आचार्य श्रीहरि
2014 में हार के बाद कांग्रेस ने उदार हिन्दुत्व पर चलने का संकेत दिया था और वह स्वीकार कर चुकी थी कि उसकी हार के केन्द्र में हिन्दुत्व का उग्र विरोध है। कांग्रेस की यह सोच चाकचौबंद थी और हार के चक्रव्यूह से निकलने का सौलिट मंत्र भी था। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने इस पर काम किया था, इसी दृष्टिकोण पर आधारित राहुल गांधी की छवि को गढने और चमकाने का निर्णय लिया गया था, एक उदार हिन्दुत्व का सांचा बनाया गया था। इसी सांचे से राहुल गांधी के ब्राम्हण होने का कथन निकला था और उनके दत्तात्रैय गोत्र की कहानी निकली थी। राहुल गांधी की दौड़ मानसरोवर तक लगायी गयी थी, उन्हें गेरूआ कपडे पहनाये थे और मंदिर-मंदिर का भ्रमन कराया गया था। कांग्रेस को यह उम्मीद थी कि उनकी उदार हिन्दुत्व की छवि से हिन्दुओं की नाराजगी और विछोह दूर होगा और फिर से कांग्रेस को सत्ता सूत्र मिल जायेगा। एक अंथोनी की रिपोर्ट भी यही कहती थी। एके अंथोनी कमिटी की रिपोर्ट में साफतौर पर कहा गया था कि 2014 में कांग्रेस की हार के पीछे हिन्दुत्व की नाराजगी थी और कांग्रेस ने अपने दस सालों के शासन काल के दौरान अपनी छवि हिन्दू विरोधी बनायी थी और इसका सारा दोष उन बयानबाज कांग्रेसियों का था जो अति मुस्लिम पक्षधर थे और अपने बयानों के नकरात्मक प्रबृतियों के प्रति बेपरवाह और उदासीन थे। कांग्रेस के अंदर ऐसे बयानबाज नेताओ को अस्थिर करने या फिर उन्हें महत्वहीन करने की बात कही गयी थी और आशिक तौर पर ही सही पर निर्णय को लागू करने की कोशिश हुई थी। मनिशंकर अय्यर और मनीष तिवारी तथा कपिल सिब्बल जैसे कई नेताओं के पर कतरे गये थे। हिन्दू आतंकवाद की थ्योरी को स्थापित करने वाले पी चिदम्बरम को भी नेपथ्य में भेजने की चाल चली गयी थी।
उदार हिन्दुत्व पर चलने का प्रत्याशित लाभ क्यों नही मिला? इसका विश्लेषण करने की जरूरत कांग्रेस ने जाहिरतौर पर कभी नहीं समझी। 2014 के बाद 2019 और 2024 में भी कांग्रेस को उदार हिन्दुत्व को अपनाने का लाभ नहीं मिला। कांग्रेस को न केवल केन्द्रीय चुनावों में बल्कि राज्य चुनावों में हार पर हार मिली। कांग्रेस का हर दांव उल्टा ही पडा। यहां तक की राहुल गांधी की भारत जोडों यात्रा भी कोई काम नही आयी। भारत जोडों यात्रा से राहुल गांधी की छवि चमकने की उम्मीद थी और कांग्रेस की किस्मत बदलने की उम्मीद थी। सच तो यह है कि जैसे-जैसे राजनीति का समय चक्र घूम रहा है वैसे-वैसे कांग्रेस की परिधि भी घटती जा रही है, कांग्रेस की कमजोरी लगातार बढती जा रही है। मोदी को झुकाने या फिर सत्ता से बाहर करने की बात तो दूर रही बल्कि नरेन्द्र मोदी की मजबूत घेराबंदी करने में भी कांग्रेस सफल नहीं हो पा रही है। अब तो नरेन्द्र मोदी का विकल्प राहुल गांधी और भाजपा का विकल्प कांग्रेस को मानने से भी इनकार किया जा रहा है। इंडिया गठबंधन दल में भी कांग्रेस और राहुल गांधी के प्रति नजरिया नकरात्मक बन रहा है और विरोध बढ रहा है। लालू प्रसाद यादव का यह कहना कि नरेन्द्र मोदी और भाजपा का विकल्प राहुल गांधी नहीं बल्कि ममता बनर्जी है और ममता बनर्जी को ही इंडिया गठबंधन का नेतृत्व दिया जाना चाहिए। लालू का यह चिंतन कांग्रेस के लिए हाहाकार वाली स्थिति जैसी है। आखिर क्यों? इसलिए कि लालू यादव की छवि सोनिया गांधी-राहुल गांधी समर्थक की रही है।
कांग्रेस ने ऐसा नजरियां क्यों विकसित कर लिया, ऐसी राजनीतिक सोच क्यों बनायी कि हमें हर हिन्दुत्व के प्रतीकों और उत्सवों का विरोध करना है और उस पर कीचड उछालना है? विरोध की बात तो समझ में आती है पर कीचड उछालना और अपमानित जरने जैसे कार्य भी करने से पीछे नही हटने की रणनीति को क्या कहा जाना चाहिए? रामजन्म भूमि मंदिर स्थापना उत्सव पर विरोध तो समझ में आता है और इस पर नरेन्द्र मोदी को श्रेय लेने की बात का विरोध भी स्वीकार हो सकता है। पर महाकुंभ का विरोध, महाकंभ को अंधविश्वास का प्रतीक बताना औेर यह कह देना कि अंधविश्वासी लोग ही महाकुंभ जा रहे है। मल्लिकार्जुन खडगे का यह बयान कि महाकंुभ जाने और महाकुंभ में डूबकी लगाने से पाप धूलेगा क्या, रोटी मिलेगी क्या, रोजगार मिलेगा क्या? इसकी भयानक प्रतिक्रिया हुई। कांग्रेस की इस सोच की प्रतिक्रिया से हुई नुकसान का अंदाजा भी नहीं लगा सकती है और उसके दुष्परिणामों को कितने समय तक भुगतना पडेगा, इसका आकलन कांग्रेस कभी कर ही नहीं सकती है। सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया थी कि हज के खिलाफ कांग्रेस और खडगे बोल कर दिखाये कि हज से रोजी-रोटी मिलती है कि नहीं। नमाज और हज के खिलाफ कांग्रेस कभी बोल ही नहीं सकते हैं। जबकि पूजा और तीर्थाटन भी नमाज और हज जैसी संस्कृति और उत्सव जैसा ही है। कांग्रेस अध्यक्ष खडगे का नजरिया तो साफ था कि वे महाकुंभ जायेंगे नहीं पर राहुल गांधी और प्रिंयका गांधी के प्रति लोगों को उम्मीद थी। सोनिया गांधी अपने स्वास्थ्य के कारण महाकुंभ जाने का जाखिम नहीं ले सकती थी। लेकिन राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को लेकर प्रत्याशा थी पर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी महाकुंभ नहीं गये। राहुल गाध्ंाी और पियंका गांधी का सोशल मीडिया साइट एक्स खंगालने पर साफ होता है कि भर महाकुंभ ये अपमानजनक और हिन्दुत्व विरोधी पोस्ट लिखते रहे थे। प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के सोशल मीडिया राइटरों ने इनका बहुत बडा राजनीतिक नुकसान करने का काम किया। संदेश यह गया कि अब कांग्रेस हिन्दुत्व का संहार करने के लिए आमने-सामने की लडाई के लिए मैदान में उतर चुका है।
परजीवी सफलताएं कांग्रेस को कभी भी मजबूत नहीं कर सकती है और न ही सत्ता दिला सकती हैं। वर्तमान समय में कांग्रेस को जो भी सफलताएं मिल रही हैं और पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 99 सीटों पर विजयी हासिल करने की जो सफलता पायी थी वह भी परजीवी सफलता थी, कांग्रेस की अपनी नहीं थी। कांग्रेस को खासकर दो राज्यों में सफलता मिली थी। एक उत्तर प्रदेश और दूसरा तमिलनाडु। उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के कारण कांग्रेंस को अच्छी सीटों मिली थी, तमिलनाडु में स्टालिन के कारण कांग्रेस को सफलताएं मिली थी। कांग्रेस स्वयं के बल पर मजबूत नहीं होगी तो फिर परजीवी सफलताओं से भी कांग्रेस दूर होती चली जायेगी। उत्तर प्रदेश, तलिनाडु, बिहार, पश्चिम बंगाल और झारखंड जैसे प्रदेशों में कांग्रेसे परजीवी कंलक को दूर कर अपना भाग्य विधाता स्वयं बनना चाहिए। दिल्ली में परजीवी कलंक से बाहर निकलने की कांग्रेस ने पूरी कोशिश की थी और अरविंद केजरीवाल से गठबंधन तोड कर अलग से चुनाव लडी थी फिर भी कांग्रेस लगातार तीन बार खाता भी नहीं खोल सकी, एक भी सीट नहीं जीत पायी। आखिर क्यों? इसलिए कांग्रेस के पास अपनी विश्वसनीयता रही नहीं है और उसका आतंरिक शक्ति संगठन भी मजबूत नहीं है।
संघ और भाजपा का विरोध में बुराई नहीं है, नुकसान नहीं है। पर संघ और भाजपा का विरोध करते-करते हिन्दुओं का विरोध करना शुरू कर देना और इतना ही नहीं बल्कि हिन्दुओं को दुश्मन मान लेना कोई अच्छी नीति नहीं है और न ही कांग्रेस के लिए कोई अच्छे भविष्य के संकेत हैं। अभी भी हिन्दुओं का पूर्ण समर्थन संघ और भाजपा के पास नही है, बहुमत का हिन्दुत्व अभी भी संघ और भाजपा का विरोधी है और उन पर सेक्युलरवाद ग्रंथि हावी रहती है। इस बात को या फिर इस सच्चाई को कांग्रेस समझने या फिर विश्लेषण करने की जरूरत क्यों नहीं समझती है? इसका उदाहरण मेरे पास है। देश में हिन्दुओं का प्रतिशत अभी भी 75 प्रतिशत से अधिक है पर नरेन्द्र मोदी को 36 प्रतिशत से अधिक वोट कभी नहीं मिला। 2019 के लोकसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी को अधिकतम 36 प्रतिशत वोट मिला था। हिन्दू विरोधी बयानों और कुकृत्यो से ऐसे हिन्दू भी भाजपा और संघ के पक्षधर बन जाते हैं जो कभी भी भाजपा को वोट तक नहीं दिये थे। इसलिए कहना यह गलत नहीं होगा कि हिन्दुओं को भाजपा के खेमे मे ढकलने का काम अराजक और विभत्स बयानबाजी करती है। सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी में से किसी ने भी महाकुंभ न जाकर और महाकुंभ के खिलाफ बोलकर हिन्दुओं से दुश्मनी ही मोल ली है। हिन्दुओं से दुश्मनी की सजा कोई भाजपा नहीं बल्कि कांग्रेस ही भुगतेगी।