प्रमोद भार्गव को मिलेगा नरेश मेहता स्मृति वांग्मय सम्मान

1-1-e1733309233980.jpeg

राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,भोपाल द्वारा दिये जाने वाले सम्मान घोषित

मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति हिंदी भवन भोपाल द्वारा दिए जाने वाले वार्षिक सम्मानों की घोषणा समिति के संचालक श्री कैलाशचंद पंत ने एक विज्ञप्ति जारी करके कर दी है।इस बार का समिति का सबसे प्रमुख अखिल भारतीय सम्मान शिवपुरी के साहित्यकार एवं पत्रकार प्रमोद भार्गव को उनकी पुस्तक “पुरातन विज्ञान” पर दिया जाएगा।सम्मान के अंतर्गत 51 हजार की राशि,प्रशस्ति पत्र, शॉल,श्रीफल भेंट किए जाएंगे।

प्रमोद भार्गव को यह विशिष्ट सम्मान उनकी पुस्तक “पुरातन विज्ञान” को दिया गया है।इस पुस्तक में पुरातन विज्ञान और भारतिय ज्ञान परंपरा से जुड़े ऐसे विज्ञान सम्मत लेख हैं,जो पुरातन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान से जोड़ते हैं। इन लेखों में दिए तथ्यों की पुष्टि दुनिया भर में हो रहे उन अनुसंधानों से की है, जो विश्व के वैज्ञानिक कर रहे हैं।जिन्हें वैश्विक मान्यता भी मिली है।भार्गव के ये लेख हिंदी की सभी प्रमुख विज्ञान पत्रिकाओं के साथ ‘पत्रिका’ और ‘राजस्थान पत्रिका’ के सभी संस्करणों में एक स्तंभ में प्रकाशित भी हुए हैं ।भार्गव का इसी विषय पर लिखा उपन्यास “दशावतार” भी खूब चर्चित हुआ है।इस उपन्यास के अनेक संस्करण तो निकले ही हैं,अंग्रेजी में भी इसका अनुवाद छप चुका है। भार्गव की उपन्यास ,कहानी संग्रह समेत विविध विषयों की दो दर्जन से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यह सम्मान 25 दिसंबर 2024 को हिंदी भवन ,भोपाल में एक भव्य समारोह में प्रदान किया जयेगा।

इसी तरह वीरेंद्र कुमार तिवारी सम्मान बैतूल के शिशिर कुमार चौधरी,शैलेश मटियानी कथा सम्मान भोपाल की श्रीमती शीला मिश्रा, सुरेशचंद्र शुक्ल नाट्य सम्मान मुम्बई के जयंत शंकर देशमुख, डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय आलोचना सम्मान कोच्चि की डॉ के वनजा ,शंकरलाल बत्ता पौराणिक सम्मान भोपाल के मोहन तिवारी आनंद ,संतोष श्रीवास्तव कथा सम्मान हल्द्वानी को दिया जाएगा।इन सम्मानों के अंतर्गत 21 हजार की राशि,प्रशस्ति पत्र, शॉल, श्रीफल प्रदान किए जाएंगे।श्री मती संतोष बत्ता स्मृति सम्मान भोपाल की श्रीमती इंदिरा दांगी को दिया गाएगा।इसमें 11 हजार की राशि के साथ प्रशस्ति पत्र, शॉल,श्रीफल दिए जाएंगे।

शिक्षाविद् ठाकुर लालसिंह का संदिग्ध दुर्घटना में निधन, भोपाल विलीनीकरण आँदोलन का अंतिम उद्घोष इन्हीं ने किया था

0521_shahid_smarak.jpg

सल्तनत और अंग्रेजीकाल के घोर अंधकार के बीच भी यदि भारतीय संस्कृति और परंपराएँ आज पुनर्प्रतिठित हो रहीं हैं तो इसके पीछे कुछ ऐसी विभूतियाँ के जीवन का समर्पण हैं, जो अपने लिये नहीं अपितु संपूर्ण समाज के लिये जिये, उनके जीवन का प्रत्येक पल राष्ट्र,संस्कृति और परंपराओं की पुनर्स्थापना के समर्पण में रहा । ऐसे ही जीवनदानी थे ठाकुर लालसिंह । स्वतंत्रता से पहले भोपाल रियासत काल में वे नागरिक अधिकार एवं समानता के संघर्ष में जेल गये और स्वतंत्रता के बाद भोपाल रियासत के भारतीय गणतंत्र व्यवस्था के अंतर्गत मध्यभारत में विलीनीकरण केलिये भी जेल यात्रा की।
ऐसे जीवन बलिदानी ठाकुर लालसिंह का परिवार मूलतः राजस्थान में भरतपुर क्षेत्र अंतर्गत सिनसिनी गांव का रहने वाला था । इस क्षेत्र के मूल निवासी जाट क्षत्रिय सिनसिनवार गोत्र के कहे जाते है । भरतपुर के इतिहास प्रसिद्ध शासक सूरजमल जाट इसी “सिनसिनवार” गोत्र से थे । अठारहवीं शताब्दी भरतपुर क्षेत्र केलिये बहुत उथल पुथल से भरी हुई थी। पहले औरंगजेब के हमले, और फिर अंग्रेजों के। लगातार हमलों के बीच सिनसिनी से एक शाखा मालवा आई । आगे चलकर इनमें से एक परिवार भोपाल रियासत में आया। यह परिवार पहले इछावर और फिर बैरसिया आया । इसी परिवार में ठाकुर लालसिंह का जन्म हुआ । जन्मवर्ष 1889 माना जाता है । पिता हीरा सिंह आर्य समाज से जुड़े थे । आर्यसमाज के ये संस्कार ठाकुर लालसिंह जी में जीवन भर रहे । पढ़ने केलिये इंदौर भेजा गया । इंदौर के क्रिश्चियन कालेज से उन्होंने बीए किया और 1913 में भोपाल के अलेक्जेंडर कॉलेज में शिक्षक हो गये ।

शिक्षक के रूप में जब ठाकुर लालसिंह भोपाल लौटे तब भोपाल रियासत में नबाब बेगम सुल्तान जहाँ का शासन था । नबाब बेगम यद्यपि सुधारवादी और प्रगतिशील थीं लेकिन अपने धर्म के प्रति बहुत कट्टर। इसके चलते पूरी रियासत के सामाजिक वातावरण में असहजता बढ़ रही थी । पंजाब उत्तर प्रदेश आदि स्थानों से मुस्लिम परिवारों का भोपाल आने का क्रम तेज हो गया था । इन मुस्लिम परिवारों को नबाब प्रशासन द्वारा राजकीय पद अथवा जमीन जायदाद देकर बसाया जा रहा था। इसके साथ बाहर से आये इन तत्वों द्वारा असामाजिक गतिविधियाँ भी की जा रहीं थीं। जिससे हिन्दु समाज में भय और असुरक्षा का भाव बढ़ने लगा । हिन्दु समाज में एक तो कुछ आंतरिक विषमताएं, दूसरे इन घटनाओं का तनाव बढ़ने लगा था। इस सामाजिक वातावरण से ठाकुर लालसिंह बहुत व्यथित हुये । इन्ही दिनों नबाब बेगम ने एक ईशनिंदा कानून बनाया जिसके अंतर्गत इस्लाम की आलोचना करने पर गैर जमानती गिरफ्तारी का प्रावधान था । इस कानून की विशेषता थी इसमें आरोप लगाने वाले को अपना आरोप साबित नहीं करना होता था बल्कि आरोपी को अपने आपको निर्दोष होना प्रमाणित करना होता था । इन सभी परिस्थियों में ठाकुर लालसिंह को लगा कि वाह्य समस्याओं का सामना करने से पहले समाज को अपनी आंतरिक विसंगितियों से मुक्त होना होगा । उन्होंने पहले इसी दिशा में अपना काम आरंभ किया। पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते वे आर्यसमाज के संपर्क में थे । उन्होंने अपने समाज के सुधार और समाज सशक्तीकरण उद्देश्य की पूर्ति के लिये आर्यसमाज का ही मार्ग अपनाया । वे विभिन्न सेवा बस्तियों में गये सबको एकजुटता और भय रहित जीवन तथा शिक्षा से जुड़ने का संदेश दिया । यही संदेश उन्होंने अपने विद्यालय के छात्रों को भी दिया और सामाजिक एकजुटता के लिये सक्रिय किया । उन्ही दिनों गांधीजी ने अंग्रेजों से मुक्ति केलिये असहयोग आँदोलन का आव्हान किया । भोपाल में अंग्रेजों का सीधा शासन नहीं था । इसलिये भोपाल रियासत के बुद्धिजीवियों ने जन जाग्रति केलिये केवल प्रभात फेरी निकालने का निर्णय लिया । भोपाल नगर में बच्चों की जो प्रभात फेरी निकाली गई, उसमें प्रत्यक्ष रूप से किशोरवय उद्धवदास मेहता थे लेकिन परदे के पीछे ठाकुर लालसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी । चूँकि अधिकांश बच्चे अलेक्जेंडर कॉलेज के ही थे । 1922 में आर्य समाज ने लड़कियों की शिक्षा केलिये जो विद्यालय आरंभ किया उसमें भी ठाकुर लालसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी ।

1932 में उन्होंने शिक्षक पद से त्यागपत्र दिया और खुलकर समाज सेवा में आ आये । वे हिन्दू समाज की कुरीतियों के निवारण केलिये भोपाल में गठित हिन्दू सेवा संघ और सीहोर में गठित यंग मैन एसोसिएशन के संस्थापक सदस्यों में से एक थे । हिन्दूसेवा संघ ने हिन्दू समाज की समस्याओं के निराकरण केलिये एक ज्ञापन नबाब प्रशासन को सौंपा तथा विभिन्न स्थानों पर जाग्रति के लिये सम्मेलन किये । इसी अभियान के अंतर्गत उनकी पहली गिरफ्तारी 1932 में हुई ।

समाज जागरण केलिये भोपाल के शाहजहाँनाबाद में हुये सम्मेलन में सुप्रसिद्ध समाज सुधारक ठक्कर बाबा भी आये थे ।

भोपाल रियासत में हिन्दू महासभा की इकाई गठित करने में भी ठाकुर लालसिंह की भूमिका महत्वपूर्ण थी । उन्होंने लाहौर और नासिक,पुणे सम्मेलनों में भाग लिया और वे हिन्दु महासभा की भोपाल इकाई के पहले अध्यक्ष बने । 1934 में भाई उद्धवदास मेहता के साथ मिलकर एक समाचार पत्र “प्रजा पुकार” का प्रकाशन आरंभ किया । डा लालसिंह इसके संपादक बने। बाद में उनके मार्ग दर्शन में 2-3और हिंदी समाचारपत्र निकले गए जिनमे प्रजा मित्र और किसान प्रमुख है ।1937 में जन आंदोलन के चलते वे दूसरी बार गिरफ्तार हुये । इस बार उन्हें छै माह की सजा हुई । जेल से लौटकर पुनः अपने अभियान में लगे । इसी वर्ष आर्यसमाज ने हैदराबाद आँदोलन आरंभ किया । इसमें भाग लेने केलिये हिन्दु महा सभा ने भोपाल से जत्थे भेजे । निजाम हैदराबाद के संकेत पर भोपाल नबाब ने जत्थों की रवानगी पर प्रतिबंध लगा दिया । ठाकुर लालसिंह को जत्थे रवानगी की तैयारी में गिरफ्तार किया उन्हें पन्द्रह दिन जेल में रखा गया ।

अक्टूबर 1938 में प्रजा मंडल की भोपाल इकाई गठित हुई। ठाकुर लालसिंह इसके पहले अध्यक्ष बने । प्रजा मंडल वस्तुतःपंडित मदन मोहन द्वारा स्थापित राजनैतिक इकाई थी । भारत के जिन क्षेत्रों में अंग्रेजों का सीधा शासन था वहाँ काँग्रेस थी । लेकिन जहाँ अंग्रेजों के आधीन रियासतों का शासन था वहाँ प्रजा मंडल काम करता था । ठाकुर लालसिंह को लगा था अंग्रेजों और अंग्रेज नियंत्रित नबाब के अत्याचारों से मुक्ति के लिये हिन्दुओं और मुसलमानों को मिलकर साथ आना चाहिए। इसलिए वे प्रजा मंडल के संस्थापक बने । पर यह ठाकुर लालसिंह के व्यक्तित्व और उनके द्वारा किये गये समाज जागरण के कार्यों का प्रभाव था कि हिन्दु महासभा ने उन्हें यह सुविधा दी थी कि ठाकुर लालसिंह प्रजा मंडल के साथ हिन्दु महासभा के सदस्य भी रह सकते हैं। 1942 में आरंभ हुआ भारत छोड़ो आँदोलन केलिये ठाकुर लालसिंह ने पूरी रियासत की यात्रा की ।

1947 में भारत स्वतंत्र हुआ लेकिन भोपाल में स्वतंत्रता न आ सकी । भोपाल में स्वतंत्रता आँदोलन आरंभ करने के लिये 1947 में सीहोर में एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई। इस बैठक की अध्यक्षता ठाकुर लालसिंह जी ने की ।

इसी बीच भोपाल नबाब ने एक चाल चली । उत्तरदायी शासन के लिये प्रजा मंडल से चर्चा की और एक अंतरिम मंत्रीमंडल बनाकर प्रशासन चलाने का सुझाव रखा नबाब ने आश्वस्त किया कि सभी नागरिकों को समान अधिकार होंगे। ठाकुर लालसिंह इससे सहमत हो गये और एक सर्वदलीय मंत्रीमंडल बन गया । लेकिन भारत विभाजन के समय आसपास से मुस्लिम परिवार भोपाल रियासत आने लगे । ठाकुर लालसिंह को यह स्थिति असहज लगी फिर भोपाल नबाब यात्रा पर चले गये इसलिए कोई समाधान न निकल सका । नवम्बर 1947 में इस संबंधी समाचार टाइम्स ऑफ इंडिया में छपा । इसके अनुसार लगभग दस लाख मुस्लिम शरणार्थी भोपाल में आ गये थे । उन्हें वापस भेजने के लिये वीपी मेनन और सरदार वल्लभभाई पटेल की भोपाल नबाब से भी चर्चा हुई । इन्हीं तनावो के बीच दिल्ली में गाँधी जी की हत्या हुई। भोपाल नबाब को अवसर मिला । हिन्दु महासभा सहित वे तमाम नेता गिरफ्तार कर लिये गये जो नबाब विरोधी थे । इससे भोपाल रियासत को भारतीय गणतंत्र में विलीन करने का अभियान ठंडा पड़ा। लेकिन नबाब की कूटनीति को ठाकुर लालसिंह ने समझा और प्रजा मंडल के सदस्यों से मंत्रीमंडल छोड़ने को कहा । उन दिनों मौलाना तरजी मशरीकी प्रजा मंडल के अध्यक्ष थे । वे सहमत नहीं हुये । जून 1948 आते आते प्रजा मंडल में विभाजन जैसी स्थिति बनी । अंत में ठाकुर लालसिंह ने हिन्दु महा सभा तथा अन्य सामाजिक संगठनों के सदस्यों से चर्चा की और अक्टूबर 1948 में इछावर से विलीनीकरण आँदोलन का उद्घोष कर दिया । पुलिस ने लाठीचार्ज किया, सभा को तितर वितर किया । ठाकुर लालसिंह द्वारा विलीनीकरण आँदोलन की घोषणा कर देने से प्रजा मंडल में नबाब समर्थक कुछ सदस्य नाराज हुये और अध्यक्ष तरजी मशरीकी ने ठाकुर लालसिंह जी के इस कार्य को अनुशासनहीनता माना और उन्हें प्रजा मंडल से निलंबित कर दिया । पर ठाकुर लालसिंह ने इसकी परवाह नहीं की और पूरी रियासत की यात्रा की । उनके अभियान का हिन्दु महासभा और अनेक सामाजिक संगठनों ने सहयोग किया । अक्टूबर 1948 को ठाकुर लालसिंह द्वारा इछावर में किया गया विलीनीकरण आँदोलन का यह उद्घोष पूरी रियासत में फैला । दिसंबर 1948 तक आँदोलन पूरे राज्य में फैल गया था । कोई गांव, कोई कस्बा ऐसा नहीं जहाँ नौजवान विलीनीकरण केलिये उठकर खड़े न हुये हों। ठाकुर लालसिंह अलेक्जेंडर कॉलेज में शिक्षक रहे थे । यह भोपाल रियासत का एक मात्र कॉलेज था । रियासत के अधिकांश शिक्षित लोग इसी कॉलेज के थे। इसलिये जब ठाकुर लालसिंह ने विलीनीकरण आँदोलन का आव्हान किया तो युवा शक्ति उठ खड़ी हुई । इनमें सबसे प्रमुख भाई रतन कुमार भी थे जो उनके छात्र रहे थे जिनके समाचारपत्र “नई राह” ने चिन्गारी को ज्वाला में बदला । सीहोर बरेली उदयपुरा आदि अनेक स्थानों में गोलियाँ भी चलीं बलिदान हुये । अंत में 1 जून 1949 को भोपाल रियासत भारतीय गणतंत्र का अंग बनी ।

भोपाल रियासत एक स्वतंत्र राज्य के रूप में अस्तित्व में आ गई । समझौते के अंतर्गत पुलिस सहित नबाब का पूरा प्रशासनिक अमला यथावत रहा । अक्टूबर 1951 में चुनाव प्रक्रिया आरंभ हुई । ठाकुर लालसिंह भावी नेतृत्व के लिये एक स्वाभाविक चेहरा थे । लेकिन भोपाल नबाब और नबाब समर्थक लाॅवी उन्हें कतई पसंद नहीं करती थी । वे 4 दिसंबर 1951 को चुनाव केलिये जीप से अपना नामांकन भरने सीहोर के लिये रवाना हुये । वे जैसे ही रायल मार्केट पार करके आगे बढ़े कि अगले चौराहे पर जीप दुर्घटना ग्रस्त हो गई और इस दुर्घटना ठाकुर लालसिंह न बच सके । उन दिनों भोपाल में ट्रैफिक भी न था, उस रास्ते भीड़ भी न रहती थी । जीप की स्पीड भी न थी फिर भी ऐसी दुर्घटना ? यह रहस्य आज भी बना हुआ है कि वह दुर्घटना कैसे इतनी भीषण हुई कि ठाकुर लालसिंह न बच सके ।

इतिहास के पन्नों में ठाकुर लालसिंह को उतना स्थान नहीं मिला जैसी उन्होंने समाज की सेवा की । उनका पूरा जीवन सामाजिक, सांस्कृतिक, सनातन परंपराओं और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिये समर्पित था । भोपाल में पहली कन्या शाला और पहला अनाथालय आरंभ करने वाले ठाकुर लालसिंह ही थे। छुआछूत के विरुद्ध सामाजिक जाग्रति और मतान्तरण करने वालों की घर वापसी और मंदिर में प्रवेश कराने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण थी । दंगों में अपहृत कुछ बालिकाओं को मुक्त करा कर उनका कन्यादान उन्होंने स्वयम् किया था । बैरसिया में उनके द्वारा बनवायी गयी एक कन्या शाला,और एक बालक विद्यालय, भोपाल में उनकी स्मृति में एक पार्क, एक हास्पिटल और एक विद्यालय आज भी है। यह जन मन में ठाकुर लालसिंह का सम्मान और लोकप्रियता थी कि जब उनके असामयिक निधन का समाचार आया तब न केवल पूरे भोपाल रियासत के क्षेत्र अपितु विदिशा से धार तक स्वप्रेरणा से बाजार बंद हो गये थे । कहीं कहीं तो शोक में तीन दिन तक दुकानें नहीं खुलीं थीं।

राहुल देव और नरेश सक्सेना का वैचारिक दिवालियापन

images-1-1.jpeg

शिवेश प्रताप

हाल ही में आजतक के साहित्यिक मंच पर पत्रकार राहुल देव और कवि नरेश सक्सेना ने एक गंभीर सवाल उठाया। उन्होंने कहा, “आरएसएस सौ साल से बौद्धिक कर रहा है, किंतु आज तक ऐसा कोई बुद्धिजीवी नहीं पैदा कर पाया, जिसका नाम संघ के बाहर कोई जानता हो।” यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही विचारणीय भी। ऐसा कह इस कवि-पत्रकार द्वय ने अपने वैचारिक दिवालियेपन से समाज का परिचय कराया और यह बताया की ये बेचारे संघ की रीति और नीति से कितने अनभिज्ञ हैं। इन्हें यह समझना चाहिए की वामपंथ की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ख़ालिस बुद्धिजीवी पैदा करने की फैक्ट्री नहीं है। संघ का उद्देश्य वास्तविक चरित्र-व्यक्ति निर्माण है, न कि बुद्धिजीविता से कुण्ठित भीड़ का सृजन।

संघ न तो व्यक्ति को केवल बुद्धि आधारित जीवन जीने की शिक्षा देता है और न ही ऐसी किसी प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है। अपनी प्रार्थना में संघ का स्वयंसेवक “सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्” कहकर ऐसा शुद्ध शील-चारित्र्य मांगता है जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक हो जाये। संघ का उद्देश्य बुद्धि को बढ़ावा देना नहीं है, संघ विचार को बढ़ावा देता है। “विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्” कहकर हम विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति के द्वारा “परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं” यानि राष्ट्र के वैभव को उच्चतम शिखर पर पहुँचाने का सामर्थ्य मांगते हैं। संघ का हर कार्य आत्मभाव, समर्पण और त्याग पर आधारित है। संघ व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण का मंच है। इसका लक्ष्य हर स्वयंसेवक को भारत माता की सेवा के लिए तैयार करना है। संघ के लिए बुद्धिजीविता साध्य नहीं है, बल्कि यह समाज और राष्ट्रहित में कार्य करने वाले व्यक्तियों को तैयार करने का माध्यम है।

आज के समाज में बुद्धिजीविता को एक शक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, लेकिन यह समझना आवश्यक है कि बुद्धिजीविता केवल क्षणिक परिवर्तन ला सकती है। इसके विपरीत, व्यक्ति निर्माण का प्रभाव दीर्घकालिक और समाज के हर क्षेत्र में सकारात्मक होता है। संघ बुद्धिजीविता की अल्पकालिक चमक के बजाय व्यक्ति निर्माण के दीर्घकालिक प्रभाव में विश्वास रखता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) इसी व्यक्ति निर्माण की दिशा में पिछले सौ वर्षों से कार्य कर रहा है।

पूर्व राज्यपाल आचार्य विष्णुकान्त शास्त्री जी कहा करते थे की बुद्धिजीवी का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो अपनी बुद्धि के आधार पर जीविका चलाता हो। जब बुद्धि के आधार पर जीविका चलाने को महिमामंडित किया गया, तब समाज में कई गंभीर समस्याएं उत्पन्न हुईं। बीते दशकों में यह सत्य भी होता दिखाई दिया है, डॉक्टरों ने मरीजों को केवल पैसा कमाने का साधन मान लिया, शिक्षकों ने कक्षाओं से गायब होकर “अर्बन नक्सल” बनने का रास्ता चुना और छात्रों ने “टुकड़े-टुकड़े गैंग” बनाकर समाज में विघटनकारी गतिविधियों को बढ़ावा दिया। वामपंथी बुद्धिजीविता ने समाज को हिंसा, विभाजन और अशांति के अलावा कुछ नहीं दिया। यह बुद्धिजीविता पूंजीवादी नेक्सस का हिस्सा बनकर समाज को खोखला करती है। वामपंथ ने श्रमिकों को “बुद्धिजीवी” बनने का सपना दिखाया, लेकिन इसके परिणामस्वरूप कलकत्ता से कानपुर तक औद्योगिक संयंत्र बंद हो गए। श्रमजीवी लोगों को दाने-दाने का मोहताज कर दिया। इस विचारधारा ने परिवार और सामाजिक मूल्यों को कमजोर किया और देशभक्ति व सांस्कृतिक चेतना पर भी आघात किया।

राहुल देव और नरेश सक्सेना को याद दिलाना चाहता हूं कि आज वह जिस बुद्धिजीविता का महिमा मंडन कर रहे हैं इस वामपंथी बुद्धिजीविता के राजनैतिक गढ़ त्रिपुरा को कुछ वर्ष पहले संघ के चार समर्पित स्वयंसेवकों श्री श्यामलकांति सेनगुप्ता, श्री दीनेंद्र डे, श्री सुधामय दत्त तथा श्री शुभंकर चक्रवर्ती ने अपने प्राणोत्सर्ग से उखाड़ फेंका। इन चारों को अपहरण 6 अगस्त 1999 को त्रिपुरा के कंचनपुर के वनवासी कल्याण आश्रम के छात्रावास से हुआ था और बाद में उनकी हत्या कर दी गई थी। आपकी सोने की बनी बुद्धिजीवी लंका को व्यक्तिनिर्माण की पूंछ ही जलाकर भस्म करती है। त्रिपुरा ने व्यक्ति निर्माण से आपकी बुद्धिजीविता को उत्तर दिया, आगे और भी नाम जुड़ेंगे।

वामपंथी और पूंजीवादी नेक्सस आज इतना मजबूत हो चुका है कि पूरी दुनिया इसके प्रभाव में है। राष्ट्र की संकल्पना में बुरु तरह विफल वामपंथी बुद्धिजीविता ने अब अपना रूप बदल समाज में भ्रम फैलाकर परिजीवी के रूप में पूंजीवाद को प्रश्रय दे रहा है। अमेरिका से भारत तक बुद्धिजीविता ने पूंजीवाद की दासी बनकर राजनीति और समाज में अपनी जगह बनाई। भारत से लेकर अमेरिका तक राष्ट्रभाव का उत्थान इन परिजीवियों के लिए संकट के रूप में खड़ा हुआ है इसलिए ये इतने बेचैन हैं।

राहुल देव और नरेश सक्सेना का यह सवाल कि “संघ ने कोई बुद्धिजीवी क्यों नहीं पैदा किया?” उचित है और इस तरह से वामपंथी गिरोह के हरावल दस्ते के दो बेरोजगार सेनापति आज जब अपने पुराने बुद्धिजीवी अखाड़े में संघ को ललकार रहे हैं तो यह नास्टैल्जिया उनकी बेचारगी को प्रगट कर रहा है। राहुल देव और नरेश सक्सेना जी काश आप इस विषय पर भी विचार करते की जिस देश को तोड़ने के लिए आने वैचारिक पूर्वज लगे रहे और पाकिस्तान बनवाया तो उस पाकिस्तान में आपका बुद्धिजीवी अवशेष क्यों नहीं मिलता?

पुनः एक बार कहना चाहूँगा संघ बुद्धिजीवी पैदा करने का मंच नहीं है। यह एक सामाजिक और सांस्कृतिक यज्ञ है जिसमें सौ वर्षों से अनगिनत प्रचारकों, स्वयंसेवकों नें “मैं नहीं, तू ही” कह-कह कर स्व जीवन की आहुति दे दिया है। संघ का उद्देश्य व्यक्ति को राष्ट्रहित में कार्य करने के लिए तैयार करना है। संघ के चरित्रबल और कार्यों ने यह सिद्ध किया है कि समाज का उत्थान बुद्धिजीविता से नहीं, बल्कि नैतिकता और त्याग से होता है। वामपंथी बुद्धिजीविता जहां समाज में विभाजन और अशांति का कारण बनी है, वहीं संघ ने अपने सौ वर्षों के साधना से शांति, समरसता और राष्ट्रभक्ति का दीप जलाया है।

साहित्य और इतिहास लेखन में गिरफ्तार हुये : पहले वामपंथी फिर भारत राष्ट्र और हिन्दुत्व के पक्ष में खुलकर लेखन

images-1.jpeg

सीताराम जी गोयल भारत के ऐसे विरले विचारकों में से एक हैं जो पहले नास्तिक बने और फिर अपने धर्म में लौटकर क्राँतिकारी साहित्य की रचना की । जिसमें इतिहास के ऐसे पक्ष भी उजागर किये जिनपर चर्चा करना भी साहस की बात थी । उनके लेखन पर याचिकाएँ लगीं और गिरफ्तारी भी हुई । वे उत्कृष्ट विचारक, इतिहासकार, लेखक एवं प्रकाशक थे।”हाऊ आई बीकेम हिंदू”, “द कलकत्ता कुरान पेटिशन” और “द ऋषि ऑफ ए रिसर्जेंट इंडिया” अपने समय की प्रसिद्ध रचनाएँ हैं।

सीताराम जी गोयल धर्म को व्यक्तिगत जीवन का आधार मानते थे लेकिन सार्वजनिक जीवन में “धर्मनिरपेक्षता” के पक्षधर थे । लेकिन धर्मनिरपेक्षता के नाम पर केवल हिन्दुधर्म और राष्ट्र की मान्यताओं पर आघात करने की मानसिकता के विरुद्ध थे । इसी विचार ने उनकी धारा मोड़ी और उन्होंने कट्टरपंथ और छद्म वामपंथ पर तीखे प्रहार किये । उन्होंने इस विषय को केंद्र में रखकर “धर्मनिरपेक्षता : देशद्रोह का वैकल्पिक नाम” पुस्तक लिखी । इसमें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ईसाई मिशनरीज, मार्क्सवादियों और मुस्लिम कट्टरपंथियों की युति का विवेचन किया । इस रचना के बाद उनपर साम्प्रदायिक होने के आरोप लगे । तब उन्होंने कहा था कि “यदि सत्य लिखना साम्प्रदायिक होना है तो वे साम्प्रदायिक हैं”। ऐसे क्राँतिकारी लेखक और विचारक सीताराम जी गोयल का जन्म 16 अक्टूबर 1921 को हरियाणा प्राँत के छारा गाँव में हुआ था । परिवार आर्यसमाज से जुड़ा था लेकिन घर में निर्गुण संत गरीबदास जी का प्रभाव आना जाना था । किसी महामारी के कारण बचपन में ही माता पिता का निधन हो गया और वे अपने ननिहाल कलकत्ता पहुँच गये । वे बचपन से बहुत संघर्षशील और कुशाग्र बुद्धि थे । उन्होंने पढ़ाई के साथ अर्थोपार्जन भी किया । आरंभिक शिक्षा कलकत्ता में हुई और बाद में दिल्ली आ गये । दिल्ली के हिंदू कॉलेज से इतिहास में एमए किया । निर्धारित पाठ्यक्रम के साथ उन्होंने संस्कृत भाषाकी शिक्षा भी ली थी । छात्र जीवन से ही उनमें सामाजिक कार्यों की रुचि भी जाग गई थी। वे आर्य समाज के निर्गुण सिद्धांत के साथ गांधीजी के स्वदेशी एवं हरिजन उद्धार अभियान के भी समर्थन थे । उन्होंने अपने गाँव में उपेक्षित एवं सेवा बस्तियों में काम भी किया ।

छात्र जीवन में उनका संपर्क वामपंथी विचारकों से हुआ और वे इसी धारा में मुड़ गये । 1940 में उनकी पहचान एक सक्रिय वामपंथी कार्यकर्ता के रूप में गई थी । उनका आरंभिक लेखन इसी धारा पर हुआ । वे बहुत तीखा और आक्रामक लिखते थे। लेकिन 1946 में मुस्लिम लीग के डायरेक्ट एक्शन में नर संहार देखकर उनका मन उद्वेलित हो गया । वह नरसंहार एकतरफा था । उनका मानना था कि साम्यवाद को इस नरसंहार का विरोध करना चाहिए, पर ईसाई और साम्यवादी तंत्र ने उस हिंसा के विरुद्ध कोई आवाज नहीं उठाई । यह हिंसा भारत विभाजन तक जारी रही । यहाँ से उनका मन बदला । वे इतिहास के विद्यार्थी रहे थे । उनकी स्मृति में इतिहास के नरसंहारों का विवरण उभर आया । यहीं से उनके विचार और लेखन की धारा बदल गई । अब उनकी गणना वामपंथ विरोधियों में होने लगी । उनके द्वारा 1950 में स्थापित “सोसाइटी फॉर द डिफेंस ऑफ फ्रीडम इन एशिया” संस्था कम्युनिस्ट विरोधी संस्था मानी जाने लगी । इस संस्था ने सोवियत संघ और पीपुल्स रिपब्लिक के अत्याचारों और साम्यवादी चिंतन का तथ्यात्मक विश्लेषण किया और उसके दुष्परिणामों पर एक लेखमाला प्रकाशित की । उन्होंने इसके साथ भारतीय परंपराओं की वैज्ञानिकता एवं मानवीय पक्ष की ओर मुड़े। पर उनके मन से मुस्लिम लीग का डायरेक्ट एक्शन और भारत विभाजन की हिंसा का दंश कभी न निकला । सकारात्मक राष्ट्रीउन्होंने एक पुस्तक ‘मैं हिन्दू क्यों बना ?’ भी लिखी। वामपंथ पर उन्होंने सतत लेखन किया और 1954 में कोलकाता के पुस्तक मेले में अपने वामपंथ विरोधी प्रकाशनों की एक दुकान लगाई। उसके बैनर पर लिखा था – लाल खटमल मारने की दवा यहां मिलती है। “आर्गनाइजर” में उन्होंने सतत लेखन किया । इसमें सभी विषय पर आलेख होते ।

महर्षि अरविन्द के विचारों पर आध्यात्मिक, प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और रक्षामंत्री कृष्णामेनन की नीतियों और आलोचनात्मक विषय थे । यह लेखमाला बाद में पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुई।उन्होंने अपना एक “वाइस ऑफ इंडिया” नाम से प्रकाशन केंद्र भी स्थापित किया । इसके माध्यम से हिन्दी और अंग्रेजी में अपनी तथा अन्य लेखकों की पुस्तकें प्रकाशन का क्रम आरंभ हुआ । उनके प्रकाशन की एक पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग इस्लाम थ्रू हदीस” बहुत चर्चित रही । इसके लेखक राम स्वरूप जी थे । इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगा 1987 में उन्हें गिरफ्तार किया गया था। लेकिन अदालत से उनके पक्ष में निर्णय आया । प्रतिबंध हटा और 1993 में यह पुस्तक पुनः प्रकाशित हुई । सीताराम जी की एक पुस्तक “कॉलिन मेन के निबंध द डेड हैंड ऑफ़ इस्लाम” थी । इस पुस्तक के विरुद्ध भी उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 153 ए और 295 ए का मुकदमा दर्ज कराया गया । लेकिन वे अदालत से बरी हुये ।उन्होनें भारतीय इतिहास की वास्तविक घटनाओं सामने लाने का मानों बीड़ा उठा लिया था । इसके साथ हिंदू समाज को कमजोर करने के लिए मार्क्सवाद समर्थक कथित बुद्धिजीवियों और इतिहासकारों स्थापित मिथकों का तर्क सहित खंडन करके सत्य स्थापित करने का प्रयास किया है । उन्होंने उस समय की राजनीति से संबंधित कई विषयों और भविष्य की चुनौतियों पर भी लेखन किया ।इतिहास सहित इन सभी विषयों पर उन्होंने स्वयं 25 से अधिक पुस्तकें लिखीं। उनकी सबसे अधिक चर्चित पुस्तक आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट किए गए हिंदू मंदिरों की सूची का संकलन थी । ‘हिंदू मंदिर उनका क्या हुआ’ नामक यह संकलन दो खंडों में प्रकाशित हुआ । 1990 में उत्तरप्रदेश की मुलायमसिंह सरकार के दौरान इस पुस्तक पर प्रतिबंध की मांग भी उठी ।

1993 में सांसद सैयद शहाबुद्दीन ने राम स्वरूप की पुस्तक हिंदू व्यू ऑफ क्रिश्चियनिटी एंड इस्लाम पर प्रतिबंध लगाने की मांग की ।अपने समय के सुविख्यात लेखक अरुण शौरी और केएस लाल ने प्रतिबंध की इस मांग कि विरोध किया था। श्री चाँदमल चौपड़ा द्वारा लिखित उनके प्रकाशन की एक पुस्तक “द कलकत्ता कुरान पिटीशन” है । पुस्तक के लेखक श्री चौपड़ा के साथ प्रकाशन के लिये सीताराम जी भी 31 अगस्त 1987 को गिरफ्तार हुये । उन्हें 8 सितंबर तक हिरासत में रखा गया। उनके द्वारा लिखित या प्रकाशित आलेख एवं पुस्तकों में “चीन विवाद; हम किस पर विश्वास करें?, “सोसाइटी फॉर डिफेंस ऑफ फ्रीडम इन एशिया” “माइंड मर्डर इन माओ-लैंड” “चीन में कम्युनिस्ट पार्टी: राजद्रोह पर एक अध्ययन” लाल भाई या पीला गुलाम” भारत में इस्लामी साम्राज्यवाद की कहानी” “मुस्लिम अलगाववाद: कारण और परिणाम” “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता”, “धर्मनिरपेक्ष धर्मतंत्र बनाम उदार लोकतंत्र” “ईसाई मिशनरी गतिविधियों पर नियोगी समिति की रिपोर्ट, “मिशनरियों के विध्वंस और धर्मांतरण” जैसे विषयों पर भी हैं । इनके अतिरिक्त उन्होंने हिंदू समाज को भविष्य की चुनौतियों से सावधान करने केलिये भी उन्होंने पुस्तक लिखी । इन विषयों पर अन्य इतिहासकारों, विचारकों, विद्वानों और वैज्ञानिकों से भी संपर्क करके उन्होंने अपने प्रकाशन “वॉयस ऑफ इंडिया” प्रकाशित किया । ये पुस्तक हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में प्रकाशित हैं । वे पाठकों को अपने प्रकाशन की ये पुस्तकें केवल लागत मूल्य पर ही उपलब्ध कराते थे ।

अपने लेखन से सतत राष्ट्रभाव जाग्रत करने वाले सीताराम जी गोयल 3 दिसम्बर 2003 को संसार से विदा हुये । उनका लेखन और उनका प्रकाशन आज भी सजीव है । इन दिनों यदि भारतीय मंदिरों को पुनर्प्रतिठित करने की बात उठ रही है तो इसमें सीताराम गोयल जैसे शोध कर्ताओं का ही योगदान है ।

scroll to top