अंग्रेज अधिकारी चार्ल्स रैंड को गोली मारी थी : पूरा परिवार राष्ट्र संस्कृति और स्वत्व रक्षा केलिये समर्पित

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दामोदर हरि चाफेकर एक ऐसे क्राँतिकारी थे जिनका पूरा परिवार राष्ट्र और संस्कृति रक्षा केलिये बलिदान हुआ तीन भाइयों को तो फाँसी हुई । उनका संघर्ष सत्ता केलिये नहीं था । समाज और संस्कृति की रक्षा के लिये था । इसी वातावरण में उनका जन्म हुआ और इसी में बलिदान

बलिदानी दामोदर हरि चाफेकर का जन्म 25 जून 1869 को पुणे के ग्राम चिंचवड़ में हुआ । पीढियों से उनका परिवार भारतीय सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठपना में समर्पित था । पिता हरिपंत चाफेकर एक सुप्रसिद्ध कीर्तनकार थे । दामोदर उनके ज्येष्ठ पुत्र थे । उनके दो छोटे भाई बालकृष्ण चाफेकर एवं वसुदेव चाफेकर थे। बचपन से ही तीनों भाइयों ने पिता के साथ संकीर्तन में जाना आरंभ किया और प्रसिद्धी भी मिली । इस परिवार के पूर्वजों ने शिवाजी महाराज के हिन्दु पद्पादशाही की स्थपना से लेकर बाजीराव पेशवा तक अनेक युद्धों में सहभागिता की थी, बलिदान भी हुये । पूर्वजों की वीरता की कहानियाँ तीनों भाई घर में बहुत चाव से सुनते थे । जिन्हे सुनकर तीनों के मन में परतंत्र शासन की ज्यादतियों के प्रति गुस्सा और स्वाभिमान संपन्न स्वशासन की ललक जाग्रत हो गई। ऐसी ही कहानियाँ सुनकर दामोदर के मन में भी सैनिक बनने की इच्छा जाग्रत हो गई। समय के साथ बड़े हुये और महर्षि पटवर्धन तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के संपर्क में आये । उनके संपर्क से संकल्प शक्ति और कार्य योजना जाग्रत हुई ।

तिलकजी की प्रेरणा से दामोदर जी ने युवकों को संस्कारित और एक संगठित करने का बीड़ा उठाया और व्यायाम मंडल के नाम से एक संस्था तैयार की । दामोदर के मन में ब्रिटिश सत्ता के प्रति कितना गुस्सा था इसका अनुमान इस एक घटना से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने मुम्बई में रानी विक्टोरिया के पुतले पर तारकोल पोतकर गले में जूतों की माला पहना दी थी । समाज में स्वत्व और स्वाभिमान का भाव जाग्रत करने के लिये तीनों भाइयों ने बालवय में 1894 पूना में प्रति वर्ष शिवाजी एवं गणपति समारोह का आयोजन प्रारंभ कर दिया था। इन समारोहों में वे संस्कृत के श्लोकों में शिवाजी महाराज की गाथा सुनाया करते थे । इनमें शिवाजी महाराज की कीर्ति का तो गान होता ही साथ ही इन श्लोकों के माध्यम से समाज में ओज जाग्रत करने का काम करते थे । यह संदेश देते थे कि स्वाधीनता नाचने गाने से प्राप्त नहीं की जा सकती । स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि शिवाजी और पेशवा बाजीराव की भाँति काम किए जाएं| आज हर भले आदमी को तलवार और ढाल पकड़ने की आवश्यकता है भले इसमें प्राणों का उत्सर्ग हो जाये । एक श्लोक में तो यहाँ तक आव्हान था कि धरती पर उन दुश्मनों का ख़ून बहा देंगे, जो हमारे धर्म का विनाश कर रहे हैं। हम तो मारकर मर जाएंगे । ऐसे अनेक आव्हान थे । गणपतिजी के श्लोक में धर्म और गाय की रक्षा करने का आव्हान था । अधिकांश दामोदर और उनके पिता द्वारा रचित थे । एक श्लोक का अर्थ था कि “ये अंग्रेज़ कसाइयों की भाँति हमारी गायों और उनके बछड़ों को मार रहे हैं । गौमाता संकट से मुक्ति की पुकार लगा रही है” वीर बनों, वीरता दिखाओ धरती पर बोझ न बनो आदि । तभी 1897 में प्लेग की बीमारी फैली । पुणे भी उन नगरों में से था जहाँ इस बीमारी ने कोहराम मचा दिया । फिर भी अंग्रेजों की वसूली न रुकी । पीड़ित और बेबस लोगों पर अंग्रेजों के अत्याचार कम न हुये । उन दिनों पुणे में वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट नामक ये दो अधिकारी तैनात थे । इन दोनों लोगों को जबरन पुणे से निकाल कर बाहर करने लगे ताकि वहाँ रहने वाले अंग्रेज परिवारों में संक्रमण का खतरा न रहे । इनके आदेश पर पुलिस जूते पहनकर ही हिन्दुओं के घरों में घुसती न पूजा घर की मर्यादा बची न रसोई घर की । प्लेग पीड़ितों की सहायता की बजाय उन्हे और प्रताड़ित किया जाने लगा । ये तीनों चाफेकर बंधु परिस्थिति से आहत हुये और मन ही मन इसका उपचार खोजने लगे । समाधान समझने के लिये एक दिन तीनों भाई तिलक जी के पास पहुँचे। तिलक जी ने इन तीनों चाफेकर बन्धुओं से कहा- “शिवाजी महाराज ने अत्याचार सहा नहीं था पूरी शक्ति और युक्ति से विरोध किया था । किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में कोई कुछ न कर रहा । वस इसी दिन से तीनों क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। तीनों अपने शब्दों और स्वर से क्राँति की अलख तो जगा ही रहे थे । अब इसके बाद तीनों भाइयों ने स्वयं ही सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग अपना लिया। संकल्प लिया कि समाज को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति दिलाकर रहेंगे ।

वह 22 जून 1897 का दिन था । पुणे के “गवर्नमेन्ट हाउस’ में महारानी विक्टोरिया की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी जा रही थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट भी शामिल हुए। दामोदर हरि चाफेकर और उनके भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर भी एक दोस्त विनायक रानडे के साथ वहां पहुंच गए और इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे। रात लगभग सवा बारह बजे रैण्ड और आयर्स्ट निकले । दोनों अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर रवाना हुये । योजना के अनुसार तुरन्त दामोदर हरि चाफेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे चढ़ गये और उसे गोली मार दी । उधर उनके छोटे भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर ने भी आर्यस्ट पर गोली चला दी। आयर्स्ट तो तुरन्त मर गया, किन्तु रैण्ड घायल हुआ जिसने तीन दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ा। इससे जहाँ पुणे की उत्पीड़ित जनता चाफेकर-बन्धुओं की जय-जयकार कर उठी। वहीं पूरी अंग्रेज सरकार बौखला गई। दोनों चाफेकर बंधुओं को पकड़ने के लिये एक एक घर की तलाशी हुई । इनसे संबंधित परिवारों पर अत्याचार हुये पर दोनों बंदी न बनाये जा सके ।

इन्हें पकड़ने के लिये गुप्तचर अधीक्षक ब्रुइन ने इनकी सूचना देने वाले को २० हजार रुपए का पुरस्कार देने की घोषणा कर दी । चाफेकर बन्धुओं के युवा संगठन में गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंन्द्र द्रविड़ नामक दो भाई भी जुड़े थे । इन दोनों ने पुरस्कार के लोभ में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चाफेकर बन्धुओं का पता दे दिया। इस सूचना के बाद दामोदर हरि चाफेकर तो पकड़ लिए गए, पर बालकृष्ण हरि चाफेकर निकलने में सफल हो गये और पुलिस के हाथ न लगे। सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चाफेकर को फांसी की सजा दी । उन्होंने मन्द मुस्कान के साथ यह सजा सुनी। कारागृह में उनसे मिलने जाने वालों में तिलक जी भी थे । तिलक जी ने उन्हें “गीता’ प्रदान की। उन्हें 18 अप्रैल 1898 को प्रात: फाँसी दी गई। वे “गीता’ पढ़ते हुए फांसी घर पहुंचे और गीता हाथ में लेकर ही फांसी के तख्ते पर झूल गए। दामोदर चाफेकर को बलिदान हुये आज सवा सौ साल हो गये तो पर वे पुणे के लोक जीवन में आज जीवन्त हैं।

तीन विश्व धरोहर स्थलों वाला आगरा कब पाएगा अपना हक?

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आगरा: विश्व धरोहर दिवस (18 अप्रैल) के अवसर पर, आगरा हेरिटेज ग्रुप ने एक बार फिर आगरा को “ग्लोबल हेरिटेज सिटी” का दर्जा दिए जाने की मांग दोहराई है। समूह ने जोर देकर कहा कि *ताजमहल, आगरा किला और फतेहपुर सीकरी* जैसे तीन यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों के साथ-साथ ऐतिहासिक स्मारकों और सांस्कृतिक परंपराओं की समृद्ध विरासत होने के बावजूद, आगरा को यह प्रतिष्ठित दर्जा अभी तक नहीं मिला है।

अपने प्रयासों के तहत, कोरल ट्री होमस्टे में एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें प्रमुख विरासत कार्यकर्ता श्री ब्रज खंडेलवाल, डॉ. मुकुल पांड्या, श्री गोपाल सिंह और श्री मेहरान उद्दीन ने भाग लिया। उपस्थित लोगों ने आगरा की समृद्ध विरासत के सामने मौजूद चुनौतियों पर चर्चा की और शहर की वास्तुकला, ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक पहचान को सुरक्षित रखने के लिए समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता पर जोर दिया।

आगरा हेरिटेज ग्रुप के सदस्यों ने चिंता जताई कि अतिक्रमण बढ़ने, यमुना की बिगड़ती हालत और स्थानीय लोगों में अपनी विरासत के प्रति जागरूकता की कमी के कारण इस ऐतिहासिक शहर की पहचान धीरे-धीरे खत्म हो रही है।

बृज खंडेलवाल ने पूछा “अगर जयपुर और अहमदाबाद जैसे शहरों को उनकी सांस्कृतिक विरासत के आधार पर विश्व धरोहर शहर का दर्जा मिल सकता है, तो आगरा क्यों पीछे रहे? ताजमहल का शहर सिर्फ एक पर्यटन केंद्र नहीं, बल्कि भारत की समग्र संस्कृति का एक अनूठा उदाहरण है।”

यमुना की हालत पर चिंता

डॉ मुकुल पांड्या ने यमुना नदी की स्थिति पर भी चिंता जताई , जो कभी आगरा की जीवनरेखा हुआ करती थी, लेकिन अब प्रदूषण और उपेक्षा का शिकार है। इसका सीधा असर आगरा की विरासत और पर्यावरण दोनों पर पड़ रहा है।

आगरा हेरिटेज ग्रुप की मांगें क्या हैं?

– आगरा को “हेरिटेज सिटी” का दर्जा दिया जाए।
– यमुना की सफाई और संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाए जाएं।
– पुरानी इमारतों और बाजारों का पुनरुद्धार किया जाए।
– नागरिकों में अपनी विरासत के प्रति गर्व और जिम्मेदारी की भावना जगाई जाए।
– विरासत-आधारित पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए।
समूह ने केंद्र और राज्य सरकारों से इस दिशा में त्वरित और ठोस कार्रवाई करने का आग्रह किया है, ताकि आगरा आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सांस्कृतिक धरोहर बना रहे।

आज की नारी किसी से कम नहीं

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दिल्ली। ‘नीला ड्रम’, ‘सीमेंट बैग’, और ‘सांप’ के काटने की साज़िश”—ये कोई थ्रिलर उपन्यास की कहानियाँ नहीं, बल्कि हाल के वर्षों में भारत की शहरी हकीकत में घटित चौंकाने वाले आपराधिक मामले हैं। और समानता? इन सभी में पत्नियाँ, अपने प्रेमियों की मदद से, अपने पतियों की हत्या की दोषी पाई गईं।

हाल के कुछ ऐसे वाक़्यात सामने आए हैं जिनमें पत्नियों ने अपने शौहरों से छुटकारा पा लिया, जिसने खतरे की घंटी बजा दी है क्योंकि हिंदुस्तानी शादियों की मज़बूती और पवित्रता खतरे में नज़र आ रही है। ऐसे मामलों में एक चिंताजनक इज़ाफ़ा देखा जा रहा है जहाँ औरतें, अक्सर अपने आशिकों की मिलीभगत से, अपने शौहरों के खिलाफ घरेलू हिंसा के कामों में शामिल रही हैं। यह परेशान करने वाला रुझान धोखे और साज़िश के एक पेचीदा खेल को उजागर करता है, जहाँ शौहर को रास्ते से हटाने के लिए जज़्बाती और जिस्मानी तौर पर ज़ुल्म किया जाता है। औरतें, जो ज़हरीले रिश्तों में फँसी हुई महसूस करती हैं या आर्थिक फ़ायदे की तलाश में हैं, इन हिंसक हरकतों की प्लानिंग और अंजाम देने के लिए अपने करीबी रिश्तों का नाज़ायज़ फ़ायदा उठा सकती हैं।

सामाजिक टिप्पणीकार प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी कहते हैं, “ऐसे वाक़्यात एक सोची-समझी रणनीति के तहत होते हैं, जिसमें आशिक मदद, हौसला-अफ़ज़ाई, या यहाँ तक कि सीधे तौर पर ज़ुल्म में शरीक होते हैं। इसके गहरे असर होते हैं, जिससे न सिर्फ शौहरों को जिस्मानी नुक़सान पहुँचता है बल्कि बर्दाश्त की सीमा से बाहर जज़्बाती ज़ख़्म और समाजी दाग भी होते हैं। ये वाक़्यात घरेलू हिंसा की रिवायती सोच को चुनौती देते हैं, यह बताते हुए कि ज़ुल्म कई मुख्तलिफ शक्लों में हो सकता है और ताक़त और कंट्रोल की डायनामिक्स सिर्फ एक ही तक सीमित नहीं है।”

बदलते हुए रहन-सहन, शहरीकरण की वजह से, भारत का सामाजिक ढाँचा, जो लंबे अरसे से रिवायत, ज्वाइंट परिवारों और मर्द-प्रधान रवैयों के धागों से बुना गया था, एक बड़ी तब्दीली से गुज़र रहा है। पुरातन ख़ानदानी निज़ाम, जो कभी सामाजिक स्थायित्व का स्तंभ था, आधुनिक दबावों के आगे कमज़ोर पड़ रहा है। इनमें से एक परेशान करने वाला पहलू घरेलू हिंसा के उन मामलों में तेज़ी है जहाँ शौहर, पत्नियाँ नहीं, ज़ुल्म का शिकार होते हैं—अक्सर गैर-मर्दाना ताल्लुकात में रुकावट के तौर पर उन्हें निशाना बनाया जाता है।

सामाजिक विचारक आरईसी. पांडे के मुताबिक, यह फेनोमेनन, दहेज-मुतालिका कानूनों के नाज़ायज़ इस्तेमाल, तलाक़ के इर्द-गिर्द समाजी बदनामी के कम होने और न्यूक्लियर परिवारों पर दबाव के साथ मिलकर, ताक़त के ढाँचों के एक पेचीदा पुनर्गठन का इशारा देता है।

हाल के वाक़्यात इस खतरनाक रुझान को उजागर करते हैं। अप्रैल 2025 में, मेरठ में एक दिल दहला देने वाली घटना ने पूरे मुल्क को हैरत में डाल दिया: एक औरत, जो एक गैर-मर्दाना ताल्लुक़ में उलझी हुई थी, ने कथित तौर पर अपने शौहर का गला घोंट दिया और इसे साँप के काटने का मामला बताने की कोशिश की। इससे पहले उसी इलाके में कुख्यात “नीला ड्रम” वाक़या हुआ था, जहाँ एक औरत और उसके आशिक ने उसके शौहर का क़त्ल कर दिया, उसकी लाश को एक नीले ड्रम में ठूँस दिया और अपने रिश्ते को छुपाने के लिए उसे ठिकाने लगा दिया। इसी तरह, सीमेंट के बोरों में बंद लाशों की खबरें सामने आई हैं—सबूत मिटाने की एक भयानक तरकीब—जिसे “सीमेंट बैग सिंड्रोम” का नाम दिया गया है।

ये वाक़यात एक पैटर्न को उजागर करते हैं: फाइनेंशियल आजादी और बदलते समाजी रस्मों-रिवाजों से हौसला अफ़ज़ाई पाने वाली औरतें, ज़्यादा से ज़्यादा मुजरिम के तौर पर शामिल पाई जा रही हैं, और शौहर उनके गैर-मर्दाना ताल्लुकात की खोज में ज़ाया हो रहे हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं, “औरतों का सशक्तिकरण, कई क्षेत्रों में एक कामयाबी होने के बावजूद, इसका एक स्याह पहलू भी है। माली आज़ादी और शहरी जीवनशैली ने औरतों को ज़्यादा इंडिपेंडेंस दी है, लेकिन कुछ मामलों में, इसने धोखेबाज़ या हिंसक रवैये का रूप ले लिया है। ठुकराए हुए आशिक, अक्सर मिलीभगत करते हैं, हालात को और बिगाड़ देते हैं, और उन औरतों के साथ एक घातक गठजोड़ बना लेते हैं जो अपने शौहरों को रास्ते से हटाना चाहती हैं।”

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (NCRB) के 2022 के आँकड़ों में पहले से ही मर्दों के खिलाफ अपराधों में इज़ाफ़ा देखा गया है, हालाँकि इस तरह की लक्षित हिंसा के खास आँकड़े समाजी बदनामी और कानूनी पूर्वाग्रहों के कारण कम रिपोर्ट किए जाते हैं। मर्दों के हुक़ूक़ के कार्यकर्ता तर्क देते हैं कि भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए जैसे कानून, जो औरतों को दहेज से जुड़ी क्रूरता से बचाने के लिए बनाए गए हैं, अक्सर शौहरों और उनके परिवारों को परेशान करने के लिए नाज़ायज़ तौर पर इस्तेमाल किए जाते हैं। एक सरकारी रिपोर्ट में पाया गया कि दूसरे कानूनों के मुकाबले 498ए का कोई गैर-मुनासिब इस्तेमाल नहीं हुआ, फिर भी हाई-प्रोफाइल मामले हथियारबंद कानून की धारणा को बढ़ावा देते हैं, जिसमें निजी स्कोर बराबर करने या तलाक़ में तेज़ी लाने के लिए झूठे इल्ज़ाम लगाए जाते हैं।

शिक्षाविद् टी.पी. श्रीवास्तव कहते हैं, “संयुक्त परिवार, जो कभी वैवाहिक कलह के खिलाफ एक ढाल थे, अब जंग के मैदान बन गए हैं। माँ-बाप, जो झगड़ों में सुलह कराने के आदी थे, खुद को किनारे या बदनाम पाते हैं। एकल परिवारों और व्यक्तिवादी मूल्यों के बढ़ने से उनका अधिकार कमज़ोर हो गया है, जिससे उन्हें सशक्त बहुओं या ज़हरीली शादियों में फँसे बेटों से जुड़े झगड़ों से निपटने में मुश्किल हो रही है।

चक्र पूरा हो गया है, एक बुजुर्ग माँ उमा वेंकटेश ने आधुनिक पारिवारिक गतिशीलता को संभालने की थकान का वर्णन करते हुए अफसोस ज़ाहिर किया, जहाँ रिवायती किरदार अब मायने नहीं रखते।

सोशल एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर कहती हैं, “हमने बेटों की खुशियाँ देखी थीं, अब बहुओं के वकीलों से डरते हैं। हमारे समय में रिश्ते टूटते नहीं थे, अब अदालतों में लाइनें लगी रहती हैं। अब तलाक एक सामाजिक अपराध नहीं रहा, लेकिन यह आज़ादी दोधारी तलवार है। कहीं यह मुक्ति है, तो कहीं इसे निजी दुश्मनी निकालने का हथियार भी बना लिया गया है।”

टी. सुब्रमण्यन, एक रिटायर्ड बैंकर कहते हैं, “तलाक़, जो कभी एक समाजी ऐब था, अब तेज़ी से आम होता जा रहा है। वह बदनामी जिसने कभी औरतों को ज़ालिम शादियों से निकलने से रोका था, अब फीकी पड़ गई है, लेकिन यह आज़ादी दोधारी तलवार है। यह औरतों को नाखुश रिश्तों से निकलने में मदद करती है, लेकिन कुछ को कानूनी कमज़ोरियों का फायदा उठाने या रिश्ते तोड़ने के लिए इंतहाई कदम उठाने का हौसला भी देती है।”

एनसीआरबी के आँकड़ों के मुताबिक, 2017 से 2022 तक तलाक़ के मुकदमों में 33.9% की तेज़ी इस बदलाव को दर्शाती है। अदालतें मुकदमों से भरी पड़ी हैं, और “मर्द बनाम औरत” की कहानी कानूनी मदद की कमी और दोषपूर्ण जाँच जैसे सिस्टमिक मुद्दों पर पर्दा डालती है।

इस समस्या से निपटने के लिए बारीकी की ज़रूरत है। कानूनी सुधारों में औरतों के लिए हिफाज़त और नाज़ायज़ इस्तेमाल के खिलाफ सुरक्षा उपायों के बीच संतुलन बनाना होगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि किसी भी जेंडर को नाइंसाफी से निशाना न बनाया जाए।

सामाजिक कार्यकर्ता राजीव गुप्ता सुझाव देते हैं, “भारतीय समाज बदलाव के दौर से गुजर रहा है। जहाँ एक ओर महिलाएँ नई ऊँचाइयों को छू रही हैं, वहीं कुछ घटनाएँ हमें सचेत करती हैं कि सशक्तिकरण के साथ जिम्मेदारी भी ज़रूरी है। घरेलू हिंसा सिर्फ एक तरफ़ा कहानी नहीं है—अब इसे हर कोण से समझने की ज़रूरत है।”

हिंदू समाज की विभाजनकारी स्थिति और एकता की आवश्यकता

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भारत में हिंदू समाज, जो जनसंख्या के लगभग 79.8% हिस्से का प्रतिनिधित्व करता है, संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक है। हालांकि, यह संख्यात्मक बहुलता सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता में परिवर्तित नहीं हो पाई है। हिंदू समाज जाति, वर्ग, क्षेत्रीयता और सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर कई हिस्सों में बंटा हुआ है। आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग, और सवर्णों में भी ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ जैसे उप-समूहों की मौजूदगी इस विभाजन को और गहरा करती है। इस लेख में हम इस बात पर चर्चा करेंगे कि हिंदू समाज की यह खंडित स्थिति उनकी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति को कमजोर करती है और इसे कैसे समझा और संबोधित किया जा सकता है।

हिंदू समाज का विभाजन: एक जटिल संरचना

हिंदू समाज की संरचना ऐतिहासिक, सामाजिक और सांस्कृतिक कारकों का परिणाम है। इसकी जटिलता को निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है:

1. जातिगत विभाजन

हिंदू समाज में जाति एक केंद्रीय विभाजक कारक रही है। सवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), दलित, और आदिवासी जैसे समूहों में समाज का बंटवारा सामाजिक और आर्थिक असमानताओं को बढ़ाता है। प्रत्येक समूह की अपनी परंपराएं, हित, और सामाजिक स्थिति हैं, जो एक सामान्य हिंदू पहचान को कमजोर करती हैं। उदाहरण के लिए, सवर्ण समुदायों में भी ब्राह्मण और ठाकुर जैसे समूहों के बीच प्रतिस्पर्धा और तनाव देखा जाता है।

2. आदिवासी और क्षेत्रीय विविधता

आदिवासी समुदाय, जो हिंदू समाज का हिस्सा माने जाते हैं, अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं के कारण मुख्यधारा के हिंदू समाज से अलग-थलग रहे हैं। क्षेत्रीयता भी एक बड़ा कारक है—उत्तर भारत, दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर, और पश्चिमी भारत के हिंदुओं की धार्मिक प्रथाएं, भाषा, और सामाजिक संरचना अलग-अलग हैं। यह विविधता एकता में बाधा बनी है।

3. आर्थिक और सामाजिक असमानता

हिंदू समाज में आर्थिक असमानता भी एक बड़ा विभाजक है। सवर्ण समुदायों का एक हिस्सा आर्थिक रूप से संपन्न है, जबकि दलित, आदिवासी, और OBC समुदायों का बड़ा हिस्सा सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित है। यह असमानता सामाजिक एकजुटता को कमजोर करती है, क्योंकि विभिन्न समूह अपने हितों को प्राथमिकता देते हैं।
राजनीतिक दलों की भूमिका: विभाजन को बढ़ावा देना
कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल जैसे राजनीतिक दल हिंदू समाज के इस विभाजन का उपयोग अपने वोट बैंक को मजबूत करने के लिए करते हैं। ये दल विभिन्न जातियों और वर्गों को अलग-अलग वादों और योजनाओं के माध्यम से लुभाते हैं, जिससे हिंदू समाज की एकता और कमजोर होती है। कुछ प्रमुख रणनीतियां इस प्रकार हैं:
1.जाति आधारित राजनीति: समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दल यादव, कुर्मी, और अन्य OBC समुदायों को लक्षित करते हैं, जबकि दलितों को बसपा जैसे दल अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं। कांग्रेस ने भी विभिन्न अवसरों पर दलित और OBC समुदायों को आरक्षण और कल्याणकारी योजनाओं का लालच देकर वोट मांगे हैं।
2. आदिवासी और क्षेत्रीय मुद्दे: आदिवासी समुदायों को अलग-अलग क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस ने अपने पक्ष में करने के लिए उनकी सांस्कृतिक और आर्थिक मांगों को उठाया है, लेकिन यह अक्सर मुख्यधारा के हिंदू समाज से उन्हें और अलग करता है।
3. सवर्ण बनाम गैर-सवर्ण: कुछ राजनीतिक दल सवर्ण समुदायों को “वर्चस्ववादी” बताकर गैर-सवर्ण समुदायों को अपने पक्ष में करने की कोशिश करते हैं, जिससे सामाजिक तनाव बढ़ता है।
इस तरह की राजनीति ने हिंदू समाज को “अगड़ा,” “पिछड़ा,” “दलित,” और “आदिवासी” जैसे खांचों में बांट दिया है, जिससे एक समग्र हिंदू पहचान बनाना मुश्किल हो गया है।
हिंदू समाज की स्थिति: बहुसंख्यक, फिर भी कमजोर
संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक होने के बावजूद, हिंदू समाज की यह खंडित स्थिति उनकी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति को कमजोर करती है। कुछ प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:
1. आंतरिक मतभेद: जातिगत और क्षेत्रीय मतभेदों के कारण हिंदू समाज किसी एक मुद्दे पर एकजुट होकर आवाज नहीं उठा पाता। उदाहरण के लिए, धार्मिक सुधारों या मंदिरों के प्रबंधन जैसे मुद्दों पर भी विभिन्न समूहों के बीच सहमति नहीं बन पाती।
2. राजनीतिक उपेक्षा: हिंदू समाज के विभिन्न हिस्सों को अलग-अलग राजनीतिक दलों द्वारा अपने हितों के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जिससे कोई एक दल हिंदू समाज के समग्र हितों का प्रतिनिधित्व नहीं करता।
3. सामाजिक असमानता: दलित और आदिवासी समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय और आर्थिक असमानता ने हिंदू समाज के भीतर एक गहरी खाई पैदा की है, जिसे पाटना आसान नहीं है।
समाधान: हिंदू समाज में एकता की ओर कदम
हिंदू समाज की इस खंडित स्थिति को सुधारने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
1. सामाजिक सुधार: जातिगत भेदभाव को कम करने के लिए सामाजिक सुधार आंदोलनों को बढ़ावा देना चाहिए। शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से सभी हिंदू समुदायों को एक साझा पहचान के तहत लाया जा सकता है।
2.सामुदायिक संवाद: विभिन्न जातियों और वर्गों के बीच संवाद को बढ़ावा देना चाहिए। धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजनों में सभी समुदायों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए।
3.आर्थिक समानता: दलित, आदिवासी, और OBC समुदायों के लिए शिक्षा, रोजगार, और आर्थिक अवसरों को बढ़ाकर सामाजिक-आर्थिक असमानता को कम किया जा सकता है।
4.राजनीतिक जागरूकता: हिंदू समाज को यह समझने की जरूरत है कि उनकी खंडित स्थिति का उपयोग राजनीतिक दल अपने हितों के लिए करते हैं। एकजुट होकर सामाजिक और धार्मिक मुद्दों पर आवाज उठाने की जरूरत है।
5. सांस्कृतिक एकता: हिंदू धर्म की साझा परंपराओं, जैसे रामायण, महाभारत, और प्रमुख त्योहारों (दीवाली, होली) को सभी समुदायों के बीच एकता के प्रतीक के रूप में प्रचारित किया जा सकता है।

हिंदू समाज, हालांकि संख्यात्मक रूप से बहुसंख्यक है, लेकिन जाति, वर्ग, और क्षेत्रीयता के आधार पर बंटा हुआ है। यह विभाजन उनकी सामाजिक और राजनीतिक शक्ति को कमजोर करता है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, और राष्ट्रीय जनता दल जैसे दलों की वोट बैंक राजनीति ने इस विभाजन को और गहरा किया है। हिंदू समाज को एकजुट करने के लिए सामाजिक सुधार, आर्थिक समानता, और सांस्कृतिक एकता पर ध्यान देना होगा। केवल एकजुट होकर ही हिंदू समाज अपनी वास्तविक शक्ति को पहचान सकता है और देश के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में प्रभावी भूमिका निभा सकता है।

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