहद जरुरी है।
भारतीय महीला टीम को मिली लगातार जीत ने और खिलाड़ियों को मिलने वाले स्काॅलर शिप से कई खिलाड़ियों की गरीबी दूर हुई है। इसका एक अच्छा उदाहरण सुमन बाला है। सुमन बाला के पिता एक मामुली किसान थे। आज सुमन के पास एक अच्छा मकान है। उसका भाई विदेश में पढ़ाई कर रहा है। वैसे सभी के अनुभव अच्छे हांे ऐसा भी नहीं है, शाहबाद टीम की ही खिलाड़ी रानी रामपाल भी हैं। जिनका स्थान दुनिया भर के श्रेष्ठ ग्यारह महिला खिलाड़ियों में एक है। इतनी अच्छी खिलाड़ी होने के बाद उन्हंे रेलवे में जो नौकरी मिली है, उसे लेकर रानी के परिचितों में रोश है। शाहबाद के एक स्थानीय नागरिक ने प्रश्न पूछने के अंदाज में कहा- देश का सिर सम्मान से दुनिया भर में ऊंचा करने वाली लड़की को बारह-चैदह हजार रुपए की नौकरी दी जाए, क्या यह अन्याय नहीं है?
हाॅकी टीम से जुड़ी एक खिलाड़ी के अनुसार शाहबाद की हाॅकी टीम मंे पैरवी की बदौलत किसी को दाखिला नहीं मिलता। सभी अपनी प्रतिभा की बदौलत यहां आएं हैं। कोई खिलाड़ी यदि अपनी तिकड़म की बदौलत यहां आ भी जाए तो लंबे समय तक टीक नहीं सकती। क्योंकि यहां अभ्यास के दौरान कमर तोड़ श्रम अनिवार्य है, जो सबके बस की बात नहीं है। शाहबाद के लोग इस बात को भली प्रकार से स्वीकार करते हैं कि अंतरराष्ट्रीय महिला हाॅकी की टीम के नक्शे पर यदि आज शाहबाद का नाम केन्द्र में है तो वह बलदेवजी की वजह से है। दो साल पहले उनके प्रशंसकों को उस वक्त बेहद खुशी  मिली जब उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए चुना गया। इस बात की मांग लंबे समय से खेल प्रेमी करते रहे थे।
एक और खास बात जो इस टीम से जुड़ी है, इस टीम में खेलने वाली सभी लड़कियां इसी शाहबाद से ही हैं। वैसे अब राज्य के दूसरे हिस्सों से ही नहीं, बल्कि पंजाब और दिल्ली तक से अभिभावकों के फोन बलदेवजी तक आते हैं कि हमारे बच्चे को अपनी टीम में शामिल कर लीजिए।

मोती बैगा तुम्हे सलाम….

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मोती बैगा छत्तीसगढ़ के नए बने जिले मुंगेली से ताल्लुक रखते हैं। लोरमी प्रखंड के मजुरहा गांव में जहां सरकार की चिकित्सकीय सेवा और एम्बुलेन्स भी नहीं पहुंचता । सरकार और मोबाइल दोनों के नेटवर्क से जो गांव बाहर है, ऐसे गांव में मोती का मोटर साइकिल एम्बुलेन्स का काम कर रहा है। मतलब गांव वालों को मोती वह सुविधा उपलब्ध करा रहा है, जो इसे सरकार भी उपलब्ध नहीं करा पाई। यहां गौरतलब है कि मोती के गांव मजुरहा से लोरमी अस्पताल बीस किलोमीटर दूर है और मोती ना सिर्फ मजुरहा बल्कि जरूरत पड़ने पर आस पास के लोगों को भी अस्पताल तक लेकर जाते हैं क्योंकि इनके गांव तक एम्बुलेन्स नहीं आती। जब गांव के लोग नेटवर्क में पहुंच कर फोन करते हैं तो अस्पताल जरूर आष्वासन देता है कि एम्बुलेन्स भिजवा रहे हैं लेकिन वह आती नहीं।
MOTI BAIGA SATH ME SUNIL BHAI

MOTI BAIGA SATH ME SUNIL BHAI

एम्बुलेन्स ना आने के राज से पर्दा हटाया सामाजिक गांधीमार्गी कार्यकर्ता रष्मि ने। वे बिलासपुर और उसके आसपास बैगाओं के अधिकारों के लिए लंबे समय से संघर्शरत हैं।  बकौल रष्मि यहां दर्जनों गांव ऐसे हैं, जहां एम्बुलेन्स की सेवा नहीं पहुंच रही है। कई मामले हुए जिसमेें एम्बलेन्स के अभाव में लोगों की जान भी गई है। रष्मि सवाल उठाती हंै, एक तरफ बैगाओं की जनसंख्या को लेकर सरकार चिन्तित नजर आती है और उनके बीच नसबंदी को भी प्रतिबंधिति कर दिया जाता है और दूसरी तरफ उनके स्वास्थ्य को लेकर किसी प्रकार की चिन्ता सरकार में नजर नहीं आती। कवर्धा तो मुख्यमंत्री रमण सिंह का गृह जिला है, वहां भी बैगाओं की जिन्दगी अन्य जिलों से बेहतर नहीं है। एम्बुलेन्स की सेवा सिर्फ उन्हीं गांव के लिए है जहां मोबाइल का नेटवर्क है। मोबाइल का नेटवर्क खत्म सेवा खत्म। सरकार को चाहिए कि वह या तो जंगलों में मोबाइल का टावर पहुंचा दे या फिर जंगल में रहने वालों के स्वास्थ्य की भी चिन्ता करे।
मोती बातचीत में कहते हैं, हमारा पूरा क्षेत्र नक्सल से मुक्त रहा है। वर्शों से सरकारी उपेक्षा, पलायन और सरकारी विस्थापन की मार झेल रहे गांव वालांे के बीच आक्रोष है। कहीं ऐसा ना हो इनमें से भी कुछ लोग गलत रास्ते पर निकल जाएं।
यहां गौरतलब है कि जिन इलाकांे में मोबाइल का नेटवर्क नहीं होता वहां एम्बुलेन्स जाने को तैयार नहीं होते हैं। ऐसे में यह लाभ सिर्फ सड़क के किनारे रहने वाले लोगों को मिल रहा है।
सड़क से पांच सात किलोमीटर दूर जंगल के गांवांे में जाने को ना ही एम्बुलेन्स और ना ही गैर सरकारी और सरकारी संस्थाएं तैयार हैं। कुल मिलाकर सभी संस्थाएं समाज सेवा सड़क के किनारे-किनारे ही करना चाहती हंैं। ऐसे में जो गांव सड़क से दूर हैं, वहां रहने वाले लोग बीमारी की स्थिति में ईलाज के अभाव में मरने के लिए मजबूर हैं।
मोती बैगा का काम मजूरहा में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उनकी तत्परता की वजह से कई जाने बची हैं। वह मरीजों को अक्सर मोटर साइकिल पर बिठाकर लोरमी अस्पताल तक छोड़ कर आता है। उसकी पुरानी मोटर साइकिल लोरमी और उसके आस पास के गांवों मंे एम्बुलेन्स के तौर पर इस्तेमाल हो रही है।
मजूरहा के गौतू बैगा की बीमारी किसी को समझ नहीं आ रही थी। उसका भाई झंगल बैगा कुछ समझ नहीं पा रहा था। पिता की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेवारी बड़े भाई पर ही थी। झंगल ने बताया कि पिछले कुछ समय से उसका भाई बिल्कुल कमजोर होता जा रहा है। षरीर सुखता जा रहा है। अस्पताल फोन करवाने पर एम्बुलेन्स के लिए सिर्फ आष्वासन ही आता है। प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र जैसी कोई चीज गांव के आस पास नहीं है। मरीज को लेकर लोरमी अस्पताल जाना होगा, जो बीस किलोमीटर है। यह बात चल ही रही थी कि मोती बैगा अपनी मोटर साइकिल के साथ आ गए। गौतू बैगा की हालत उठने वाली नहीं थी लेकिन किसी तरह उन्हें उठाकर मोटर साइकिल पर बिठाया गया और फिर मोती बैगा उसे अपने साथ लेकर बीस किलोमीटर की यात्रा पर निकल गए।
इतने कम संसाधनांे के साथ गांव वालों की मदद कर रहे मोती बैगा से राज्य की सरकारों को सबक लेना चाहिए, जो सभी तरह से सम्पन्न होकर भी अपने संसाधनों का रोना रोते रहते हैं। मोती का काम वाकई काबिले सलाम है।

यौनकर्मियों की साथी नसीमा

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दि आपके शहर में कोई रेड लाइट एरिया हो, आप कल्पना कीजिए उन घरों में रहने वाली महिलाओं पर क्या बितती होगी जिनका पुस्तैनी घर उसी रेड लाइट एरिया में आता है लेकिन उनके मोहल्ले में होने वाले अनैतिक गतिविधियों में ना उनकी रुचि हो, ना कोई भूमिका। वहां घर होना ही उनके लिए अभिशाप हो जाता है।
यौनकर्मियों की साथी नसीमा

यौनकर्मियों की साथी नसीमा

बिहार के मुजफ्फरपुर में चतुर्भूज स्थान के नाम से एक ऐसा ही रेड लाइट एरिया है, जो छोटे छोटे एक दर्जन से अधिक पट्टियों में बंटा है। इन्हीं पट्टियों में एक है लालटेन पट्टी। लालपट्टी को भी लोग उसी तरह जानते हैं, जैसे दिल्ली का जीबी रोड़ और कोलकाता का सोनागाछी मतलब रेड लाइट एरिया के तौर पर। चतुर्भूज स्थान के आस पास के सभी इलाकों में रहने वाले लोग मुजफ्फरपुर में पुलिस ज्यादति के शिकार होने को मजबूर थे, चूंकि इस इलाके मंे इनकी बात सुनने वाला और इनके पक्ष में बोलने वाला कोई भी नहीं था।
मार पीटाई और गालियां वहां रोज की बात हो गई। वैसे इस क्षेत्र में दो तरह के लोग ग्राहकों – यौनकर्मियों के अलावा अधिक सक्रिय नजर आते थे, एक दलाल और दूसरे पुलिस वाले।
अब उस क्षेत्र की स्थिति पहले से बदली है। इसके लिए स्थानीय लोग परचम और नसीमा को बधाई देते हैं। नसीमा पिछले कुछ सालों से इस इलाके में रहने वाली यौन कर्मियों और दूसरे वे लोग जो रहते तो इसी चतुर्भूज स्थान की चैहद्दी में हैं लेकिन यौन कर्मियों और उनके व्यावसाय से उनका कोई लेना देना नहीं है, के हितों की लड़ाई लड़ रहीं हैं।
नसीमा का अभियान हम चतुर्भूज स्थान की बेटी हैं, इस क्षेत्र पिछले कुछ समय से चल रहा है। इस अभियान के अंतर्गत चतुर्भूज स्थान में रहने वाली लड़कियों को इस बात के लिए तैयार किया गया कि जिस लाज शर्म वश लोगों को आज तक गलत पता बताती रहीं, अब वे ऐसा ना करें और अपना सही सही पता लोगों को बताएं। इतना ही नहीं स्कूल में भी बच्चों का सही पता दर्ज हो इसकी भी चिन्ता नसीमा की संस्था परचम करती हैं। कई यौन कर्मी ऐसी हैं, जिनके बच्चे तो हैं लेकिन उनके पिता का कोई अता-पता नहीं है। उन बच्चों के दाखिले में भी नसीमा और उनके साथी मदद करते हैं। नसीमा अपने साथियों की मदद से इस रेड लाईट एरिया में एक सुंदर पुस्तकायल भी चलाती हैं।
नसीमा ने परचम के बैनर तले बिहार मेंएक सर्वेक्षण किया। जिसके परिणाम बेहद चैंकाने वाले थे। बकौल नसीमा- अब यौन कर्मियों की हद रेड लाइट एरिया की शरहद को लांघ कर गांवों तक पहुंच गई है। नसीमा के अनुसार अपने सर्वेक्षण के दौरान उन्होंने कई ऐसे गांवों की पहचान की है, जहां रेड लाइट एरिया की तरह यौन कर्मियों का धंधा फल फूल रहा है। अपनी सक्रियता की वजहांे से नसीमा इस इलाके में सक्रिय रहे दलालों की आंखों की किरकिरी जरुर बन गई। अब नसीमा को फोन पर अलग अलग तरह से धमकी सुनने की मानों आदत सी बन गई है लेकिन तमाम चुनौतियों के बाद भी नसीमा मुजफ्फरपुर के चतुर्भूज स्थान में टिकी हुई हैं।

जरा याद उन्हें भी कर लो, जो देश के लिए जीएं

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दिल्ली भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के गांधीवादी आंदोलन से 2011 के बाद परिचित हुई। उससे पहले सन 2007 में ही दिल्ली के गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी शम्भू दत्त शर्मा ने भ्रष्टाचार के खिलाफ एक मुहीम ‘सत्याग्रह’ के नाम छेड़ी थी। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में गांधीजी का साथ निभाया और ब्रिटिश इंडियन आर्मी की अपनी सुविधाजनक नौकरी को छोड़ा। आजादी से पहले वे अंग्रेजों से लड़ते रहे और आजादी के बाद वे भ्रष्टाचारमुक्त भारत के लिए लड़ते रहे। आजादी के बाद जब देश में आपातकाल लगा, उन्हें जेल में डाल दिया गया था। उनकी भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई अधूरी है। इसी सवाल पर दिसम्बर 2013 में दिल्ली की सरकार चुनी गई लेकिन उसने भी कोई कारगर कदम नहीं उठाया और दो साल पहले 2016 में शम्भू दत्तजी भ्रष्टाचार मुक्त सपने के साथ हमारे बीच नहीं रहे। आज वे हमारे बीच होते तो अगले महीने 09 सितम्बर को 100 साल के होते।

यह सच है कि स्वतंत्रता के आंदोलन में दिल्ली के योगदान को कम करके आंका गया। दिल्ली में जन्मे पले—बढ़े नवयुवक भी राजधानी के स्वतंत्रता सेनानियों के संबंध कम ही जानते हैं। दिल्ली के छोटे—छोटे गांव से निकले स्वतंत्रता सेनानियों ने अंग्रेजों के पैरों के नीचे जमीन खिसका दी थी। भाई परमानंद उन्हीं में से एक हैं। दिल्ली के ढक्का गांव की एक कॉलोनी का नाम भाई परमानंद के नाम पर है। जो दिल्ली विश्वविद्यालय के उत्तरी परिसर से भी लगा हुआ है। भाई परमानंद अक्टूबर 1905 में दक्षिण अफ्रिका महात्मा गांधी के साथ गए। वे आर्य समाजी थे। भाई परमानंद गदर पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। ढका गांव के सामाजिक कार्यकर्ता किशन सिंह चौहान के अनुसार उन्होंने गदर पार्टी के लिए एक किताब भी लिखी थी, तारिख ए हिन्द के नाम से। लाहौर कॉन्सपीरेसी मामले में उन्हें 1915 में सजा ए मौत हुई। जिसे बाद में आजीवन कारावास में बदला गया। उन्हें काले पानी की सजा भी मिली। सजा के दौरान राजनीतिक बंदियों के साथ किए जाने वाले दुव्र्यवहार के खिलाफ 1920 में उन्होंने भूख हड़ताल की। भूख हड़ताल से पड़े दबाव का ही परिणाम था कि अंग्रेजों को उन्हें रिहा करना पड़ा। भाई परमानंद ने अपनी आंखों से देश को आजाद होने के सपने को पूरा होते हुए देखा और आजादी मिलने के चार महीने बाद ही 08 दिसम्बर, 1947 को वे नहीं रहे। ढका गांव और अंग्रेजों से जुड़ा राजपूताना शान को दर्शाने वाला एक किस्सा और है।

सन 1911 में अंग्रेजो का दरबार जब ढका गांव में लगा तो वहां गांव को हटाने की बात हुई। अंग्रेज यहां अपना कन्टोनमेन्ट बनाना चाहते थे। लेकिन राजपूत बहुल गांव होने की वजह से और राजपूतों का दबदबा अंग्रेजों की सेना में भी होने की वजह से वह साहस ना जुटा सके। आजाद भारत में सन 1960 में भारत सरकार ने जरूर ढका गांव की बड़ी जमीन पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के बीच वितरित कर दी।

दिल्ली के छावला गांव में पेशे से अधिवक्ता जयप्रकाश शोकीन की माने तो पहले और दूसरे विश्व युद्ध में गांव से बड़ी संख्या में जवान गए थे। उन कई नामों में दिलीप सिंह के नाम का जयप्रकाश शोकीन विशेष तौर से उल्लेख करते हैं। दिलीप नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की सेना के सिपाही थे। गांव वाले बताते हैं कि उन्होंने अपना नाम इतिहास में दर्ज कराया है। उनकी गिरफ्तारी जर्मन सेना के हाथों हो गई थी। उनके सैनिकों से खुद को बचाकर वे पूरे छह महीने की पैदल यात्रा करके छावला पहुंचे थे।

देशबंधु गुप्ता के नाम से दिल्ली वाले खूब परिचित होंगे। अजमेरी गेट के पास उनकी मूर्ति लगी हुई है। देशबंधु गुप्ता मार्ग से करोल बाग जाने वाले गुजरते ही हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक महत्वपूर्ण कॉलेज का नाम भी देशबंधु कॉलेज है। इतना सब होने के बावजूद दिल्ली की नई पीढ़ी में यह जानने वाले कम हैं कि रति राम देशबंधु गुप्ता एक महान क्रांतिकारी थे। जिन्होंने देश के लिए कभी अपने प्राणों की परवाह नहीं की। पहली बार 19 साल की उम्र में जेल गए। महिलाओं के बीच जब पहला सार्वजनिक भाषण दिया तो अंग्रेजों ने उनके भाषण पर प्रतिबंध लगा दिया। उसके पश्चात उन्हें संगठन के काम में लगाया गया। वे लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानंद के निरंतर संपर्क में थे। वे बालगंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित थे। उन्हें दीनबंधु नाम गांधीजी और स्वामी श्रद्धानंद ने दिया था। उन्होंने ‘रोजाना तेज’ के नाम से एक ऊर्दू अखबार भी चलाया। राष्ट्रवादी पत्रकार महान क्रांतिकारी देशबंधु गुप्ता की मृत्यु पर नेहरू ने कहा था— ”आज दिल्ली सुनी हो गई।”

‘इंडियन एम्पायर’ के नाम से मार्टिस की एक किताब है, जिसमें उन्होंने लिखा है— 1857 की क्रांति के बाद जो विद्रोही दिल्ली आए थे, वे संख्या में अधिक नहीं थे लेकिन दिल्ली की जनता ने उनका पूरा साथ दिया। वे दिल्ली के अलग—अलग गांव में बिखरे गुर्जर विद्रोहियों के साथ हुए। 1857 के विद्रोहियों और दिल्ली के गुर्जरों की बगावत आपस में मिलकर अंग्रेजों के लिए बेहद घातक साबित हुई थी। इंडियन एम्पायर के पृष्ठ 32 पर मार्टिस ने लिखा है— इसी वजह से दिल्ली के आस—पास के गांवों में गुर्जरों का दमन अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक क्रूर एवं अमानवीय तरिके से किया गया।”

इस बात का जिक्र गणपति सिंह की किताब ‘1857 के गुर्जर शहीद’ में मिलता है।

वजीराबाद गांव के डॉ राजवीर सिंह प्रधान चन्द्रावल गांव के क्रांतिकारी दयाराम खारी के संबंध में जानकारी देते हैं। चन्द्रावल गांव के युवकों ने दयाराम खारी के नेतृत्व में संगठित होकर दिल्ली के मेटकाफ हाउस जो अंग्रेजों का निवास स्थान था, उस पर अधिकार कर लिया। लूट के दौरान किसी ने भी महिला अथवा बच्चों को ना हाथ लगाया ना ही उनके साथ किसी प्रकार की अभद्रता की। यहां तक की लूट के दौरान एक बड़े अंग्रेज अफसर की पत्नी की अंगूठी उनके साथ आ गई। यह अंगूठी उनकी परम्परा में सुहाग की निशानी थी, ऐसा सोचकर चन्द्रावल गांव के युवाओं के क्रांतिदल का एक समूह अपनी जान पर खेल कर वह अंगूठी लौटा कर आया।

स्वतंत्रता सेनानी दयाराम खारी और उनके युवाओं की टोली पर मेटकाफ हाउस लूटने, वजीराबाद शस्त्रागार लूटने और अंग्रेजों को मौत के घाट उतारने का गम्भीर आरोप था। उसके बाद नरसंहार का दौर शुरू हुआ। उन दिनों गांव के बाहर बड़—पीपल का पेड़ लगाया जाता था। दिल्ली के गांवों के पेड़ों पर प्रतिदिन दो—चार लाशे लटकी हुई मिलती थीं। इन देशभक्तों के शव सड़कर पूरे वायुमंडल को दूषित करते थे लेकिन इनकी अन्त्येष्टी करने का साहस कोई इसलिए नहीं कर पाता था क्योंकि अगले दिन उन्हें भी इनकी हमदर्दी के जुर्म में फांसी पर ना लटका दिया जाए। डॉ राजवीर सिंह प्रधान के अनुसार— ”उन दिनों गुर्जर परिवार की जो बहुएं दिल्ली से बाहर थीं और गर्भवति थीं, उनकी संतानों से वंश परम्परा आगे बढ़ी।”

एक अनुमान के अनुसार सिर्फ चन्द्रावल से 90 के आस—पास स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी पर लटका दिया गया। जिनकी लाशों को छकड़ों पर रखवा कर दूर फिकवा दिया जाता था। मतलब उन्हें अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं हुआ।

दुख की बात यह है कि दयाराम खारी को दिल्ली के लोग भी नहीं जानते। जिसने मेटकाफ हाउस पर कब्जा किया। सर थॉमस मेटकाफ द्वारा तैयार कराया गया मेटकाफ हाउस सिविल लाइन्स में आज भी विद्यमान है। —एक मेटकाफ हाउस दक्षिणी दिल्ली के महारौली में स्थित है— वह मैगजीन रोड़ भी अपनी जगह पर है, जहां से शस्त्र लूटा गया था। सिर्फ मिटा तो दयाराम खारी का नाम। दिल्ली वाले उन्हें भूल गए। जिसने दिल्ली के लिए अपना सबकुछ खो दिया।

मुंडका गांव जाने पर लगा कि यह पूरा गांव तो क्रांतिकारियों का ही गांव है। यहां के निवासी सत्यनारायण ने सुनाया किस तरह पूरा गांव भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तारी देने को अंग्रेजों के सामने खड़ा हो गया था। गिरफ्तारी हो रही थी। इतने में एक आठ साल का बच्चा भी सामने आ गया। गिरफ्तारी देने को। अंग्रेज इतनी कम उम्र के बच्चे को गिरफ्तार करने के पक्ष में नहीं थे। उनकी आपसी बातचीत चल ही रही थी कि आठ साल के बालक वेदपाल ने अंग्रेज अफसर के मुंह पर थूक दिया और लपक कर उसके कंधे पर चढ़ कर दो चार थप्पड़ उसके गाल पर जड़ दिए। अंग्रेज अफसर कुछ समझ पाते कि वेदपाल ने कहा— ”अब तो गिरफ्तार करेगा इस बच्चे को?” जब वेदपाल की गिरफ्तारी हुई। उसके पीछे ढोल नगाड़े लेकर गांव वाले चले। स्वतंत्रता सेनानी वेदपालजी का पूरा नाम वेदपाल सिंह खोखरा था। आजादी के बाद उनके बुलावे पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू मुंडका गांव आए थे और यहां आकर उन्होंने वृक्षारोपण किया था।

डॉ भीमराव अम्बेडकर कॉलेज के प्राध्यापक डॉ बीजेन्दर इसी गांव से हैंं। डॉ बीजेन्दर बताते हैं— ”मुंडका गांव चौधरी चन्दगीराम लाकरा जय हिन्द और तूलेराम यादव जैसे क्रांतिकारियों का भी गांव है। देश के लिए इस गांव के लोग कभी जान देने से भी पीछे नहीं हटे।”

स्वतंत्रता सेनानी तूलेराम यादव के बेटे अतर सिंह यादव से बातचीत हुई तो पता चला कि वे अपने पिता की याद में फरवरी महीने के दूसरे या तीसरे रविवार को बड़ा भंडारा करते हैं। उनकी याद में आस पास के कई गांव के लोग जुटते हैं और बड़ा सा मेला लगता है। बकौल अतर सिंह— ”आपने सुना है ना शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, तो तूलेरामजी की याद में इस गांव में हर वर्ष मेला लगता है।”

बहरहाल दिल्ली के स्वतंत्रता सेनानियों की सूचि काफी लंबी है। आप जहां भी हैं, अपने आस—पास पता कीजिए। क्या वहां से कोई स्वतंत्रता सेनानी है। आप उनके संबंध में अपने मित्रों से चर्चा कीजिए। सोशल मीडिया पर लिखिए। यही आपकी तरफ से देश के उन वीर जवानों को सच्ची श्रद्धांजली हो सकती है जिन्होंने देश के लिए अपनी जान दी या मरते दम तक देश के लिए जीए।

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