यमुना का रुदन: एक नदी की त्रासदी, एक वादे का विश्वासघात

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आगरा के मौनी और बहरे जन प्रतिनिधि कब नींद से जागेंगे और सुनेंगे यमुना का करुण क्रंदन? हद दर्जे की बेपरवाही के चलते यह गर्मी का मौसम भी निकल जाएगा, न सफाई होगी, न रिवर फ्रंट योजना पर काम शुरू होगा, न ही नगला प्रेमा में रबर चेक डैम की नींव रखी जा सकेगी। पिछले चार महीनों में पचासों छोटे-बड़े धंधे की जुगाड़ वाले प्रोजेक्ट्स सेक्शन हो गए। मेट्रो का भी कार्य द्रुत गति से चल रहा है, एयरपोर्ट टर्मिनल भी मिल जाएगा, लेकिन पचास वर्षों से लटके यमुना और सहायक नदियों के शुद्धिकरण और संरक्षण के सभी कार्यक्रम फाइल बंद हैं। आगरा की धरोहर यमुना नदी, जो कभी जीवनस्रोत थी, अब तपती गर्मी की धूप में तड़प रही है, एक ठहरी हुई, जहरीली नाली में तब्दील हो चुकी है। लेकिन निर्वाचित नेता खामोश हैं।

एक दशक से अधिक समय पहले, 2014 के चुनावी जोश में आगरा और मथुरा-वृंदावन की सभाओं में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके खोए वैभव को लौटाने का वचन दिया था। मगर 2025 में, यह नदी टूटी आशाओं का दुखद स्मारक बनी हुई है। इसके पवित्र जल की जगह अब काला, गंदा कीचड़ बहता है, जो उपेक्षा की बदबू से भरा है। पर्यटक, जो शांत नदी किनारे के सपने लेकर आते हैं, घृणा से मुंह मोड़ लेते हैं। उनके सपने इस बदबूदार हकीकत से चकनाचूर हो जाते हैं। सरकार के बड़े-बड़े दावे खोखले साबित होते हैं। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कभी दिल्ली से आगरा तक स्टीमर सेवाओं की बात की थी, लेकिन यमुना की हकीकत ऐसी कल्पनाओं का मजाक उड़ाती है। साल के ज्यादातर समय इसका तल सूखा और बंजर पड़ा रहता है, जहां सपने भी नहीं पनपते। “नावें? एक बूंद पानी मिल जाए तो गनीमत है,” एक स्थानीय कार्यकर्ता तंज कसते हुए कहता है, सूखे तल की ओर इशारा करते हुए। “शायद अब यहां नदी की जगह ऊंट की सवारी का पैकेज, डेजर्ट सफारी के नाम से बेचें।”

प्रगति के सरकारी दावे—40 से ज्यादा नालों को बंद करना, सात सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट का संचालन—जांच के सामने ढह जाते हैं। एत्माद-उद-दौला पार्क के पास भैरों नाला और ताजमहल के खतरनाक रूप से करीब मंटोला नाला अब भी नदी में अशुद्ध गंदगी उगल रहे हैं। “ताज के पास एक कदम चलिए, सच अपने आप सामने आ जाता है,” एक निवासी कहता है। “यमुना मरी नहीं, यह तो जहर का गड्ढा है, जहां कीटाणु भी दम तोड़ देते हैं।”

संकट दोहरा है: पानी की कमी और उसकी गुणवत्ता। मॉनसून की बारिश कुछ हफ्तों के लिए नदी को जीवन देती है, मगर जल्द ही यह फिर सूख जाती है। दिल्ली से जो थोड़ा-बहुत बहकर आता है, वह नदी नहीं—उद्योगों का जहरीला कचरा, भारी धातुएं और अशुद्ध सीवेज का घातक मिश्रण है। यह विषैला प्रवाह बदबूदार गैसें छोड़ता है, आगरा की धरोहरों की नींव को खा जाता है, और नदी का तल बीमारी फैलाने वाले कीड़ों का अड्डा बन जाता है।

ताजमहल देखने आए पर्यटकों के लिए यमुना की दुर्दशा एक झटका देती है। “ऐसा स्मारक इस कचरे के पास कैसे बन सकता है?” एक हैरान पर्यटक नाक दबाते हुए पूछता है। नदी का क्षय सिर्फ आंखों को चुभने वाला नहीं—यह ताज के लिए भी खतरा है। नमी के अभाव में स्मारक की नींव को खतरा है; वहीं, प्रदूषित कीचड़ में पनपने वाले कीड़े इसके संगमरमर पर हरी गंदगी छोड़ते हैं, जिसे बार-बार साफ करना पड़ता है।

तीस साल से कार्यकर्ता ताज के नीचे एक बैराज या चेक डैम की मांग कर रहे हैं ताकि न्यूनतम जल स्तर बना रहे। मगर, सरकारों ने सिर्फ खोखले वादे दिए—कई बार बैराज की नींव रखी गई, और फिर परियोजना को भुला दिया गया। “अब तो वे पत्थर भी गायब हैं।” आजकल नगला पेमा में एक रबर डैम की चर्चा चल रही है, जिसकी आखिरी NOC एक साल से लटकी हुई है। सारे विधायक, सांसद लखनऊ जाकर प्रेशर बनाएं तो एक हफ्ते में क्लियरेंस मिल सकता है। पहले की सरकारें—कांग्रेस की निष्क्रियता, अखिलेश यादव का साइकिल ट्रैक का जुनून, मायावती का ताज हेरिटेज कॉरिडोर का असफल प्रयास—सब यमुना के साथ नाकाम रहीं।

आज, बीजेपी के क्षेत्र में दबदबे (10 विधायक, 2 सांसद) के बावजूद, नदी उनके “विकास” के एजेंडे से गायब है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं: अगर तत्काल कदम नहीं उठाए गए, तो यमुना पूरी तरह मर जाएगी, और इसके साथ आगरा का पारिस्थितिकी तंत्र और ताजमहल का भविष्य भी दांव पर लग जाएगा। एक जीवित नदी प्रदूषण को सोख सकती है, धूल को कम कर सकती है, और शहर के स्मारकों की रक्षा कर सकती है, साथ ही पर्यटकों को आकर्षित कर सकती है। मगर, इसकी सड़ी-गली हालत पर्यटकों को भगाती है, निवासियों को बीमार करती है, और पुनर्जनन के हर वादे का मजाक उड़ाती है।

यमुना का संकट अब संभावना का नहीं, इच्छाशक्ति का सवाल है। क्या सत्ता में बैठे लोगों को इसकी फिक्र भी है—या भारत की धरोहर को खोखले वादों की छाया में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाएगा?

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Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

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