नरेंद्र सिंह
बड़े कथावाचकों, पीठाधीशों, महामण्डलेश्वरों से विनम्र विनती है कि आप जहां जाएं वहां के लोगों को सीधे दीक्षा देने की बजाय स्थानीय कुल पुरोहितों, कुल गुरुओं की खोज करें, लोगों का संवाद उनसे कराकर उनके माध्यम से दीक्षा कार्यक्रम करें। यदि कुल पुरोहित नहीं मिलते तो पिंड प्रवर में इसकी पुनः स्थापना करें।
हर जाति, समुदाय का अपना गुरु होता है। हिन्दू धर्म गुरुओं को चाहिए कि उन स्थानीय गुरुओं का मान करें, उनसे सहमति और उनके माध्यम से दीक्षा वकर्मकाण्ड संपन्न करवाएं।
दीक्षा देने लेने वालों का आपस में प्राथमिक परिचय होना बहुत आवश्यक है। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हजार की भीड़ है और माइक से मंत्र फूंक कर सबको चेला बना लिया गया। गुरु बनना अत्यंत कठिन कार्य होता है। शिष्यों के कार्यों की जिम्मेदारी गुरु पर ही आती है। शिष्यों का पुण्य गुरु को एक चौथाई मिलता है तो शिष्यों के पाप गुरु को दस गुना मिलते हैं।
दीक्षा देना फैन फॉलोइंग बनाना नहीं है। बहुत सावधानी बरतें, लालच और अहंकार से मुक्त होकर ही यह कार्य करें।