BRIEF OF RISHIKESH-KARNAPRAYAG NEW BG RAIL LINK PROJECT

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Dehradun : The new Broad Gauge (BG) Railway line between Rishikesh and Karnaprayag is an important developmental project in the state of Uttarakhand. The objective of providing Rail link between Rishikesh and Karnaprayag is for facilitating easy access to pilgrimage centers situated in the state of Uttarakhand and to connect new trade centers along with development of backward areas and to serve the population living in the area. It is expected that such a link will result in a considerable reduction in travel time and cost. This rail link will open up opportunities for industrial development, cottage industry in the area, boost the economy and tourism prospects in the state. The proposed railway line will connect important towns like Devprayag, Srinagar, Rudraprayag, Gauchar and Karnaprayag through 5 districts of Dehradun, Tehri Garhwal, Pauri Garhwal, Rudraprayag and Chamoli.

Final Location Survey (FLS): Considering the topographical constraints and challenges, FLS made use of latest technology and took the benefit of the expertise of international consultants, institutes of repute and eminent experts in the fields of tunnelling, bridges, railway etc. at the planning stage itself.

In view of the importance of the project, the work of proof consultancy was given to IIT-Roorkee, a premier institute of repute in the country with Director, IIT Roorkee heading the team.

To overcome constraints of accessibility imposed by rugged topography and to reduce the time frame for the FLS work, State of the Art surveying technique based on satellite imagery was used. Highest resolution stereo satellite imagery available in the world for civilian use with 50cm resolution captured by US World View-2 (WV-2) Satellite were used to develop aA high accuracy (≈2m) Digital Elevation Model (DEM), much superior to Google Earth, in a corridor of 2.5km either side of alignment finalized in RECT Survey.

The construction of railway line in rugged Himalayan topography with complex geology will pose risks/uncertainties and technical challenges which will demand necessary safeguards at the initial design stage itself to minimize risks and difficulties later during construction and operation stages. With these considerations, RVNL appointed a committee of Experts (EC) of international repute in the field of railway line construction in hilly areas. The Expert Committee comprised three eminent Experts – (i) Sh. M Ravindra, (Ex-Chairman Railway Board) Railway expert (ii) Dr. J Golshar of M/s Geoconsult Austria, International tunnel expert and (iii) Dr. V K Raina, International bridge expert. The EC carried out field visits and gave its recommendations which were incorporated in the selection of alignment.

With a view to limit the impediments which might arise during project implementation and to have inputs from the Uttarakhand Government, RVNL held consultations with State authorities to discuss take off alternatives at Rishikesh and other issues like land acquisition and forest clearances.

Final alignment has 12 new stations, 16 main tunnels and 19 major bridges covering 5 districts of the state of Uttarakhand and runs along Alaknanda river covering major habitation:

महिला को Consumerr Goods समझने वाली सोच

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रंगनाथ

पिछले साल मेरे एक IAS मित्र ने कहा कि उनकी एक सहकर्मी IAS महिला कहती हैं कि वो इस बात के लिए मानसिक रूप से रेडी रहती हैं कि उन पर कभी भी “यौन हमला” हो सकता है! यह छोटी सी बात मेरे लिए इतनी शॉकिंग थी कि आज तक दिमाग में नाचती रहती हैै। वेंटीलेटर पर इलाज करा रही मॉडल से लेकर स्पोर्टस वुमेन बनने के लिए रोज ग्राउण्ड जाने वाली महिला से लेकर अन्य तमाम तरह की महिलाओं के केस पूरे देश में जिस तरह आते जा रहे हैं, उसे देखकर मुझे अब खुद लगने लगा है कि हर औरत “सेक्सुअल असाल्ट” और मर्दों की मूक गुलामी के साये के तहत जी रही है!

देश की बहुत सारी फर्जी और दोगली नारीवादियाँ राजनीतिक दलों और अन्य संगठनों की तन-मन-धन से गुलाम बन चुकी हैं। उनकी देह वहीं विरोध प्रदर्शन के लिए खड़ी होती है जहाँ के लिए उन्हें आदेश मिलता है। उनका मन वहीं बगावत में मुट्ठी उठाता है जहाँ के लिए उन्हें अनुमति मिली हुई है। उनका धन वहीं खर्च होता है जहाँ उनके निजी सुख निहित हैं।

पिछले तीन-चार साल में महिलाओं के संग अपराध के जितने भी मामले मेरी नजर में आए हैं उनमें सबसे अलग एंगल है सोशलमीडिया के माध्यम से लड़कियों से दोस्ती करना और फिर उन्हें अपराध का शिकार बनाना। टीनएज में यौन आकर्षण स्वाभाविक है मगर अब ये आकर्षण गली-मोहल्ले-स्कूल के लड़कों के प्रति होने के बजाय सोशलमीडिया से विकसित हो रहा है। यानी पीड़िताएँ इन लड़कों को ठीक से जानती तक नहीं थीं। उनकी पृष्ठभूमि इत्यादि जानने का सवाल ही नहीं उठता है। न ही लड़कों पर अपने परिवार, पड़ोस और समाज का दबाव रहता है। वरना ऐसे कैसे हो सकता है कि कोई लड़का किसी लड़की को पसन्द करता है और उसे किसी लूट के सामान की तरह अपने साथियों के बीच बाँट सकता है! ऐसी सोच बर्बर कबीलाई कही जाती थी मगर ये लड़के हजार साल पहले के किसी बर्बर पिछड़े कबीले के सदस्य नहीं हैं बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक देश के निवासी हैं।

सिनेमा, वेबसीरीज, मीडिया और साहित्य ने यौनिकता को लेकर देश की एक बड़ी आबादी की सोच बदल दी है। सम्बन्धों को लेकर 1990 से पहले पैदा हुई और उसके बाद पैदा हुई पीढ़ी के नजरिए में युगांतकारी परिवर्तन देखा जा सकता है। नई पीढ़ी के लिए यौन सुख और शराब की बोतल में ज्यादा अन्तर नहीं रहा! एक-दो केस की बात होती तो इसे अपवाद माना जा सकता था मगर देश के अलग-अलग हिस्सों से ऐसी वारदात लगातार सामने आ रही हैं जिसमें लड़कों ने लड़कियों को फुसलाकर फँसाया और उसे उसी तरह अपने बर्बर साथियों के साथ शेयर किया जैसे वे शराब या सिगरेट करते होंगे!

ऐसा नहीं है कि महिला को सिगरेट या शराब की तरह ट्रीट करने वाले नई उम्र के लड़के हैं। अधेड़ और बूढ़े भी घटिया साहित्य और सिनेमा पढ़-पढ़ कर अपने आसपास की महिलाओं को मानसिक संत्रास में जीने के मजबूर कर रहे हैं। यहाँ संत्रास का मतलब “घूरना”, “असहज तरीके से देखना” या हल्के बैड टच से उपजी असहजता की बात नहीं कर रहा। मैं गम्भीर किस्म के यौन अपराधों से उपजे संत्रास की बात कर रहा हूँ। मसलन, एंकर बनना है तो एडिटर के संग सोना होगा! असिस्टेंट प्रोफेसर बनना है तो फलाना के संग सोना होगा, या ऐसी ही अन्य शर्तें! आप समझ सकते हैं कि यह स्थितियाँ सामान्य वेश्यावृत्ति से भी ज्यादा अपमानजनक होती होंगी क्योंकि उसमें वनटाइम की डील है। पीड़िता अपने शोषत को अगले दिन देखने को मजबूर नहीं होती और उसमें पीड़िता की अन्य योग्यताओं के प्रति अविश्वास नहीं पैदा होता। न उसके आसपास के लोग लम्बे समय तक उसे याद दिलाते होंगे कि तुम इस योग्य नहीं हो मगर तुम्हें इसलिए यह पद मिला है!

ऐसे मसलों को उठाने पर कुछ लोग उन महिलाओं का सवाल उठाते हैं जो इस तरह की मर्दाना व्यवस्था की लाभार्थी हैं या वे मर्दों को छिछली यौनिकता का इस्तेमाल करना सीख जाती हैं। ऐसी किसी महिला को मैं बहुत ज्यादा दोषी नहीं मानता क्योंकि ऐसी ज्यादातर महिलाएं पॉवर पोजिशन में नहीं होती हैं बल्कि उनके सामने कोई ऐसा मर्द होता है जो उनसे ज्यादा उम्रदराज और समर्थ और उच्च पदासीन होते हैं। मसलन मोनिका लेविंस्की 20-22 साल की वल्नरेबल युवती थी मगर उसके सामने पैंट उतारना बिल क्लिंटन तो अमेरिका का राष्ट्रपति था! अमेरिका कैसा देश है जो ऐसे लंपटों को राष्ट्रपति बना देती है जो देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचकर भी अपने आसपास की महिलाओं को सेक्स टॉय समझते हैं! और अब तो अमेरिका इस मामले में क्लिंटन लेवल से काफी आगे बढ़ चुका है। मगर सवाल ये है कि क्या हिलेरी क्लिंटन की आत्मा मर गयी थी! जो इतने बड़े खुलासे के बाद भी उसी क्लिंटन के साथ चुनाव में हाथ हिलाती रही क्योंकि उसे राष्ट्रपति बनना है! उप-राष्ट्रपति तो वह बन भी गईं!
अगर महिला को Consumerr Goods समझने वाली सोच नीचे से ऊपर तक व्याप्त नहीं होती तो एक IAS महिला ऐसा न कहती कि वह यौन हमले के लिए मानसिक रूप से तैयार रहती है!

यह समस्या का एक साइड है। इसका दूसरा साइड ये है कि दुनिया में महिलाओं को पालतू गाय-बकरी जैसा पालूत जानवर समझने की मानसिकता भी बढ़ती जा रही है। इस सिस्टम में महिला का जन्मजात उद्देश्य ‘मर्द को खुश करना है’ तभी उसे जन्नत मिलेगी! अभी कुछ समय पहले पश्चिमी एशिया के एक देश में यह व्यवस्था लायी गयी कि 9 साल की बच्चियों को भी मर्दों को खुश करने की स्लेवरी में झोंका जा सकता है! मर्द चाहे तो एक नहीं चार बकरी पाल सकता है और उसका जैसे चाहे वैसे इस्तेमाल कर सकता है।

इस व्यवस्था की विडम्बना ये है कि इसे अब भारत समेत तमाम देशों में वामपंथियों और लिबरलों का केस टू केस बेसिस मौन या मुखर समर्थन हासिल है। इनका घटिया डिफेंस ये है कि ये उनके “रिलीजन का इंटर्नल मैटर” है! इंटर्नल मैटर माई फुट। मर्दों की बनायी ऐसी इनटर्नल मैटर की जेलों को देखकर मुझे देवी काली का प्रतीक रिलेवेंट और आज भी अप्लीकेबल प्रतीत होता है। मेरे ख्याल से दुनिया भर की महिलाओं को सारे रिलीजन छोड़कर खुद को शक्ति का उपासक घोषित कर देना चाहिए। जो मर्द गॉड महिलाओं को भेड़-बकरी समझता हो उसे देवलोक में जाकर देवी काली ही सबक सिखा सकती हैं। शायद यही कारण है कि ज्यादातर हिन्दू देवी-देवता बिना पत्नी के कहीं नहीं जाते! भगवान के मन में भी पत्नी का भय होना जरूरी है नहीं तो वे ऐसी दुनिया बना देंगे जिसमें महिलाएँ असुरक्षित रहेंगी!

एक समय था कि मैं मृत्युदण्ड को लेकर संशय में रहता था मगर अब मैं इसका समर्थक हो चुका हूँ। जो व्यक्ति दूसरों के जीने के अधिकार का सम्मान नहीं करता वह अपने जीवन का अधिकार उसी वक्त खो देता है। कल ही एक वीडियो वायरल था जिसमें एक दुष्ट किसी लड़की को कह रहा था कि वह जेल काटकर आया है इसलिए पुलिस से नहीं डरता! इतिहास गवाह है कि बर्बर सोच वाले अपराधी केवल और केवल डर की भाषा समझते हैं! अगर उनके मन में डर न हो तो वे अन्य लोगों को दिन-रात डर के साये में जीने को मजबूर करते रहेंगे!

एक बार फिर महिलाओं से अपील करूँगा कि वे महिला मुद्दों पर पोलिटिकल पार्टी, जाति, रिलीजन, प्रदेश इत्यादि की छोटी बाउंड्री से ऊपर उठकर एक महिला की तरह सोचें। अब कृपया उन महिलाओं की सूची न दें जो कानून इत्यादि का दुरुपयोग करके पुरुषों को प्रताड़ित कर रहीं हैं। निस्संदेह ऐसी महिलाएँ अपराधी हैं मगर उनको सजा देने के प्रावधान हमारे पास पहले से हैं मगर बिके हुए जज-वकील-पेशकार-सिपाही-थानेदार इत्यादि पीड़ित का खून पीने की अपनी गन्दी आदत छोड़ नहीं पाते हैं इसलिए कई पुरुष अमानवीय हद तक पीड़ित हो जाते हैं। अतः एक अपराध को दूसरे अपराध को छिपाने का जरिया न बनाएँ। यह आपराधिक मानसिकता के लक्षण हैं।

New Year festivity begins in India, Bangladesh, Myanmar, Thailand

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Guwahati: New Year festivity grips  Bangladesh, many parts of Bharat, Myanmar and other southeast Asian nations since the middle of  April in the Gregorian calendar, where the inhabitants celebrate the first day with traditional rituals, colourful events and marry-making  activities.  The people of Bangladesh celebrate New Year 1432 with a joyous Pohela Boishakh (first day of  Nababarsha that falls on 14 April). The Muslim majority south Asian nation hosts a series of  colourful processions, where the participants in traditional  attires adore music and visual artifacts to march on the streets, and other events greeting every dweller with good wishes. As usual a traditional procession (renamed  as Barshabaran Ananda Shobhajatra) came out from the campus of Dhaka University in the capital city of Dhaka on the occasion of Nababarsha. It was followed by a number of cultural programs organized at Bangladesh Shilpakala Academy, Bangla Academy, Bangladesh Folk Art & Crafts Foundation premises and several other public places across the country.

Even though Bangladesh has standardized  14 April as the first day of Bengali Nababarsha, the people of West Bengal (and many other parts of Bharat) observe the day (Poila Boishakh) mostly on the next day. The Assamese people observed seven-day Bohag (Rongali) Bihu to welcome the same new year 1432 (first day of Assamese new year falling on 15 April) following the Bhaskarabda era calendar). The era reflects the date of ascension of Bhaskara Barman, the seventh-century ruler of the giant Kamrup kingdom. The State government recognized Bhaskarabda (a lunisolar chart)  along with Saka and English calendars.

President Droupadi Murmu and  Prime Minister Narendra Modi greeted the people on the occasion of Bohag Bihu, Vaisakhi, Vishu, Poila Boishakh, Meshadi, Vaishakhadi and Puthandu Pirapu. Assam Governor Lakshman Prasad Acharya and State chief minister Himanta Biswa Sarma also wished the people on Goru Bihu that symbolises the importance of farming in the life of the people of the State. “Today, Assam observes one of its most sacred and meaningful traditions — Goru Bihu, the first and most spiritually significant day of the Rongali Bihu celebrations. This day is dedicated to the worship of the cow (Gomata), who holds a divine place in Sanatan Hindu Dharma as the eternal nurturer, a symbol of motherhood, sustenance, and purity,” said Guv Acharya.

India’s another neighbour Myanmar celebrates its five-day new year Thingyan festival from 13 April, where 17 April marks the beginning of new year 1386 in the Arakanese (Rakhine) calendar. The festival witnesses water-splashing rituals among young men and women as well as community distribution of  flowers with fragrance and  illumination of pagodas and monasteries across the Buddhist majority nation. However, the civil war and disaster-torn Myanmar has celebrated the festival with melancholy this time while paying respect to all the victims of circumstances. The people of Thailand celebrate Songkran to welcome Buddhist calendar year 2568. Also known as  Thai Water Festival , always falls on 13 to 15 April,  the festival has legends connecting Hindu God Indra, who is believed to come to earth for  bathing Lord Buddha during the period.  Similar vibrant festivals are organized in Laos, Cambodia and some areas of China.

On the eve of Nababarsha, Professor Muhammad Yunus, chief adviser to the interim government in Dhaka, called upon countrymen to work together for creating a discrimination-free Bangladesh, where every citizen remains  happy, peaceful and progressive. The lone Nobel laureate of Bangladesh, Prof Yunus sent a video message wishing everyone a joyous Pohela Boishakh and commented that the festival remains a day of harmony and great reunion. It helps the entire nation, irrespective of their religions, castes or creeds, to revitalize with a new spirit and commitment. Despite differences in beliefs and customs, the Hindus, Muslims, Buddhists, Christians, and the various communities living on the mountains, valleys and plans of Bangladesh are all part of one family, stated the octogenarian gentleman asserting that all citizens are united by a rich diversity of language, culture, and traditions.

भारतीय के संविधान 75 साल, जारी है संस्थापकों के दृष्टिकोण और मूल्यों का प्रतिनिधित्व

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शौनक मुखर्जी

चेन्नई : आज जब हम भारतीय विधिवेत्ता, समाज सुधारक, अर्थशास्त्री और राजनीतिक नेता डॉ. बी.आर. अंबेडकर की 134वीं जयंती मना रहे हैं, तो हमारे लिए भारत जैसे नए स्वतंत्र देश के निर्माण में उनके द्वारा किए गए योगदान को फिर से याद करना बहुत ज़रूरी है। एक विद्वान होने के नाते, डॉ. अंबेडकर को उन मुद्दों में गहरी दिलचस्पी थी जो देश की प्रगति में बाधा डाल रहे थे। हम उन्हें 1947 में गठित संविधान सभा की मसौदा समिति के अध्यक्ष के रूप में आसानी से पहचान सकते हैं, जिसका लक्ष्य संविधान का अंतिम मसौदा प्रस्तुत करना था। 29 अगस्त, 1947 को अपनी स्थापना के बाद से, मसौदा समिति ने भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

भारत के लोगों द्वारा बनाया गया और खुद को दिया गया पहला संविधान 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। 26 जनवरी, 1950 को इसका पूर्ण संचालन शुरू हुआ। यह एक ऐसा अवसर था जिसके दौरान हमारे देश ने उन सरकारी संरचनाओं के लिए मूलभूत ढाँचा स्थापित किया जो हमें नियंत्रित करेंगे। इसने राज्य के तीन मुख्य अंगों का निर्माण किया: विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। यह उनकी क्षमताओं को निर्दिष्ट करता है, उनकी ज़िम्मेदारियों को रेखांकित करता है, और एक दूसरे के साथ और जनता के साथ उनके संबंधों को नियंत्रित करता है। इसकी खूबियों के बावजूद, कई लोग इस मानसिकता के हैं कि संविधान एक अप्रासंगिक दस्तावेज़ है जिसे केवल इसकी बौद्धिक सामग्री के लिए सराहा जाना चाहिए और यह नागरिकों को कवितापूर्ण सामान्य बातों और भव्यता के वाक्यांशों के अलावा कुछ भी नहीं देता है।

इस संदर्भ में, कई जाने-माने राजनीतिक प्रबंधन विशेषज्ञों ने कड़ी आपत्ति जताते हुए दावा किया कि किसी देश के संविधान को सिर्फ़ एक निष्क्रिय दस्तावेज़ के रूप में देखना गलत है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान सिर्फ़ शब्दों से कहीं ज़्यादा होता है। संविधान एक जीवित इकाई है जो कार्यात्मक संस्थाओं से बना होता है। यह हमेशा विस्तार और विकास कर रहा होता है। हर संविधान को अर्थ और विषय-वस्तु सिर्फ़ इस बात से मिलती है कि इसे किस तरह और किन लोगों द्वारा संचालित किया जाता है, इसे कैसे संचालित किया जाता है, इसके प्रभाव, देश की अदालतों द्वारा इसकी व्याख्या कैसे की जाती है, और इसके काम करने की वास्तविक प्रक्रिया में इसके इर्द-गिर्द विकसित होने वाली परंपराएँ और प्रथाएँ – ‘चाहे वह वैचारिक “वादों” का एक अमूर्त टुकड़ा हो या देश की प्रगति/विकास का रोडमैप बनाने वाला एक स्पंदित दस्तावेज़, एक संविधान निश्चित है।’

यह अन्य स्थापित राष्ट्रों या राज्य संविधानों से प्रभावित था। इसमें एकात्मक संघीय प्रारूप का एक सुंदर मिश्रण है – देश का विशाल आकार और धर्म, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति आदि के कारण होने वाली असंख्य विविधताएँ। आयरिश संविधान में विभिन्न नीतिगत ढाँचे हैं जिन्हें राज्य समाज के लाभ के लिए लागू कर सकता है। इसे ‘राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत’ के रूप में जाना जाता है, जिसके तहत राज्य सामाजिक-आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लिए कानून बना सकता है। हालाँकि, इन मार्गदर्शक सिद्धांतों को कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है; वे केवल राष्ट्र के प्रशासन में सरकार का मार्गदर्शन करने का काम करते हैं। एक सिद्धांतकार के अनुसार, ‘वे राज्य के सामने संस्थापक पिताओं द्वारा रखे गए आदर्शों की प्रकृति में हैं, और राज्य के सभी अंगों को उन्हें प्राप्त करने के लिए काम करना चाहिए।’

इस संबंध में डॉ. बी.आर. अंबेडकर के राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत, जो संविधान के चौथे भाग में दिखाई देते हैं, एक महत्वपूर्ण योगदान थे। वे विशिष्ट और दिलचस्प हैं क्योंकि वे संविधान के संस्थापकों की आशाओं और आकांक्षाओं को दर्शाते हैं। कहा गया कि ये खंड किसी भी अदालत में लागू करने योग्य नहीं हैं, लेकिन वे देश की सरकार के लिए महत्वपूर्ण हैं, और कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य की जिम्मेदारी है।

डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर के अनुसार, निर्देशक सिद्धांत केवल निर्देशों के साधनों का दूसरा नाम है। वे विधायिका और कार्यपालिका के लिए निर्देश हैं। सत्ता में बैठे किसी भी व्यक्ति को उनका सम्मान करना चाहिए।

हमारा संविधान सबसे लंबा है। यह इसलिए लंबा है क्योंकि यह अत्यंत व्यापक है और इसमें राष्ट्र के शासन के लिए उपयुक्त विस्तृत विषय शामिल हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान के प्रारूपकार नहीं चाहते थे कि कुछ मामले विवाद और चर्चा के विषय बनें। शासन से संबंधित अधिकांश चीजों को स्पष्ट और पारदर्शी बनाने की आवश्यकता ने भारतीय संविधान को संपूर्ण बना दिया है। भारतीय स्थिति के आकार, जटिलताओं और विविधताओं ने देश के कुछ क्षेत्रों या वर्गों के देश के लिए कई विशेष, अस्थायी, संक्रमणकालीन और विविध प्रावधानों की भी आवश्यकता जताई।

डॉ. अंबेडकर ने हमेशा विनम्रता बनाए रखी, जब उन्हें उनके असाधारण और अद्वितीय श्रम के लिए सराहा गया। उन्होंने अक्सर कहा कि भारत को स्वतंत्रता मिलने से सदियों पहले संसद या संसदीय प्रक्रियाओं के बारे में पता था। बौद्ध भिक्षु संघों के एक अध्ययन से पता चला है कि न केवल संसदें अस्तित्व में थीं, बल्कि संघ आधुनिक समय में ज्ञात संसदीय प्रक्रिया के सभी मानदंडों से अच्छी तरह वाकिफ थे और उनका पालन करते थे। उनके पास बैठने की व्यवस्था, प्रस्ताव, संकल्प, कोरम, मतगणना और मतपत्र मतदान के अलावा अन्य चीजों के लिए नियम थे। ऐसा कहा जाता है कि, जबकि बुद्ध ने संसदीय प्रक्रिया के उपर्युक्त सिद्धांतों को संघ की बैठकों में अपनाया, उन्होंने ऐसा उस समय देश की राजनीतिक विधानसभाओं के नियमों से उधार लेकर किया।

निष्कर्ष रूप में, अपनी स्थापना के 75 वर्ष बाद भी, भारतीय संविधान अपने संस्थापकों के दृष्टिकोण और आदर्शों को मूर्त रूप दे रहा है, क्योंकि यह लोगों के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक चरित्र, धर्म और महत्वाकांक्षाओं पर आधारित है।

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