फटी या फेडेड जींस ने वैश्विक स्तर पर परिधान समाजवाद की शुरुआत की

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पूरे विश्व में एक ही ऐसा परिधान है जिसे अमीर, गरीब, बूढ़े बच्चे, नर नारी, शहरी, ग्रामीण, सब पहन कर अपनी आजादी या आत्म विश्वास का एहसास कराते हैं।

जी हम बात कर रहे हैं जींस की, जो पैंट, पतलून या पायजामा तो है ही, लेकिन साथ ही एक फैशन स्टेटमेंट भी है, क्योंकि वस्त्र आपके व्यक्तित्व के बारे में बहुत कुछ बताते हैं।

लोकप्रियता तो इतनी कि कुछ साल पहले वृंदावन के एक प्रतिष्ठित मंदिर में बवाल कटा था, जब किसी खुशकेट पुजारी ने ठाकुर जी को जींस पहना दी थी, विद हैट एंड गॉगल्स।

जींस की शुरुआत अमेरिका में लेबर क्लास के लिए कई सौ साल पहले हुई थी। उस वक्त संपन्न वर्ग के लोग जींस नहीं पहनते थे। फिर 1960 के दशक में हिप्पी मूवमेंट की लोकप्रियता के साथ, जींस पैंट, आजादी पसंद युवाओं को ऐसा भाया कि आज दुनिया भर में सबसे ज्यादा इसकी डिमांड है, इसके लिए हम लीवाइस को धन्यवाद दे सकते हैं।
शुरुआत में ओरिजनल ब्लू जींस मेटल बैज, रिविट्स और बटंस के साथ आम आदमी की पहुंच से बाहर थी। पुरानी जींस भी हजार की मिलती थी। फिर ऐसा क्रेज बढ़ा कि दर्जनों ब्रांड एक साथ मार्केट में कूद पड़े।

अब तो नीली जींस, और इसके अनेक रूप, रंग, हमारे वार्डरोब का अहम हिस्सा बन चुके हैं। लेकिन उनका प्रभाव फैशन के रुझानों से कहीं आगे तक फैला हुआ है। जींस ने वैश्विक संस्कृति को आकार देने, स्वतंत्रता, समानता और अनौपचारिकता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

“मैं सीधे तौर पर सभी स्टूडेंट्स के लिए जींस पहनना अनिवार्य करने की सलाह दूंगी, साथ ही राजनेताओं के लिए भी जिन्हें अपने विषम शरीर को संवारने की ज़रूरत है,” बैंगलोर की जींस प्रेमी मुक्ता गुप्ता कहती हैं।

जींस धारी वृंदावन के जगन नाथ पोद्दार कहते हैं कि “पीछे मुड़कर देखें तो 1960 के दशक में जींस क्रांति की शुरुआत हुई, जो हिप्पी आंदोलन के उदय के साथ मेल खाती थी। इस प्रतिसंस्कृति घटना ने मुख्यधारा के पश्चिमी मूल्यों को खारिज कर दिया, और मुक्त-आत्मा और गैर-अनुरूपता को अपनाया। जींस इस आंदोलन की यूनिफॉर्म बन गई, जो सामाजिक मानदंडों के खिलाफ विद्रोह का प्रतीक थी।”

जैसे-जैसे जींस की लोकप्रियता बढ़ी, उसने सामाजिक और आर्थिक बाधाओं को पार करते हुए अमीर-गरीब के बीच की खाई को पाट दिया। अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर द्वारा व्हाइट हाउस में जींस पहनने से लेकर दुनिया भर में आम लोगों द्वारा परिधान को अपनाने तक, जींस ने फैशन को लोकतांत्रिक बनाया, पत्रकार विष्णु बताते हैं।

सोशल एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर का कहना है कि “महिलाओं के लिए, जींस सशक्तिकरण और स्वायत्तता का प्रतिनिधित्व करती है। जींस पहनकर, महिलाओं ने पारंपरिक लिंग भूमिकाओं को चुनौती देते हुए अपने पुरुष समकक्षों के साथ खेल के मैदान को समतल किया। जींस ने महिलाओं को पहले पुरुषों के लिए आरक्षित गतिविधियों में भाग लेने में सक्षम बनाया, जिससे मुक्ति की भावना को बढ़ावा मिला। जींस ने उन्हें स्मार्ट महसूस कराया और दिखने में भी।”

जींस क्रांति ने नैतिक दृष्टिकोण में बदलाव में भी योगदान दिया। सहूलियत वाले आरामदायक कपड़ों को अपनाने से, लोगों ने कठोर सामाजिक मानदंडों और नैतिक संहिताओं पर सवाल उठाना शुरू कर दिया। जींस ने “बढ़ी हुई नैतिकता को कम करने” में मदद की, जिससे व्यक्तियों को खुद को अधिक स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने की अनुमति मिली, स्कूल शिक्षक डॉक्टर अनुभव कहते हैं।

७५ वर्षों से ज्यादा से जींस फैशन के रुझानों की क्षणभंगुर प्रकृति को चुनौती दे रही है। इस दृढ़ता का श्रेय जींस की अनुकूलनशीलता और बहुमुखी प्रतिभा के साथ-साथ स्वतंत्रता और समानता के साथ उनके निरंतर जुड़ाव को दिया जा सकता है, युवा वकील अंकुर कहते हैं।

जाने माने समीक्षक पारस नाथ चौधरी के मुताबिक “मैं फेडेड जींस का बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूं। मुझे वे बहुत पसंद हैं। मैंने 60 के दशक में उनका उपयोग करना शुरू किया था और आज तक मैं उन्हें पहनता हूं। मैं जींस को केवल फैशनेबल कपड़ों के रूप में नहीं देखता, बल्कि दुनिया में एक पूरी नई संस्कृति के अग्रदूत के रूप में भी देखता हूं। नीले जींस ने स्वतंत्रता और समानता को बढ़ावा दिया। उन्होंने दुनिया में आनंद की मात्रा को बढ़ाते हुए अतिरंजित नैतिकता को कम करने में भूमिका निभाई। नीले परिधान से मोहित होकर, कई लोगों ने यह भी घोषणा की कि फेडेड ग्लोरी जींस में लिपटी युवा महिलाएं अधिक सेक्सी और सुंदर दिखती हैं। जींस के आगमन के साथ ही परिधानों में अनौपचारिकता में उछाल आया और दुनिया भर में अमीर, गरीब और उच्च-निम्न का अंतर एक साथ खत्म हो गया। यदि अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर जींस पहनकर व्हाइट हाउस स्थित अपने कार्यालय में जाते थे, तो उसी समय दुनिया भर में आम लोगों की भीड़ जींस को बड़े पैमाने पर अपनाती थी। जींस हिप्पी आंदोलन की वर्दी बन गई, जिसने पश्चिम की जड़ और सड़ी हुई मुख्यधारा की संस्कृति को खारिज कर दिया। जींस पहनने वाली महिला
तुरंत अपने पुरुष समकक्षों के बराबर आ गईं और उनमें स्वायत्तता की भावना पैदा हो गई। इसके अलावा, जींस फैशन की दुनिया में एकमात्र क्रांति थी, जो 75 साल बाद भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही ।”

आज, जींस वैश्विक फैशन का एक अभिन्न अंग है, जिसमें विभिन्न स्वादों के अनुरूप डिजाइन और शैलियाँ विकसित हो रही हैं। फिर भी, उनका सांस्कृतिक महत्व सौंदर्यशास्त्र से परे है। जींस औपचारिकता पर अनौपचारिकता, परंपरा पर आराम की जीत का प्रतिनिधित्व करती है। अब तो युवा फटी जींस, तार तार जींस, शॉर्ट्स, जैकेट्स, शर्ट्स की तरफ मुखातिब हो रहे हैं।

फैशन प्रेमी माही हीदर कहती हैं, “नीली जींस सिर्फ फैशन का एक अहम हिस्सा नहीं रही है; वे सामाजिक बदलाव के लिए उत्प्रेरक रही हैं। समानता, स्वतंत्रता और आत्म-अभिव्यक्ति को बढ़ावा देकर, जींस ने परिधान समाजवाद के युग की शुरुआत की है, जहां फैशन कोई सीमा, वर्ग या लिंग नहीं जानता।”

उनके स्थायी प्रभाव के प्रमाण के रूप में, जींस हमारी अलमारी का एक अभिन्न अंग बनी हुई है, जो संस्कृति और समाज को आकार देने के लिए फैशन की शक्ति का प्रतीक है।

समाजिक ताना बाना तोड़कर राष्ट्र की समृद्धि अवरुद्ध करने का कुचक्र

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भारत में जाति आधारित जनगणना की माँग जोर पकड़ रही है । इससे केवल जातीय आँकड़े ही सामने नहीं आयेंगे अपितु जातिवाद फैलाकर भारत की प्रगति अवरुद्ध करने का संकट भी उत्पन्न हो गया है ।

भारत में एक बार जातीय आधारित जनगणना की माँग जोर पकड़ रही है । यह माँग जनसामान्य की ओर से नहीं अपितु कुछ राजनैतिक दलों और कुछ सामाजिक संगठनों की ओर से इस माँग को तूफानी बनाने का प्रयास हो रहा है। माँग के बढ़ने साथ कुछ मीडिया हाउस व्यक्तिगत अपराध की घटनाओं में जातिगत समीकरण ढूंढ़कर समाचार दिखाने में लग गये। कुछ राजनैतिक दलों, कुछ सामाजिक संगठन और कुछ मीडिया कर्मियों के इस त्रिकोण के अभियान से भारत के सामाजिक वातावरण में एक विशिष्ट खिंचाव दिखने लगा है । यह खिंचाव ऐसे समय आ रहा है जब भारत अपनी प्रगति के उन्नत लक्ष्य को लेकर आगे बढ़ रहा है । इसके परिणाम दिखने लगे और दुनियाँ स्वीकार भी करने लगी । भारत की प्रगति से ईर्ष्या करने वाली शक्तियाँ प्रगति अवरुद्ध करने का कूचक्र चला सकतीं हैं। देश के विभिन्न भागों में घटने वाली घटनाओं में इसकी झलक भी दिखने लगी है । भारत में भारत को कमजोर करने के लिये कोई सनातन धर्म को डेंगू मलेरिया बताता है, कोई सनातन धर्म को समाप्त करने का आव्हान करता है और बंगलादेश की भाँति भारत में आँदोलन की धमकी दे रहा है । इसका सामना सामाज की संगठित शक्ति से ही किया जा सकता है । लेकिन यदि इस तनाव में जातिवाद का घोल मिला दिया गया और समाज जातिगत खिंचाव में उलझ गया तो भविष्य की दीवारों पर उभर रहीं इन समस्याओं से हट जायेगा और भारत की विकास गति अवरूद्ध हो जायेगी।
जातीय आधारित जनगणना को हवा देने वाले वे क्षेत्रीय दल हैं जिनकी राजनीति का आधार जाति, वर्ग भाषा, और क्षेत्रीयता है। अब इन्हें काँग्रेस का साथ भी मिल गया है । इन दलों के नेताओं उनका उद्देश्य राष्ट्ररक्षा या समाज सेवा नहीं केवल सत्ता है । ये सभी राजनैतिक दल गठबंधन बनाकर केवल जातिवाद की बात कर रहे हैं।

लंबा इतिहास है सत्ता केलिये विभाजन की राजनीति का

समाज को बाँटकर सत्ता प्राप्त करने का फार्मूला नया नहीं है । यह वही फार्मूला है जो भारत पर राज करने केलिए विदेशियों ने अपनाया था । सल्तनतकाल में रियासतों को बाँटकर आपस में लड़ाने का कुचक्र चला । अंग्रेजी काल में रियासतों के साथ समाज को बाँटने की भी नीति बनी। अंग्रेजों ने इसे छुपाया भी नहीं, स्पष्ट कहा था “डिवाइड एण्ड रूल” अर्थात बाँटों और राज करो। अंग्रेजों ने इसकी शुरुआत 1757 में प्लासी का युद्ध जीतने के साथ की थी। उन्होंने अपनी सत्ता विस्तार केलिये चर्च को सक्रिय किया । चर्च ने भारत के राजनीतिक और समाज जीवन का मनोवैज्ञानिक सर्वे किया । फिर विभाजन नीति तैयार करके शुरुआत वनक्षेत्रों से की । ऐसा साहित्य तैयार कराया और ऐसी कहानियाँ गढ़ीं जिससे वनवासी और नगरवासी समाज अलग अलग दिखे । अंग्रेजों ने कूटरचित साहित्य से पहले विभाजन की रेखा ही नहीं खींची फिर वैमनस्यता का रंग चढ़ाया। इसके बाद नगरीय और ग्रामीण क्षेत्रों में विभाजन की लकीरें खींचने की योजना बनी । इसका आधार जाति को बनाया । अंग्रेजों ने पहली बार जन्म आधारित जाति व्यवस्था घोषित की अंर शासकीय अभिलेखों में जाति लिखना आरंभ किया । अंग्रेज यहीं तक नहीं रुके । उन्होंने जाति आधारित सेना गठित की । जैसे एक ही प्राँत महाराष्ट्र में “महार रेजिमेंट” अलग और “मराठा रेजिमेंट” अलग । राजस्थान में”राजपूताना राइफल्स” अलग और “राजस्थान राइफल्स” अलग इसी तरह पंजाब में “सिक्ख रेजीडेंट” अलग और “पंजाब रेजीडेंट” अलग । ऐसा विभाजन पूरे देश में किया । अपनी सैन्य छावनियों में भी ऐसा वातावरण बनाया जिससे जातीय स्पर्धा और ईर्ष्या बढ़े । यही वातावरण सभी शासकीय कार्यों में बनाया । और इसी के साथ जातीय आधारित जनगणना आरंभ की ।

जातीय आधारित जनगणना का इतिहास : विरोध और समर्थन

जाति आधारित जनगणना करने का निर्णय 1872 में हुआ । वायसराय मैयो के निर्देशन में जातीय आधारित जनगणना के आँकड़े पहली बार 1881 में सामने आये । यह काम 1931 तक चला । 1941 की जनगणना भी जाति आधारित हुई थी पर गाँधी जी और अन्य प्रमुख जनों के आग्रह पर अंग्रेजों ने आकड़े जारी नहीं किये। स्वतंत्रता के बाद अंग्रेज चले गये पर अंग्रेजियत बनी रही । यह अंग्रेजियत के बने रहने के कारण ही अंग्रेजों का अंतिम वायसराय भारत का पहला गवर्नर जनरल बना, अंग्रेजों का दिया गया नाम “इंडिया” नाम भी बना रहा और राजकाज में अंग्रेजी का प्रभुत्व भी यथावत रहा । यह अंग्रेजों द्वारा बोये गये बीज का प्रतिफल था कि स्वतंत्रता के बाद भी एक समूह ऐसा रहा जो जाति आधारित जनगणना पर जोर देता रहा । स्वतंत्र भारत में पहली जनगणना 1951 में हुई थी । तब भी जाति आधारित जनगणना की मांग उठी थी । लेकिन तब लगभग सभी नीति निर्धारकों ने इस माँग को देशहित के विरुद्ध बताकर नकार दिया था । तबके राजनेताओं ने गाँधीजी के सिद्धांत पर अमल करना उचित समझा । गाँधीजी ने अपने स्वराज की कल्पना में कहा था- “स्वराज सबके कल्याण के लिये होगा, स्वराज में जाति और धर्म को स्थान नहीं होगा” । गाँधीजी का यह आलेख ‘यंग इंडिया’ के मई 1930 अंक में छपा था । जाति आधारित जनगणना का मुखर विरोध सरदार वल्लभभाई पटेल ने किया था, जिनका समर्थन पं जवाहरलाल नेहरू, बाबासाहब अंबेडकर और डा राम लोहिया ने भी किया था । अंबेडकर जी और डा लोहिया का तो पूरा अभियान ही जातिवाद को मिटाने का था । लेकिन अब उन्हे अपना आदर्श बताकर राजनीति करने वाले राजनैतिक दल अब जाति आधारित जनगणना कराने पर अड़े हुये हैं। यही स्थिति काँग्रेस की है । गाँधीजी, नेहरूजी और शास्त्री जी के बाद की पीढ़ी में श्रीमती इंदिरा गाँधी भी जाति आधारित जनगणना के विरुद्ध थीं। एक समय काँग्रेस का तो नारा था- “जात पर, न पांत पर- मोहर लगेगी हाथ पर”‘ किन्तु आज काँग्रेस आधारित जनगणना का अभियान चला रही हैं । जगह जगह सभायें कर रही है उनके नेताओं के भाषण इतने आक्रामक हैं जिन्हें सुनकर लगता है मानो देश में सारी समस्याओं का निदान केवल जातीय आधारित जनगणना में है । कुछ राजनैतिक दलों के नेता तो अब अपराधियों के बारे में टिप्पणी भी जाति देखकर करने लगे । जिन डा राम मनोहर लोहिया ने समाज से जातिवाद मिटाने का संकल्प लिया था उनको आदर्श मानने वाले अखिलेश यादव, लालू प्रसाद यादव और नितीश कुमार जातिवाद का झंडा बुलंद कर रहे हैं ।

इसमें कोई संदेह नहीं कि नरेंद्र मोदी सरकार की शक्ति समाज के एकत्व, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव के भाव में है। इसे तोड़ने के लिये ही जातीय आधारित जनगणना का मार्ग बनाया जा रहा है । जातीय विमर्श के अभियान से समाज का ध्यान उन समस्याओं से दूर होने लगा जो देश की प्रगति और संस्कृति को कमजोर करने केलिये उत्पन्न की जा रही हैं । जबसे जातीय आधारित जनगणना की माँग उठी तब से समाज का ध्यान उन लोगों की ओर से भी हट गया जो सनातन धर्म को समाप्त करने का आव्हान कर रहे थे । जब यह आव्हान हुआ था, तब संपूर्ण सनातनी समाज में भावनात्मक एकात्मकता दिखने लगी थी । पता नहीं यह केवल संयोग है कि योजनानुसार कार्य कि जबसे जातीय आधारित जनगणना की माँग उठी है तब से वे लोग ओझल हो गये जो सनातन धर्म को समाप्त करने का कुचक्र कर रहे हैं। उनका काम रूका नहीं होगा । बल्कि समाज जातीय समीकरण के आँकड़ों में उलझ गया ।

भविष्य के संकेत चिंताजनक

भविष्य की दीवार पर जो आशंका झाँक रही है । उसे देखकर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आगे चलकर यह अभियान केवल जाति आधारित जनगणना अथवा उनके आँकड़े एकत्र करने तक सीमित न रहेगा अपितु समाज के भीतर कुछ ऐसे तत्व भी सक्रिय हो सकते हैं जो समाज में जाति आधारित वैमनस्य फैलाने का काम करें। यह सोशल मीडिया का जमाना है । कुछ लोग फर्जी एकाउंट बना कर जातियों के परस्पर वैमनस्य फैलाने की सामग्री डाल सकते हैं फर्जी वीडियो भी हो सकते हैं। ऐसी फर्जी सामग्री और वीडियो सामने आने भी लगे हैं । यह आशंक भी प्रबल है कि राजनैतिक समूहों में वे शक्तियाँ भी शामिल हो जाये जो भारतीय समाज में जातीय विवाद पैदाकर प्रगति का मार्ग अवरुद्ध करें।

संघ केवल संगठन मात्र नहीं, अपितु भारत के नवोत्थान का अभियान है – दत्तात्रेय होसबाले जी

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आदित्य भारद्वाज

जैसलमेर. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले जी ने जैसलमेर प्रवास के दौरान बुधवार को शहीद पूनमसिंह स्टेडियम में बलिदानी पूनम सिंह की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित कर नमन किया. तत्पश्चात नगर एकत्रीकरण में स्वयंसेवकों का प्रबोधन में कहा कि संघ केवल एक संगठन मात्र नहीं है, अपितु भारत के नवोत्थान एवं सर्वप्रकार के पुनरोदय का महाभियान है. राष्ट्र जीवन का महत्वपूर्ण आंदोलन है. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश केटी थॉमस ने संघ को परिभाषित करते हुए कहा है – संघ ही भारत में लोकतंत्र की सुरक्षा और सुरक्षा की गारंटी है. सेना और पुलिस के समान संघ देश का सुरक्षा कवच है. सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीश रहे श्री थॉमस के शब्दों से संघ की भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है.

सरकार्यवाह जी ने कहा कि 1925 में नागपुर के छोटे से स्थान से शुरु हुआ संघ कार्य देश के सभी राज्यों, जिलों में पहुंच चुका है. इसको देश के प्रत्येक मंडल व बस्ती तक पहुंचाने का लक्ष्य है, जो दूर नहीं है. शुरुआत में आमजन संघ को उपहास स्वरुप लेते थे, लेकिन स्वयंसेवकों के त्याग और समर्पण से निर्मित यह संगठन विश्व के सबसे बड़े सामाजिक संगठन के रूप में पहचान बनाने में सफल रहा है.

हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा पर कहा कि हिन्दू केवल एक धर्म नहीं, अपितु जीवन पद्धति है. यही संगठित विचार लेकर स्वामी विवेकानंद ने धर्म का प्रचार किया. ऐसे महापुरुषों की प्रेरणा से संघ ने देश के आमजन में विश्वास जगाया कि हिन्दू एक हो सकता है. हिन्दुत्व को लेकर शुरु में लोग कहते थे कि यह साम्प्रदायिक है, संकुचित भाव है. परंतु संघ ने समझाया कि हिन्दू सम्प्रदाय नहीं, एक जीवन दर्शन है. मानवता के उद्धार के लिए देश के ऋषि-मुनियों, साधु-संतों ने कठोर तप कर कार्य किया.

दत्तात्रेय होसबाले जी ने कहा कि प्रकृति व जीव-जंतुओं को संरक्षण हिन्दुत्व में ही निहित है और यह सनातनी व्यवस्था है. यही वजह है कि आज हिन्दू जीवन दर्शन की कई बातों को विश्वभर में मान्यता मिल रही है. योग और आयुर्वेद के विचार को विदेशी भी अपनाने लगे हैं. संघ अपने कार्यकर्ताओं के परिश्रम से राष्ट्र जीवन के विविध क्षेत्रों में सेवा कार्य से लोगों का विश्वास जीत रहा है.
सरकार्यवाह जी ने प्रबोधन के प्रारंभ में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का स्मरण करते हुए कहा कि आज एक स्वयंसेवक का जन्मदिवस है, जिन्होंने भारत के नवोत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित किया और संघ का प्रचारक रहकर जीवन भर भारत मां की सेवा करते हुए राष्ट्र जीवन के लिए एक नई दिशा देने का विचार “एकात्म मानव दर्शन” प्रस्तुत किया.

स्वयंसेवक एकत्रीकरण में अखिल भारतीय सह प्रचारक प्रमुख अरुण जी, सीमा जागरण मंच के अखिल भारतीय संयोजक मुरलीधर जी, सह संयोजक नींब सिंह जी, क्षेत्र संघचालक डॉक्टर रमेश अग्रवाल जी, क्षेत्र प्रचारक निंबाराम जी सहित अन्य दायित्वान कार्यकर्ता, स्वयंसेवक सम्मिलित हुए.

(फेसबुक से)

‘नारीवाद’ को मजहबी मर्दवादियों ने अपना पालतू बना कर रख छोड़ा है…

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रंगनाथ

योगिता लिमये बीबीसी इंग्लिश की रिपोर्टर हैं। मैंने उनकी अनगिनत रिपोर्ट देखी हैं। पहली बार उन्हें ऑन-स्क्रीन देखकर दुख हुआ। कुछ दिन पहले उन्होंने तालिबान प्रवक्ता का साक्षात्कार किया। तालिबान नेता ने आमने-सामने बैठकर इंटरव्यू देने से इनकार कर दिया। उनके साथ फोटो खिंचवाने से भी मना कर दिया। इतना ही नहीं, इंटरव्यू देखकर पता चलता है कि योगिता जी को हिजाब पहनने के लिए तैयार होना पड़ा।

योगिता जी से पहले भी सीएनएन, बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, गार्डियन इत्यादि के पत्रकार तालिबान या उनके जैसे संगठनों की ऐसी शर्तों को स्वीकार करते रहे हैं ताकि इंटरव्यू मिल सके। साफ है कि तालिबान जैसे संगठन अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करते मगर अंतरराष्ट्रीय मीडिया इंटरव्यू पाने के लिए अपनी विचारधारा से समझौता करने को तैयार हो जाते हैं। हालाँकि इसके कुछ सुखद अपवाद भी हैं।

अभी दो साल पहले ईरान के राष्ट्रपति द्वारा इंटरव्यू के लिए हिजाब पहनने की शर्त रखने CNN की महिला पत्रकार ने शर्त मानने से इनकार कर दिया था। करीब तीन दशक पहले एक इतालवी पत्रकार ने ईरान के मजहबी लीडर खुमैनी जी के सामने ही हिजाब हटा दिया था। आज भी वह घटना ‘आजाद औरतों’ की प्रिय कहानी में एक है।

पिछले कुछ सालों में कई लड़कियों ने हिजाब के विरोध में अपनी जान दी है। सैकड़ों को जेल की सजा हुई। पितृसत्तात्मक ताकतें हमेशा महिलाओं को यह अहसास दिलाती रहती हैं कि वह दोयम दर्जे की शय हैं। इसके लिए वह कई तरीके अपनाती हैं जिनमें हिजाब-बुरका-घूँघट सबसे प्रचलित औजार है।

सामान्य लड़कियाँ मजबूर होती हैं मगर सक्षम आधुनिक पेशेवर महिलाओं से उम्मीद की जा सकती है कि वह पर्दा प्रथा की महिला विरोधी चरित्र को ध्यान में रखते हुए इस तरह के समझौते न किया करें।

तालिबान की विचारधारा में यकीन रखने वाली वयस्क महिलाएँ उनके अनुसार जीने को स्वतंत्र हैं, मगर जो महिलाएँ तालिबान की सोच से साबका नहीं रखतीं उन्हें इस तरह के फौरी समझौते नहीं करने चाहिए।

पिछले कुछ दशक की सबसे बड़ी त्रासदी यह रही है कि नारीवाद को मर्दवादी मजहबी और राजनीतिक विचारधाराओं ने पालतू बना लिया है। महिला विचारकों में मजहब और दल देखकर राय बनाने की कुप्रवृत्ति जड़ जमाती जा रही है। अगर महिला विचारकों ने अपना न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं बनाया तो पिछले 100 साल में अर्जित स्पेस को वह धीरे-दीरे च्वाइस के मायाजाल में फंसकर खो देंगी।

हिन्दी समाज की शर्मिष्ठाएँ ययातियों के हाथ की कठपुतली बनी घूम रही हैं तो उनसे भी मुझे ज्यादा उम्मीद नहीं है। मगर इंग्लिश समाज की जबालाओं को कुछ समय पहले अमेरिका में गर्भपात के अधिकार को लेकर आया यूटर्न याद होगा। कहाँ हम सोच रहे थे कि जबाला जैसी स्वतंत्र आत्मनिर्भर स्त्री भविष्य की रोलमॉडल बनेगी कहाँ दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क “बच्चा पैदा करने की मशीन” बनने को च्वाइस की तरह स्थापित करने की तरफ बढ़ता दिखने लगा है!

पता नहीं योगिता लिमये हिन्दी पढ़ती है या नहीं, पता नहीं उन्होंने मजाज लखनवी का नाम सुना है या नहीं, मगर उन्हें जानने वाला कोई यह पोस्ट पढ़े तो मेरी तरफ से उनसे यह जरूर कहे,

तेरे माथे पर ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था।

(फेसबुक से)

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