ताज नगरी की चांदी की चमक: आगरा की पायल और सिल्वर वेयर इंडस्ट्री को GI टैग की दरकार

Taj-Mahal.jpg.webp

Caption: Times of India

उत्तर प्रदेश ने एक बार फिर देश में सबसे ज्यादा जीआई (Geographical Indication – GI) टैग हासिल करके इतिहास रच दिया है। राज्य के 77 उत्पादों को यह विशिष्ट पहचान मिल चुकी है, जिनमें आगरा के लेदर शूज और कालीन भी शामिल हैं। लेकिन अब शहर की मशहूर सिल्वर वेयर इंडस्ट्री खासकर पायल (चांदी के पैरों के गहने) और हस्तनिर्मित चांदी के आभूषणों, को भी इसका हक़ मिलना चाहिए।

आगरा में 3,000 से ज्यादा छोटी-बड़ी यूनिट्स चांदी के गहने बनाने में लगी हैं, जिनका सालाना कारोबार 3,500 करोड़ रुपये से अधिक है। इस उद्योग से ढाई लाख से ज्यादा कारीगरों को रोजगार मिलता है। अगर स्थानीय सांसद और विधायक इस दिशा में पहल करें, तो आगरा की सिल्वर वेयर इंडस्ट्री न सिर्फ देश में, बल्कि वैश्विक बाजार में भी अपनी धाक जमा सकती है।

स्थानीय व्यापारिक संगठनों का कहना है कि उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार को आगरा की सिल्वर वेयर इंडस्ट्री के लिए तुरंत GI टैग की प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए। साथ ही, कारीगरों को आधुनिक ट्रेनिंग, मार्केटिंग सपोर्ट और वित्तीय सहायता भी मुहैया कराई जानी चाहिए।

आगरा विश्वविद्यालय को भी इस दिशा में पहल करते हुए सिल्वर वेयर डिजाइनिंग और मैन्युफैक्चरिंग में विशेष कोर्सेज शुरू करने चाहिए, ताकि नई पीढ़ी इस कला को सीख सके।

आगरा की चांदी की चमक दुनिया भर में बिखेरने का वक्त आ गया है।

कभी जूता, पेठा, फाउंड्रीज़, मार्बल इनले वर्क, कालीन और कांच उद्योग के लिए मशहूर रहा आगरा, अब चांदी के गहने, सजावटी पीसेस, बर्तन के मैदान में भी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है। अपनी बेमिसाल चांदी की कारीगरी के लिए भी अब यह शहर जाना जा रहा है। शहर की नायाब चांदी की कारीगरी भी देश-दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना रही है। पायल और ब्रेसलेट बनाने का यह सबसे बड़ा हब बन चुका है, जहाँ सैकड़ों हुनरमंद कारीगर सदियों पुरानी विरासत को आज भी ज़िंदा रखे हुए हैं। आगरा की चांदी की चीज़ों में मुग़ल दौर की झलक मिलती है—मीनाकारी, ज़रदोज़ी और फ़िलिग्री जैसी तकनीकों से बने गहनों को देखकर हर कोई दंग रह जाता है।

यहाँ के माहिर कारीगर सदियों से चांदी के नाज़ुक जेवरात, पायल, ब्रेसलेट और सजावटी सामान बनाते आए हैं। लेकिन आज इस पारंपरिक कला को बाज़ार में नकली उत्पादों और बेरोज़गारी का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में, जियोग्राफिकल इंडिकेशन (Geographical Indication – GI) टैग का मिलना आगरा की सिल्वर वेयर इंडस्ट्री के लिए एक नई ज़िंदगी साबित हो सकता है।

GI टैग किसी उत्पाद को उसके असल मक़ाम से जोड़कर उसकी ख़ास पहचान को यक़ीनी बनाता है। यह टैग मिलने पर सिर्फ उसी इलाके के कारीगर उस उत्पाद को उस नाम से बेच सकते हैं। भारत में अब तक कश्मीरी पश्मीना, बनारसी साड़ी और दार्जिलिंग चाय जैसे उत्पादों को GI टैग मिल चुका है।

आगरा की चांदी की पायल और ब्रेसलेट्स न सिर्फ हिंदुस्तान बल्कि विदेशों में भी बहुत पसंद की जाती हैं। लेकिन बाज़ार में मिलावट और नकली उत्पादों के कारण असली कारीगरों को नुकसान उठाना पड़ रहा है।

अगर भौगोलिक पहचान मुकम्मल हो जाती है, तो इस इंडस्ट्री को एक ज़बरदस्त बूस्ट मिलेगा। GI टैग मिलने से सिर्फ आगरा के पंजीकृत कारीगर ही “आगरा सिल्वर वेयर” के नाम से अपने उत्पाद बेच पाएँगे। इससे स्थानीय कारीगरों को उनकी मेहनत का सही मुआवज़ा मिलेगा और उनकी आमदनी बढ़ेगी। नौजवानों को इस खानदानी कला को सीखने और आगे बढ़ाने का हौसला मिलेगा। आगरा के चांदी के उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में ब्रांड वैल्यू मिलेगी, जिससे निर्यात बढ़ेगा। पर्यटक आगरा की चांदी की कारीगरी को देखने और खरीदने के लिए प्रेरित होंगे।

आगरा के सिल्वर आर्टिसन कहते हैं, “हमारे बुज़ुर्गों ने सदियों से यह हुनर संभालकर रखा है, लेकिन आज बाज़ार में चीन और मशीन से बने सस्ते उत्पादों के कारण हमारा काम मुश्किल हो गया है। अगर हमें GI टैग मिल जाए, तो हमारी कला को नई पहचान मिलेगी।”

आगरा सर्राफा एसोसिएशन के अध्यक्ष नितेश अग्रवाल ने बताया कि आगरा भारत में चांदी के जेवरात और पायल के प्रमुख उत्पादन केंद्रों में से एक है। यहाँ सदियों से हस्तशिल्प कौशल परवान चढ़ा है और बड़ी संख्या में कारीगर इस काम में लगे हुए हैं। यहाँ विभिन्न प्रकार के चांदी के आभूषण बनाए जाते हैं, जिनमें शामिल हैं: पायल (Anklets): जेवरात (Jewellery): अन्य वस्तुएं: चांदी के सिक्के, मूर्तियाँ और सजावटी सामान भी तैयार किए जाते हैं।

उत्पादन बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र में होता है, जिसमें छोटे कारखाने और घरेलू इकाइयाँ शामिल हैं। कुछ बड़े निर्माता भी हैं जो निर्यात-उन्मुख हैं। इस उद्योग में बड़ी संख्या में हुनरमंद और अर्ध-कुशल मजदूर कार्यरत हैं। यह क्षेत्र रोज़गार का एक महत्वपूर्ण स्रोत है, खासकर पारंपरिक कारीगर समुदायों के लिए।

आगरा सर्राफा मैन्यूफैक्चरर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष बृजमोहन रैपुरिया ने कहा कि आगरा में चांदी के जेवरात और पायल के लिए कई बाज़ार मौजूद हैं: किनारी बाज़ार: यह आगरा का सबसे पुराना और सबसे बड़ा थोक और खुदरा बाज़ार है। यहाँ आपको चांदी के जेवरात, पायल और अन्य सामान की एक विस्तृत श्रृंखला मिलेगी। सदर बाज़ार: यह एक और महत्वपूर्ण बाज़ार है जहाँ चांदी के आभूषणों की दुकानें हैं, खासकर पर्यटकों के लिए। कश्मीरी बाज़ार: यह भी एक व्यस्त बाज़ार है जहाँ चांदी के आभूषण मिलते हैं। ऑनलाइन बाज़ार: हाल के वर्षों में, आगरा के कई निर्माताओं और व्यापारियों ने ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के माध्यम से भी अपने उत्पादों को बेचना शुरू कर दिया है। इसके अलावा, शहर भर में, पथवारी, शाह गंज में कई छोटी दुकानें और शोरूम भी हैं जहाँ चांदी के जेवरात और पायल उपलब्ध हैं।

आगरा चांदी के जेवरात का एक महत्वपूर्ण हब बन चुका है। यहाँ के बने हुए पायल और अन्य आभूषणों की विदेशों में भी मांग है। यहां कई कंपनियाँ हैं जो चांदी के जेवरात के निर्यात में सक्रिय हैं और उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘सिल्वर ज्वैलरी का सबसे बड़ा निर्यातक’ के रूप में सम्मानित भी किया गया है। मुख्य रूप से स्टर्लिंग चांदी (92.5% शुद्धता वाली चांदी) के आभूषणों का निर्यात किया जाता है।

चांदी व्यवसायी असोक कुमार अग्रवाल, विकास वर्मा, देवेन्द्र गोयल ने बताया कि आगरा में चांदी के जेवरात और पायल उद्योग का भविष्य उज्जवल दिख रहा है, जिसके कई कारण हैं: बढ़ती मांग: चांदी के आभूषणों की मांग घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रही है। युवा पीढ़ी भी अब सोने के साथ-साथ चांदी के आधुनिक और ट्रेंडी डिज़ाइनों को पसंद कर रही है। सोने की तुलना में चांदी अधिक किफायती है, जिससे यह व्यापक उपभोक्ता वर्ग के लिए सुलभ है। अब चांदी के आभूषणों में पारंपरिक के साथ-साथ आधुनिक और समकालीन डिज़ाइन भी उपलब्ध हैं, जो युवाओं को आकर्षित करते हैं। आगरा एक प्रमुख पर्यटन केंद्र है, और यहाँ आने वाले पर्यटक चांदी के जेवरात और पायल को स्मृति चिन्ह के रूप में खरीदते हैं, जिससे स्थानीय बाज़ार को बढ़ावा मिलता है। ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के माध्यम से, आगरा के निर्माता अब देश और दुनिया के व्यापक बाज़ार तक पहुँच सकते हैं। आगरा की चांदी की कारीगरी न सिर्फ शहर की पहचान है, बल्कि भारत की सांस्कृतिक धरोहर भी है। GI टैग मिलने से यह पारंपरिक कला फिर से ज़िंदा होगी और हज़ारों कारीगरों को इंसाफ मिलेगा। यह वक़्त का तक़ाज़ा है कि सरकार और समाज मिलकर इस अनोखी विरासत को बचाने के लिए आगे आएँ।

Share this post

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal

Brij Khandelwal of Agra is a well known journalist and environmentalist. Khandelwal became a journalist after his course from the Indian Institute of Mass Communication in New Delhi in 1972. He has worked for various newspapers and agencies including the Times of India. He has also worked with UNI, NPA, Gemini News London, India Abroad, Everyman's Weekly (Indian Express), and India Today. Khandelwal edited Jan Saptahik of Lohia Trust, reporter of George Fernandes's Pratipaksh, correspondent in Agra for Swatantra Bharat, Pioneer, Hindustan Times, and Dainik Bhaskar until 2004). He wrote mostly on developmental subjects and environment and edited Samiksha Bharti, and Newspress Weekly. He has worked in many parts of India.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

scroll to top