आज के दिन आदतन रावण का महिमामंडन करने वालों के लिए

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मनोज श्रीवास्तव

विजयेन्द्र मोहंती जैसे लोग जो रावणायन की कामिक स्ट्रिप लिख रहे हैं या तमिल नाटककार मनोहर जिन्होंने ‘लंकेश्वरम’ नाटक लिखा, रावण के परिप्रेक्ष्य से भी इस कथा को सुनने समझने की कोशिश कर रहे हैं। रावण एक पल को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश किया जा सकता है जिसने सीता के प्रति अपने प्यार के चक्कर में अपनी जान दे दी। एक फॉरबिडन लव, एक ट्रेजिक हीरो। अच्छी कहानी बनती है। रावण ने एक असाध्य प्रेम के लिए अपनी मृत्यु सुनिश्चित की।

लेकिन तथ्य यह नहीं है। वाल्मीकि रामायण के आधारग्रंथ में रावण का यह तथाकथित ‘डिवाइन रोमांस’ किसी तरह दिव्य नहीं है। सीता को अपहृत करके लाना राम को निपटाने की तरकीब थी।

अकंपन ने अरण्यकांड के 31वें सर्ग में रावण को सलाह दी थी : “उस विशाल वन में जिस किसी भी उपाय से राम को धोखे में डालकर आप उनकी पत्नी का अपहरण कर लें। सीता से बिछुड़ जाने पर राम कदापि जीवित नहीं रहेंगे।” यह थी रावण के दिव्य प्रेम की तथाकथित प्रेरणा।

फिर शूर्पणखा रावण को सरासर झूठ बोल कर उकसाती है : “महाबाहो ! विस्तृत जघन और उठे हुए पुष्ट कुचों वाली उस सुमुखी स्त्री को जब मैं तुम्हारी भार्या बनाने के लिए ले जाने को उद्यत हुई, तब क्रूर लक्ष्मण ने मुझे इस तरह कुरूप बना दिया।” मारीच से छत्तीसवें सर्ग में वह यह भी कहता है कि “उसके बाद स्त्री का अपहरण हो जाने से जब राम अत्यन्त दुखी और दुर्बल हो जाएगा, उस समय में निर्भय होकर सुखपूर्वक उसके ऊपर कृतार्थ चित्त से प्रकार करूंगा।”

तो रावण के द्वारा सीता का अपहरण रावण के अमर प्रेम का परिणाम नहीं था। सीता के राम के प्रति अमर-प्रेम का परिणाम था। अयोध्याकांड के सत्ताईसवें सर्ग के 21वें श्लोक में सीता यह कहती हैं कि “पुरुष सिंह आपके बिना यदि मुझे स्वर्गलेाक को निवास भी मिल रहा हो तो वह मेरे लिए रुचिकर नहीं हो सकता। मैं उसे लेना नहीं चाहूंगी।” दूसरी ओर तीसवें सर्ग के 27वें श्लोक में राम कहते हैं कि “सीते तुम्हें दुख देकर मुझे स्वर्ग का सुख मिलता हो मैं उसे भी नहीं चाहूंगा।” दोनों एक-दूसरे को अभिन्न मानते हैं।

जबकि रावण के लिए सीता राम को कमजोर करने का एक अस्त्र भर है। सीता से रावण का कोई आत्मिक आध्यात्मिक लगाव कहीं नजर नहीं आता।

दूसरे जिस एक बात को रावण का पुनर्लेखन करने वाले लोग नजर अंदाज कर रहे हैं, वह है सीता को चुराकर लाना। रावण जिसकी तथाकथित वीरता के किस्से सुनाते लोग नहीं अघाते, वीर्यशुल्का सीता को उसके स्वयंवर में क्यों नहीं जीत सका? या स्वयं राम या लक्ष्मण के सामने ही युद्ध करके क्यों नहीं जीत सका? यदि राम के हाथों वीरगति की उसकी गुप्त इच्छा थी तो सीतापहरण के समय उसने यह सीधी मुठभेड़ क्यों न कर ली? योद्धा का कवच पहनकर राम के सामने क्यों नहीं गया? परिव्राजक का वेष धरकर सीता के सामने क्यों गया? हार की जीत कहानी में नायक को यह भय है कि आगे से लोग अंधे पर भरोसा करना नहीं छोड़ दें। लेकिन पौलस्त्य को भय नहीं कि उसकी इस हरकत के बाद परिव्राजकों पर लोग भरोसा करना छोड़ देंगे?

छियालीसवें सर्ग (वा.रा.अ.कां.): वाल्मीकि लिखते हैं: “राम से बदला लेने का अवसर ढूंढ़ने वाला दशमुख रावण उस समय भिक्षुरूप में विदेहकुमारी सीता के पास पहुंचा।” वह संस्कृति जो ‘भिक्षां देहि’ के सिद्धान्त पर चलती थी, उसकी इस गुणवत्ता का का ऐसा उपयोग?

इसी सर्ग के 32वें से 36वें श्लोकों में बाल्मीकि बताते हैं : “वेशभूषा से महात्मा बनकर आये हुए रावण ने जब विदेहकुमारी सीता की इस प्रकार प्रशंसा की, तब ब्राह्मण-वेष में वहां पधारे हुए रावण को देखकर मैथिली ने अतिथि सत्कार के लिए उपयोगी सभी सामग्रियों द्वारा उसका पूजन किया। पहले बैठने के लिये आसन दे, पाद्य निवेदन किया। तदनंतर ऊपर से सौम्य दिखायी देने वाले उस अतिथि को भोजन के लिए निमंत्रित करते हुए कहा- “ब्राह्मण ! भोजन तैयार है, ग्रहण कीजिये।” “वह ब्राह्मण के वेष में आया था। कमण्डलु और गेरूआ वस्त्र धारण किये हुए था। ब्राह्मण भेष में आये हुए अतिथि की उपेक्षा असंभव थी। उसकी वेशभूषा में ब्राह्मणत्व का निश्चय कराने वाले चिन्ह दिखाई देते थे, अतः उस रूप में आये हुये उस रावण को देखकर मैथिली ने ब्राह्मण के योग्य सत्कार करने के लिए ही उसे निमन्त्रित किया। वे बोलीं- “ब्राह्मण ! यह चटाई है, इस पर इच्छानुसार बैठ जाइए। यह पैर धोने के लिए जल है, इसे ग्रहण कीजिए और यह वन में ही उत्पन्न हुआ उत्तम फल-फूल आपके लिए ही तैयार करके रखा गया है, यहां शान्त भाव से उसका उपभोग कीजिए।”

सीता ब्राह्मण, भिक्षा और आतिथ्य के तीन दायित्वों को एक अजनबी के प्रति भी निभाती हैं और रावण छल और प्रवंचना को-अंग्रेजी शब्द में कहें तो chicanery को- इस सहज विश्वासी निश्छलहृदया नारी के विरुद्ध प्रयुक्त करता है।

सीता उचित ही राम और रावण में यह फर्क तभी बता देती हैं : “वन में रहने वाले सिंह और सियार में, समुद्र और छोटी नदी में तथा अमृत और कांजी में जो अंतर है, वही अन्तर राम और तुझमें है। सोने में और सीसे में, चंदन मिश्रित जल और कीचड़ में तथा वन में रहने वाले हाथी और बिलाव में जो अन्तर है, वही अंतर राम और तुझमें है। गरूड़ और कौए में, मोर और जलकाक में तथा वनवासी हंस और गीध में जो अन्तर है, वही अंतर राम और तुझमें है।”

यह सीता के लिए प्रेम नहीं, सीता का अपमान था और 48वें सर्ग (अ.का.) के अंतिम श्लोक में सीता इसे कहती भी हैं :

“राक्षस। वज्रधारी इन्द्र की अनुपम रूपवती भार्या शचि का तिरस्कार करके संभव है कोई उसके बाद भी चिरकाल तक जीवित रह जाए, परन्तु मेरी जैसी स्त्री का अपमान करके तू अमृत पी ले तो भी तू छूट नहीं सकता।”

अंग्रेजी में धोखे के लिए ‘मंकी-साइंस’ नाम या ‘मंकी बिजनेस’ नाम गलत रखा गया है। रावण जिस तरह से अपहरण को सेट अप करता है, उससे लगता है कि रावण के नाम पर मिथ्याचार का नाम होना था। क्या ऐसी धूर्तता और फरेब को हम ‘पराजित’ का इतिहास लिखने के नाम पर रक्षित कर सकते हैं?

लगता है, राम को ब्राह्मणवाद का प्रतिनिधि बताने वालों के लिए भी जरूरी हो जाता है कि वे रावण की मक्कारी, ईमान फरामोशी और साजिश को भी महिमा मंडित करें। चूंकि राम की किसी भी तरह लानत-मलानत करनी है तो इनके लिए जरूरी है कि रावण के द्वारा किए गए बलात्कारों पर चुप ही रहा जाए। न वेदवती के बारे में कुछ बोला जाए, न पुंजिकास्थली के बारे में कुछ बोला जाए, न रंभा के बारे में बल्कि उसके बारे में यह प्रचारित किया जाए कि उसने जिसका भी अपहरण किया, उनकी मर्जी से किया।

एक तमिल वर्शन रामायण का अभी आया है जिसमें सीता राम, लव, कुश को छोड़कर रावण के पास वापस चली जाती हैं, वीणा सीखने। यदि रावण सभी को उनकी मर्जी से ही हर ले गया था तो यह क्यों हुआ कि नलकूबर ने जब रावण को यह शाप दिया कि “वह आज से दूसरी किसी ऐसी युवती से समागम नहीं कर सकेगा जो उसे चाहती न हो। यदि वह कामपीड़ित होकर उसे न चाहने वाली युवती पर बलात्कार करेगा तो तत्काल उसके मस्तक के सात टुकड़े हो जाएंगे,” तो वह जिन-जिन पतिव्रता स्त्रियों को हरकर ले गया था, उन सबके मन को नलकूबर का दिया हुआ वह शाप बड़ा प्रिय लगा और उसे सुनकर वे सब-की-सब बहुत प्रसन्न हुईं।”

पराजित के प्रति सहानुभूति और ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रतीकों से घृणा के चक्करों में हम रावण के किन-किन कुकर्मों को इग्नोर करेंगे?

(फेसबुक से साभार)

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) गति में है, इस पर ध्यान करने की जरूरत है !

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इस साल के नोबेल पुरस्कार की घोषणाओं में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) ने सुर्खियां बटोरीं। वर्ष 2024 के लिए भौतिकी और रसायन विज्ञान दोनों श्रेणियों में अभूतपूर्व एआई अनुसंधान को मान्यता दी गई। भौतिकी में नोबेल पुरस्कार जेफ्री हिंटन और जॉन हॉपफील्ड को मशीन लर्निंग और कृत्रिम तंत्रिका नेटवर्क में उनके मूलभूत कार्य के लिए प्रदान किया गया। रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार डेविड बेकर, जॉन जम्पर और डेमिस हसाबिस को संयुक्त रूप से प्रोटीन संरचनाओं की भविष्यवाणी करने के लिए एआई का उपयोग करने के उनके काम के लिए दिया गया। नोबेल पुरस्कार के लिए बेकर के योगदान को प्रकृति की स्थिरता (sustainability) की दिशा में एक कदम के रूप में माना जा सकता है, क्योंकि एआई की मदद से उनके फार्मूले द्वारा संश्लेषित प्रोटीन प्राकृतिक तरीके से माइक्रोप्लास्टिक को नष्ट कर सकता है। यह sustainability की दिशा में एक बड़ा कदम है…

एआई पर यह अभूतपूर्व फोकस वैज्ञानिक विषयों में इसके बढ़ते महत्व और विशेष रूप से प्रकृति की स्थिरता के लिए आवश्यक इंजीनियरिंग हस्तक्षेपों के लिए अनुसंधान पद्धतियों में क्रांति लाने की क्षमता को मजबूत करता है। रसायन विज्ञान नोबेल पुरस्कार और भौतिकी नोबेल पुरस्कार 2024 जीतने वाले अत्यधिक निपुण और शानदार कंप्यूटर वैज्ञानिकों को देखते हुए हम सभी इस बात की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि एआई का उपयोग करके स्थिरता (Sustainability) और शांति नोबेल पुरस्कार से किसे सम्मानित किया जाएगा। निर्णायक रूप से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कला, विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा सहित हमारे सभी भविष्य के प्रयासों के लिए गति में रहेगा।

बेकर, रसायन विज्ञान के लिए इस वर्ष के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में से एक लंबे समय से प्रोटीन-संरचना भविष्यवाणी के लिए एआई के उपयोग में अग्रणी शोधकर्ताओं में से एक रहे हैं। वह दशकों से इस समस्या पर काम कर रहे थे जिससे क्रमिक लाभ हो रहा था। यह पहचानते हुए कि प्रोटीन संरचना की अच्छी तरह से परिभाषित समस्या और प्रारूप ने इसे एआई एल्गोरिदम के लिए एक उपयोगी परीक्षण बिस्तर बना दिया। यह कोई रातोंरात सफलता की कहानी नहीं थी, बेकर ने अपने करियर में 600 से अधिक पत्र प्रकाशित किए हैं।

प्रकृति से अधिक मौलिक डेटा प्राप्त करना और नए सिद्धांतों के साथ आना कठिन काम है, और संभवतः एआई छिपे हुए डेटा को उजागर करके प्रकृति की स्थिरता के लिए हमारे बचाव में आ सकता है जिसे हम देखने और भविष्यवाणी करने में सक्षम नहीं हैं। कंप्यूटर वैज्ञानिकों के पास उन क्षेत्रों में अपनी नाक घुसाने के लिए एक अच्छी-खासी प्रतिष्ठा है, जिनके बारे में वे कुछ भी नहीं जानते हैं। कुछ एल्गोरिदम इंजेक्ट करते हैं, और इसे बेहतर और / या बदतर के लिए अग्रिम कहते हैं। निस्संदेह प्रकृति के गुप्त डेटा को उजागर करने में कंप्यूटर वैज्ञानिकों की अब बहुत बड़ी हिस्सेदारी है। आज एआई अधिक इंजीनियरिंग-भारी हो गया है और संभवतः प्रकृति की स्थिरता के लिए इंजीनियरिंग हस्तक्षेप एआई को सबसे उपयुक्त उम्मीदवारों में से एक के रूप में अपनाएगा।

कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) के उद्भव और कई क्षेत्रों पर इसके उत्तरोत्तर व्यापक प्रभाव के लिए सतत विकास लक्ष्यों की प्राप्ति पर इसके प्रभाव के आकलन की आवश्यकता है। ग्रीन एआई का लक्ष्य पर्यावरण के अनुकूल एआई सिस्टम बनाना है, अनुप्रयोगों में इमारतों में ऊर्जा खपत को अनुकूलित करना, फसल की पैदावार में सुधार करना, सार्वजनिक परिवहन को अनुकूलित करना और कचरे का प्रबंधन करना शामिल है। एआई पुनर्चक्रण और खाद बनाने के अवसरों की पहचान करके लैंडफिल कचरे को कम करने में मदद करता है।

मशीन लर्निंग एल्गोरिदम गैर-पुनर्चक्रण योग्य पदार्थों से पुनर्चक्रण योग्य पदार्थों को अलग करने में सुधार करने के लिए बड़ी मात्रा में डेटा को सॉर्ट कर सकता है, जिससे अंततः लैंडफिल में भेजे जाने वाले कचरे की मात्रा कम हो जाती है। एआई किसी परिदृश्य की विशेषताओं, जैसे पौधों का आवरण और पानी का प्रवाह, का विश्लेषण कर सकता है और मिट्टी के कटाव जैसी समस्याओं का पता लगा सकता है। इससे क्षेत्र के लोगों को समस्या का समाधान करने और प्राकृतिक संसाधनों के और अधिक नुकसान को रोकने में मदद मिलती है। एआई हमें जंगलों या मूंगा चट्टानों जैसे क्षतिग्रस्त परिदृश्यों को बहाल करने में भी मदद कर सकता है।

यह अनुमान लगाया गया है कि एआई सुपरइंटेलिजेंस तर्क, रचनात्मकता और संबंध प्रबंधन सहित सभी क्षेत्रों में मानव बुद्धि से आगे निकल जाएगी। इसकी विशाल कंप्यूटिंग शक्ति को देखते हुए एआई वॉर गेम्स पेशेवर सैन्य योजनाकारों को संभावित आकस्मिकताओं की लगभग अंतहीन श्रृंखला के खिलाफ अपनी धारणाओं का परीक्षण करने, आंतरिक निर्णय लेने की प्रक्रियाओं को मजबूत करने और पहले से मौजूद मॉडलों को ठीक करने की अनुमति देते हैं। जेनेरेटिव एआई के लिए परियोजनाएं चल रही हैं जो युद्ध खेलों में अधिक रणनीति को शामिल करने की अनुमति देगी, जो सैन्य और राजनीतिक नेताओं दोनों को अमूल्य अंतर्दृष्टि और अनुभव प्रदान करेगी। विशेषज्ञों का मानना है कि सुपरइंटेलिजेंस सिर्फ 5 से 20 साल दूर है…

परिदृश्यों की एक विस्तृत श्रृंखला तैयार करने में एआई प्रतिभागियों को कई संभावित विकासों पर विचार करने की भी अनुमति देगा, जिनमें से प्रत्येक लगभग असीमित संभावनाओं में विभाजित होगा। यह प्रतिभागियों को गठबंधन संरचना, आर्थिक विचार, राजनीतिक विकास और सामाजिक रुझानों सहित प्रत्येक खिलाड़ी की रणनीतिक गणना में बदलावों को अनुकूलित करने की अनुमति देगा, जो सभी वास्तविक दुनिया की सैन्य रणनीति पर दबाव डालते हैं।

एआई-सक्षम तकनीक वृद्ध वयस्कों को पहले जैसी स्वतंत्रता बनाए रखने में मदद करने का स्तर ला सकती है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि एआई-आधारित तकनीक ने बुजुर्गों के लिए दवा प्रबंधन प्रणाली से लेकर सहायक रोबोट और यहां तक कि वृद्धावस्था पुनर्वास तक की सुविधाएं उपलब्ध कराई हैं। हमें एआई पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है ताकि समाधान की जरूरतों को पूरा करने के लिए एआई में प्रगति के साथ तालमेल बनाए रखा जा सके।

गौरक्षा के लिये 166 दिन अनशन किया : देशभर में जाग्रति उत्पन्न की

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स्वामी रामचंद्र वीर एक ऐसे संत और राष्ट्रीय संस्कृति के लिये समर्पित विभूति थे जिन्होंने दासत्व काल में जहाँ स्वतंत्रता के लिये संघर्ष किया तो स्वतंत्रता के बाद स्वत्व, स्वाभिमान और सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतिष्ठापना के लिये संघर्ष किया और स्वतंत्रता के बाद भी जेल गये । उन्होंने गौरक्षा के लिये 166 दिन का अनशन किया जो विश्व कीर्तिमान है ।

रामचन्द्र वीर का जन्म राजस्थान के विराटनगर में अश्विन शुक्ल पक्ष प्रतिपदा संवत 1966 को हुआ था । ईस्वी सन के अनुसार 12 अक्टूबर 1909 तारीख थी । उनके पिता भूरामल जी आध्यात्म और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित आचार्य और माता विरधी देवी भी परंपराओं के प्रति समर्पित गृहणी थीं। परिवार आर्यसमाज से जुड़ा था । उनकी प्रारंभिक शिक्षा विराटनगर नगर में हुई जबकि संस्कृत और वेदान्त की परंपरागत शिक्षा पिता द्वारा घर में ही हुई । तेरह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ लेकिन यह विवाह अधिक न चल पाया । किसी बीमारी के चलते पत्नि का निधन हो गया । वे चौदह वर्ष की आयु में आर्यसमाज के प्रखर वक्ता स्वामी श्रद्धानंद के संपर्क में आये । यहाँ से उनकी यात्रा एक संत के रूप में आरंभ हुई । अठारह वर्ष की आयु में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ गये । और उन्होंने संकल्प लिया कि जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होगा तब तक नमक ग्रहण नहीं करेंगे । उन्होंने पहले राजस्थान, उत्तरप्रदेश और गुजरात आदि प्रांतों में घूम घूम कर जन जागरण से किया । उनके इस जन जागरण अभियान में भारतीय परंपराओ से जुड़ना और गौरक्षा का आव्हान प्रमुख होता था ।

उन दिनों वे पंडित रामचन्द्र शर्मा के नाम से जाने जाते थे। वे 1930 में कांग्रेस द्वारा आरंभ किये गये जंगल सत्याग्रह और नमक सत्याग्रह से जुड़े । गिरफ्तार हुये । उन्होंने कोलकाता और लाहौर के कांग्रेस अधिवेशनों में भाग लिया । 1932 में अजमेर में आयोजित एक जन जागरण सभा में वे पुनः बंदी बनाये गये और छै माह की सजा हुई । रिहा होकर गौरक्षा आँदोलन के लिये काठियावाड़ के मांगरोल पहुँचे। अनशन शुरू किया अंततः शासन ने गोहत्या पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। 1934 में कल्याण (मुंबई) के निकटवर्ती गाँव तीस के दुर्गा मंदिर में दी जाने वाली पशुबलि कुप्रथा रोकी । मध्यप्रदेश के उन्होंने भुसावल, जबलपुर आदि अनेक नगरों में पहुँच कर पशुबलि को शास्त्र विरोधी और कुप्रथा प्रमाणित किया और पशुबलि रुकवाई । उनके सतत चलाये गये अभियान के कारण ही उन्हे वीर जी की उपाधि मिली । कलकत्ता में तो वीर जी प्राणघातक हमला भी हुआ। अपने इस सतत अभियान से वे तत्कालीन सरकार की किरकिरी बने । वे अपने इस कार्य में लगे ही थे कि पिता एवं अन्य परिजनों ने विवाह का दबाव बनाया । 1941 में उनका पुर्नविवाह हुआ । जब विवाह की बात चली तो रामचंद्र वीर छपरा जेल में थे। रिहा हुये और विवाह की तैयारी हुई तब गौवध रोकने के प्रयास में पिता भूरामल जी जेल चले गये एवं वीरजी के विरुद्ध भी जयपुर पुलिस ने गिरफ़्तारी वारंट जारी कर दिया । किसी प्रकार शिष्यों के सहयोग से गुप्त स्थान पर रहकर विवाह हुआ । पर रामचंद्र वीर का स्वभाव छिपकर रहना न था । अधिक दिनों तक छिपकर न रह सके । पत्नि को मायके भेजकर वे जेल चले गये । पत्नि मायके लौटीं लौटी । यहाँ एक पुत्र को जन्म दिया । रामचंद्र वीर जी के यही एक मात्र पुत्र आगे चलकर सुप्रसिद्ध संत आचार्य धर्मेन्द्र के रूपमें जग प्रसिद्घ हुये ।

स्वतंत्रता से पूर्व रामचंद्र वीरजी के तीन अभियान थे । एक स्वतंत्रता संघर्ष के लिये जन जागरण, दूसरा भारतीय परंपराओ और संस्कृति के प्रति समाज को जोड़ना और तीसरा गौरक्षा के लिये जन जागरण। अपने इन्हीं अभियानों के अंतर्गत 1932 से ही सरकार और पुलिस की किरकरी बने । उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों में गोहत्या बंदी कानून बनाने की माँग पर अनशन किये। गिरफ्तारी और रिहाई का सिलसिला स्वतंत्रता प्राप्त होने तक चला । स्वतंत्रता के बाद उनका प्रमुख उद्देश्य बन गया ।

गोरक्षा आन्दोलन में पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी व वीर रामचंद्र जी ने अनशन किये। वीर रामचंद्र जी ने 166 दिन का अनशन करके पूरे देश में गौरक्षा के प्रति देश का ध्यान खींचा । देश भर के संतों के आग्रह पर उन्होंने अनशन त्यागा और गौरक्षा तथा भारतीय परंपराओं एवं संस्कृति की महत्ता पर साहित्य रचना आरंभ किया । उन्होंने हिन्दू हुतात्माओं का इतिहास, हमारी गोमाता, महाकाव्य श्री रामकथामृत, हमारा स्वास्थ्य, वज्रांग वंदना, ज्वलंत ज्योति, वीर रत्न मंजूषा जैसी रचनाओं से जन जागरण किया । उनकी विजय पताका नामक पुस्तक की प्रशंसा तो प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने की थी । रामचंद्र वीर जी को उनकी साहित्य, संस्कृति व धर्म की सेवा केलिये 13 दिसम्बर 1998 में “भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार राष्ट्र सेवा” पुरुस्कार से सम्मानित किया गया। गोरक्षा पीठाधीश्वर सांसद अवधेशनाथ जी ने उन्हें शाल व एक लाख रुपया देकर सम्मानित किया। आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने उन्हें जीवित हुतात्मा बताकर उनके प्रति सम्मान प्रकट किया था । उनके पशुबलि विरोधी अभियान ने प्रभावित होकर विश्वकवि गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनकी प्रशंसा में एक कविता लिखी ।

जीवन का अंतिम समय उन्होंने आध्यात्म साधना में लगाया और श्रीमद्भागवत, गीता, उपनिषद, ब्रह्मसूत्र आदि अत्यंत दुरूह ग्रंथों की सरल सुबोध हिंदी में व्याख्या की । उन्होंने श्रीमद्भागवत कथा का 118 भागों में सरल भाष्य तैयार किया । इसके अतिरिक्त भारतीय संस्कृति एवं शुद्धि, वृंदावन माहात्म्य, राघवेंद्र चरित्र, प्रभु पूजा पद्धति, कृष्ण चरित्र, रासपंचाध्यायी, गोपीगीत, प्रभुपदावली, चैतन्य चरितावली आदि सौ से अधिक ग्रंथों की रचना की । अंततः लगभग सौ वर्ष की आयु में उन्होंने 4 अप्रैल 2009 को इस नश्वर संसार से विदा ली ।
वे भले संसार से चले गये हों। पर उनके कार्य आज भी जीवन्त हैं ।

संघ स्थापना दिवस विजयादशमी, 1925

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आज जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विश्व के सबसे बड़े संगठन के रूप में जाना जाता है, उसकी नींव डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने रखी थी। संघ को जानने का प्रयास करने वाले किसी भी व्यक्ति को इसके संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के जीवन से परिचित होना जरूरी है, जोकि अपने जीवनकाल में स्नेहपूर्वक ‘डॉक्टरजी’ के रूप में जाने जाते थे। डॉक्टरजी ने जब संघ की स्थापना की, उनकी आयु 36 वर्ष थी। उनके स्वयं के मन में राजनेता बनने की कोई इच्छा नहीं थी, क्योंकि यदि वे राजनेता ही बनना चाहते तो अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने एक राजनैतिक पार्टी की स्थापना की होती, किंतु यह सब उनका लक्ष्य नहीं था।

“राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रादुर्भाव उस समय हुआ, जब अंग्रेजों की दासता में भारतीय संस्कृति का सर्वनाश हो रहा था। इससे व्यथित होकर डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। उनमें समाज सेवा तथा देशभक्ति कूट-कूटकर भरी थी। उन्होंने बाल्यावस्था में ही बालकों के साथ मिलकर सीतावर्डी के दुर्ग से अंग्रेज यूनियन जैक का झंडा उतारने के लिए सुरंग बनाने की योजना बना डाली थी। इससे उनकी राष्ट्रीय भावना का परिचय मिलता है”।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार ने विजयादशमी के पावन अवसर पर 1925 में की थी। प्रतिनिधि सभा, मार्च 2024 के अनुसार- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 922 जिलों, 6597 खंडों और 27,720 मंडलों में 73,117 दैनिक शाखाएं हैं, प्रत्येक मंडल में 12 से 15 गांव शामिल हैं। समाज के हर क्षेत्र में संघ की प्रेरणा से विभिन्न संगठन चल रहे हैं जो राष्ट्र निर्माण तथा हिंदू समाज को संगठित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। संघ के विरोधियों ने तीन बार इस पर प्रतिबंध लगाया – 1948, 1975 एवं 1992 में। लेकिन तीनों बार संघ पहले से भी अधिक मजबूत होकर उभरा। संघ एक सामाजिक—सांस्कृतिक संगठन है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘हिन्दू’ शब्द की व्याख्या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के संदर्भ में करता है जो किसी भी तरह से (पश्चिमी) धार्मिक अवधारणा के समान नहीं है। इसकी विचारधारा और मिशन का जीवंत सम्बन्ध स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविन्द, बाल गंगाधर तिलक और बी. सी. पाल जैसे हिन्दू विचारकों के दर्शन से है। स्वामी विवेकानंद ने यह महसूस किया था कि “एक सही अर्थों में हिन्दू संगठन अत्यंत आवश्यक है जो हिन्दुओं को परस्पर सहयोग और सराहना का भाव सिखाए”।

स्वामी विवेकानंद के इस विचार को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने व्यवहार में तब्दील कर दिया। उनका मानना था कि हिन्दुओं को एक ऐसे कार्य-दर्शन की आवश्यकता है जो इतिहास और संस्कृति पर आधारित हो, जो उनके अतीत का हिस्सा हो और जिसके बारे में उन्हें कुछ जानकारी हो। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं ‘स्व’ के भाव को परिशुद्ध कर एक बड़े सामाजिक और राष्ट्रीय हित की भावना में मिला देती हैं।

वस्तुतः हम यह कह सकते हैं कि हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करने व हिन्दू समाज, हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र कों परम वैभव तक पहुँचाने के उद्देश्य से डॉक्टर साहब ने संघ की स्थापना की।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : महान भारत का संकल्प

संघ कोई राजनीतिक दल नहीं है, अपितु एक सामाजिक संगठन है। इसकी कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है, और न ही यह राजनीतिक परिणामों के लिए काम करता है, बल्कि राष्ट्रीय राजनीतिक जीवन पर इसका प्रभाव परिलक्षित होता है, तो भी यह राजनीति से दूर ही रहता है। इसकी शाखा पद्धति में जरूर ऐसे स्वयंसेवक तैयार हुए हैं, जो आज राजनीति में उच्च स्थानों पर हैं। संघ का साधारण सिद्धांत यह है कि संघ शाखा चलाने के सिवाय कुछ नहीं करेगा और स्वयंसेवक कोई कार्यक्षेत्र नहीं छोड़ेगा। स्वयंसेवक समाज के सभी क्षेत्रों यथा- शिक्षा, राजनीति, अर्थशास्त्र, सुरक्षा व संस्कृति इत्यादि क्षेत्रों में काम करते हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का केवल एक ही ध्येय है-

भारत को महान बनाना। संघ एक सशक्त हिन्दू समाज के निर्माण के लिए सभी जाति के लोगों को एक करना चाहता है।
महात्मा गांधी की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रति जिज्ञासा पर डॉ. हेडगेवार का उत्तर

गांधी जी का एक प्रश्न यह था कि डॉ. जी ने अपना संगठन कांग्रेस जैसी लोकप्रिय संस्था की छाया में ही क्यों नहीं प्रारंभ किया? क्या कांग्रेस ने आर्थिक समर्थन देने से इनकार किया था? उदारमनस्क लोगों की क्या कांग्रेस में कमी थी। डॉक्टर जी का उत्तर था – “कांग्रेस का कार्य करते समय उसकी छाया में ही स्थायी स्वयंसेवक संगठन खड़ा करने का ही उन्होंने प्रथमतः प्रयास किया था। किंतु सफलता नहीं मिली। प्रश्न पैसों का नहीं था। पैसों के बल पर सभी कुछ नहीं किया जा सकता। प्रश्न था स्वयंसेवक संगठन की ओर देखने की दृष्टि का। कांग्रेस में कार्य करने वाले भले लोगों की संख्या काफी तो थी, किंतु उन लोगों का ध्यान हमेशा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति की ओर ही लगा रहता है। सामयिक राजनीतिक हितों के परे उनकी दृष्टि आमतौर पर जाती ही नहीं। उन लोगों की राय में स्वयंसेवक संगठन का उपयोग यही है कि स्वयंसेवक उनके अपने कामो के लिए भाग-दौड़ करें। राष्ट्र के लिए स्वयं प्रेरणा से कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं का निर्माण करने वाले सामर्थ्यशाली संगठन उनकी विचारशक्ति के बूते से बाहर है। फिर देश के नवनिर्माण की आशा उनसे कैसे की जा सकती है। इसलिए संघ की स्थापना एवं संगठन देश के नवनिर्माण का एक प्रयास है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सब समान हैं। यहाँ किसी भेदभाव को प्रश्य नहीं। ‘आदर्शवादी स्वयंसेवक’ यही उन सबकी भूमिका और इसी में संघ के बढ़ते सामर्थ्य का रहस्य है”।

जब देश में कांग्रेस का कार्य जारी है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की क्या आवश्यकता है, इस बात का जवाब डॉक्टर जी की उस टिप्पणी में मिल जाता है। विशेष उल्लेखनीय बात यहाँ है कि यह टिप्पणी उन्होंने संघ की स्थापना के पांच वर्ष के अन्दर ही लिखी है।
डॉक्टर जी लिखते हैं, “हिन्दू-संस्कृति हिन्दुस्तान का प्राण है। अतएव हिन्दुस्तान का संरक्षण करना हो तो हिन्दू-संस्कृति का संरक्षण करना हमारा पहला कर्त्तव्य हो जाता है। हिन्दुस्तान की हिन्दू-संस्कृति ही नष्ट होने वाली हो तो, हिन्दू समाज का नामोनिशान हिन्दुस्तान से मिटने वाला हो, तो फिर शेष जमीन के टुकड़े को हिन्दुस्तान या हिन्दूराष्ट्र कैसे कहा जा सकता है ? क्योकि राष्ट्र जमीन के टुकड़े का नाम तो नहीं है… यह बात एकदम सत्य है। फिर भी हिन्दू-धर्म तथा हिन्दू-संस्कृति की सुरक्षा एवं प्रतिदिन विधर्मियों द्वारा हिन्दू समाज पर हो रहे विनाशकारी हमलों को कांग्रेस द्वारा दुर्लक्षित किया जा रहा है, इसलिए इस अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आवश्यकता है। फिर भी यह संघ कांग्रेस का कदापि विरोधी नहीं है। हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के मार्ग में बाधा न बनने वाले स्वतंत्रता प्राप्ति के कार्यक्रमों में संघ कांग्रेस के साथ सहयोग करेगा और आज तक करते आया भी है।”
भारत का स्वाधीनता संग्राम

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत के स्वाधीनता संग्राम में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही जिसे डॉ. साहब के अथक प्रयासों के संदर्भ में समझा जा सकता है। कलकत्ता (कोलकाता) में श्याम सुन्दर चक्रवर्ती और मौलवी लियाकत हुसैन से डॉक्टर जी की घनिष्ठ मित्रता रही। उनके स्वाधीनता-संग्राम साथी मौलवी लियाकत हुसैन अपने जीवन-कर्म में सच्चे भारतीय थे। उन्होंने स्वदेशी आन्दोलन में सक्रिय रहते हुए तुर्की टोपी पहनना सदा के लिए छोड़ दिया। उन्हीं दिनों कलकत्ता में क्रांतिकारियों के बीच रत्नागिरी का आठले नाम का एक बम निर्माता क्रांतिकारी युवक आया, जिसने कलकत्ता के पास एक ग्राम में क्रांतिकारियों को बम बनाना सिखाया। डॉ. हेडगेवार ने भी उससे बम बनाना सीखा परन्तु उसी बीच आठले की मृत्यु हो गई, जिसका अंतिम संस्कार डॉ. हेडगेवार तथा श्याम सुन्दर चक्रवर्ती ने गुप्त रूप से किया। क्रांतिकारी रहकर ही डॉक्टर जी ने कभी विवाह न करने का संकल्प किया था।

संघ के वरिष्ठ अधिकारी बाबा साहब आप्टे बताते थे, “ जब सन 1939 का वर्ष समाप्ति की ओर था और यूरोप में महायुद्ध जारी था उन दिनों डॉ. हेडगेवार को रात-दिन एक ही चिंता रहती थी कि महायुद्ध की इस स्थिति में अंग्रेजों को भारत से जड़-मूल सहित उखाड़ फेंकने के लिए उतना प्रभावी और शक्तिशाली संगठन भी जल्दी ही खड़ा कर लेना है -अतः उन दिनों जब कभी कोई स्वयंसेवक उनसे जोर देकर कहता कि, ‘डॉक्टर साहब! अपने संगठन कार्य के लिए एक बड़े कार्यालय की जरुरत है। संघ का वैसा कार्यालय नहीं है, आप उसे बनवाने का विचार करिए।‘ तो डॉक्टर जी कह दिया करते थे कि, ‘अरे, इस समय जरुरत है संघ का कार्य बढाने की- उसी में सब शक्ति लगाओ, वर्ना तुम जो विशाल कार्यालय बनाओगे और अंग्रेज उसी में ठाठ से अपनी कचहरी लगाकर बैठेंगे।‘ स्पष्ट ही ब्रिटिश दासता डॉक्टर जी की नजरों से कभी ओझल नहीं हो पाई।

संघ के सरकार्यवाह रह चुके भैयाजी दाणी भी लिखते हैं, “अंग्रेज सरकार के रोष तथा निषेध की परवाह न करते हुए अपने विद्यालय में डॉक्टर जी ने ‘वंदेमातरम्’ का उद्घोष गुंजाया, भले इसके लिए उन्हें वह विद्यालय छोड़ देना पड़ा”।

अपने क्रांतिकारी जीवन में डॉक्टर हेडगेवार ने स्वयं शस्त्रों का प्रयोग किया, वह भी इतनी सावधानी से कि तत्कालीन अंग्रेज सरकार संदेह होते हुए भी उन्हें पकड़ न सकी। उनके इस सशस्त्र आन्दोलन ने अंग्रेज शासकों में आतंक उत्पन्न किया और जनता में अंग्रेज सरकार के प्रति असंतोष पैदा किया। डॉक्टर जी को मातृभूमि का स्वातंत्र्य सौभाग्य चाहिए था और अपने जीवन में ही देश का स्वातंत्र्य देखना उनका अभीष्ट था। उसी दिशा में उन्हें निश्चित कदम उठाने थे। प्रखर क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर, उनके बड़े भाई गणेश दामोदर सावरकर और छोटे भाई डॉ. नारायण दामोदर सावरकर, वामनराव जोशी, बैरिस्टर अभ्यंकर तथा सुभाष चन्द्र बोस उनके स्नेही थे। सन 1922-23 में पुलगांव में वर्धा तालुका परिषद् आयोजित हुई। परिषद् के सामने जब स्वराज्य का प्रस्ताव रखा गया तो उसमे अहमदाबाद-कांगेस द्वारा स्वीकृत ‘स्वराज्य’ शब्द का अर्थ कुछ लोग ‘ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज’ करते थे, परन्तु डॉक्टर जी को यह कादापी मान्य न था। वह तो ब्रिटिश राज्य विहरित स्वराज्य को ही वास्तविक स्वराज्य मानते थे, क्योंकि वह प्रखर स्वातंत्र्यवादी थे। अतः डॉक्टर जी ने परिषद् में जब स्वराज्य का प्रस्ताव रखा तो उसमें ‘ब्रिटिश राज्य विरहित’ स्वराज्य, यह संशोधन सुझाया।
डॉ. हेडगेवार और संघ एक-दूसरे के पर्याय थे। जब कभी भी किसी प्रभावशाली व्यक्ति का निधन होता है तो उससे जुडी संस्था को अपूरणीय क्षति का सामना करना पड़ता है। संघ के बारे में भी इसके मित्र और ईष्यालु भाव से पीड़ित दोनों प्रकार के लोग ऐसा ही सोचते थे। परन्तु सार्थक उद्देश्य के लिए समर्पित इस सारथी ने संघ को कालजयी बना दिया। तभी तो लोकमान्य तिलक द्वारा स्थापित अंग्रेजी समाचार पत्र ‘मराठा’ ने 23 अगस्त, 1940 को अपने प्रथम पृष्ठ पर जो पहला बड़ा समाचार प्रकाशित किया उसका शीर्षक था ‘डॉ. हेडगेवार्स संघ स्टील गोइंग स्ट्रांग’।

कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियाँ

जिस काल काल खंड में डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की वह मुस्लिम तुष्टिकरण का काल था। 1920 में देश में खिलाफत आन्दोलन शुरू हुआ। मुसलमानों का नेतृत्व मुल्ला-मौलवियों के हाथों में था।

इस काल खंड में मुसलमानों ने देश में अनेक दंगे किये। केरल में मोपला मुसलमानों ने विद्रोह किया। उसमें हजारों हिन्दू मारे गये। मुस्लिम आक्रान्ताओं के आक्रमण के कारण हिन्दुओं में अत्यंत असुरक्षितता की भावना फैली थी। हम संगठित हुए बिना मुस्लिम आक्रान्ताओं के सामने टिक नहीं सकेंगे, यह विचार अनेक लोगों ने प्रस्तुत किया। मुसलमानों का प्रतिकार करने के लिए हिंदुओं का संगठन करना चाहिए यह अर्थ लोगों के ध्यान में तुरंत आता था।

उस समय के नेता मुसलमान समाज को धर्मांध समाझते थे और यही सारे झगड़े की जड़ होने के कारण, उस समाज में शिक्षा का प्रसार करना, एक प्रमुख भाग मानते थे।

डॉक्टर जी इस बात से सहमत न थे। वे उस समाज की धर्मान्धता तथा अपढ़ता को तो स्वीकार करते थे किंतु उसे संघर्ष का कारण नहीं मानते थे। वे तो उसका कारण उनके शिक्षित नेताओं में ढूंढते थे जिनके मन में अपने गत राज्य और वैभव को प्राप्त करने की इच्छाएँ प्रस्फुटित थी और जिसको कि अंग्रेजों ने ‘ऐतिहासिक अल्पसंख्यक’ कहकर बढ़ावा दिया था।

कांग्रेस द्वारा चलाया जा रहा खिलाफत आन्दोलन डॉ. साहब को पसंद न था। वे उसे सदा ‘अखिल आफत’ ही कहा करते थे। इसी समय से कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अपनाया और भारतवर्ष की राजनीति में जमातवाद घुस आया जो कि डॉक्टर जी को कतई पसंद नहीं था।

आखिर उस समय के बड़े-बड़े नेताओं ने मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति क्यों अपनाई? इसका पहला और प्रमुख कारण यह दिखता है कि अंग्रेज शासक मुसलमान जमातवाद को बढ़ावा देकर उनको हिस्टोरिकल मायनांरिटी अर्थात ऐतिहासिक अल्पसंख्यक कहते हुए राजकीय जीवन में अधिक सहूलियतें देकर सामान्य जन-जीवन से भी पृथक कर रहे थे।

डॉक्टर साहब को अपने समाज की धीर वृति पर पूरा भरोसा था। वे उसे भीरु मानने के लिए कदापि तैयार नहीं थे। उन्हें अपनी प्राचीन परंपरा तथा जीवन-ध्येय पर भी पूर्ण निष्ठां थी। हाँ! वे इस बात को मानते थे कि हिन्दू समाज अपनी परंपरा भूल गया है। अंग्रेजों ने जाति व्यवस्था के स्थान पर जातिभेद शब्द का उपयोग कर जाति-जाति में भेद डालकर, जाति-जाति में ही संघर्ष का निर्माण किया था। इस कारण यहाँ का समाज छोटे-छोटे हिस्सों में बंट गया था और आपस में संघर्षरत भी था। यही कारण था कि जिससे विशाल समाज अपने को दुर्बल पाता था और इसी कारण से वह अन्य समाजों के आक्रमणों का शिकार बनता जा रहा था।

परन्तु कुछ नेताओं को यह तुष्टिकरण पसंद नहीं था। इसलिए वे हिन्दू समाज को बलशाली करना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने हिन्दू समाज के लिए हिन्दू सभा निकाली। डॉक्टर साहब उसमें भी रहे परन्तु वे उससे संतुष्ट नहीं हुए। अतः यह कहा जा सकता है कि इस देश में चलने वाले करीब-करीब सभी आन्दोलनों में न केवल उनका सक्रिय सहयोग ही रहा अपितु उनमें वे अग्रसर भी रहे।

हिन्दू पुनर्जागरण

10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हिन्दुओं को अपने गौरवशाली अतीत की महानता का बोध होना शुरू हुआ और विस्मृत राष्ट्रभाव का पुनर्जागरण प्रारम्भ हुआ। स्वामी विवेकानन्द ने वेदान्त के आधार पर सार्वभौम हिन्दुत्व का प्रचार किया। आधुनिक भारत के अन्तर्राष्ट्रीय शंकराचार्य के रूप में उन्हें प्रतिष्ठित किया जा सकता है। उनके प्रयासों से हिन्दू धर्म का न केवल उद्धार हुआ, अपितु हिन्दू समाज को उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर प्रतिष्ठित भी किया। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, राजनारायण बोस, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, योगी अरविन्द, डा. केशव बलिराम हेडगेवार जैसे हिन्दू-हित चिंतकों ने विश्व के समक्ष यह संदेश दिया कि हिन्दुस्तान में राष्ट्रीय एकता का आधार हिन्दू धर्म है और स्वयं हिन्दू एक धर्म प्रधान एवं प्रकृति के सार्वभौमिक सिद्धान्तों पर आधार जीवन पद्धति है।

आधुनिक सन्दर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हिन्दू-हित चिंतक कौन है? अन्तर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर कौन-कौन हिन्दू हित चिंतक हुए हैं और उनके प्रयासों की प्राथमिकताएं क्या रही हैं? 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक काल में घटित घटनाक्रमों से इन प्रश्नों का यदि उत्तर प्राप्त करने का प्रयास किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि पश्चिमी देशों में जीवन के लक्ष्य का सदैव अभाव रहा है। भौतिक सुख-समृद्धि ही जीवन का मानक बन गया था। इसलिए पश्चिमी देश संवेदनहीन हो गए थे। साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद जैसी वैचारिकी इस भौतिकवादी पृष्ठभूमि की उपज रही है। स्वामी विवेकानन्द जैसे हिन्दू चिंतकों का पश्चिमी देशों में हिन्दुत्व के आदशों को प्रस्थापित कर उन्हें अंधकार से अलग करने का प्रयास भी किया गया था। लेकिन भौतिकता की अंधी दौड ने अततः नाजीवादी, फांसीवाद एवं साम्यवाद जैसे विचारों को जन्म देकर पश्चिमी देशों को महायुद्धों की विनाशलीला में झोंक दिया था। इस संदर्भ में हिन्दू आदर्शो का यदि अनुपालन किया जाता तो सम्भवतः मानवीय विनाश के उन दृश्यों को रोका जा सकता था जो विश्व – मानव की छाती पर एक भीषण घटित दुर्घटना के चोट के चिह्न रूप में विद्यमान है। स्वामी विवेकानन्द ने जीवन जीने का लक्ष्य एव मानन संस्कृति के मूल रहस्यों को पश्चिमी समाज के समक्ष उद्घाटित किया था।

‘हिन्दू संगठन अर्थात हिन्दू समाज की स्वाभाविक शक्ति का जागरण’। स्वामी विवेकानन्द के प्रयासों से पश्चिमी समाज में हिंदुत्व के प्रति एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ था और लोग हिन्दू संस्कृति के मूल रहस्यों को जानने के लिए आकर्षित हुए। स्वामी विवेकानंद को हिन्दू राष्ट्रीयता का विश्व में प्रथम उद्घोषक कहा जा सकता है। उन्होंने विश्व के समक्ष भारत की मूल्यवान आध्यात्मिक धरोहर को प्रतिष्ठित किया तथा हिन्दू धर्म के मूल रहस्यों से विश्व को अवगत कराया।

राष्ट्रीय संदर्भ में स्वामी रामतीर्थ, महर्षि दयानन्द, डा. केशव बलिराम हेडगेवार, महात्मा गांधी, डा. अम्बेडकर, एम.एस. गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, दत्तोपंत ढेगडी जैसे चिंतकों ने हिन्दुओं को चिन्तन की एक नयी शैली एवं विधा से सुसज्जित कर हिन्दुत्व के पुनरुत्थान का सार्थक प्रयास किया। 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अन्तरराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय परिदृश्य में कई ऐसे संगठन प्रभाव में आये जिन्होंने हिन्दू धर्म की सनातन मर्यादा को प्रस्थापित करने का प्रयास किया। अमेरिका जैसे विकसित भौतिकवादी देश में हिन्दुत्व के प्रति आकर्षण सन्‌ 1960 के दशक में तथा उसके बाद निरन्तर बना हुआ है। स्वामी प्रभुपाद, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश आदि ने हिन्दू दर्शन के कुछ रहस्यों को विश्व के समक्ष प्रकट कर भौतिक जगत को आश्चर्य में डाल दिया है।

हिन्दू चिंतकों के विचारों का यदि मूल्यांकन किया जाए तो यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने विश्व समुदाय में हिन्दुत्व के प्रति फैले भ्रम को न केवल दूर करने का प्रयास किया, अपितु हिन्दुस्तान में सनातन संस्कृति के प्रति जो वैषम्यतापूर्ण विचारधाराएं बलवती हो रही थीं उन्हें भी प्रतिबन्धित करने का प्रयास किया। इन विचारकों ने सामाजिक समरसता स्थापित करने के लिए उन समस्त कुरीतियों को दूर करने का आवाहन किया। इस परिप्रेक्ष्य में आधुनिक भारत के वर्तमान हिन्दू-हित चिंतकों का यह दायित्व होना चाहिए कि वे हिन्दुत्व के मानवीय एवं कल्याणकारी मूल्यों को स्थापित करने के लिए निरंतर प्रयास कर और इस दिशा में आने वाली बाधाओं को निर्मूल करते रहें।
पूर्व वैदिक लोक जीवन के सम्बन्ध में प्राप्त तथ्य यह इंगित करते हैं कि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनैतिक संरचना में प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार समान थे। राजसत्ता के प्रारम्भ होने के पूर्व भूमि पर कुटुम्ब का स्वामित्व ही प्रभावी था। ग्राम नदियों के किनारे, विरल जंगलों से घिरे हुए तथा कृषि भूमि की उर्वरता के आधार पर बसे हुए थे। ग्रामों की संरचना कुल अथवा वंश द्वारा निर्धारित होती थी। सामान्यत: पितृवंशीय परिवार ही अस्तित्व में थें। उर्वरा भूमि की उपलब्धता एवं प्रकृतिपरक जीवनयापन करने वाला हिन्दू समाज शान्तिप्रिय एवं धर्मानुरागी प्रकृति का था।

वैदिक लोकजीवन का स्वरूप अपेक्षाकृत सरल था। समाजं में सम्पत्ति, स्त्री, सुख जैसी अवधारणाएं लोकजीवन का .अभिन्न अंग स्वीकार कर ली गई थीं। एक ही पिता के चार पुत्रों का चार वर्णों में होने का भी संकेत प्राप्त होता है। उत्तर वैदिक काल में सत्ता संघर्ष की स्थितियां धीरे-धीरे जटिल हो रही थीं। नगर अस्तित्व. में आने लगे थे। पत्थरों के साथ-साथ लोहे के सुदृढ़ किले भी अस्तित्व में थे। काम्पिल (पांचालों की राजधानी), आसन्दीवन्त (कुरु राजधानी), तथा कौशाम्बी नगरों का उल्लेख प्रधानता से मिलता है जो तत्कालीन प्रमुख राज्यों की राजधानी थे। ग्रामीण एवं नगरीय जीवन सुख-समृद्धि से परिपूर्ण था।

वैदिक कालीन हिन्दू समाज सुव्यवस्थित तथा सुसंगठित था। कृषि तथा पशुपालन आजीविका का प्रमुख आधार थां। पृथु ही प्रथम राजा थे जिन्होंने पथरीली भूमि को जोतकर कृषि योग्य समतल बनाया था और इसलिए उनका पृथ्वी नामकरण हुआ। खेत के लिए उर्वर या क्षेत्र शब्द प्रयोग में आया है जिसका स्वामी व्यक्ति अथवा उसका कुटुम्ब होता था। बढ़ई, कुम्हार, रथकार, बुनकर, निषाद आदि का उल्लेख यह इंगित करता है कि कृषि के अतिरिक्त अन्य आवश्यक व्यवसाय भी प्रचलन में थे। बाजार, स्थल एवं समुद्री व्यापार का भी उल्लेख प्राप्त होता है। व्यापार हेतु गाय के अतिरिक्त स्वर्ण एवं चांदी की मुद्राएं प्रचलन में थीं। प्रत्येक व्यक्ति समान अधिकारों से युक्‍त था। व्यावसायिक विविधता से समाज में उसके वैयक्तित्व अधिकार निष्प्रभावी थे।

बौद्ध धर्म के माध्यम से हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक रहस्य अन्य देशों के निवासियों द्वारा व्यवहृत किए जाने लगे। गुप्त एवं मौर्य वंश में भी सद्भावना का चित्रण प्राप्त होता है। मुगलकाल एवं ब्रिटिश शासन के अंतर्गत हिन्दू लोक जीवन विखंडित हो गया। हिन्दू धर्म के मूल रहस्यों से अनभिज्ञ आक्रांताओं ने न केवल वैयक्तिक अधिकारों का हनन किया अपितु हिन्दू धर्म के मूल ग्रंथों को भी नष्ट कर दिया। 1000 वर्षो तक सनातन संस्कृति विधर्मियों के प्रहार को झेलती हुई लगभग मृतप्राय बना दी गई थी। अब आवश्यकता है कि मूल्य परक हिन्दू जीवन पद्धति जिससे न केवल मानव अपितु प्रकृति एवं जीव-जन्तु जगत का भी उत्थान सम्भव है, उसे पुनः प्रतिष्ठित किया जाए।
हिन्दुत्त्व एक जीवन पद्धति है, जो अपनी प्रकृति में सनातन है। ‘सनातन’ शब्द उन जीवन मूल्यों और सिद्धांतों का द्योतक है, जो शाश्वत हैं। यह उस ज्ञान की अभिवृद्धि करने वाला है, जिसने समय के आघातों और ऐतिहासिक उठा-पटक को पीछे छोड़ दिया है। जीवन का यह दर्शन व्यापक, अपने आप में परिपूर्ण और मानवीय है। यह सबकी भलाई और सबके कल्याण का वाहक है।
वस्तुतः राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य हिन्दुओं को जाति, क्षेत्र और भाषा के कृत्रिम विभाजन के चलते उत्पन्न सामाजिक-सांस्कृतिक विरोधाभासों से उबारना है। इसकी आकांक्षा है कि भारत को विश्व गुरु का स्थान अपने कर्तृत्व, दर्शन और सांस्कृतिक प्रभाव से पुनः मिले।
सन्दर्भ

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• केशव : संघनिर्माता : चंद्रशेखर परमानन्द भिशीकर, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली
• रमेश पतंगे, डॉ. हेडगेवार: एक अनोखा नेतृत्व, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली
• भूतपूर्व सरकार्यवाह, स्व. प्रभाकर बलवंत दाणी(भैयाजी दाणी), संघ दर्शन, राष्ट्रधर्म पुस्तक प्रकाशन, लखनऊ
• राकेश सिन्हा, आधुनिक भारत के निर्माता: डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, प्रकाशन विभाग
• डॉ. विजय सोनकर शास्त्री, हिन्दू वैचारिक : एक अनुमोदन, विश्व हिन्दू परिषद्, द्वितीय संस्करण, 2006,
• हिन्दुत्व के स्वर : डा. कैलाशचन्द्र, सांस्कृतिक गौरव संस्थान
• बालासाहब देवरस, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ : सामाजिक परिवर्तन की दिशा, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली

• प्र.ग. सहस्त्रबुद्धे, संघमंत्र के उद्गाता: डॉ. हेडगेवार, भारत भारती बाल पुस्तकमाला प्रकाशन, नागपुर
• राकेश सिन्हा, संघ और राजनीति, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
• लोकनायक जयप्रकाश नारायण की दृष्टि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सुरुचि प्रकाशन, केशव कुंज, झंडेवालान, नयी दिल्ली
• देवेन्द्र स्वरूप, संघ बीज से वृक्ष, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली
• रतन शारदा, आरएसएस 360० राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ- परत दर परत, ब्लूम्स बुरी

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