बिना किसी फैक्ट चेक के चलता है, मीडिया वेबसाइट का ‘झूठ का कारोबार’

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कवि चौ. मदन मोहन समर

यह कैसा दौर आ गया है आज इस जमाने में।
शर्म नहीं आती लाशों पर भी लाइक कमाने में।

जबलपुर : यह घटना इस तरह की नहीं है जैसी टीआरपी के लिए घटिया मजाक के रूप में परोसी जा रही है। ताज्जुब है इतनी भीषण दुर्घटना पर लोग क्या मजाक कर रहे हैं। असल में एक परिवार के छह लोग अच्छी फसल की मन्नत के लिए जबलपुर के ग्रामीण क्षेत्र भेड़ाघाट थाने के चारगांव से नरसिंहपुर जिले के दूल्हादेव मंदिर दर्शन को गए थे। मंदिर पहुंचकर उन्होंने परम्परा अनुसार प्रतीकात्मक बलि के रूप में कोई फल या पेठा काटा जाता है जो उन्होंने भी काटा था। प्रसाद बनाया और गांव में वही प्रसाद वितरित करने हेतु रखा था। साथ में एक बकरा था जिसे मारा नहीं गया था। ऐसा होता है जब स्थानीय मान्यता के अनुसार पशु को अर्पित कर जीवित छोड़ देते हैं।

वे मंदिर से लौट रहे थे लेकिन बीच में यह हृदय विदारक घटना हो गई जिसमें परिवार के चार सदस्य असमय काल कवलित हो गए। लेकिन मजाक बनाने वालों की बदतमीजी देखिए कि वे प्रसारित कर रहे हैं, ”बकरा लेकर बलि देने जा रहे थे घटना में चार मरे बकरा बचा।”

यह घटना ऐसी है कि पत्थर दिल व्यक्ति भी आंसू नहीं रोक सकता। लेकिन हमारे समाज को न जाने क्या हो गया है कि संवेदना नाम की चीज बची ही नहीं है। इस घटना पर कपोलकल्पित इस तरह की बात से उस परिवार पर क्या बीत रही होगी? इसका शायद अंदाज नहीं है इन गंदे दिमाग के क्रिएटर के पास। देखिए दुर्घटना की फोटो भी कैसे क्रिएट की गई है? क्या किसी दुर्घटना का दृश्य ऐसा हो सकता है? मैं साथ में इस दुर्घटना के वास्तविक फोटो शेयर कर रहा हूं। आश्चर्य तो यह है कि कोई न्यूज चैनल इसे गलत तरीके से पेश कर रहा है। चार मौतों पर ऐसी प्रतिक्रिया तो नहीं की जा सकती।

UNESCO-Backed CIFEJ Elects Indian Filmmaker Jitendra Mishra as President

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New Delhi: Acclaimed Indian filmmaker Jitendra Mishra has been elected President of the UNESCO-backed International Centre of Films for Children and Young People (CIFEJ) for the 2025–2027 term. Jitendra’s unanimous, unopposed victory marks a rare and significant endorsement from over 50 active members across 40 countries.

Jitendra has also been the Festival Director of the Smile International Film Festival for Children and Youth (SIFFCY), an initiative of Smile Foundation. SIFFCY promotes the use of meaningful cinema to engage, educate, and inspire young audiences. It focuses on using film as a tool for awareness and social impact.

Established in 1955 under the auspices of UNESCO, CIFEJ is a global organization dedicated to promoting culturally relevant, educational content for children and youth. Jitendra’s re-election reflects his continued efforts to build a stronger global platform for youth-focused cinema. Initially established in Brussels, Belgium, the organization is now headquartered in Athens, Greece, hosted by the Hellenic Film and Audiovisual Centre – Creative Greece S.A., under Creative Hub GR.

The elected board members under Jitendra’s leadership include Ms. Pamela Bisson (Canada), Mr. Doros Demetriou (Cyprus), Mr. Huang Jun (China), Mr. Anis Lassoued (Tunisia), Ms. Emma Pendiuc (Romania), Ms. Elham Shrivani (Iran), and Mr. Mitsuo Tahira (Japan). Additionally, Mr. Vassilis Karamitsanis from Greece has been nominated as Secretary General, while Ms. Irene Andriopoulou, also from Greece, will serve as Executive Director.

Mr. Santanu Mishra, Chairman of SIFFCY, Producer of I Am Kalam, and Co-Founder of Smile Foundation said, “I believe that audio-visual medium, especially good cinema, has the power to stimulate discussion and contemplation in young minds about personal, emotional, societal and moral duties. Thus, it can enable young global citizens to become better, stronger and empathetic individuals. Our support and good wishes are there for CIFEJ to help bring positive societal change that begins with the young minds.”

Secretary General of CIFEJ, Mr. Vassilis Karamitsanis from Greece added, “We aspire for the transfer of the CIFEJ headquarters in Athens, through EKOME, to mark the beginning of a new era for the organization and to strengthen high-quality children’s audio-visual content in Greece as well. The new CIFEJ President and Board do hold great credentials to this direction.”

Jitendra Mishra, said, “I am deeply honoured and grateful for the trust and support of my fellow members at CIFEJ. This unanimous success is not just a personal achievement but a testament to our shared vision of empowering young minds through meaningful cinema. I am also sincerely thankful to the management of Smile Foundation for their unwavering support and commitment towards this. Together, we will continue to champion films and related activities that inspire, educate, and celebrate cultural diversity for children and youth worldwide”.

यमुना का रुदन: एक नदी की त्रासदी, एक वादे का विश्वासघात

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आगरा के मौनी और बहरे जन प्रतिनिधि कब नींद से जागेंगे और सुनेंगे यमुना का करुण क्रंदन? हद दर्जे की बेपरवाही के चलते यह गर्मी का मौसम भी निकल जाएगा, न सफाई होगी, न रिवर फ्रंट योजना पर काम शुरू होगा, न ही नगला प्रेमा में रबर चेक डैम की नींव रखी जा सकेगी। पिछले चार महीनों में पचासों छोटे-बड़े धंधे की जुगाड़ वाले प्रोजेक्ट्स सेक्शन हो गए। मेट्रो का भी कार्य द्रुत गति से चल रहा है, एयरपोर्ट टर्मिनल भी मिल जाएगा, लेकिन पचास वर्षों से लटके यमुना और सहायक नदियों के शुद्धिकरण और संरक्षण के सभी कार्यक्रम फाइल बंद हैं। आगरा की धरोहर यमुना नदी, जो कभी जीवनस्रोत थी, अब तपती गर्मी की धूप में तड़प रही है, एक ठहरी हुई, जहरीली नाली में तब्दील हो चुकी है। लेकिन निर्वाचित नेता खामोश हैं।

एक दशक से अधिक समय पहले, 2014 के चुनावी जोश में आगरा और मथुरा-वृंदावन की सभाओं में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके खोए वैभव को लौटाने का वचन दिया था। मगर 2025 में, यह नदी टूटी आशाओं का दुखद स्मारक बनी हुई है। इसके पवित्र जल की जगह अब काला, गंदा कीचड़ बहता है, जो उपेक्षा की बदबू से भरा है। पर्यटक, जो शांत नदी किनारे के सपने लेकर आते हैं, घृणा से मुंह मोड़ लेते हैं। उनके सपने इस बदबूदार हकीकत से चकनाचूर हो जाते हैं। सरकार के बड़े-बड़े दावे खोखले साबित होते हैं। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कभी दिल्ली से आगरा तक स्टीमर सेवाओं की बात की थी, लेकिन यमुना की हकीकत ऐसी कल्पनाओं का मजाक उड़ाती है। साल के ज्यादातर समय इसका तल सूखा और बंजर पड़ा रहता है, जहां सपने भी नहीं पनपते। “नावें? एक बूंद पानी मिल जाए तो गनीमत है,” एक स्थानीय कार्यकर्ता तंज कसते हुए कहता है, सूखे तल की ओर इशारा करते हुए। “शायद अब यहां नदी की जगह ऊंट की सवारी का पैकेज, डेजर्ट सफारी के नाम से बेचें।”

प्रगति के सरकारी दावे—40 से ज्यादा नालों को बंद करना, सात सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का संचालन—जांच के सामने ढह जाते हैं। एत्माद-उद-दौला पार्क के पास भैरों नाला और ताजमहल के खतरनाक रूप से करीब मंटोला नाला अब भी नदी में अशुद्ध गंदगी उगल रहे हैं। “ताज के पास एक कदम चलिए, सच अपने आप सामने आ जाता है,” एक निवासी कहता है। “यमुना मरी नहीं, यह तो जहर का गड्ढा है, जहां कीटाणु भी दम तोड़ देते हैं।”

संकट दोहरा है: पानी की कमी और उसकी गुणवत्ता। मॉनसून की बारिश कुछ हफ्तों के लिए नदी को जीवन देती है, मगर जल्द ही यह फिर सूख जाती है। दिल्ली से जो थोड़ा-बहुत बहकर आता है, वह नदी नहीं—उद्योगों का जहरीला कचरा, भारी धातुएं और अशुद्ध सीवेज का घातक मिश्रण है। यह विषैला प्रवाह बदबूदार गैसें छोड़ता है, आगरा की धरोहरों की नींव को खा जाता है, और नदी का तल बीमारी फैलाने वाले कीड़ों का अड्डा बन जाता है।

ताजमहल देखने आए पर्यटकों के लिए यमुना की दुर्दशा एक झटका देती है। “ऐसा स्मारक इस कचरे के पास कैसे बन सकता है?” एक हैरान पर्यटक नाक दबाते हुए पूछता है। नदी का क्षय सिर्फ आंखों को चुभने वाला नहीं—यह ताज के लिए भी खतरा है। नमी के अभाव में स्मारक की नींव को खतरा है; वहीं, प्रदूषित कीचड़ में पनपने वाले कीड़े इसके संगमरमर पर हरी गंदगी छोड़ते हैं, जिसे बार-बार साफ करना पड़ता है।

तीस साल से कार्यकर्ता ताज के नीचे एक बैराज या चेक डैम की मांग कर रहे हैं ताकि न्यूनतम जल स्तर बना रहे। मगर, सरकारों ने सिर्फ खोखले वादे दिए—कई बार बैराज की नींव रखी गई, और फिर परियोजना को भुला दिया गया। “अब तो वे पत्थर भी गायब हैं।” आजकल नगला पेमा में एक रबर डैम की चर्चा चल रही है, जिसकी आखिरी NOC एक साल से लटकी हुई है। सारे विधायक, सांसद लखनऊ जाकर प्रेशर बनाएं तो एक हफ्ते में क्लियरेंस मिल सकता है। पहले की सरकारें—कांग्रेस की निष्क्रियता, अखिलेश यादव का साइकिल ट्रैक का जुनून, मायावती का ताज हेरिटेज कॉरिडोर का असफल प्रयास—सब यमुना के साथ नाकाम रहीं।

आज, बीजेपी के क्षेत्र में दबदबे (10 विधायक, 2 सांसद) के बावजूद, नदी उनके “विकास” के एजेंडे से गायब है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं: अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए, तो यमुना पूरी तरह मर जाएगी, और इसके साथ आगरा का पारिस्थितिकी तंत्र और ताजमहल का भविष्य भी दांव पर लग जाएगा। एक जीवित नदी प्रदूषण को सोख सकती है, धूल को कम कर सकती है, और शहर के स्मारकों की रक्षा कर सकती है, साथ ही पर्यटकों को आकर्षित कर सकती है। मगर, इसकी सड़ी-गली हालत पर्यटकों को भगाती है, निवासियों को बीमार करती है, और पुनर्जनन के हर वादे का मजाक उड़ाती है।

यमुना का संकट अब संभावना का नहीं, इच्छाशक्ति का सवाल है। क्या सत्ता में बैठे लोगों को इसकी फिक्र भी है—या भारत की धरोहर को खोखले वादों की छाया में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाएगा?

बॉलीवुड की बत्ती गुल क्यों? कहां गुम हो गई सिल्वर स्क्रीन की वो दीवानगी?

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कभी दिलों पर राज करने वाला बॉलीवुड सिनेमा आज क्यों ढूंढ रहा है अपना खोया हुआ जादू? रचनात्मकता की सूख, सितारों की फीकी चमक और दर्शकों से टूटे कनेक्शन की ये कसक कब थमेगी?

“ये जो मोहब्बत है, ये तो दीवानगी है…” गुलज़ार साहब का ये शेर कभी बॉलीवुड की धड़कन हुआ करता था। पर्दे पर प्यार उमड़ता था, जज़्बात हिलोरें मारते थे, और सिनेमाघरों में एक अलग ही जुनून छाया रहता था। आज? आलम ये है कि “दिल में तू है, लेकिन दूर-सा है…”।

साल 2025 में हिंदी सिनेमा एक अजीब सी खामोशी से घिरा हुआ है – न वो कहानियों का दम है, न सितारों में वो कशिश, और न ही दर्शकों का वो बेइंतहा प्यार। वो सुनहरा दौर कहां चला गया, जब फिल्में महीनों तक सिनेमाघरों में झंडे गाड़ती थीं? ‘शोले’ (1975) सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक तूफान था, जिसने पीढ़ियों को अपना दीवाना बनाया। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ (1995) रोमांस का ऐसा जादू था, जिसने युवाओं के दिलों पर बरसों राज किया। ‘लगान’ (2001) सिर्फ एक कहानी नहीं, बल्कि उम्मीद और हौसले का एक ऐसा जज़्बाती जलसा था, जिसमें पूरा देश शरीक हुआ। उन दिनों दर्शक सिनेमाघरों में महीनों जमे रहते थे, हर किरदार को जीते थे, हर गाने को गुनगुनाते थे। अब? ऐसा लगता है जैसे भव्य सेट हैं, महंगे सितारे हैं, तकनीक का कमाल है, पर वो रूह कहीं गुम हो गई है। सब कुछ होते हुए भी, कुछ अधूरा सा है।

हाल के वर्षों की ही बात करें तो ‘आदिपुरुष’ (2023) ने भले ही वीएफएक्स का दम दिखाया, ‘बड़े मियां छोटे मियां’ (2024) में सितारों की चमक थी, लेकिन कमजोर कहानियों और दर्शकों की ऊब ने इन फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर धूल चटा दी। साल 2024 में तो ‘स्त्री 2’ जैसी इक्का-दुक्का फिल्मों ने ही ₹500 करोड़ का आंकड़ा पार किया, जबकि 2000 के दशक में ये एक आम बात थी। क्या वाकई सितारों का सूरज डूब रहा है? ये कैसा मंज़र है, “ये कहां आ गए हम, यूं ही साथ चलते-चलते…”?

एक ज़माना था जब अमिताभ बच्चन का ‘एंग्री यंग मैन’ पर्दे पर उतरता था, तो वो सिर्फ एक किरदार नहीं, बल्कि आपातकाल के दौर की दबी हुई आवाज़ बनता था। शाहरुख खान का ‘राज’ जब बाहें फैलाता था, तो रोमांस का एक नया बादशाह जन्म लेता था। आमिर खान का ‘रंग दे बसंती’ युवाओं की बेचैनी और बदलाव की चाहत की बुलंद आवाज़ थी। आज? सलमान खान की ‘टाइगर 3’ (2023) बॉक्स ऑफिस पर हांफ गई। रणबीर कपूर (‘एनिमल’) और रणवीर सिंह (‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’) जैसे सितारे दर्शकों को दो खेमों में बांट देते हैं। वो जादू, वो सम्मोहन, जो कभी इन सितारों की पहचान हुआ करता था, अब कहीं खो गया है।

और कहानियों का क्या? “कहानी तो बस एक बहाना है, दिल की जुबां तो देख…” 1950 और 60 के दशक में राज कपूर (‘आवारा’) और गुरु दत्त (‘प्यासा’) ने समाज के हाशिए पर खड़े लोगों की, उम्मीद और संघर्ष की ऐसी कहानियाँ सुनाईं, जो आज भी दिलों को छू जाती हैं। 2000 के दशक में भी ‘रंग दे बसंती’ (2006) ने युवाओं के दिल की धड़कन को पकड़ा था। आज? ‘एनिमल’ (2023) जैसी फिल्में जहरीली मर्दानगी को महिमामंडित करती हैं। नायक अब समाज के लिए नहीं लड़ते, बल्कि अपनी निजी जंग में उलझे हुए हैं। ग्रामीण भारत की वो सच्ची कहानियाँ पर्दे से गायब हो गई हैं, सब कुछ महानगरीय चकाचौंध और बनावटी ग्लैमर में सिमट गया है।

बॉलीवुड का संगीत तो कभी उसकी रूह हुआ करता था। “प्यार हुआ इकरार हुआ” (‘श्री 420’), “तुझे देखा तो ये जाना सनम” (‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’), “कजरा रे” (‘बंटी और बबली’) – ये गाने सिर्फ धुनें नहीं थीं, ये हमारी यादों का हिस्सा थे, हमारी भावनाओं की अभिव्यक्ति थे। आज के गाने? ‘केसरिया’ (‘ब्रह्मास्त्र’) जैसे ट्रैक्स भले ही कुछ समय के लिए वायरल हो जाएं, लेकिन उनमें वो गहराई कहां, वो शायरी कहां, जो साहिर, गुलज़ार, जावेद अख्तर के गीतों में होती थी? तेज़ बीट्स और खोखले लिरिक्स ने संगीत की उस मिठास को छीन लिया है, जो कभी बॉलीवुड की पहचान थी।

और इस बदलते परिदृश्य में ओटीटी प्लेटफॉर्म और दक्षिण भारतीय सिनेमा का बढ़ता दबदबा भी एक बड़ा कारण है। नेटफ्लिक्स (‘सेक्रेड गेम्स’) और अमेज़ॅन प्राइम वीडियो (‘पंचायत’) जैसे प्लेटफॉर्म ने दर्शकों की आदतें बदल दी हैं। अब उन्हें घर बैठे ही बेहतरीन कंटेंट देखने को मिल रहा है। वहीं, दक्षिण की डब की हुई फिल्में (‘पुष्पा’, ‘आरआरआर’) अपनी दमदार कहानियों और ज़बरदस्त एक्शन के दम पर बॉलीवुड को कड़ी टक्कर दे रही हैं, कई बार तो उसे पीछे भी छोड़ रही हैं।

लेकिन क्या उम्मीद की कोई किरण बाकी नहीं? “हार के जीतने वाले को, बाज़ीगर कहते हैं…” अभी भी ’12वीं फेल’ (2023) जैसी फिल्में साबित करती हैं कि अगर कहानी में दम हो, किरदारों में सच्चाई हो, तो दर्शक आज भी सिनेमाघरों का रुख करते हैं और दिल खोलकर प्यार लुटाते हैं। बॉलीवुड को उस दौर की कहानी कहने की कला को फिर से अपनाना होगा, सलीम-जावेद की धारदार स्क्रिप्ट, गुलज़ार की शायरी की गहराई और यश चोपड़ा के रोमांस की जादूगरी को वापस लाना होगा। बॉलीवुड को खुद से लड़ना होगा – सितारों के अहंकार से, खोखले विजुअल्स के दिखावे से और दर्शकों से बढ़ती हुई दूरी के खिलाफ। अगर ऐसा हुआ, तो शायद… “फिर वही रात हो, वही बात हो, वही रौनक़, वही चाहत हो…”

लेकिन कड़वी सच्चाई यही है कि बॉलीवुड, जो कभी भारतीय कहानियों का दिल हुआ करता था, आज रचनात्मकता, प्रासंगिकता और दर्शकों से जुड़ाव के एक गहरे संकट से जूझ रहा है। साल 2025 में हिंदी फिल्म इंडस्ट्री एक धुंधली और निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। वो जुबली का दौर तो कब का खत्म हो चुका है। स्टार सिस्टम, जो कभी अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, धर्मेंद्र, जितेंद्र और फिर शाहरुख खान, आमिर खान जैसे आइकनों से जगमगाता था, अब कमजोर पड़ चुका है। स्क्रिप्ट में औसत दर्जे का काम और दर्शकों की आकांक्षाओं से दूरी बॉलीवुड को महंगी पड़ रही है। 1950 और 60 के दशक में, राज कपूर और गुरु दत्त जैसे दूरदर्शी फिल्म निर्माताओं ने ‘आवारा’ (1951) और ‘प्यासा’ (1957) जैसी फिल्में बनाकर समाज के सपनों और संघर्षों को पर्दे पर उतारा था। 2000 के दशक में भी ‘रंग दे बसंती’ (2006) ने युवा विद्रोह और देशभक्ति की भावना को नई आवाज दी थी। आज, ज़्यादातर स्क्रिप्ट घिसी-पिटी फॉर्मूलों पर टिकी होती हैं – अपराध, हिंसा या बदले की कहानियां। ‘एनिमल’ (2023) जैसी फिल्में जहरीली मर्दानगी और प्रतिशोध को महिमामंडित करती हैं। नायक अब समाज की सेवा करने वाले नहीं रहे। पहले, ‘नया दौर’ (1957) जैसी फिल्में नायकों को बांध या सड़कें बनाते हुए या समुदायों को ऊपर उठाते हुए दिखाती थीं।

इस बीच, अभिनेताओं का सोशल मीडिया पर ज़रूरत से ज़्यादा ध्यान और अभिनय कौशल पर कम ज़ोर देना भी साफ नज़र आता है। दिलीप कुमार जैसे दिग्गजों ने थिएटर के मंच पर अपनी कला को निखारा था, लेकिन कई आधुनिक सितारे सिर्फ़ अपनी चमक-दमक और पीआर पर निर्भर हैं। उच्चारण और संवाद अदायगी, जिसे कभी देव आनंद जैसे सितारों ने एक अलग पहचान दी थी, अब उपेक्षित है। जहां मधुबाला या श्रीदेवी जैसी अभिनेत्रियों ने सुंदरता और प्रतिभा का अद्भुत संतुलन बनाए रखा, वहीं आज की अभिनेत्रियों को अक्सर सिर्फ़ ग्लैमरस भूमिकाओं तक सीमित कर दिया जाता है।

इतना ही नहीं, मल्टीप्लेक्स टिकटों की आसमान छूती कीमतें – अक्सर ₹300 से ₹1000 तक – सिनेमा को आम आदमी की पहुंच से दूर एक विलासिता की चीज़ बना देती हैं। सिंगल-स्क्रीन थिएटर, जो कभी बॉलीवुड की रीढ़ थे, मुंबई और दिल्ली जैसे बड़े शहरों से भी गायब होते जा रहे हैं। 2024 तक पूरे देश में सिर्फ़ 6,000 के करीब ही बचे हैं। यह बदलाव उस आम दर्शक को सिनेमा से दूर कर रहा है, जो कभी ₹50 के टिकट पर भी फिल्में देखने के लिए उमड़ पड़ता था।

और संगीत और कविता? वो तो अब लुप्त होती हुई श्रेणी में आ चुके हैं। बॉलीवुड की आत्मा – उसका संगीत – अपनी मधुरता खो चुका है। ‘मुग़ल-ए-आज़म’ (1960) या ‘हम आपके हैं कौन’ (1994) के गाने आज भी हमारी यादों में ताज़ा हैं, लेकिन आज के गाने, जैसे ‘ब्रह्मास्त्र’ (2022) के, रिलीज़ होते ही भुला दिए जाते हैं। तेज़, इलेक्ट्रॉनिक बीट्स का शोर है, लेकिन साहिर लुधियानवी या गुलज़ार की कविता की गहराई गायब है। गानों और फिल्मों की शेल्फ लाइफ कम हो गई है, और कुछ ही सांस्कृतिक छाप छोड़ पाते हैं। रही सही कसर मोबाइल वॉचिंग एडिक्शन, लत ने खत्म कर दी है।

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