समस्याओं की गिरफ्त में न्यू प्रियंका कैम्प के निवासी

अपने आप को आम जन की सरकार कहे जानेवाली विकास का नारा देनेवाली दिल्ली की तथाकथित ईमानदार सरकार जनता के मूलभूत आवश्यकता के प्रति कितनी ईमानदार है, ये पता चलता है प्रियंका कैम्प जाने पर। जब आज के आधुनिक परिवेश में देश के राजधानी दिल्ली के जनता को मूलभूत आवश्यकताओं के अभाव से जूझते हुए देखा जाता है तो यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि भारत अब भी अपने वर्तमान स्वरूप से दो दशक पीछे है। जी हां दिल्ली के ओखला स्थित मदनपुर खादर गांव से सटे न्यू प्रियंका कैम्प की तकरीबन 20 वर्ष पुरानी घनी आबादी वाले क्षेत्र में न तो पीने के पानी की व्यवस्था है न ही शौचालय की। यहां तक कि आवागमन के लिए कैम्प का अपना कोई निजी रास्ता भी नहीं है। जिसके वजह से लोगों को आने जाने में अत्यधिक असुविधाओं का सामना करना पड़ता है, यहां के लोग जंगली रास्ते से जाने को मजबूर हैं जहां छीन झपट और छेड़खानी की घटना आम बात है। कैम्प में लोगों के शौच के लिए एक ही सुलभ शौचालय की व्यवस्था है जो यहां इतनी बड़ी आबादी की आवश्यकता की पूर्ति करने में अक्षम है।

कहा जाता है कि बच्चे ही देश एवं समाज का भविष्य होते हैं और अगर इन बच्चों को विकास का मौका न दिया जाय तो राष्ट्र और समाज का विकास अवरूद्ध हो जाता है। परन्तु यहां के बच्चों के शिक्षा के लिए यहां कोई प्राथमिक विद्यालय भी नहीं है जिसमें बच्चे पढ़ सकें। मजबूरन शिक्षार्थ बच्चों को दूर मदनपुर खादर जाना पड़ता है जहां कि उन्हें उपेक्षा का पात्र समझा जाता है। कैम्प में तो लोगों को घूमने और बच्चों को खेलने के लिए पार्क की भी व्यवस्था नहीं है। जो भी पार्क हैं कूड़ों के ढेर से भरे पड़े हैं जो कि स्वास्थ्य के बदले कुस्वास्थ्य के कारक बने हुए हैं।

यहां कि जनता विभिन्न प्रकार के समस्याओं से ग्रसित है जनप्रतिनिधि इससे बेखबर चैन की नींद ले रहे हैं यह सत्तालोसुप राजनेतागण के लिए तथा आम जन के लिए शर्मनाक बात है। और दिल्ली सरकार अपने आप को आम जन की सरकार विकास की सरकार ईमानदार सरकार होने का ढिढोरा पीट रही है यह हास्यास्पद नहीं तो और क्या है? मेरा इन सत्तालोलुप राजनेताओं से कहना है कि अब भी समय है क्षेत्र के विकास हेतु जमीनी स्तर पर कार्यशील हों और झूठ मूठ का ढिढोरा पीटना बन्द करें अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब जनता के आक्रोश का सैलाब उमड़ेगा और तमाम सत्तालोलुप राजनीतिक दल उसमें बह जाएंगे।

गणपरास से मिली पहचान

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जानकी देवी एक खास किस्म के कीटनाषी की खोजकर्ता हैं। हाल में ही राश्ट्रीय नवप्रवर्तन संस्थान की ओर से पंाचवा राश्ट्रीय तृणमूल प्रोद्योगिकी नव प्रवर्तन एवं पारंपरिक ज्ञान पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया। वैसे जानकी खुद को इसका खोजकर्ता नहीं बताती हैं, वह कहती हैं- ‘इस तरह का ज्ञान हमारी प्रकृति में भरा पड़ा है। जरुरत है, उसे समझने और महसूस करने की।’ जानकी अधिक पढ़ी-लिखी नहीं हैं। इसलिए वे कीताबी बातें नहीं करती। उन्होंने सारा ज्ञान अपने अनुभव से हासिल किया है। वह बिहार के बेतिया की रहने वाली हैं।
JANKI DEVI PATNA जानकी देवी

JANKI DEVI |जानकी देवी

जानकी देवी द्वारा तैयार किया गया कीटनाषी बनाना बेहद सरल है। इस कीटनाषी को तैयार करने के लिए कनैल का बीज एक किलो चाहिए, इसके साथ में गणपरास एक किलो। पहले इन दोनों को आपस में अच्छी तरह मिला लें। उसके बाद गणपरास और कनैल के बीज के मिश्रण में पांच लीटर पानी मिलाएं और इसे पांच दिनों के लिए छोड़ दीजिए। पांचवे दिन इसका पानी निकाल कर खेतों में डालिए। जानकी देवी के बताए इस नुस्खे के माध्यम से जैविक पद्धति से उम्दा कीटनाषी तैयार किया जा सकता है। इसका छीड़काव खेतों में महीने में चार बार करना चाहिए। इससे छीड़काव का लाभ आपको दिखने लगेगा। कीटनाषी के संबंध में यह भी बताया गया कि ख्ेातों में उगने वाले खरपतवार को नश्ट करने में भी यह कीटनाषी मददगार हो सकता है।

इस कीटनाषी के मारक क्षमता को समझने की कहानी बेहद दिलचस्प है, जानकी देवी के अनुसार, उन दिनों वे अपने मायके साठी (पष्चिम चम्पारण) में थीं। वहां घर के पास ही बैंगन, करेला, खीरा लगाया गया था। इनमें से कुछ सब्जियों पर कीड़े लग गए थे। इन्हीं कीड़ों को हटाने के लिए पास ही लगे गणपरास को उठाकर जैसे ही जानकी देवी ने उन कीड़ों को हटाने की कोषिष की। उस समय जिस-जिस कीड़े को गणपरास ने छुआ, वे वहीं चारों खाने चीत हो गया। इस तरह जानकी देवी उस गणपरास की ताकत को समझ पाई।
पुरस्कार के संबंध में जब उनसे बात हुई, उन्होंने बेहद भोलेपन से कहा- ‘पुरस्कार के लिए जब बृजकिषोर बाबू हमारे पास फाॅर्म भरवाने आए तो मुझे हंॅसी आ गई। विष्वास ही नहीं हुआ कि इस काम के लिए भी पुरस्कार मिल सकता है।’
सच्चाई यही है, हमारे गांवों में खोजी लोगों की कमी नहीं है, जरुरत है उनके काम को सही दिषा देने की। यदि हमारे समाज में बिखरे पारंपरिक ज्ञान को ही हम सहेज पाए या उसका दस्तावेजीकरण कर पाए तो इसे भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं कही जाएगी।

हाॅकी से बदल रहा कस्बा

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वर्ष 2009 शाहबाद के लोगोें के लिए थोड़ा खास रहा क्योंकि इसी कस्बे को महिला हाॅकी के मानचित्र पर ऊंचाई तक पहुंचाने वाले कोच बलदेव सिंह को इसी साल गुरू द्रोणाचाय अवार्ड मिला और उनके साथ ही उनकी शिष्या और उस वक्त भारतीय हाॅकी टीम की कप्तान सुरिन्दर कौर को अर्जून अवार्ड से सम्मानित किया गया।
कोच बलदेव सिंह

कोच बलदेव सिंह

वास्तव में राष्ट्रीय महिला हाॅकी टीम की बात की जाए और शाहबाद (कुरुक्षेत्र) का नाम ना आए, यह कैसे हो सकता है? हरियाणा के इस अंजाने से कस्बे से अब तक दो दर्जन से अधिक अंतरराष्ट्रीय महीला खिलाड़ी तैयार हुईं हैं। उस दिन को यह कस्बा अभी भी नहीं भूला जब हांगकांग में आयोजित एशियन गेम्स में महिला हाॅकी टीम में शामिल ग्याहरह में से छह खिलाड़ी (सुरिन्दर कौर, राजविन्दर कौर, जाॅयदीप कौर, सुमन बाला, ऋतु बाला और जसजीत कौर) इसी कस्बे से थीं। शाहबाद के लोगों का मानना है कि यदि टीम में चयन का आधार सिर्फ योग्यता हो तो पूरी टीम शाहबाद की लड़कियों से ही तैयार हो जाएगी।

30 हजार की आबादी वाले इस छोटे से गांव से निकले कई खिलाड़ियों के माता-पिता को यह तक पता नहीं था कि यह हाॅकी किस बला का नाम है। गोल मशीन के नाम से प्रसिद्ध शाहबाद की सुरिन्दर कौर के पिता ने एक पत्रकार सम्मेलन में कहा – ‘जब मेरी बेटी ने हाॅकी खेलना शुरू किया, उस वक्त मुझे पता ही नहीं था कि हाॅकी वास्तव में होता क्या है?’
शाहबाद की हाॅकी टीम को जिस एक व्यक्ति ने अपनी लगन, परिश्रम और निष्ठा से संवारा है, उसका नाम बलदेव सिंह है। जब वे 1982 मंे वे कुरुक्षेत्र आए थे, उस वक्त कोई यहां हाॅकी को जानने वाला नहीं था। उन्होंने बच्चों की तलाश शुरू की। बकौल बलदेव सिंह- ‘शुरूआत में हाॅकी के लिए कोई अपने बच्चों को देने के लिए तैयार नहीं था।’
उस दौर में उन्होंने बच्चों की एक टीम बनाई नाम रखा गया नामधारी। अभी टीम ने आकार भी नहीं लिया था, 1986 जून में  उनका तबादला सिरसा (जीवनगर) कर दिया गया। सन् 1992 में वे फिर एक बार शाहबाद लौटें। इस बार उन्होंने टीम के लिए 20 लड़कियांे का चयन किया। जिनकी उम्र 10 साल से कम थी। अभ्यास कठीन था। सुबह 5 से 8ः30 तक का अभ्यास। उसके बाद लड़कियां स्कूल चली जाती थीं। स्कूल से लौटकर 2ः30 से अंधेरा होने तक अभ्यास करना होता था। कठीन परिश्रम की वजह से बहुत सी लड़कियां बीच में ही अभ्यास का साथ छोड़ गईं। शाहबाद की हाॅकी टीम में शामिल लगभग सभी लड़कियां गरीब पृष्ठभूमि की रहीं हैं। इसलिए बलदेव सिंह ने हमेशा बच्चों के खाने पीने का ख्याल रखा है; क्योंकि श्री सिंह का अपना मानना है कि अच्छा खिलाड़ी बनने के लिए, अच्छी सेहत की जरुरत है और अच्छी सेहत के लिए अच्छी खुराक का होना बेहद जरुरी है।
भारतीय महीला टीम को मिली लगातार जीत ने और खिलाड़ियों को मिलने वाले स्काॅलर शिप से कई खिलाड़ियों की गरीबी दूर हुई है। इसका एक अच्छा उदाहरण सुमन बाला है। सुमन बाला के पिता एक मामुली किसान थे। आज सुमन के पास एक अच्छा मकान है। उसका भाई विदेश में पढ़ाई कर रहा है। वैसे सभी के अनुभव अच्छे हांे ऐसा भी नहीं है, शाहबाद टीम की ही खिलाड़ी रानी रामपाल भी हैं। जिनका स्थान दुनिया भर के श्रेष्ठ ग्यारह महिला खिलाड़ियों में एक है। इतनी अच्छी खिलाड़ी होने के बाद उन्हंे रेलवे में जो नौकरी मिली है, उसे लेकर रानी के परिचितों में रोश है। शाहबाद के एक स्थानीय नागरिक ने प्रश्न पूछने के अंदाज में कहा- देश का सिर सम्मान से दुनिया भर में ऊंचा करने वाली लड़की को बारह-चैदह हजार रुपए की नौकरी दी जाए, क्या यह अन्याय नहीं है?
हाॅकी टीम से जुड़ी एक खिलाड़ी के अनुसार शाहबाद की हाॅकी टीम मंे पैरवी की बदौलत किसी को दाखिला नहीं मिलता। सभी अपनी प्रतिभा की बदौलत यहां आएं हैं। कोई खिलाड़ी यदि अपनी तिकड़म की बदौलत यहां आ भी जाए तो लंबे समय तक टीक नहीं सकती। क्योंकि यहां अभ्यास के दौरान कमर तोड़ श्रम अनिवार्य है, जो सबके बस की बात नहीं है। शाहबाद के लोग इस बात को भली प्रकार से स्वीकार करते हैं कि अंतरराष्ट्रीय महिला हाॅकी की टीम के नक्शे पर यदि आज शाहबाद का नाम केन्द्र में है तो वह बलदेवजी की वजह से है। दो साल पहले उनके प्रशंसकों को उस वक्त बेहद खुशी  मिली जब उन्हें द्रोणाचार्य पुरस्कार के लिए चुना गया। इस बात की मांग लंबे समय से खेल प्रेमी करते रहे थे।
एक और खास बात जो इस टीम से जुड़ी है, इस टीम में खेलने वाली सभी लड़कियां इसी शाहबाद से ही हैं। वैसे अब राज्य के दूसरे हिस्सों से ही नहीं, बल्कि पंजाब और दिल्ली तक से अभिभावकों के फोन बलदेवजी तक आते हैं कि हमारे बच्चे को अपनी टीम में शामिल कर लीजिए।

मोती बैगा तुम्हे सलाम….

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मोती बैगा छत्तीसगढ़ के नए बने जिले मुंगेली से ताल्लुक रखते हैं। लोरमी प्रखंड के मजुरहा गांव में जहां सरकार की चिकित्सकीय सेवा और एम्बुलेन्स भी नहीं पहुंचता । सरकार और मोबाइल दोनों के नेटवर्क से जो गांव बाहर है, ऐसे गांव में मोती का मोटर साइकिल एम्बुलेन्स का काम कर रहा है। मतलब गांव वालों को मोती वह सुविधा उपलब्ध करा रहा है, जो इसे सरकार भी उपलब्ध नहीं करा पाई। यहां गौरतलब है कि मोती के गांव मजुरहा से लोरमी अस्पताल बीस किलोमीटर दूर है और मोती ना सिर्फ मजुरहा बल्कि जरूरत पड़ने पर आस पास के लोगों को भी अस्पताल तक लेकर जाते हैं क्योंकि इनके गांव तक एम्बुलेन्स नहीं आती। जब गांव के लोग नेटवर्क में पहुंच कर फोन करते हैं तो अस्पताल जरूर आष्वासन देता है कि एम्बुलेन्स भिजवा रहे हैं लेकिन वह आती नहीं।
MOTI BAIGA SATH ME SUNIL BHAI

MOTI BAIGA SATH ME SUNIL BHAI

एम्बुलेन्स ना आने के राज से पर्दा हटाया सामाजिक गांधीमार्गी कार्यकर्ता रष्मि ने। वे बिलासपुर और उसके आसपास बैगाओं के अधिकारों के लिए लंबे समय से संघर्शरत हैं।  बकौल रष्मि यहां दर्जनों गांव ऐसे हैं, जहां एम्बुलेन्स की सेवा नहीं पहुंच रही है। कई मामले हुए जिसमेें एम्बलेन्स के अभाव में लोगों की जान भी गई है। रष्मि सवाल उठाती हंै, एक तरफ बैगाओं की जनसंख्या को लेकर सरकार चिन्तित नजर आती है और उनके बीच नसबंदी को भी प्रतिबंधिति कर दिया जाता है और दूसरी तरफ उनके स्वास्थ्य को लेकर किसी प्रकार की चिन्ता सरकार में नजर नहीं आती। कवर्धा तो मुख्यमंत्री रमण सिंह का गृह जिला है, वहां भी बैगाओं की जिन्दगी अन्य जिलों से बेहतर नहीं है। एम्बुलेन्स की सेवा सिर्फ उन्हीं गांव के लिए है जहां मोबाइल का नेटवर्क है। मोबाइल का नेटवर्क खत्म सेवा खत्म। सरकार को चाहिए कि वह या तो जंगलों में मोबाइल का टावर पहुंचा दे या फिर जंगल में रहने वालों के स्वास्थ्य की भी चिन्ता करे।
मोती बातचीत में कहते हैं, हमारा पूरा क्षेत्र नक्सल से मुक्त रहा है। वर्शों से सरकारी उपेक्षा, पलायन और सरकारी विस्थापन की मार झेल रहे गांव वालांे के बीच आक्रोष है। कहीं ऐसा ना हो इनमें से भी कुछ लोग गलत रास्ते पर निकल जाएं।
यहां गौरतलब है कि जिन इलाकांे में मोबाइल का नेटवर्क नहीं होता वहां एम्बुलेन्स जाने को तैयार नहीं होते हैं। ऐसे में यह लाभ सिर्फ सड़क के किनारे रहने वाले लोगों को मिल रहा है।
सड़क से पांच सात किलोमीटर दूर जंगल के गांवांे में जाने को ना ही एम्बुलेन्स और ना ही गैर सरकारी और सरकारी संस्थाएं तैयार हैं। कुल मिलाकर सभी संस्थाएं समाज सेवा सड़क के किनारे-किनारे ही करना चाहती हंैं। ऐसे में जो गांव सड़क से दूर हैं, वहां रहने वाले लोग बीमारी की स्थिति में ईलाज के अभाव में मरने के लिए मजबूर हैं।
मोती बैगा का काम मजूरहा में इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उनकी तत्परता की वजह से कई जाने बची हैं। वह मरीजों को अक्सर मोटर साइकिल पर बिठाकर लोरमी अस्पताल तक छोड़ कर आता है। उसकी पुरानी मोटर साइकिल लोरमी और उसके आस पास के गांवों मंे एम्बुलेन्स के तौर पर इस्तेमाल हो रही है।
मजूरहा के गौतू बैगा की बीमारी किसी को समझ नहीं आ रही थी। उसका भाई झंगल बैगा कुछ समझ नहीं पा रहा था। पिता की मृत्यु के बाद परिवार की जिम्मेवारी बड़े भाई पर ही थी। झंगल ने बताया कि पिछले कुछ समय से उसका भाई बिल्कुल कमजोर होता जा रहा है। षरीर सुखता जा रहा है। अस्पताल फोन करवाने पर एम्बुलेन्स के लिए सिर्फ आष्वासन ही आता है। प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र जैसी कोई चीज गांव के आस पास नहीं है। मरीज को लेकर लोरमी अस्पताल जाना होगा, जो बीस किलोमीटर है। यह बात चल ही रही थी कि मोती बैगा अपनी मोटर साइकिल के साथ आ गए। गौतू बैगा की हालत उठने वाली नहीं थी लेकिन किसी तरह उन्हें उठाकर मोटर साइकिल पर बिठाया गया और फिर मोती बैगा उसे अपने साथ लेकर बीस किलोमीटर की यात्रा पर निकल गए।
इतने कम संसाधनांे के साथ गांव वालों की मदद कर रहे मोती बैगा से राज्य की सरकारों को सबक लेना चाहिए, जो सभी तरह से सम्पन्न होकर भी अपने संसाधनों का रोना रोते रहते हैं। मोती का काम वाकई काबिले सलाम है।

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